1 मार्च 1944 को जन्मे पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की तबीयत इन दिनों ठीक नहीं रहती, लेकिन जैसा सुकून वे आजकल महसूस कर रहे होंगे, उसकी महज़ कल्पना की जा सकती है। जिस नंदीग्राम में पुलिसिया कार्रवाई के ज़रिये 14 लोगों की जान लेने का दाग़ उनके दामन पर था, उसे उन्होंने ही धों-पोछ दिया जिन्होंने इस कहानी को उपन्यास बना दिया था।
नंदीग्राम में मतदान के कुछ दिन पहले अपने पूर्व सहयोगी शुभेंदु अधिकारी से भिड़ रहीं ममता बनर्जी ने चुनावी सभा में ऐलान किया कि “14 मार्च 2007 को पुलिस यूनिफार्म और हवाई चप्पल पहने जिन कथित पुलिसवालों ने गोली चलाई थी वे बाप-बेटे- शुभेंदु अधिकारी और शिशिर अधिकारी के भेजे हुए लोग थे।”
जवाब में शुभेंदु अधिकारी ने ममता पर फ़रेबी मुख्यमंत्री होने का आरोप लगाया। अजब ये कि ममता को शुभेंदु के पाप तब याद आये जब वह उनके ख़िलाफ मैदान में कूदे। वे भूल गयीं कि तब शुभेंदु ने जो किया, वह अपनी नेता ममता के लिए ही किया।
हालाँकि सीबीआई और दूसरी जाँचों में बुद्धदेव सरकार को क्लीनचिट मिल गयी थी, लेकिन ममता के मुँह से उस षड़यंत्र के खुलासे ने बुद्धदेव बाबू की एक भविष्यवाणी को सच कर दिया। उन्होंने तब कहा था कि ‘दस साल बाद लोगों को नंदीग्राम के षड़यंत्र का पता चलेगा।’
लंबे समय तक वाममोर्चा का चेहरा रहे ज्योति बसु के सन 2000 में गद्दी छोड़ने के बाद जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बने थे तो बसु के मुक़ाबले क़द छोटा माना गया था, पर 2006 का चुनाव वाममोर्चे ने उनके ही नेतृत्व में शानदार तरीक़े से जीता था। बुद्धदेव भट्टाचार्य की व्यक्तिगत छवि बेदाग़ थी। वे अपना वेतन पार्टी में दे देते थे और दो कमरे के उसी घर में रहते थे जिसकी रसोई उनकी लाइब्रेरियन पत्नी के वेतन के दम पर चलती थी। लेकिन 2011 के चुनाव में सिंगूर और नंदीग्राम से खड़े हुए ज़मीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन ने इतना बड़ा स्वरूप ग्रहण किया कि 34 साल के वाममोर्चा शासन का अंत हो गया।
ममता की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के बाद 29 मार्च को बुध्ददेव भट्टाचार्य ने एक बयान जारी कर कहा- “अपने साजिशी नाटक से बंगाल को इस दशा में पहुंचाने वाले कुटिल षड्यंत्रकारी आज दो हिस्सों में टूट कर एक दूसरे पर कीचड़ फेंक रहे हैं। मगर बंगाल को क्या मिला ? नन्दीग्राम और सिंगूर में मरघट की शांति है: श्मशान का सन्नाटा है। पिछले 10 वर्षों में एक भी उद्योग नहीं लगा। बंगाल के युवक-युवतियों की मेधा, योग्यता और कार्यकुशलता बेकार बैठी है या शर्मनाक दाम पर काम करते हुए मारी-मारी घूम रही है। जनता के जिस आपसी सौहार्द पर बंगाल गर्व करता था आज वह ज़ख़्मी और लहूलुहान पड़ी है। ममता की गोदी में बैठ साम्प्रदायिक राजनीति के विषधर उस बंगाल में पहुँच गये हैं जहाँ वे नगरपालिका तक का चुनाव नहीं जीतते थे। इस घृणित राजनीति के सामाजिक असर भी हुए ; महिलाओं का उत्पीड़न उप्र, मप्र जैसे स्त्रियों के लिए नरक जैसे प्रदेशों से होड़ लेने लगा। नीचे तक वास्तविक लोकतांत्रीकरण का वाम का अद्भुत काम उलट दिया गया है।”
बुद्धदेव ने याद दिलाया कि डेढ़ दशक पहले तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के समय उन्होंने राज्य की जनता के सामने जो आर्थिक-राजनीतिक विचारधारा रखने की कोशिश की थी वह थी-‘कृषि हमारा आधार व उद्योग हमारा भविष्य।’ इसी रास्ते पर उन्होंने बढ़ने की कोशिश की थी। उन्होंने याद दिलाया कि नंदीग्राम में किसी की भी ज़मीन नहीं ली गयी थी। ऐसा कोई आदेश जारी भी नहीं किया गया था। ज़मीन सहमति से लेने की बात ही हमेशा कही गयी थी।
30 मार्च को बुद्धदेव भट्टाचार्य ने एक ऑडियो संदेश जारी करके भी बंगाल की हालत पर अफ़सोस जताते हुए जनता से वाम-कांग्रेस गठबंधन को जिताने की अपील की।
मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए हो सकता है कि उनकी अपील का उतना असर न हो और बीजेपी को रोकने के लिए उदार और वैचारिक रूप से वाम के क़रीब रहने वाले लोग भी तृणमूल कांग्रेस को वोट दें, लेकिन ममता की स्वीकारोक्ति के बाद इतना तो साफ़ है कि बंगाल में वाममोर्चा और बुद्धदेव भट्टाचार्य को हटाने के लिए व्यापक षड़यंत्र रचा गया था जिसका चेहरा ममता बनर्जी बनीं। इसमें माओवादियों से लेकर रेडिकल वाम बुद्धिजीवियों का भी साथ मिला। ममता आज विपक्षी एकता की दुहाई दे रही हैं। बीजेपी के ख़िलाफ़ सारे विपक्ष को एकजुट होने की दुहाई देते हुए चिट्ठी लिख रही हैं, लेकिन क्या वे एक बार बुज़ुर्ग बुद्धदेव से माफ़ी माँगने का साहस करेंगी? काश वे ऐसा कर पातीं!
पुनश्च: इसमें शक़ नहीं कि 34 साल के वाममोर्चा शासन में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिस पर उसे शर्मिंदा होना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस के पास पहुँची गुंडा वाहिनी कभी लाल झंडा थामती थी जिस पर लगाम नहीं लगायी जा सकी। यही लोग आज बीजेपी की भी ताक़त बन रहे हैं। नया समाज और नया इंसान गढ़ने की कसौटी पर वाममोर्चा फ़ेल ही साबित हुआ। भूमिहीनों को ज़मीन पर अधिकार देने के लिए चले ऑपरेशन बर्गा की उपलब्धियाँ अपनी जगह, लेकिन इक्कीसवीं सदी के नौजवानों के सपनों और आकांक्षाओं के साथ वह क्यों नहीं जुड़ पाया, इसका जवाब उसे ख़ुद से पूछना होगा। अगर सब कुछ ठीक रहा होता तो 34 साल तक सत्ता में रहे वाममोर्चा का जनाधार चुनाव दर चुनाव कमज़ोर न पड़ता जाता।
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।