क्यों है रेडियो से हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों की कुट्टी?

रेडियो से इस देश का आम आदमी, बड़े पैमाने पर जुड़ा है" यह बात भी लगता है, इन आत्ममुग्ध, ड्रॉइंग् रूम बंद, बुद्धूबक्सा प्रेमी जमात को नहीं मालूम। 500-1000 प्रतियों वाली पत्रिकाओं में छप कर साहित्यिक अमरत्व के आकांक्षी, सेमिनारों में लंबे लंबे वक्तव्य प्रदाताओं से आज तक मैंने कभी यह चर्चा नहीं सुनी कि कैसे एक नेशनल B'casting system को मज़बूत बनाया जाए। वह सिस्टम, जिसे सुनकर लाखों लाख किसान खेती के अपने निर्णय लेते हैं।


प्रतुल जोशी

रेडियो में काम करते हुए इस महीने के आख़िर में 33  बरस हो जायेंगे। इन वर्षों में श्रोताओं का असीम प्यार मेरे हिस्से आया। वह चाहे उत्तर प्रदेश के श्रोता हों या फिर उत्तर पूर्व भारत के विभिन्न राज्यों के। रेडियो की ताक़त का समय समय पर अंदाज़ लगता रहा। अफसोस सिर्फ एक बात का रहा कि हमारे समाज के बुद्धिजीवियों की चिंता के केंद्र में रेडियो और उसकी ताक़त क्यों नहीं रही, ख़ास कर हिंदी पट्टी के। जबकि इनकी बड़ी संख्या नियमित रूप से आकाशवाणी में कार्यक्रम प्रस्तुत करने भी आती है। इन्होंने यह क्यों नहीं समझा कि किसी देश का Public B’casting system, उस देश का National pride भी होता है। BBC ही नहीं, Germany का Radio Deutche Welle हो, या फिर चीन का CRI (China Radio International) हो, या  जापान का NHK हो, यह सभी संस्थान, संबंधित देशों के राष्ट्रीय स्वाभिमान का भी प्रतीक हैं। और वहां के बुद्धिजीविओं के चिंतन के केंद्र में यह संस्थान हैं।

रेडियो से इस देश का आम आदमी, बड़े पैमाने पर जुड़ा है” यह बात भी लगता है, इन आत्ममुग्ध, ड्रॉइंग् रूम बंद, बुद्धूबक्सा प्रेमी जमात को नहीं मालूम। 500-1000 प्रतियों वाली पत्रिकाओं में छप कर साहित्यिक अमरत्व के आकांक्षी, सेमिनारों में लंबे लंबे वक्तव्य प्रदाताओं से आज तक मैंने कभी यह चर्चा नहीं सुनी कि कैसे एक नेशनल B’casting system को मज़बूत बनाया जाए। वह सिस्टम, जिसे सुनकर लाखों लाख किसान खेती के अपने निर्णय लेते हैं। वह जनसंचार माध्यम, जो आज लाखों लाख दृष्टिहीन नागरिकों का एक बड़ा सहारा है। रेडियो को पुराने ज़माने की एक वस्तु मानकर, इस के प्रति दया भाव का रवैया, आज के अधिकांश बुद्धिजीवियों और पढ़े लिखे लोगों की प्रकृति बन चुकी है। जबकि इस के उलट, देश और समाज के बड़े हिस्से के लिए आज भी रेडियो का कोई विकल्प नहीं है। हमारे देश में आवाज़ तो यह उठनी चाहिए थी कि, इस देश के हर ज़िले में एक रेडियो स्टेशन हो क्योंकि रेडियो स्टेशन, लोकल talents के लिए एक ज़बर्दस्त local platform होता है। पर उल्टे, रेडियो को ही समाज के चिंतन से बाहर कर दिया गया है।

समाज के कर्णधारों, अब कोई तो आपसे कहने नहीं आयेगा कि “उठो, जागो और बाज़ार की तरफ़ भागो” और बाज़ार से अच्छा सा रेडियो सेट ले कर मेरी तरह Radio का लुत्फ़ उठाओ। लेकिन मैं अपने 33 साला अनुभव से कह सकता हूँ कि एक बार रेडियो से इश्क़ कर लोगे तो फिर दुनिया में किसी और से इश्क़ की ज़रूरत नहीं।
Happy World Radio Day.

*प्रतुल जोशी आकाशवाणी के अल्मोड़ा केंद्र में असिस्टेंट डायरेक्टर बतौर तैनात हैं। यह टिप्पणी उनके फ़ेसबुक पेज से विश्व रेडियो दिवस यानी 13 फ़रवरी को प्रकाशित हुी। वहीं से साभार ली गयी है। 

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