आपको याद होगा, कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने राज्य सरकार पर सार्वजनिक ठेके देने और सरकारी पदों पर भर्ती करने में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। इतने भर से जांच नहीं हुए तो बहुचर्चित पोस्टर लगाए गए थे लेकिन उसका भी असर नहीं हुआ। हालांकि यह अलग मामला है लेकिन जांच आरोपों की नहीं, पोस्टर लगाने की हुई। तब इस शरारत में शामिल लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किये गये थे। आइए, आज देखें कि मनीष सिसोदिया का मामला क्या है और क्या छप रहा है।
इंडियन एक्सप्रेस की आज की लीड खबर के अनुसार दिल्ली सरकार के मंत्री मनीष सिसोदिया के घर पर छापे के पांच महीने बाद सीबीआई टीम सिसोदिया के दफ्तर पहुंच गई। मनीष सिसोदिया ने इसे एक और छापा कहा है जबकि सीबीआई अधिकारियों ने कहा है कि तकनीकी सबूत एकत्र करने गए थे। आम आदमी पार्टी ने कहा है कि एजेंसी को बताना चाहिए कि उसे क्या मिला। बेशक, यह न्यूनतम जरूरत है। अव्वल तो केंद्र सरकार की एजेंसी राज्य सरकार के मंत्री के कार्यालय में इस तरह सबूत इकट्ठा करे इसका कोई मतलब नहीं है। इसके लिए मंत्री के दफ्तर में भी अधिकारी हैं जो अपने दायित्वों से बंधे हुए हैं और यह मानकर चलना चाहिए कि ऐसा कोई सबूत होगा तो वे संबंधित एजेंसी और लोगों को सूचना देंगे। सार्वजनिक करना अपराध है तब भी मंत्री के भ्रष्टाचार की सूचना नहीं देने वाला अफसर शामिल नहीं माना जाए इसके लिए उसके पास क्या रास्ता है? जाहिर है, कोई नहीं।
इसलिए, पहले तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों या प्रधानमंत्री के तहत काम करने वाले अफसर ऐसे तकनीकी सबूत जिसे तलाशने सीबीआई पहुंच जाती है, उसे गोपनीय नहीं रखेंगे और सार्वजनिक करेंगे। कम से कम सीबीआई को देंगे। नहीं तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई होगी। अगर ऐसा कर दिया जाए तो हर जगह सीबीआई नहीं लगानी पड़ेगी और हर जगह जासूस रहेंगे। लेकिन ऐसा नियम नहीं बन सकता है क्योंकि वह सब पर लागू होगा। यहां तो मनमानी करनी है। ऐसी मनमानी कार्रवाई अगर बार–बार उजागर की जाए, गलत और झूठी खबरों से उसका मुकाबला नहीं किया जाए तो जनता को समझ में आता है कि क्या हो रहा है पर अभी स्थिति यह है कि सीबीआई के इस छापे की खबर गोपनीय तो नहीं होगी और ना ही इसपर गोपनीयता कानून लागू है। आम आदमी पार्टी का बयान सार्वजनिक है पर खबर? पहले उसे देख लेते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर मनीष सिसोदिया की फोटो के साथ है। शीर्षक हिन्दी में कुछ इस प्रकार होगा, सिसोदिया ने कहा कि सीबीआई ने दफ्तर पर छापा मारा, जांच एजेंसी ने इसे ‘विजिट‘ कहा। मामला क्या है वह तो आप जानते हैं, समझते भी हैं। लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स क्या बता रहा है? वही जिसे छिपाया नहीं जा सकता था। हालांकि बेशर्मी की कोई सीमा नहीं है और नहीं छापते तो आप क्या कर लेते। उस हिसाब से यह और आगे की बेशर्मी है। आखिर सीबीआई ‘विजिट‘ के लिए भी मनीष सिसोदिया के दफ्तर में क्यों जाए। और जबरदस्ती नहीं होती तो मनीष सिसोदिया ऐसा कहते और अखबार छापता? खासकर तब जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर 40 प्रतिशत कमीशन लेने का आरोप है और शिकायतों का कोई असर नहीं हुआ तो पेसीएम के पोस्टर लगाए गए थे।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने सिसोदिया के दफ्तर में छापे की खबर को पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छापा है। शीर्षक है, सीबीआई सिसोदिया के ऑफिस में; उन्होंने कहा कुछ नहीं मिलेगा। वैसे तो यह शीर्षक मनीष सिसोदिया की ही बात कहता है और यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि मीडिया विपक्षी दलों (कुछ लोगों के लिए भाजपा की बी टीम) को महत्व नहीं देता है। पर यहां सूचना वह नहीं है जो मनीष सिसोदिया ने कहा। सूचना वह होती जो छापे में मिला या मिलता। कायदे से छापा मारने वालों से यही पूछा जाना चाहिए था और इसका जवाब ही खबर होती। अगर कुछ नहीं मिला तो मंत्री के यहां छापा मारने की राजनीति खबर है, छापा नहीं। और यह अंधेरे में तीर चलाने से ज्यादा कुछ नहीं है।
दिलचस्प यह है कि खबर कहती है, पता चला है कि एक कंप्यूटर जब्त किया गया है। कंप्यूटर जब्त करना साधारण नहीं है। किसी के भी पास उसका एक कंप्यूटर होता है और उसमें उसका सारा काम रहता है। निजी जानकारियोंके अलावा बैंक, डॉक्टर, दवा भी। डिजिटल जमाने में यह सब बढ़ा ही है। दूसरी ओर, कंप्यूटर में सबूत प्लांट कर गिरफ्तार करने और जेल में रखने के आरोप भी हैं। ऐसे में मंत्री का कंप्यूटर जब्त करना बड़ी बात है लेकिन वह भी ‘पता चला है’ के अंदाज में बताया गया है जबकि बाकायदा सीबीआई को एलान करना चाहिए था। वरना यह आरोप मनीष सिसोदिया लगाते तो खबर होती। लेकिन दिल है कि मानता नहीं।
खबर में अगला ही वाक्य है कि सीबीआई ने छापे से इनकार किया। और फिर बताया गया है कि (जांच के लिए) वाजिब सूचना दी गई थी और तब पता नहीं इसमें खबर क्या है। सिसोदिया ने आरोप लगाया इसलिए छापना पड़ा ऐसा भी नहीं है। आगे सिसोदिया के ट्वीट का हवाला है। और ट्वीट को खबर बनाना कोई जरूरी तो है नहीं। ऐसे में अखबार से मुझे क्या अतिरिक्त मिला मैं नहीं समझ पाया। हां, मुझे यह समझाने की कोशिश जरूर हुई है कि छापा सही (विधिवत) था। द हिन्दू में आज पहले पन्ने पर आधा विज्ञापन है और यह खबर नहीं है। द टेलीग्राफ का भी यही हाल है और उसपर से वह कोलकाता का अखबार है इसलिए वहां भी यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है।
मेरी चिन्ता यह है कि अगर नोटबंदी सही थी और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसमें किसी कार्रवाई की जरूरत नहीं है तो दिल्ली सरकार की उत्पाद शुल्क नीति में ऐसा क्या हो सकता है कि सीबीआई की जांच महीनों चलती रहे, मंत्री के यहां छापा पड़े। देश के प्रधानमंत्री की तरह दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के नंबर टू अमित सिसोदिया के कुछ अधिकार भी तो हैं या होंगे जिसके लिए लोग दल बदल करते हैं, मंत्री और सरकार बनाने के लिए विधायक खरीदे जाते हैं। दूसरी ओर, इस मंत्री या सरकार की निगरानी के लिए केंद्र सरकार के प्रतिनिधि, उपराज्याल तो हैं ही। वैसे भी, तकनीकी तौर पर दोषी तो मुखिया होता है। यहां व्यावहारिक तौर पर मुखिया उपराज्यपाल हैं लेकिन कार्रवाई मंत्री के खिलाफ हो रही है। वैसे ही, जैसे नोटबंदी के लिए वित्त मंत्री को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए।
यहां छापा केंद्र सरकार की उस एजेंसी का पड़ रहा है जिसके मुखिया को रातो रात बदल दिया गया था और किसलिए बदला गया था और बदलकर जिसे बचाया गया वह सार्वजनिक है, उसे ईनाम भी मिला। फिर भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा अखबार बता रहा है कि छापा ‘विधिवत’ पड़ा है। दरअसल यह बात सीधे नहीं कही गई है बल्कि बताया गया है कि सीबीआई ने पूर्व सूचना दी थी। इसलिए इसे छापा नहीं कहा जा सकता है। मेरे ख्याल से मंत्री के खिलाफ इस तरह की जांच को अंधेरे में तीर चलाने के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है और ज्यादातर मामलों में यह ऐसा ही है वरना कुछ मिला होता और सीबीआई यह बता रही होती कि मामला क्या है। लेकिन मकसद सिर्फ डराना लग रहा है।
खुल्लम–खुला सेंसर, नाम और बहाना नया
यह तो हुई विपक्ष को डरा कर रखने की कोशिश वाली राजनीति। वैसे आज यह बताने का दिन है कि जोशी मठ की खबर के मामले में सरकार ने सेंसर जैसे नियम लागू कर दिए हैं। सोशल मीडिया पर यह खबर कल ही थी और आज मुझे इसी पर लिखना था। लेकिन सुबह मुझे छापे की खबर मिल गई। जोशीमठ मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर आज सबसे विस्तृत है। खबर का मुख्य शीर्षक है, जमीनी सर्वेक्षण के अनुसार जोशीमठ का कुछ भाग दो फीट तक धंसा हो सकता है। इस खबर का इंट्रो है इसरो की रिपोर्ट ने 12 दिनों में 5.4 सेंमीटर धंसने का अनुमान लगाया। इसके साथ एक अलग खबर का शीर्षक है, इसरो की रिपोर्ट के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंध प्राधिकरण ने सरकारी संगठनों की गर्दन दबा दी।
इस संबंध में एक आदेश कल से सोशल मीडिया पर घूम रहा है उसकी मूल प्रति ना मुझे इंटरनेट पर मिली ना गूगल करने पर किसी खबर में दिख रही है। पर टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ द हिन्दू में इशिता मिश्र की बाइलाइन से यह खबर है। हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, उत्तराखंड से संबंधित सिद्धांतों पर सरकार ने विशेषज्ञों को चेतवानी दी। यह भी वही बात है, घुमाकर कही गई है। द टेलीग्राफ ने इस खबर को लीड बनाया है, फ्लैग शीर्षक है, जमीन धंसने से संबंधित आंकड़े पर गैग ऑ्डर, केंद्र ने इसे जोश मठ बनाया।
इंडियन एक्सप्रेस में इस खबर का शीर्षक है, एनडीएमए ने कहा (अलग–अलग खबरों से) भ्रम होता है। मुख्य शीर्षक है, इसरो ने अपनी रिपोर्ट वापस ली, सरकार ने विशेषज्ञों की शखर की संस्थाओं को एक्सपर्ट संसथाओं से कहा कि मीडिया से बात न करें। पूर्व मुख्यमंत्री रावत ने कहा, दुर्भाग्यपूर्ण, कोई घबराहट नहीं है। सभी एजेंसियों को मिलकर काम करना चाहिए। जो भी हो, मामला सेंसर का ही है। लेकिन प्रतिक्रिया जैसा कुछ अखबारों में दिखा? टीवी9हिन्दी डॉट कॉम के अनुसार, जोशीमठ पर कोई भी मीडिया से कुछ न बोले। इसरो में तस्वीरें आने के बाद बवाल, आया एनडीएमए का फरमान। इसके मुताबिक, जोशीमठ पर केंद्र और राज्य का कोई भी अधिकारी मीडिया में कोई भी जानकारी नहीं देगा। टीवी9हिन्दी डॉट कॉम के अनुसार, जोशीमठ पर कोई भी मीडिया से कुछ न बोले। इसरो में तस्वीरें आने के बाद बवाल, आया एनडीएमए का फरमान। इसके मुताबिक, जोशीमठ पर केंद्र और राज्य का कोई भी अधिकारी मीडिया में कोई भी जानकारी नहीं देगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।