मीडिया दार्शनिक मार्शल मैकलुहान का कथन है कि सूचना क्रांति ने दुनिया को ‘ विश्व ग्राम ‘ में बदल दिया है. लेकिन, हमारे देश के वर्तमान शासकों की कारगुजराइयों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत अपनी -कथनी करनी के कारण ‘आत्म दण्ड टापू’ में ही क़ैद है. मिसाल हाज़िर है. राष्ट्र की राजधानी दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट 20 अप्रैल को जहांगीरपुरी में बुलडोज़रों की बेलगाम कार्रवाई को रोकने का आदेश जारी करता है. यह आदेश सुबह ठीक 11 बजकर 15 मि. पर दिया जाता है, लेकिन घटनास्थल पर 12 बजकर 45 मि. पर पहुंचता है। करीब 22 -23 कि.मी का सफर तय करने में आला अदालत के आदेश को डेढ़ घंटा लग जाता है. इसी बीच बहुत कुछ ढहा दिया जाता है. यही जहांगीरपुरी है जहां दो रोज़ पहले साम्प्रदायिक हिंसा भड़क चुकी थी. आमजन सहित पुलिसकर्मी भी घायल हुए थे. हैरानी यह है कि राजधानी में शिखर अदालत के आदेश के साथ ऐसा लापरवाहीभरा सुलूक हो सकता है तो दूर-दराज़ के भारत तक पहुंचने में कितना विलम्ब हो सकता है, इसकी सहज ही में कल्पना की जा सकती है. विलम्ब की वज़ह सुनियोजित थी या स्वाभाविक, यह जांच का विषय है. अलबत्ता इस बेज़ा हरक़त से साबित होता है कि आमजन और इन्साफ के प्रति हुकूमत कितनी संजीदा है और राज्य की प्राथमिकताएं कैसी हैं. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने अगले रोज़ 21 अप्रैल की सुनवाई में लालफीताशाही को लेकर कड़ा रुख अपनाया और दण्ड का संकेत दिया।
यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि जहांगीरपुरी में ही हनुमान जयंती के अवसर पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी. आगजनी हुई. गिरफ्तारियां भी हुईं। यह लेखक दशकों से दिल्ली निवासी है. पिछले 32 सालों से पूर्वी दिल्ली का वासी है. हनुमान जयंती के अवसर पर कभी हिंसा हुई हो, परिवार के किसी सदस्य को याद नहीं है. दिल्ली में ही नहीं, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्णाटक ,गुजरात और अन्य राज्यों में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं मीडिया की सुर्ख़ियों में रही हैं. हैरत यह है कि हिंसा की घटनाएं रामनवमीं या नवरात्रे और रमज़ान ( रोज़े के दिनों में ) के मिले-जुले धार्मिक अवसरों पर हुई. दिल्ली के लिए यह नया अनुभव था. हालांकि, दिल्लीवासी 2020 के फरवरी महीने में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में साम्प्रदायिक हिंसा का विकराल रूप देख चुके थे. इससे पहले दिल्ली ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से जनित हज़ारों सिखों की नृशंस हत्याओं के हादसे भी झेले थे. लेकिन, हिंसा की ताज़ा श्रृंखलाबद्ध घटनाओं में एक पैटर्न नज़र आता है. ऐसा लगता है कि देश की सियासत केमुंह में साम्प्रदायिक हिंसा का खून लग गया है. यह हालत उस शेर के समान है जिसे मानव रक्त की चाट लग जाती है और वह हमेशा नए नए मानव शिकार की तलाश में भटकता रहता है. इस स्थिति की तुलना ऐसे कामुक बलात्कारी से भी की जा सकती है जो हर क्षण नई नई स्त्री की तलाश में रहता है. ऐसे बलात्कारी को मानसिक रोगी भी कहा जाता है.
सत्ता की भूख ने नेताओं को साम्प्रदायिक और जातिवादी हिंसा का पिपासू बना डाला है। चूंकि भाजपा केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ है, इसलिए हिंसा की रोकथाम की ज़िम्मेदारी उसकी कहीं अधिक हो जाती है . लेकिन देखने में आ रहा है कि भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारें अपना राजधर्म का वांछित पालन नहीं कर रही हैं.हैरत इस बात पर भी है कि बात-बेबात पर बोलने में सिद्धहस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिंसा के मुद्दे पर अक़्सर खामोश रहते हैं, सांप्रदायिक हिंसा के प्रति उदासीन बने रहते हैं! क्या उनके इस रहस्यमय रवैये में गुजरात -हिंसा ( 2002 ) के अनुभव तो छुपे हुए नहीं हैं? सवालों के ज्वार से भयभीत प्रधानमंत्री अपने आठ साला शासन काल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं कर सके हैं. यह उनकी शैली है या रणनीति, वे ही जाने। लेकिन सबकुछ अजीब लगता है! शायद मन की बात या एक तरफा संलाप से मोदी जी स्वान्तसुखी प्राणी बने रहना चाहते हैं।
क्या इन घटनाओं को विशेष पैटर्न का हिस्सा समझा जाये या ध्रुवीकरण का फार्मूला?चूंकि आनेवाले महीनों में कई प्रदेशों ( गुजरात,हिमाचल, कर्णाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि )में विधानसभाई चुनाव होने वाले हैं.इसके बाद 2024 में लोकसभा के आम चुनाव होंगे. क्या ऐसी घटनाओं के माध्यम से हिंसा और ध्रुवीकरण के नए नए आख्यानों ( narratives ) की चेन तो नहीं तैयार की जा रही है! सोचने और सचेत रहने की ज़रुरत है।
स्मृतियों से इतनी जल्दी लोप हो जाने वाली ये घटनाएं नहीं हैं. 2014 में संघ के खांटी प्रतिनिधि नरेंद्र मोदी के लुटियन दिल्ली पर काबिज़ होने के बाद से धर्मनिरपेक्ष भारत में मॉब लिंचिंग, लव ज़िहाद, गोररक्षा हिंसा , स्वयंभू पुलिसिंग,हिज़ाब, नो-बीफ, नो -हलाल मीट, हिन्दू त्योहारों में नो -मीट शॉप, मुस्लिम सब्ज़ी विक्रेता विरोधी घटनाएं, मुस्लिम औरतों के साथ बलात्कार की धमकियां, हिन्दू स्त्रियां चार बच्चे पैदा करें, तीन तलाक़, जय श्रीराम, वर्तमान मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे, इस्लाम फोबिया जैसे अल्पसंख्यक विरोधी मुद्दों को लेकर हर सप्ताह -हर महीने -हर राज्य में नए नए आख्यान तैयार किये गये. उल्लेखनीय है संविधान में जम्मू -कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को निरस्त करना। इन आख्यानों और ध्रुवीकरण के ताज़ा आख्यानों को लेकर मुस्लिम विरोध की एक बड़ी श्रृंखला स्वतः बन जाती है. क्या विभिन्न आख्यानों के तहत होनेवाली हिंसक घटनाएं कोरा इत्तफ़ाक़ तो नहीं हो सकतीं? दृश्य -अदृश्य हाथों द्वारा सुनियोजित -सुविचारित आख्यानों की श्रृंखला बुनी गई प्रतीत होती है. ऐसी घटनाओं से समाज के भाईचारे के परम्परागत ताना-बाना में बल पड़े हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
इतना ही नहीं, हिन्दू परिवारों में भी तनाव बढ़े हैं. मिलिटेंसी घुसी है. वैसे इस लेखक के मत में औसत बहुसंख्यक परिवार की आस्था उदारवादी हिन्दू धर्म में है. वह आज भी ‘ हिंदुत्ववादी जय श्रीराम’ के स्थान पर ‘जय रामजी की’ या ‘ जय सीताराम’ कहना अधिक पसंद करता है और मिली-जुली संस्कृति में विश्वास करता है. विभिन्न आख्यानों के शस्त्रों से इस उदारवादी संस्कृति को छिन्न -भिन्न करने की कुचेष्टाएँ की जा रही हैं. उत्तर प्रदेश की विधानसभा में मुस्लिम वर्ग से भाजपा का एक भी निर्वाचित विधायक का न होना किस बात की तस्दीक करता है ? पिछली विधानसभा में भी यही स्थिति रही थी.सहयोगी दल के उम्मीदवार को समर्थन देना दीगर बात है. क्या सुनियोजित ढंग से शासक दल मुसलमानों को चुनाव -टिकिट से दूर रखता है? यदि टिकिट देता भी है तो वे निर्वाचित क्यों नहीं हो पाते हैं? .अलबत्ता, परोक्ष चुनाव के माध्यम से विधानपरिषद व राज्यसभा में मुस्लिम सदस्य ज़रूर रहते हैं, लेकिन सीधे या प्रत्यक्ष चुनावी अखाड़े में उन्हें मुक्तभाव से नहीं उतारा जाता है। यह भी एक त्रासद सच्चाई है.
2.
बात सीधी -सपाट है; मोदी -शाह के नेतृत्व में सम्पूर्ण संघ परिवार अपने लगभग एक शताब्दी पुराने संकल्प या एजेंडे पर पूरी ईमानदारी, एकनिष्ठता और प्रतिबद्धता के साथ अमल कर रहा है. अब तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने भी घोषणा कर दी है कि 2025 तक भारत हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा। अखण्ड भारत बन कर रहेगा। याद रहे, संघ की स्थापना 27 सितम्बर,2025 को नागपुर में हुई थी. इसके संस्थापक थे डॉ. केशव बलीराम हेडगवार। तीन वर्ष बाद यह बेशुमार भुजा व मुंहवाली संस्था अपने जीवन के एक सौ वर्ष पूरा कर लेगी। हिन्दू राष्ट्र का विराट स्वप्न पूरा हो येन-केन -प्रकारेण, यदि संघ की यह प्रचण्ड महत्वाकांक्षा है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.
यह लेखक सम्पूर्ण संघ परिवार को इसलिए मुबारक़बाद देना चाहता कि वह अपने मिशन से डिगा नहीं है. कहीं भी विपथगामी व दिशाभ्रमित नहीं हुआ है. जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में शामिल हो कर इसने अपनी राजनैतिक अस्पृश्यता से मुक्ति पाई. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार का हिस्सा बन कर इसके सियासी नुमाइंदों – अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी आदि ने शासन -प्रशासन की धमनियों में गहराई के साथ घुसपैठ की. स्टेट क्राफ्ट को जाना। उसके कल -पुर्जों -ंनट -बोल्टों को ढीला करना और कसना जाना। इसकी रही -सही कसर को भाजपा की वाजपेयी सरकार ( 1998 -2004 ) में पूरा कर लिया गया. विगत में मिला शिक्षण -प्रशिक्षण 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में परवान चढ़ा और अब 2025 पर इसकी गिद्ध दृष्टि गड़ी हुई है. इस एक शताब्दी -यात्रा को संघ परिवार की अर्जुन दृष्टि व अंगद की एकनिष्ठता भी कहा जा सकता है!
धर्मनिरपेक्षता,हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता के सवाल पर गैर – संघी व भाजपाई सामाजिक और राजनीतिक शक्तियां अपनी निष्ठाओं में तुलनात्मक दृष्टि से खरी नहीं उतरीं और अवसरानुकूल फिसलती रहीं हैं । देश पर सबसे लम्बे समय ( करीब 65 वर्ष ) तक शासन करनेवाली कांग्रेस पार्टी ‘धर्मनिरपेक्षता और सॉफ्ट हिंदुत्व’ के बीच झूलती रही.है. धर्मनिरपेक्षता व साम्प्रदायिकता के सवाल पर कांग्रेस – आश्रित सरकारों ( देवगौड़ा व गुजराल सरकारें ) की स्थिति भी कहां बेहतर रही है ? इस सच्चाई को हम क्यों भूल जाते हैं कि नेहरू काल से लेकर मनमोहन सिंह काल तक संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्षता का प्रचार -प्रसार किया गया. राजसत्ता प्रायोजित धर्मनिरपेक्षता की अन्तर्निहित सीमायें होती हैं: पहली सीमा तो यह राज्य -समर्थन की बैसाखियों पर टिकी रहती है; समर्थन के हठते ही यह बालू के घरौंदे में तब्दील हो जाती है;दूसरा, समाज और इसके बीच फासला बना रहता है; तीन, आमजन इसे शंका से देखते हैं और शासक दल पर अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टिकरण का लेबल चस्पा देते हैं;चौथा, धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यकों के वोट प्राप्ती के माध्यम के रूप में देखा जाता है;पांचवां, शासक दल आश्रित धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकों को भयग्रस्त रखती है और आत्मनिर्भर नागरिक बनने से रोकती है;छह, दक्षिण पंथी ताक़तें ‘ इच्छित साम्प्रदायिकता’( selective communalism ) का आख्यान बहुसंख्यकों के बीच फैलाती हैं; सात, ‘ धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण को हथियार बनाकर चरम दक्षिणपंथी ताक़तें प्रगतिशीलों, उदारपंथियों, वामपंथियों और संविधानवादियों पर आक्रमण करती हैं; आठ, उदारवादी राजसत्ता बहुसंख्यक समुदाय के बैकलैश से भयभीत रहने लगती है और उसकी शासकीय शक्ति सिकुड़ने लगती है;नौ, धर्मनिरपेक्षता और बहुसंख्यकवाद के मध्य वह त्रिशंकुग्रस्त रहती है;दस, नतीजतन, धर्मनिरपेक्षता या अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद व मिलिटेंट साम्प्रदायिकता के द्वंद्व का विस्फोट होता है. आज हम ऐसे ही समय में पहुँच चुके हैं.
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सॉफ्ट हिंदुत्व की झलकियां दिखाई देने लगी थीं. अकाली दल को उसकी औक़ात दिखाने के लिए संत भिंडरांवाले जैसे कट्टर धार्मिक तत्व को राजनैतिक रूप से संरक्षण व प्रोत्साहन दिया गया. बाद में वही खालिस्तान का नारा लगा कर भस्मासुर बना. यह भी याद रखना होगा कि उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानों -केस में अल्पसंख्यक फ़िरक़ापरस्तों के सामने घुटने टेके और लोकसभा में कांग्रेस के प्रचण्ड बहुमत से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर -बेसबब बना दिया। अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टिकरण के आरोप झेले। इसे संतुलित करने और बहुसंख्यक समुदाय की तुष्टि के लिए अयोध्या में विवादास्पद बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाए और रामजन्म भूमि मंदिर के लिए भूमि पूजन करवाया। कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री नरसिंघ राव के शासन काल में चरम दक्षिणपथियों के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त ( 6 दिसंबर, 1992 ) किया गया. शुतुरमुर्ग बनी रहीं कांग्रेस पार्टी और केंद्र की सरकार। राजसत्ता द्वारा प्रायोजित धर्मनिरपेक्षता का नक़ाब उतर गया. उसकी सीमाएं उजागर हो गईं। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्र राज्य की धर्मनिरपेक्षता का लड़खड़ाना शुरू हो गया. चरम दक्षिण पंथियों की बाछें खिल गईं और दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए अपनी सामाजिक -राजनीतिक रफ़्तार तेज़ करदी।
इसी रफ़्तार की अहम पड़ाव थी गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा। साम्प्रदायिक हिंसा की प्रयोगशाला बने गुजरात ने संघ और उसके दृश्य -अदृश्य भुजाओं को अभूतपूर्व बल से लैस कर दिया। 2014 में भाजपा की अप्रत्याशित अभूतपूर्व विजय और नरेंद्र मोदी का मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनना इस प्रयोगशाला में हुए विभिन्न शासकीय -प्रशासकीय प्रयोगों के सफलतम परिणाम थे. धर्मनिरपेक्ष प्रोजेक्ट की दिलचस्प व दुखद सच्चाई यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ रही कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ( 2004 -14 ) भी गुजरात प्रयोगशाला के प्रयोगों प्रति बेखबर या उदासीन बनी रही। प्रयोगशाला में किस किस्म के प्रयोग किय जा रहे हैं, राजनीतिक रसायनों से कैसे कैसे विषैले शस्त्रों को तैयार किया जा रहा है और उनके प्रतिरोधी अस्त्र-शस्त्र क्या हो सकते हैं, डॉ. सिंह की धर्मनिरपेक्ष व संविधानवादी सरकार ने जानने-समझने की चिंता नहीं की. गोधरा काण्ड और तत्पश्चात शेष गुजरात में फैली साम्प्रदायिक हिंसा के असली सूत्रधार कौन हैं, इस मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार ने कोई गंभीर संवैधानिक क़दम उठाये हों, ऐसा नहीं जान पड़ता। इसकी एक वजह कांग्रेस में सुप्त दक्षिणपंथियों का उभरना और सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रति अनुराग भी हो सकती है. वैसे नेहरू काल से दक्षिण पंथी तत्व मज़बूत रहे हैं और माक़ूल मौक़े की तलाश करते रहे हैं। पांचवें दशक में कतिपय प्रगतिशील नीतियों के मार्ग में रुकावटें पैदा कीं थीं. डॉ. आंबेडकर का नेहरू सरकार से त्यागपत्र की पृष्ठभूमि में दक्षिण पंथी तत्व रहे हैं. नेहरू चाहकर भी आचार्य नरेंद्र देव को फैज़ाबाद से चुनाव नहीं जिता सके थे क्योंकि उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत उनके विरुद्ध थे. इसके विपरीत कट्टर दक्षिणपंथी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी चुनाव में विजयी हुए.
वास्तव में कांग्रेस की नीति निर्णायक प्रक्रिया में अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी जैसे परम्परावादी धर्मनिरपेक्ष नेताओं का हाशियाकरण हो गया था. नीति वर्चस्व में ऐसी शक्तियां थीं जोकि संघ के मूल एजेंडे से अपरिचित थीं या उसके प्रति ढुलमुल रहीं या संभावित हिंदुत्व उभार से भयभीत थीं. उन्हें चिंता 2014 के चुनावों में सॉफ्ट हिंदुत्व की सुराखज़दा कश्ती में सवार होकर पार उतने की थी. इस नीति से कांग्रेस नेतृत्व और मनमोहनसिंह-सरकार को न तो साहिल ही मिला, और न ही कश्ती साबुत बची! धर्मनिरपेक्षता प्रोजेक्ट की ऐतिहासिक त्रासदी की ज़िम्मेदार सिर्फ कांग्रेस संगठन और उसकी सरकारें हैं क्योंकि उन्होंने इसे लागू करने में एकनिष्ठता व अविभाजित प्रतिबद्धता का परिचय नहीं दिया है. खण्डित वफ़ादारी और प्रतिबद्धता का परिणाम है 2014 व 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की प्रचण्ड जीत। अगर भाजपा शुद्ध राजनीतिक दल रहती तो चिंता की बात नहीं थी. भाजपा के प्राण आर. एस. एस की नाभि में बसते हैं. संघ विशाल सांस्कृतिक -सामाजिक शक्ति से समृद्ध है. इसके अतिरिक्त प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की अकूत सेना उसके पास है. देश में शिशु मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं और साधू -संतों का विराट दृश्य -अदृश्य जाल फैला हुआ है. 1980 से पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) की संघ के साथ नाभिनाल कभी तिड़केगी भी, ऐसी सम्भावना इस लेखक को दिखाई नहीं देती है. बल्कि इस सन्दर्भ में सातवें दशक का एक प्रसंग याद आता है.
मोरारजी देसाई -सरकार के समय मधु लिमये, फर्नाडीज़,कृष्णकांत जैसे समाजवादी नेताओं ने मांग की थी कि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उनके साथी संघ से अपने संबंध विच्छेद करें तथा चंद्रशेखर की अध्यक्षता में संचालित जनता पार्टी व देसाई सरकार के प्रति ही वफ़ादार रहें। विभाजित वफ़ादारी के साथ वे सरकार व पार्टी में नहीं रह सकेंगे. सारांश में ‘ दोहरी सदस्यता ( dual membership )’ के मुद्दे को लेकर बहस चली थी. बहस का नतीजा यह निकला कि जनसंघ के नेताओं ने अपनी मातृ पार्टी या संगठन से वैचारिक व सांगठनिक नाता तोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया और जनता सरकार व पार्टी से अलग हो गए। अब तो उनका एकछत्र राज है और संघ के घोषित अजेंडे प्रति मोदी-शाह सरकार एकनिष्ठता के साथ समर्पित है. उसने कोई मुखौटा नहीं लगा रखा है. यदि कोई है भी तो वे भी दिन-ब-दिन उतरते जा रहे हैं.
कांग्रेस और गैर -भाजपाई सरकारें संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता से हमेशा चिपकी रहीं हैं. धर्मनिरपेक्षता और संविधान के संकल्प सामाजिक धर्म या जीवन शैली बने, देश का औसत नागरिक संविधान के प्रति प्रतिबद्ध रहे, इसे लेकर संगठित आंदोलन देश में नहीं चला. इस सन्दर्भ में, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की चेतावनी याद आती है. आज़ादी से पहले उन्होंने देश को चेताया था कि राजनैतिक सुधारों से कहीं अधिक ज़रूरी है सामाजिक सुधार. दूसरे शब्दों में, राजनैतिक आंदोलन व सुधार ही पर्याप्त नहीं है. भारत जैसे पिछड़े, परम्परावादी और पूर्व उपनिवेश देश के लिए सामाजिक सुधार अपरिहार्यरूप से आवश्यक हैं । संविधान के संकल्पों को तलहटी तक पहुंचाने और धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य की चेतना से भारतियों को लैस करने की जो कोशिशें की जानी चाहिए थीं, वे नहीं की गईं. जो भी प्रयास हुए, वोट पॉकेट्स को ध्यान में रख कर आधे -अधूरे मन से किये गए. भारत की रगों में शिखर से लेकर तलहटी तक धर्मनिरपेक्षता, सहिषुणता,बहुलतावाद, समानता, भातृत्व, न्याय, समाजवाद जैसे सिद्धांतों -भावनाओं की धारा अविरलरूप से बहती रहे, इस दिशा में सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक,आर्थिक और राजनीतिक स्तरों पर राजसत्ताओं ने संकोच, कृपणता और भेद-भाव से काम लिया है. सवाल उठाया जा सकता है कि स्वाधीन भारत के पाठ्यक्रमों में संविधान के आधारभूत संकल्पों के प्रचार -प्रसार के लिए क्या किया गया ? संविधान के संकल्पों,मौलिक अधिकारों -कर्तव्यों, भूमि सुधार, पूजापद्धति के समान अधिकारों आदि को लेकर ‘संविधान चालीसा’ तैयार करवा कर ग्रामीण भारत और सभी शिक्षण संस्थाओं में वितरित करवाई जा सकती थी.
इस लेखक को याद है, वर्ष 2000 में संविधान ने अपनी आयु के 50 साल पूरे किये थे. इस अवसर पर मध्य प्रदेश सरकार ने हज़ारों की संख्या में संविधान का एक गुटका या पुस्तिका प्रकाशित की और ग्रामीण क्षेत्रों में वितरित की थी. पुस्तिका के लेखन में वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया और इस लेखक ने अपना योगदान दिया था. मुझे नहीं मालून, अन्य राज्यों ने भी ऐसा किया होगा!इस काम का फॉलोअप हुआ होता तो अच्छा -बुरा परिणाम सामने आता। कहने का अर्थ यह है कि नरेंद्र मोदी पूर्व के शासकों ने धर्मनिरपेक्षता व साम्प्रदायिकता को लेकर नागरिक धर्म क्या होना चाहिए, इस ओर ध्यान नहीं दिया। साम्प्रदायिक हिंसा को कानून -व्यवस्था की दृष्टि से देखा गया. सामाजिक धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि से इसे नहीं समझा गया.सारांश में धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद की जड़ों को समाज में फ़ैलाने का कोई मिशन नहीं चलाया गया; ग्राम पंचायत,जिलापरिषद, नगर पालिका, साक्षरता अभियान आदि के माध्यम से इसके सन्देश को फैलाया जा सकता था. विभिन्न समुदायों की मिश्रित कॉलोनियां को बसाया जा सकता था. अप्पार्टमेंटों में मुस्लिम, सिख,ईसाई जैसे समुदायों के लोगों के लिए विशेष व्यवस्था की जाती। कुछ कानूनी प्रावधानों को रखा जाता। आज हालत यह है कि मुस्लिम और दलित को आसानी से किराये पर फ्लैट नहीं दिए जाते हैं, खरीदना तो दूर की बात है. एक तरह से हिन्दुत्ववाद का दूसरा नाम ‘नव सवर्णवाद’ है. इस सवर्णवाद में पिछड़े वर्ग के ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनका ‘संस्कृतिकरण ( बकौल एम.एन श्रीनिवासन )हो गया है. वे बहु आयामी गतिशीलता से संपन्न हुए हैं. शिखर के सवर्ण हिन्दू वृत्त में शामिल हो कर वे स्वयं को धन्य समझ रहे हैं. इस दृष्टि से पारम्परिक दलित वर्ग आज भी हाशिये पर है. इस वर्ग का इस्तेमाल साम्प्रदायिक हिंसा में किया जाता है. गुजरात के दंगों में ऐसा हो चुका है। ऐसे अकादमीय अध्ययन सामने आये हैं. स्पष्ट शब्दों में कहें, तो हिन्दुत्ववाद ने सवर्णों में प्राण फूंक दिए हैं और नवसवर्णवाद की सृष्टि हुई है. दू सरे शब्दों में, नवसवर्णवाद ने ब्राह्मणवाद का स्थान ले लिया है. हालांकि यह विवाद का विषय हो सकता है. इसमें बहस और स्पष्टता की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि brahmanical system के काफी सन्दर्भ बदल चुके हैं. पिछड़ी जातियों का एक हिस्सा ‘ क्लास’ में तब्दील हो चुका है, मध्यम वर्ग बन चुका है. अब इसे सवर्ण वृत्त की सामाजिक -सांस्कृतिक मान्यता चाहिए। इस साधन संपन्न हिस्सा ( affluent class ) को नवसवर्ण वृत्त में समाहित (co option ) कर लिया गया है. इसलिए नई कसौटियों की आवश्यकता है.
इस लेखक का कहने अर्थ यह कतई नहीं है कि समाज से धर्मनिरपेक्षता लुप्त हो गई है, इसका स्थान कट्टर साम्प्रदायिकता-बुनियादपरस्ती ने ले लिया है। यदि ऐसा हुआ होता तो देश के सीने पर बहुत पहले ही बहुसंख्यकवाद और कट्टर साम्प्रदायिकता सवार हो जाते । 2004 में वाजपेयी -सरकार के पतन के पश्चात् आडवाणी मार्का हिंदुत्व का युग शुरू हो गया होता। इस युग का अगला चरण मोदी-शाह नेतृत्व ही रहता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसके विपरीत सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ( UPA ) की सरकार ही केंद्र में एक दशक ( 2004 -14 ) तक सत्तारूढ़ रही.
लेखक का निश्चित मत है कि समाज का अब भी पूर्ण ध्रुवीकरण नहीं हुआ है. यह बहुसंख्यकवादी और हिंदुत्ववादी नहीं हुआ है. यह अब भी बहुलतावादी,सहिषुणतावादी और उदारवादी है. लेकिन उस तरफ इसके रुझान उग्र होते जा रहे हैं, इसमें संदेह नहीं है. इन रुझानों को मोदी-शाह मार्का हिंदुत्ववादी सियासत का समर्थन और संघ द्वारा तैयार की गई ज़मीन प्राप्त है, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। याद रखें, राज्य के संरक्षण, पोषण और प्रोत्साहन से ही सामाजिक -सांस्कृतिक- आर्थिक – राजनीतिक क्रियाओं की दशा -दिशा निर्धारित होती रही है. इस संबंध में इतिहास को खंगाल लीजिये; नंदवंश, सम्राट अशोक,पुष्यमित्र शुंग, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य,हर्षवर्धन, अकबर,औरंगज़ेब, रोबर्ट क्लाईव और नेहरू युग तक की यात्रा कर लीजिये, अंतर् समझ में आ जायेगा। सारांश में, राज्य के परिवर्तित चरित्र से समाज कम-अधिक प्रभावित होता रहा है। यह एक सार्विक प्रक्रिया है. 1990 -91 में पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में साम्यवादी सत्ताओं ( विचारधारा नहीं ) के पटाक्षेप के बाद से ही धार्मिक-मज़हबी कट्टरवाद और आतंकवाद का ज्वालामुखी फटा. एकल ध्रुवीय सत्ता ( अमेरिका ) ने इसे संरक्षण दिया। विश्व में साम्यवादी सत्ता के पतन से ‘महाशून्य पैदा हो गया. इस शून्य को भरा कट्टर धार्मिक शक्तियों और आक्रामक कॉर्पोरेट पूंजी ने. और इस नई व्यवस्था में झुलस रहे हैं ईरान, पाकिस्तान अफगानिस्तान, इराक़,सीरिया जैसे देश। दक्षिण एशिया में भारत समेत अन्य देश भी इस झुलस से बच नहीं सकते। ‘ अमेरिका स्वयं इस मज़हबी आतंकी हमले ( न्यू यॉर्क के दो टॉवरों का ध्वस्त होना ) शिकार हुआ. शीत युद्ध की समाप्ति (1990 ) के बाद दो दो खाड़ी युद्ध (1991 व 2003) हुए. 1997 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ( 1993 -2001 ) ने संयुक्त राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए स्वीकार किया था कि शीत युद्ध के अंत के बावजूद विश्व में हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं. विश्व पहले अधिक अशांत हुआ है. इत्तफ़ाक़ से यह लेखक उस समय महासभा की प्रेस दीर्घा में मौजूद था. पिछले दो -ढाई दशकों से एशियाई देशों में मज़हबी हिंसा का माहौल बना हुआ है. यह सिलसिला भविष्य में भी जारी रहेगा, इसके आसार दिखाई दे रहे हैं।
3.
वापस भारत की तरफ लौटा जाए. उत्तर नेहरूकालीन सरकारों को चाहिए था कि वे उत्तर भारत या हिंदी भारत पर विशेष ध्यान केंद्रित करतीं क्योंकि इस भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन नहीं के बराबर हुए हैं. यह भारत सामंती सांस्थानिक शक्तियों और सामंती सामाजिक प्रवृत्तियों का दुर्ग रहा है. प्रवृत्तियों के दृष्टि से यह आज भी है; जातिवाद का उग्र रूप दिखाई देगा;सवर्णों व पिछड़ों के दिमागों में आज भी दलित व आदिवासी बहिष्कृत हैं; धर्म संसदें होती हैं और उग्र धार्मिक आंदोलन चलते हैं; मंदिर -मस्जिद विवाद होते हैं; और साम्प्रदायिक हिंसा की उपजाऊ भूमि है.
यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि दिल्ली की सीमाओं पर एक साल लम्बे चले किसान आंदोलन के बावज़ूद उत्तर प्रदेश में हिंदुत्ववादी शक्तियों की जीत होती है और महंत योगीनाथ ने नेतृत्व में भाजपा दूसरी बार सत्तारूढ़ हो जाती है. तमाम प्रकार की जातिगत हिंसा, बलात्कार कांड ( हाथरस, उन्नाव आदि ), कोविड -19 के प्रथम दौर में प्रवासी मज़दूरों की त्रासदियां जैसी वीभत्स घटनाएं हिंदी समाज की स्मृतियों से विलुप्त हो जाती हैं और ईवीएम का बटन दबाते समय उसकी उँगलियों में हिंदुत्व दौड़ने लगता है! यह कैसी लोकतान्त्रिक चेतना है ? यह कैसा नागरिक धर्म है? कितना जड़ है उत्तर गांधी -नेहरू का हिंदी भारत ? यदि भारत की पूर्ववर्ती सरकारें सचेत रहतीं तो साम्प्रदायिकता की फसल के लिए हिंदी समाज उपजाऊ भूमि में तब्दील नहीं हुआ होता। 2022 में भी बाबरी मस्जिद खड़ी दिखाई देती। अब वर्तमान शासक निश्चिन्त हैं क्योंकि उन्होंने हिंदुत्व के अचूक शस्त्र का आविष्कार जो कर लिया है. आप जैसे विरोधी दल की नज़र में भाजपा “ गुंडों की पार्टी “ है. इस राजनीतिक आरोप में कितना दम है, इस पचड़े में नहीं पड़के इतना तो साफ़ नज़र आता है कि संघ परिवार के कतिपय जन संगठनों का सबसे निचला काडर में अराजकता हावी होने लगी है. उसके चल-चलन चेहरे से अनुशासनहीनता साफ़ झलकती है. संघ के संस्कारों से आज़ाद दिखाई देता है. सड़क छाप भाषा होती है. गंभीरता कहीं होती नहीं है. संघ समर्थित साधु-संतों की भाषा भी अमर्यादित व धार्मिक होने लगी है. गली -कूंचों के कार्यकर्त्ताओं की कार्यशैली में श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के चिंतन, विवेचन, तर्कशीलता, वैचारिक प्रतिबद्धता जैसे गुण गोल रहते हैं. इसका यह अर्थ नहीं है कि यह लेखक इन नेताओं की विचारधारा से सहमत है. पर यह तो माना जा सकता है कि वामपंथी नेताओं के समान दक्षिणपंथी नेताओं की भी विचारपद्धति रहती है. उनके साथ असहमतियां अपनी जगह है. इस दृष्टि से संघ व भाजपा के कैज़ुअल कार्यकर्त्ता संघ की परम्परागत मर्यादा संस्कृति में ‘ गले की हड्डी ‘ लगते हैं. जब कोई दल मर्सिनरियों पर आश्रित होने लगता है तो उसका भी तेज़ी से होने लगता है. पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी पार्टी ( तीन दशक से अधिक सत्तारूढ़ ) पर भी ऐसे ही आरोप लगे थे. उसके निचले काडर में अराजनीतिक, अवसरवादी और मस्तान जैसे तत्वों ने घुसपैठ कर डाली थी. इस्पाती अनुशासनवाली पार्टी की तलहटी सड़ने लगी थी. इसी सड़ांध का नतीजा वाममोर्चा सरकार को 2011 में करारी पराजय की शक्ल में भुगतना पड़ा; मार्क्सवादी पार्टी को बीच अधर में छोड़ मस्तान तत्व ममता के जहाज़ पर सवार हो गए थे. पार्टी की तलहटी के अपराधीकरण का नतीज़ा आज तक भुगत रही है यह पार्टी। आज संघ और भाजपा के पास अकूत राजनीतिक सत्ता और धन है. लेकिन, किसी को बख्शती नहीं है अपराधीकरण की प्रक्रिया। भड़ैती के तत्व भी एक प्रकार से आंतरिक आतंकवादी तत्व होते हैं। माना दुनिया में भाजपा के पास सदस्यों का बेजोड़ बल है. लेकिन जैसे जैसे भड़ैती – संस्कृति का फैलाव होगा, वैसे वैसे जेनुइन सदस्य -बल भी निस्तेज होता चला जायेगा। यह संस्कृति उसे नीलने लगेगी। भड़ैती संस्कृति की बैसाखियों पर सवार हो कर फौरी कामयाबी तो पाई जा सकती है, चेतावनी बतौर, वह स्थायी नहीं होती है.मौक़ा पाते ही निर्णय -बुर्जों पर पहुँच जाते हैं गुंडा तत्व।
आप इससे सहमत रहें या नहीं, लेकिन यह कटु सत्य है कि मोदी सत्ता के अस्तित्व में आने के बाद से (2014 ) देश की शासन -प्रशासन व सामाजिक जीवन शैलियों में एक प्रकार से ‘ प्रतिमान विस्थापन ( paradigm shift ) हुआ है. एक कृत्रिम भव्यता को राष्ट्र के ललाट पर सजाया जा रहा है. वर्तमान पीढ़ी की स्मृतियों में एक ऐसा इतिहास गढ़ने की कोशिश की जा रही है जिसमें संघ के आइकॉन ही भावी भारत के आइकॉन बने और विगत के आइकॉन भारत की स्मृति -पटल से हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएं। एक दुखद व घृणास्पद स्वप्न के रूप में उन नायक -नायिकाओं को देखे जोकि आधुनिक भारत के मूल्य मानक रहे हैं. संघ परिवार की सबसे बड़ी दुखद ग्रंथि है स्वतंत्रता संग्राम का बहिष्कार करना। अब उसे स्वीकार करना पड़ रहा है इसके ‘होने के यथार्थ’ को. संघ परिवार का आंतरिक द्वंद्व है ‘ स्वतंत्रता आंदोलन के सच की स्वीकृति या अस्वीकृति’. चूंकि यह परम्परावादी है इसलिए ‘पाप बोध’ से ज्यादा ग्रस्त है. इसे छिपाने के लिए वह कृत्रिम भव्यता, आक्रामक राष्ट्रीयता और सैन्य गौरवगान को अपनी ढाल बनाता है. स्वयं को स्थापित करने की प्रक्रिया में वह घृणा के नए नए आख्यान और ऑब्जेक्ट तैयार करता है. इतिहास में बहुसंख्यकों के साथ हुए अन्यायों को तलाशता और वर्तमान के अल्पसंख्यकों पर सहजता के साथ थोप देता है. घृणा के नए मानदंडों को नवोदित मध्यम वर्ग, विशेषतः हिंदुत्व से ओतप्रोत, बिना किसी विवेचना के स्वीकार भी कर लेता है। हिंदुत्व में मध्यम वर्ग अपना गौरव,अपना भविष्य और आभासी सत्ता देखता है. इसलिए उसे बड़ी सहजता के साथ अल्पसंख्यक उसे शत्रु नज़र आने लगते हैं.नतीजतन मध्यम वर्ग के मानस में अल्पसंख्यकों का इतिहास, उसकी विरासत, उसके जीवन मूल्य, उसकी जीवन शैली यानी कि पृथ्वी पर उसका समूचा अस्तित्व ‘घृणा, त्याज्य और शत्रुता के ऑब्जेक्ट’ में रूपांतरित हो जाते हैं.’ दोयम दर्ज़े का नागरिक’ की मानसिकता अल्पसंख्यक समुदाय को जकड़ने लगती है. इस समुदाय को अपने ही राष्ट्र में ‘मानसिक परायापन’का एहसास होने लगता है. ऐसी स्थिति में बुलडोज़रों से लैस हो कर राज्य अपने हमलावर करतबों की नुमाईश करता है तो बहुसंख्यक समुदाय का मध्यम वर्ग उसका स्वागत करतल ध्वनि से करता है क्योंकि उसके मानस को पहले से ही अनुकूलित किया जा चुका है. उसके विवेक अपहरण हो चुका है। साम्प्रदायिकता ने विवेक का स्थान ले लिया है। ध्रुवीकरण की बहुत महीन कारीगीरी की गई है. बड़ी शाहिस्तगी के साथ लोकतान्त्रिक व संवैधानिक संस्थाओं का बौनाकरण किया गया है या उन्हें निष्प्रभावी बना दिया गया है. इसकी बानगी को लेख के आरम्भ में वर्णित आला अदालत के आदेश के साथ हुए सुलूक में देखा जा सकता है.
सवाल बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक या साम्प्रदायिक हिंसा का नहीं है, उनकी शर्तों पर बहुलतावादी भारत को एक सांचें में ढालने की कुचेष्टाओं का है, राष्ट्र के अविवेकीकरण का है, सरकार के प्रतिरोध को राजद्रोह या राष्ट्र के साथ गद्दारी या अर्बन नक्सल या बौद्धिक वामपंथी आतंक और या टुकड़े –टुकड़े गैंग जैसी उपाधियों से सजाने का है. इस दौर में राज्य एक प्रकार से ‘ चुनींदा सज़ा और भेदभाव पूर्ण व्यवहार’ को पैटर्न में ढाल रहा है; वह खुद ही अपराधियों को चुनता है, दण्ड देता और इंसाफ तय करता है. सुनवाई के दरवाज़े बंद कर देता है. राष्ट्र की गर्दन पर आतंकवाद के भय की तलवार झूलती रहती है. अल्पसंख्यक ही नहीं, बहुसंख्यक भी भयग्रस्त रहता है. परस्पर संदेह व शत्रुता के बाड़े में जीते हैं दोनों समुदाय, अपने द्वारा निर्मित त्रासदियों से त्रस्त और कृत्रिम प्रसन्नता में सने रहते हैं. राज्य के चरित्र ने ऐसे बाड़े खड़े कर दिये हैं, दोनों समुदायों के इर्द-गिर्द। इन बाड़ों का ध्वंस विवेकपूर्ण लोकतांत्रिक प्रतिरोध से ही मुमकिन है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।