कठुआ, उन्नाव से लेकर हाथरस तक के हैवानों के पक्ष में क्यों दिखे बीजेपी नेता?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा गत रविवार को विपक्ष पर हाथरस में एक दलित युवती से हुई बर्बरता की आड़ में जाति युद्ध भड़काने की तोहमत लगाने के 24 घंटे के अन्दर ही पुलिस ने इस सिलसिले में देशद्रोह व नफरत फैलाने के आरोपों में एक के बाद एक उन्नीस एफआईआर दर्ज कर डाली हैं। साथ ही, माहौल खराब करने वाले संगठनों के खिलाफ जांच का एलान कर दिया है। स्वाभाविक ही विपक्षी दल इसे प्रदेश सरकार की अपनी जगहंसाई की ओर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए अनावश्यक आक्रामकता बरतने की पुरानी आदत के नये प्रारूप के तौर पर देख रहे हैं।

इन दोनों दृष्टिकोणों से परे हालात का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण कर यह समझने की कोशिश करें कि ऐसे मामलों को जातियों अथवा सम्प्रदायों का युद्ध बनाने में कौन सी शक्तियां दिलचस्पी लेती रही हैं। तो सबसे पहले जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में स्थित एक गांव में 10 जनवरी, 2018 को घोड़े चरा रही आठ साल की बच्ची से हुई हैवानियत की याद आती है। इसकी भी कि हैवानों ने, जिनमें से कई सत्तातंत्र का हिस्सा हुआ करते थे, किस तरह उक्त बच्ची को अगवा कर चार दिनों तक एक धर्मस्थल में बंधक बनाकर रखा और नशा खिलाकर न सिर्फ उससे बार-बार दुष्कर्म किया, बल्कि उसकी जान से भी खेल गये। अंततः 17 जनवरी को उसकी लाश पाई गई तो देशव्यापी गुस्सा फूट पड़ा और उसके कुसूरवारों को जल्द से जल्द कानून के हवाले कर कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की मांग उठ खड़ी हुई।

जम्मू की बार एसोसिएशन और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के लिए इस जघन्य वारदात को साम्प्रदायिक और राजनीतिक आधार से परे रहकर देखना इसके बावजूद गवारा नहीं हुआ। उन दिनों जम्मू कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन की महबूबा मुफ्ती की सरकार थी और उसमें शामिल भाजपाई मंत्रियों को इस बच्ची के कुसूरवारों के खिलाफ निष्पक्ष जांच तक गवारा नहीं थी। वे उनके बचाव में ‘भारत माता की जय’ के नारों के साथ तिरंगा यात्राएं निकाल रहे थे और पवित्र राष्ट्रीय प्रतीकों के आपराधिक दुरुपयोग की शर्म महसूस करने को भी तैयार नहीं थे। अंततः मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को हारकर भाजपा के चौधरी लाल सिंह और चंद्र प्रकाश गंगा को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करना पड़ा था।

फिर भी हैवानों के पक्ष में अभियान रुका नहीं था। जम्मू बार एसोसिएशन खुलकर उनके बचाव में उतर आई थी और उसने राज्य की क्राइम ब्रांच को उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने से रोकने की कोशिश भी की थी। इसके चलते मामले को सुनवाई के लिए जम्मू कश्मीर से बाहर पंजाब के पठानकोट की अदालत में भेजना पड़ा था।

गौरतलब है कि उस मामले में सार्वजनिक रूप से हैवानों के पक्ष में खड़े होने की जो बेशर्मी शुरू हुई थी, वही इन दिनों हाथरस में हैवानियत की वारदात के संदर्भ में फलती-फूलती दिखाई दे रही है। हम जानते हैं कि वहां पीड़िता और उसके परिजनों के साथ न सिर्फ हैवानों बल्कि पुलिस-प्रशासन ने भी जैसी अमानवीयता बरती, उसे लेकर देश भर में गहरा रोष और क्षोभ व्याप्त है। कठुआ की ही तरह इस मामले के दोषियों को भी सख्त से सख्त सजा की मांग की जा रही है। लेकिन जिस गांव में उक्त कुसूर हुआ है, उसके तथाकथित ऊंची जातियों के कई लोग अभियुक्तों के पक्ष में खुलेआम सभाएं और बैठकें कर रहे हैं।

इन सभाओं और बैठकों के अगुआ भी कठुआ की तरह भाजपा के नेता ही हैं। एक बैठक तो, जिसके बारे में कहा जाता है कि जिला प्रशासन ने यथासम्भव उसे टलवाने की कोशिश भी की, भाजपा नेता राजवीर सिंह चौहान के घर पर ही हुई, जिसमें एक अभियुक्त का परिवार भी शामिल हुआ। सोचिये जरा, ऐसा तब है, जब केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी जैसी पार्टी की वरिष्ठ महिला नेता लोगों से कह रही हैं कि वे जल्दी ही हाथरस की पीड़िता के कुसूरवारों को फांसी पर लटकते देखेंगे।

उक्त बैठक को लेकर जगहंसाई की नौबत आई तो एक भाजपा नेता ने कहा कि वह तो वारदात की सीबीआई जांच कराने की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की घोषणा का स्वागत करने के लिए हुई। अगर यह सच है तो अभियुक्तों के परिजनों द्वारा सीबीआई जांच के ऐसे स्वागत से विपक्ष का यह आरोप ही सही साबित होता है कि ‘पिंजरे के तोते’ के तौर पर सीबीआई द्वारा मामले की जांच से कुछ हासिल नहीं होने वाला और सच सामने लाना है, तो न्यायिक जांच कराई जानी चाहिए।

लेकिन विडम्बना देखिये कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास पीड़िता से हुई नृशंसता को, जिसके पीछे जातीय घृणा की भूमिका से भी इनकार नहीं ही किया जा सकता, अपने जातीय अहं से जोड़कर देखने वाले अपनी पार्टी के ‘ऊंची जातियों’ के नेताओं व कार्यकर्ताओं को बरजने की जरूरत नहीं महसूस होती। उलटे वे विपक्षी दलों पर जातियुद्ध भड़काने के आरोप लगा रहे और वह रहे हैं कि उन्हें प्रदेश का विकास अच्छा नहीं लग रहा।

प्रसंगवश, हाथरस में जो कुछ हुआ, वह उत्तर प्रदेश में सामंतों, सवर्णों या पेशेवर अपराधियों द्वारा बच्चियों, युवतियों व महिलाओं की सुरक्षा को दी गई पहली चुनौती नहीं है। ऐसी चुनौतियों को लेकर पुलिस व प्रशासन द्वारा अपनाया गया अगम्भीर या उदासीन रवैया भी कोई हाथरस में पहली बार नहीं दिखा है। भाजपा नेताओं स्वामी चिन्मयानन्द और कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ इससे पहले दर्ज बहुचर्चित मामलों में भी कुद अलग देखने को नहीं मिला था। उन्हीं की तर्ज पर हाथरस में भी पहले पीड़िता के इलाज में लापरवाही बरती गई, फिर लीपापोती की कोशिश की जाती रही। जांच के लिए एसआईटी भी तब गठित की गई, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन करके वारदात को लेकर सख्ती बरतने को कहा।

इतना ही नहीं, पीडिता के गांव की घेरेबन्दी कर जिस तरह मीडियाकर्मियों और विपक्षी नेताओं का वहां पहुंचना असंभव कर दिया गया, उनमें से कई के साथ दुर्व्यवहार भी किया गया, उससे प्रदेश में कानून के शासन को लेकर गम्भीर अंदेशे पैदा हुए, जो अभी तक बने हुए हैं। इससे और तो और, भाजपा की उमा भारती जैसी नेताओं को भी असुविधा हुई और उन्होंने मुख्यमंत्री से अपने रवैये पर पुनर्विचार कर विपक्ष के नेताओं को पीड़िता के परिजनों से मिलने देने को कहा।

दबाव में ही सही मुख्यमंत्री ने ऐसा करना स्वीकार किया तो कई लोगों को उम्मीद बंधी कि उनकी सरकार द्वारा पीछे जो गलतियां  की जा चुकी हैं, आगे उनको तार्किक भूल सुधार तक ले जाया जायेगा। इसके लिए जरूरी था कि मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के उन नेताओं व कार्यकर्ताओं से कड़ाई से पेश आते जो दूषित जातीय चेतनाओं के सहारे अभियुक्तों के पक्ष-पोषण में लगे हैं। क्योंकि सच पूछिये तो मामले को जातियुद्ध का रंग वे ही दे रहे हैं, वे विपक्षी नेता या आन्दोलनकारी नहीं, जो मांग कर रहे हैं कि वारदात की न्यायिक जांच कराकर दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया जाये।

बेहतर होगा कि मुख्यमंत्री यह उम्मीद पूरी करने की सोचें, न कि हमेशा की तरह पीड़ितों व पीड़िताओं को निराश किये रखे। क्योंकि जिन उद्वेलनों की बिना पर उन्हें जाति युद्ध की आशंका दिखाई दे रही है, लोगों के निराश होने से वे और बढ़ेंगे। लोकतांत्रिक चेतना के इतने वर्षां बाद भला वे क्योंकर चाहेंगे कि महिलाएं और युवतियां यह सबूत देनें के लिए खुद पर ऐसे कातिलाना यौन हमले झेली रहें कि उन्हें सरकार द्वारा प्रायोजित विकास बहुत अच्छा लग रहा है।

साफ कहें तो अभी मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के हाथ से वक्त पूरी तरह निकला नहीं है, लेकिन उन्होंने अपने जातिवादी समर्थकों की दूषित चेतनाओं से भरी जिदें रोकने में और देर की तो वक्त उनके हाथ से पूरी तरह निकल जायेगा।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।

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