इस्लामोफ़ोबिया को सम्मानित कर रहे हिंदी समाज में सामूहिक नैतिकता का प्रश्न!

(क्या सांप्रदायिक विष से बुझा कोई व्यक्ति लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है? क्या अलग-अलग समाज की नैतिकताएँ अलग होती हैं। मुद्दा तो सुशोभित नाम के एक लेखक की सांप्रदायिक गलाज़त से भरी प्रस्थापनाएँ हैं लेकिन यह एक व्यक्ति तक सीमित मामला नहीं है। हमारे दौर के महत्वपूर्ण कथाकार चंदन पाण्डेय ने इसे समाज की सामूहिक नैतिकता से जोड़ते हुए एक बहस शुरू कि है। चंदन इसे फ़ेसबुक पर लिख रहे हैं जिसे उनकी अनुमति से यहाँ आभार सहित छापा जा रहा है- संपादक)

इस्लामोफ़ोबिक लेखक

इस्लामोफोबिक्स को यह बात बहुत बुरी लगी कि सुशोभित को इस्लामोफोबिक लिखा। यह बहस करना चाहता है जबकि इसके पास सिर्फ़ नफरत है। यह कहे जाने के बाद भी कि इसे कोई बहस के लायक़ नहीं समझता। इसकी शाब्दिक-प्रत्यंचा हँसी का पात्र है। लेकिन यह इन दिनों की साम्प्रदायिक भीड़ का लेखक है।

यह हजयात्रियों की मौत पर स्माइली बनाता है लेकिन यह ख़ुद को इस्लामोफोबिक कहे जाने का बुरा मानता है। हालाँकि पहचान लिए जाने पर इसकी ख़ुशी इसके हल्ले में देखी जा सकती है।


 

सामूहिक नैतिकता का प्रश्न

 

क्या अलग अलग समाज की अलग अलग नैतिकता होती है? यानी अंग्रेज़ी समाज की अलग और हिंदी समाज की अलग? ऐसा कैसे होता होगा कि एक प्रबुद्ध ( दिखते ) समाज में सामाजिक नैतिकता के प्रश्न को वैयक्तिक नैतिकता से हटा दिया जाए?

हेनेके की फ़िल्म दी व्हाईट रिबन की शुरुआत में एक संवाद है जिसका आशय कुछ यह है कि देश में नात्सीवाद कैसे आया यह बताना मुश्किल है लेकिन एक गाँव की कहानी सुनाता हूँ, शायद उससे कुछ अनुमान लगे। वह कहानी फिर छद्म सामूहिक नैतिकता के नाटक को बयान करती है। 

बहरहाल एक आदमी चाहें तो अंग्रेज़ी में ब्लूम्सबरी प्रकाशन की आलोचना कर सकता है क्योंकि वहां से एक किताब छपनी थी जो दिल्ली दंगों के बार में आपराधिक स्तर की अफवाहबाजी से भरी हुई थी,  (हालांकि वह किताब प्रकाशित करने से प्रकाशन ने इनकार कर दिया, और यह भी विरोध करने से ही हुआ ) और दूसरी तरफ हिन्दी में वह ऐसे लेखकों कोपासदे सकता है जो खुलेआम घृणा का व्यापार करते हैं?

यहाँ नैतिकता से रूढ़ स्थापनाओं का अर्थ न निकालें। मेरी व्यक्तिगत समझ के अनुसार वह कायदा जो निर्बल के पक्ष को मजबूत करता हो, वही नैतिकता है।

साहित्य संसार उन सामूहिक नैतिकताओं का वाहक है जो समाज को आगे या पीछे ले जाने की हैसियत रखते हैं। सामूहिक अनैतिकता समाज को खा जाती है, खत्म कर देती हैं। भारत के उदाहरण से आपका कोमल मन आहत न हो जाए इसलिए आप किसी और देश या समूह की नैतिक स्थिति देख सकते हैं। आखिर क्या मजबूरी होगी कि लोग दंगा उकसाने जैसे गद्य में अपना मोक्ष ढूँढते होंगे?

प्रकाशकों की ऐसी कौन सी लालसा होगी जो अपने लेखकों के साम्प्रदायिक होते जाने की कारस्तानी पर चुप रहते हैं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी वजह से प्रकाशित करते हों। क्योंकि सांप्रदायिकता की टी आर पी है, यह तय बात है। यह सवाल भी क्यों नहीं उठते? 

सुशोभित कई बार मुस्लिम समुदाय को लेकर ख़तरनाक और साम्प्रदायिक कमेंट करता रहा है। अनेक स्क्रीन शॉट्स हैं लोगों के पास। सत्यम वर्मा ने एक पोस्ट शेयर किया है जिसमें वह दो अरब मुसलमानों को पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताता है। विमल ने लिखा कि कहीं वह मुस्लिमों को अरब सागर में फेंकने की वकालत कर चुका है। कल या परसों वह हजयात्रियों की मृत्यु पर अल्लाह को क़ुर्बानीपसंद वाला बताकर अपनी वैचारिकी जाहिर कर चुका है। कुछदिन पहले बकरईद के बहाने भी यही कर चुका है। मुझे ख़ुद याद है कि नीतीश और तेजस्वी एक साथ पहली बार आए थे और चुनाव जीत गए थे तो उसने बिहारी पहचान वाले लोगों के लिए बड़ा ही अपमानजनक लिखा था। 

ऐसे में क्या इसके सम्पादक या प्रकाशकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे इसका लिखा देखते नहीं हैं, बस यों ही छाप देते हैं या वे खूब देखते हैं और चूँकि ऐसी बयानबाज़ी का चाहकर भी खुला समर्थन नहीं कर सकते इसलिए दूसरी कोई लिखाई प्रकाशित कर उऋण होते हैं? इसे कैसे समझा जाए? यह कोई दंभपूर्ण टिप्पणी नहीं बल्कि यह प्रश्न एक विनम्र आग्रह है  और मैं वास्तव में इसे समझना चाहता हूँ। 

वरना ऐसा कैसे हो  सकता है कि चेतना का जो स्तर अंग्रेज़ी में स्वीकार्य है वह हिंदी में अस्वीकृत? 

और अनेक लोग इसके लाभार्थी है। गद्य का अच्छा बुरा होना ख़ाली हवा में नहीं होता। बड़ा ख़राब उदाहरण हो जाएगा लेकिन सोने के कटोरे में परोसा गया मैला शायद ही किसी को पसंद आए। इसलिए जो महज़ गद्य की तारीफ कर पतली गली पकड़ रहे हैं वे जान लें कि वास्तव में वे विचार की तारीफ कर रहे हैं। वे वास्तव में उन विचारों से एकजुटता दिखा रहे हैं। 

यह हिंदी की सामूहिक नैतिकता का प्रश्न है। यह प्रश्न हिंदी पट्टी के जीवन में गहरे उतर चुका है और शायद इसलिए लोग अपनी जाति के और अपने धर्म के अपराधी को नायक मानने से नहीं हिचकिचाते। क्या ऐसा कह सकते हैं कि हिंदी पट्टी बिखरकर जाति और धर्म की पट्टी में विघटित होती जा रही है? 

हिंदी में जाति और धर्म ने यह नुक़सान किया है कि सामूहिक नैतिकता को वैयक्तिक नैतिकता से रिप्लेस करने का चलन हो गया है। किसी की सामाजिक भूमिका पर प्रश्न उठाओ तो काबिल लोग आपकी वैयक्तिक जीवनस्थितियों पर प्रश्न उठाने लगते हैं। 

हम सुधरेंगे जग सुधरेगाजैसी सोच समाज को उसकी ज़िम्मेदारियों से बचने और उसकी आलोचना से बचाने के लिए है। होना यह चाहिए कि सामाजिक नैतिकता का पैमाना इतना ऊँचा हो कि लोग उसे वैयक्तिक जीवन में पाना चाहें। यानी समाज पहले सुधरे।

हिंदी की संस्थाओं से आग्रह है कि वे ख़ुद को दुराग्रह से मुक्त करें। सामाजिक ताना बाना बड़ी चीज है उसके अहित की बात करने वाले अपने लेखकों से संवाद करें। 

इससे लोगों की उम्मीद बढ़ेगी। समाज से उम्मीद बनेगी।

पुनश्च: (कुछ दिन पहले चंदन ने फ़ेसबुक पर ये लिखा था। संदर्भ समझने के लिए इसे पढ़ा जाना चाहिए- सं.)

 

परसों एक वाकया हुआ। सोशल मीडिया अब लगभग वयस्क हो चुका है इसलिए यहाँ लोगों ने अपनी समझदारी से अपना पक्ष चुन लिया है और अपनी राय बना ली है। कम से कम मैं उनसे कोई उम्मीद नहीं रखता जो घोषित तौर पर अपना पक्ष तय कर चुके हैं। पहले की लंबी बहसों में एक उम्मीद होती थी। दिल और खून जलते थे, बेचैनी रहती थी लेकिन एक उम्मीद होती थी कि अपनी बात समझाई जा सकती है। अब यह उम्मीद सोशल मीडिया से नहीं है। हाँ यहाँ मुद्दे हैं लेकिन उन्हें किसी पत्रिका या वेबसाइट पर लिखकर या किसी सभा में अपना पक्ष रखकर बताया जा सकता है। जैसे पहले होता था।

कल सुशोभित ने अपनी क्षमता के अनुरूप ललकार लगाई। इस्लामोफ़ोबिया के लिए आड़ खोजते हुए वह शाकाहार और मांसाहार पर बहस करना चाहता था और उसकी शर्तें थीं कि वह अलग कमेंट थ्रेड में अपने सवाल रखेगा और मैं उसके जवाब दूँगा ताकि उसके प्रशंसक उसे पढ़ें और बदले में वह मेरा लेखक होना छुड़वा देगा और मेरा इंटेलेक्ट झाड़ देगा। जैसी उसकी भाषा है या उसका लहजा है, उसी के अनुरूप।

मैंने उसे यही लिखा कि उसे बहस के लायक मैं नहीं मानता। मैंने यह भी स्पष्ट किया कि यह किसी दंभ के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि उसने ख़ुद को बंद कर लिया है। वह ओपन माइंड नहीं है। इसलिए मैंने इंकार किया। वह तिलमिलाता रहा और उकसावे के लिए मेरी लेखनी छुड़ा देने जैसी बातें करता रहा।

हुआ यह कि एक कमेंट करने के बाद समझ में आ गया था कि उसकी कोई नई किताब आई है। शाकाहार से संबंधित। वह भी ठीक बक़रीद से पहले। इसका मतलब था कि सिर्फ़ किताब बेचने के मक़सद से नहीं बल्कि एक पूरे प्रॉपगैंडा के तहत उस किताब को इस ख़ास मौक़े पर लेकर आए। शाकाहार का प्रवर्तन तो पूरे वर्ष हो सकता है। ये कौन लोग हैं जो सिर्फ़ इस त्योहार के मौक़े पर शाकाहार का माला जपते हैं। और ख़ासा भद्दी भाषा में जपते हैं। सम्भव है कि वह किसी और के जरिये अपनी यह इच्छा पूरी करे। प्रकाशक को भी टाइमिंग का ध्यान तो रहा ही होगा और न रहा हो तो रखना चाहिए था। ये बराबर की भागीदारी कही जाएगी।

इसलिए मैंने उसकी लगाई आग में शामिल होने से इंकार किया। वरना देर शाम मैंने उसके प्रश्न देखे। हास्यास्पद था। आप भी देखें, ‘मार्क्सवादियों को परंपरा की फिक्र कबसे होने लगी’? सोचिए। उसे सिर्फ़ मार्क्सवादी शब्द से मतलब था ताकि उसके उस जैसे ही इस्लामोफ़ॉबिक समर्थक गालीगुफ्तार कर सकें।

मैंने उसे लिखा था कि वह सुपीरियारीटी कॉम्प्लेक्स के कारण शाकाहार का ऐसा भोंडा प्रवचन सुना रहा है और उसने कहा कि सुपीरियारिटी कॉम्पलेक्स के कारण मनुष्य जीवों की हत्या कर रहा है। अब उसे मैं यह तो बता नहीं सकता कि सुपीरियारिटी कॉम्प्लेक्स औरसुपीरियारिटी ओवरदो अलग अलग पदबंध है।

इसलिए मैंने तय किया कि किसी इस्लामोफ़ॉबिक वजहों से संचालित सवालों का जवाब नहीं देना है। जवाब देना कई बार उसे वैलिडेट करना है। उसे स्थापित करना है। अपनी सारी सदाशयता के साथ कहूँ तब भी उसके लेखन से कहीं नहीं लगता कि वह सभी धर्मों का आलोचक है जैसा वह दावा करता है। आप कुछ नहीं कर सकते तो उसके समर्थकों के विचार से इसका आकलन कर सकते हैं। अगर वह वाकई सभी धर्मों का आलोचक है तो वैसा लिखा दिखना भी चाहिए।

हाँ, यह जरूर हो कि ऐसी जो शक्तियाँ हैं उन्हें गाहे बगाहे चिन्हित किया जाता रहे। इससे इतना तो होता है कि ये सारे लोग इकट्ठे हो जाते हैं और अपनी पहचान जाहिर करते रहते हैं। अगर ठीक से लिखा जाए तो ये लोग लामबंद भी होंगे जैसा अणुशक्ति के ख़िलाफ़ हुए थे। इस लामबंदी से आप इन्हें और इनकी राजनीति को पहचान सकते हैं।

 

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