CPC@100: जब चीनी सपने ने भरी उड़ान!

बहरहाल, इस दौर में चीन जिस दिशा में चला है, उससे यह तो साफ है कि वह मार्क्सवादी समाजवाद की शास्त्रीय समझ के अनुरूप नहीं है। उसके वैश्विक प्रभाव को देखते हुए उस पर साम्राज्यवादी रास्ते पर चलने के आरोप भी इसी वजह से लगे हैं। इसीलिए पश्चिम के बहुत से वामपंथी भी चीन और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ रहे टकराव को दो पूंजीपति शक्तियों के टकराव के रूप में पेश करते हैं।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल-6

 

जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी  छठवीं कड़ी-संपादक

 

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव जियांग जेमिन ने साल 2000 में एक नया सिद्धांत दिया, जिसका संबंध पार्टी के चरित्र से था। इसे Three Represents यानी तीन प्रतिनिधित्व का सिद्धांत कहा जाता है। सीपीसी आज भी इसी सिद्धांत पर चल रही है। इस सिद्धांत के मुताबिक,

गौरतलब है कि इस सिद्धांत में सर्वहारा या शोषित वर्ग के प्रतिनिधित्व की बात छोड़ दी गई है। उसे जनता की व्यापक बहुसंख्या में समाहित समझा गया है। उन्नत उत्पादक शक्तियों का मतलब उद्यमी वर्ग है, जिसे परंपरागत या शास्त्रीय कम्युनिस्ट विमर्श में बुर्जुआ कहा जाता रहा है। 2002 में जब हर पांच साल पर होने वाली सीपीसी की कांग्रेस (महाधिवेशन) में इस सिद्धांत को अपना लिया गया, तो बहुत से हलकों में यह कह कर सीपीसी की आलोचना हुई कि उसने वर्ग आधारित प्रतिनिधित्व और प्रकारांतर में वर्ग संघर्ष की बात छोड़ दी है, जो मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्टालिन-माओ विचारधारा का मूल आधार है। 2002 में हू जिनताओ पार्टी के महासचिव बने। उनके कार्यकाल के दस साल में पार्टी में कोई बड़ा सैद्धांतिक बदलाव देखने को नहीं मिला। उस दौरान सीपीसी और चीन कुल मिला कर देंग-जियांग जेमिन के मार्ग पर आगे बढ़ी। इस दौरान ‘उन्नत उत्पादक शक्तियों’ का प्रभाव पार्टी और समाज पर बढ़ा। यही दौर है, जब चीन में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की शिकायतें सामने आईं। दूसरी ओर पूंजीवादी आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियां भी समाज में गहरी हुईं। मगर अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीन hide strength, bide time के मंत्र का पालन करते हुए अपनी घरेलू समृद्धि को बढ़ाने में जुटा रहा।

सीपीसी के ये दिशा कुछ और स्पष्ट हुई, जब 2012 में शी जिनपिंग पार्टी महासचिव बने। शी जिनपिंग ने तब कहा- ‘चीन का सपना (The Chinese Dream) चीनी राष्ट्र का महान पुनरुत्थान है।’ तब उन्होंने ‘दो शताब्दी समारोहों’ तक के लिए अपने लक्ष्य घोषित किए। कहा कि 2021 में सीपीसी की शताब्दी पूरी होने तक चीन का मकसद एक औसत समृद्ध समाज बनना होगा। उसके बाद 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के सौ साल पूरे होने तक उद्देश्य एक पूर्ण विकसित देश बनना होगा। चीन अब उसी दिशा में चल रहा है। कहा जा सकता है कि 2021 तक का लक्ष्य उसने प्राप्त कर लिया है।

शी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार से संघर्ष और जन कल्याण की वैसी नीतियों पर भी जोर रहा है, जिसे आम तौर सोशल डेमोक्रेटिक कहा जाता है। शी ने महासचिव बनते ही ‘भ्रष्ट बाघों और मक्खियों’ पर समान सख्ती से कार्रवाई की घोषणा की थी। यानी किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति को नहीं छोड़ा जाएगा, चाहे वो रसूखदार व्यक्ति हो या आम शख्स। बेशक इसके तहत कम्युनिस्ट पार्टी में ऊंची हैसियत पर रहे लोगों को भी सजा दी गई है। लेकिन इससे भ्रष्टाचार सचमुच कितना नियंत्रित हुआ है, ये जानने का हमारे पास कोई निष्पक्ष स्रोत नहीं है। सोशल डेमोक्रेटिक नीतियों के तहत हेल्थ केयर और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका तेजी से बढ़ाई गई है। इस दौर का एक और आविष्कार ‘मार्केट सोशलिज्म’ की अवधारणा है। इसका मतलब साफ है। यानी उद्देश्य समाजवादी रहेगा, लेकिन बाजार को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता के साथ काम करने का मौका दिया जाएगा। भारत के अनुभव के हिसाब से देखना चाहें, तो इसे नेहरूवादी ढांचे की मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसा एक प्रयोग कह सकते हैं। शी के इन्हीं विचारों को अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पंथ-धारा (pantheon) में Xi Jinping Thought (विचार) के नाम से जगह दी गई है।

बहराहल, इस बीच दो घटनाएं ऐसी हुईं, जब झुक कर चलते हुए समृद्धि बढ़ाने का देंग शियाओ फिंग का मंत्र बेअसर हो गया। मतलब यह कि चीन की बढ़ रही समृद्धि और ताकत पर दुनिया का ध्यान चला गया। इसमें पहला मौका 2007-08 में आई वैश्विक मंदी का रहा। उस समय जब सारी दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं गहरे संकट में फंस गईं, तब चीन ने सरकारी भारी खर्च के जरिए उस स्थिति से निकलने की बड़ी पहल की। चीन सरकार ने तब 586 अरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज का एलान किया। इसके जरिए चीन के अंदर इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास की महती योजनाएं शुरू की गईं। साथ ही जन-कल्याणकारी कार्यों पर भारी रकम खर्च की गई। नतीजा यह हुआ कि चीन के बुनियादी उद्योग क्षेत्र की उत्पादन क्षमता में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। उसका उपयोग आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में किया गया। असल में तेज गति से जैसा उच्च कोटि का बुनियादी ढांचा वहां बना, उससे दुनिया के सामने ये जाहिर हुआ कि चीन ने कैसी आर्थिक और तकनीकी ताकत हासिल कर ली है। इस क्रम में चीन में आयात की भारी वृद्धि हुई, जिसका तब विश्व अर्थव्यवस्था को संभालने में बड़ा योगदान रहा। इस कारण तब कई अर्थशास्त्रियों ने चीन को विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन बता दिया। 2008 में ही बीजिंग में ओलिंपिक खेलों का आयोजन हुआ। इसके शानदार आयोजन ने भी दुनिया को हतप्रभ किया। ऊपर से ऐसा पहली बार हुआ, जब स्वर्ण पदकों की तालिका में चीन पहले नंबर पर पहुंच गया। ये सब ध्यान खींचने वाली घटनाएं थीं।

कहा जाता है कि इस दौर में चीन के पास बुनियादी उद्योगों में भारी निवेश के कारण उत्पादन और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में प्राप्त क्षमता उसके अपने घरेलू उपयोग की जरूरत से कहीं बहुत ज्यादा हो गई। तो चीन ने उसके इस्तेमाल का रास्ता ढूंढा। 2012 में शी पार्टी महासचिव बने, तो उन्होंने इस क्षमता का इस्तेमाल करने की एक अंतरराष्ट्रीय परियोजना घोषित की। इसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के नाम से जाना गया है। इसके तहत प्राचीन इतिहास के सिल्क रोड के पैटर्न पर एशिया से यूरोप और अफ्रीका तक सड़क, रेल और जल मार्ग को विकसित करने की परियोजना शुरू की गई। इसके तहत अलग-अलग देशों में चीन की वित्तीय मदद से आधुनिक बुनियादी ढांचे का विकास शुरू किया गया। अब तक 167 देश इस परियोजना का हिस्सा बन चुके हैं। इस परियोजना में ऋण चीन के बैंक उपलब्ध कराते हैं, चीनी कंपनियां प्रोजेक्ट्स निर्मित करती हैं, जिसमें ज्यादातर चीन में उत्पादित सामग्रियों का इस्तेमाल होता है। इस तरह इस परियोजना के जरिए चीन का आंतरिक आर्थिक विकास अंतरराष्ट्रीय विकास योजनाओं से जुड़ गया है। जाहिर है, इस वजह से खासकर विकासशील देशों में चीन के प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है।

एक तरफ यह घटनाक्रम हुआ है। दूसरी तरफ अमेरिका और बाकी पश्चिमी देश 2007-08 की मंदी की लगी मार के असर से आज तक नहीं उबर पाए हैं। दरअसल, अगर गहराई में जाकर देखें तो उन देशों ने वित्तीय भूममंडलीकरण पर जोर देकर 1990 और 2000 के दशकों में अपना जो de-industrialization किया, यह उसका परिणाम है। चूंकि उन्होंने अपने बुनियादी उद्योगों को चीन जाने दिया, इसलिए रोजगार और आम आदमी की औसत आमदनी को संभाले रखने का तंत्र उनके हाथ से निकल गया। उनकी पूरी अर्थव्यवस्था शेयर मार्केट, बैंकिंग, बीमा, रिएल एस्टेट और हाई टेक कंपनियों के कारोबार में सिमट गई। आज इन क्षेत्रों के मालिक ही असल में उन देशों की पूरी अर्थव्यवस्था, और यहां तक कि राजनीति के नियंत्रक हैँ। इससे पश्चिमी समाजों में विभाजन पैदा हुई है। दूसरी तरफ उसी घटनाक्रम का दूसरा पहलू चीन है, जो अपनी जनता के जीवन स्तर को सुधारते हुए अपने वैश्विक प्रभाव को लगातार बढ़ाने में सफल हो रहा है। यही आज बने ‘नए शीत युद्ध’ का मूल कारण है।

बहरहाल, इस दौर में चीन जिस दिशा में चला है, उससे यह तो साफ है कि वह मार्क्सवादी समाजवाद की शास्त्रीय समझ के अनुरूप नहीं है। उसके वैश्विक प्रभाव को देखते हुए उस पर साम्राज्यवादी रास्ते पर चलने के आरोप भी इसी वजह से लगे हैं। इसीलिए पश्चिम के बहुत से वामपंथी भी चीन और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ रहे टकराव को दो पूंजीपति शक्तियों के टकराव के रूप में पेश करते हैं। इस क्रम में लेनिन की इस समझ को आधार बनाया जाता है कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की सर्वोच्च अवस्था है। समझ यह है कि पूंजीवादी देश अपने अतिरिक्त उत्पादन को खपाने और मुनाफा बढ़ाने के लिए विदेशों में बाजार की तलाश करते हैं। इसी समझ के आधार पर पहले विश्व युद्ध को मार्क्सवादी विचारकों ने साम्राज्यवादी ताकतों के हितों की लड़ाई के रूप में पेश किया था।

लेकिन चीन को इस खांचे में फिट करने के लिए चीन की अंदरूनी व्यवस्था को कैसे समझा जाए, ये बुनियादी सवाल खड़ा होता है। सीपीसी आज चीन की व्यवस्था को Socialism with Chinese characteristic यानी चीनी स्वभाव का समाजवाद कहती है। लेकिन उसके वो आलोचक जो उसे सीधे पूंजीवादी कहने से बचना चाहते हैं, वो उसे राजकीय पूंजीवाद (state capitalism) कहते हैं। कुछ अधिक कड़े आलोचक एक कदम आगे बढ़ते हुए चीन के लिए अधिनायकवादी पूंजीवाद (Authoritarian capitalism) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अगर गहराई और तमाम जटलिताओं को ध्यान में रखें, तो ऐसे तमाम चरित्र चित्रण (characterization) एक प्रकार का सरलीकरण मालूम पड़ेंगे।

इसलिए कि समाजवाद क्या है, इस बारे में आज तक कोई सर्वमान्य समझ दुनिया के सामने नहीं है। अगर मार्क्सवादी विमर्श के भीतर ही इस प्रश्न पर गौर करें, तो इस बात का उल्लेख जरूर करना होगा कि कार्ल मार्क्स ने समाजवाद और साम्यवाद शब्दों का अक्सर एक ही अर्थ में इस्तेमाल किया था। उनके विमर्श में यह एक खास प्रकार के सिस्टम (व्यवस्था) के बजाय एक ऊंचा आदर्श और मार्गदर्शक सिद्धांत है, जहां मानव समाज को अपने विकासक्रम में पहुंचना है। ये अवस्था तब आएगी, जब समाज में वर्ग और राज्य-व्यवस्था का विलोप हो जाएगा। मार्क्स की कल्पना में समाजवादी/साम्यवादी अवस्था एक वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन व्यवस्था होगी।

इतिहासकारों की एक धारा की समझ है कि 1871 में पेरिस कम्यून का जिस क्रूरता से दमन किया गया, उसके बाद मार्क्सवादी विमर्श में ये बात आई कि तुरंत वर्ग विहीन व्यवस्था का सपना साकार नहीं होगा। इसलिए उसके पहले की किसी अवस्था पर चर्चा शुरू हुई। उस चर्चा से ही सर्वहारा की तानाशाही का विचार उभरा। उसी विमर्श से ये बात सामने आई कि क्रांति को अंजाम देने और उसके बाद राज्य व्यवस्था को संचालित करने के लिए सर्वहारा के प्रतिनिधि एक अग्रिम दस्ते की जरूरत होगी। इस अग्रिम दस्ते का व्यावहारिक रूप कम्युनिस्ट पार्टी होगी। जब 1917 में रूस में क्रांति हुई और सत्ता बोल्शेविकों के हाथ में आई, तब उनके सामने ये व्यावहारिक प्रश्न खड़ा हुआ कि नई व्यवस्था को वे कैसे चलाएंगे और उसे क्या नाम देंगे। इस नई परिस्थिति में यह समझ बनी कि साम्यवाद की मंजिल तक पहुंचने से पहले एक अवस्था समाजवाद की होगी, जिसमें वर्ग और राज्य दोनों कायम रहेंगे, लेकिन राज्य पर नियंत्रण सर्वहारा/श्रमिक वर्ग का होगा। इसलिए सोवियत संघ के नाम साथ समाजवादी शब्द जोड़ा गया। 1970 के दशक में आकर सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने ये एलान किया कि सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण का कार्य पूरा हो गया है और अब साम्यवाद की तरफ यात्रा शुरू हो गई है। हालांकि वो यात्रा कहां पहुंची, यह अब हम सबके सामने है।

बहरहाल, चीन की कम्युनिस्ट ने न तो 1949 की क्रांति को समाजवादी क्रांति कहा, न ही जिस नई व्यवस्था की उसने स्थापना की, उसके साथ समाजवादी शब्द को जोड़ा। ये बात भी गौरतलब है कि चाहे सोवियत संघ और उसके खेमे के देश हों या आज मौजूद क्यूबा या वियतनाम जैसे देश हों, उन सब जगहों पर अर्थव्यवस्था का संचालन राज्य (state) के हाथ में है (या रहा) है। ऐसे में जो भी आधुनिक औद्योगिक ढांचा वहां खड़ा हुआ है या खेती या कारोबार को जो रूप दिया गया है, उसे सहजता से राजकीय पूंजीवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है। आखिर इन व्यवस्थाओं में उत्पादन के लिए अतिरिक्त मूल्य कहीं ना कहीं से जुटाए जाते हैं। फिर जो उत्पाद तैयार होते हैं, उनका आयात-निर्यात किया जाता है। इसलिए चीन में अगर राज्य के नियंत्रण में एक खास ढंग का प्रयोग हुआ है, तो उसे राजकीय पूंजीवाद कह कर खारिज करना कोई विवेकशील प्रतिक्रिया नहीं है।

अब प्रश्न है कि क्या चीन की व्यवस्था Authoritarian है और क्या वहां के राजकीय पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद का रूप ग्रहण कर लिया है? तो सवालों पर गंभीर विवेचना की जरूरत है। इस लेख शृंखला की अगली किस्त में हम इस पर गौर करेंगे।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। मुख्य तस्वीर में  सीपीसी के पूर्व महासचिव और राष्ट्रपति हू जिनताओ और उनसे कमान  लेने वाले वर्तमान राष्ट्रपति शिनपिंग। 

 

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1. चीन: एक देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा

 

2. CPC@100: पुरातन चीन को आधुनिक बनाने का एक ग्रैंड प्रोजेक्ट!


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CPC@100: वो ग्रेट डिबेट और महा बँटवारा!

4.CPC@100: जब आया ‘समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं’ का मूलमंत्र!


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