क्या भारत को स्थायी ध्रुवीकरण की स्थिति में होना चाहिए? सत्ता प्रतिष्ठान स्पष्ट रूप से चाहता है कि भारत के नागरिक यह विश्वास करें कि ऐसा वातावरण उनके सर्वोत्तम हित में है। चाहे वह पहनावा हो, भोजन हो, आस्था हो, त्योहार हो या भाषा हो, भारतीयों को भारतीयों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की जाती है और कलह की ताकतों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, हर तरह से प्रोत्साहन दिया जाता है। प्राचीन और समकालीन- दोनों तरह के इतिहास की लगातार व्याख्या करने की कोशिश की जाती है ताकि पूर्वाग्रह, शत्रुता और प्रतिशोध को बढ़ावा दिया जा सके। विडंबना है कि देश के लिए एक उज्ज्वल, नया भविष्य बनाने और उत्पादक उद्यमों में युवा दिमाग को शामिल करने के लिए हमारे संसाधनों का उपयोग करने के बजाय, एक कल्पित अतीत के संदर्भ में वर्तमान को नया रूप देने के प्रयासों में समय और मूल्यवान संपत्ति का उपयोग किया जा रहा है।”
भारत की अनेक विविधताओं को स्वीकार करने के बारे में प्रधानमंत्री जी की ओर से बहुत चर्चा की जाती है, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि उनके शासनकाल में जिस समृद्ध विविधता ने सदियों से हमारे समाज को परिभाषित और समृद्ध किया है, उसका इस्तेमाल हमें बांटने के लिए किया जा रहा है।
अब यह अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया गया है कि हमें उच्च आर्थिक विकास को बनाए रखना चाहिए ताकि धन का पुनर्वितरण किया जा सके, जीवन स्तर बढ़ाया जा सके और सबसे अधिक सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के लिए आवश्यक राजस्व उत्पन्न किया जा सके और हमारे युवाओं के लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर प्रदान किए जा सकें। लेकिन सामाजिक उदारवाद और कट्टरता का बिगड़ता माहौल, नफरत और विभाजन का फैलाव आर्थिक विकास की नींव को हिला देता है।
कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सबसे उद्यमशील एवं तेजी से बढ़ते राज्य कर्नाटक में कुछ साहसी उद्योगपतियों द्वारा इस सुनियोजित साजिश के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है और जैसी कि आशा की जा रही थी, इन साहसी आवाजों के विरुद्ध सोशल मीडिया में तीव्र प्रतिक्रिया दी गई। इस बात से सभी चिंतित हैं और चिंता जायज है। यह रहस्य की बात नहीं होनी चाहिए कि पिछले कई वर्षों में अधिकाधिक संख्या में व्यवसायियों ने खुद को आप्रवासी भारतीय बना लिया है।
नफरत का बढ़ता शोर, आक्रामकता के लिए खुले तौर पर उकसावा और यहां तक कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपराध भी हमारे समाज में मिलनसार, समन्वित परंपराओं से बहुत दूर हैं। त्योहारों का साझा उत्सव, विभिन्न धर्मों के समुदायों के बीच अच्छे पड़ोसी संबंध, कला, सिनेमा और रोजमर्रा की जिंदगी में आस्था और विश्वास का व्यापक मेल-मिलाप, जिसके उदाहरण हजारों लोग हैं, यह हमारे समाज की एक गौरवपूर्ण और टिकाऊ विशेषता है। संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए इसे कमजोर करके भारतीय समाज और राष्ट्रीयता की समग्र और समन्वित नींव को कमजोर किया जा रहा है।
किसी साजिश के तहत भारत में एक स्थायी उन्माद की स्थिति बनाए रखना विभाजनकारी नीति का ही हिस्सा है। सत्ता में बैठे लोगों की विचारधारा के विरुद्ध उठने वाली सभी प्रकार की असहमति की आवाज और दृष्टिकोण को बेरहमी से कुचलने की कोशिश की जाती है। राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया जाता है और उनके खिलाफ सरकारी मशीनरी की पूरी ताकत झोंक दी जाती है। सोशल मीडिया का उपयोग जिन बातों के प्रचार के लिए किया जाता है, उन्हें केवल झूठ और जहर के रूप से ही वर्णित किया जा सकता है। मोदी सरकार ने 1949 में संविधान सभा द्वारा हमारे संविधान को अपनाने के उपलक्ष्य में 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाने की प्रथा शुरू की है लेकिन यह सरकार हर संस्था को व्यवस्थित रूप से क्षीण करते हुए संविधान के सामने नतमस्तक होने का दिखावा करती है। यह सरासर पाखंड है।
हम विश्व स्तर पर कितने विशिष्ट दिखना चाहते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम देश में कैसे सर्वसमावेशी समाज बनाते हैं। नारों के माध्यम से नहीं, बल्कि असल आचरण से। कौन सी बात प्रधानमंत्री को स्पष्ट रूप से और सार्वजनिक रूप से भड़काऊ भाषा के खिलाफ बोलने से रोकती है? आदतन अपराधी खुलेआम घूमते हैं और उनके द्वारा भड़काऊ और उत्तेजक भाषा के इस्तेमाल पर कोई रोक नहीं है। वास्तव में उन्हें विभिन्न स्तरों पर एक प्रकार का आधिकारिक संरक्षण प्राप्त है और यही कारण है कि वे बच निकलते हैं।
जोरदार बहस, चर्चा और वस्तुतः किसी भी प्रकार की बातचीत जहां एक वैकल्पिक दृष्टिकोण का स्वागत किया जाता है, अतीत की बात हो गई है। यहां तक कि शिक्षा जगत, जिसे कभी नई विचार प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करने के लिए सम्मानित किया जाता था, दुनिया के अन्य हिस्सों के समकक्षों के साथ बातचीत करने के लिए एक जांच के दायरे में है। आस्थाओं की निंदा करना और पूरे समुदायों की निंदा करना एक तरह का आदर्श बन गया है। ऐसे में विभाजनकारी राजनीति न केवल कार्यस्थल को प्रभावित करती है, बल्कि अब हम इसे अपने पड़ोस और वास्तव में अपने घरों में प्रवेश करते हुए देख रहे हैं। इससे पहले इस देश ने हमारे नागरिकों द्वारा अपनाई गई दिन-प्रतिदिन की पसंद-नापसंद के आधार पर घृणा नहीं देखी है।
हमारी यह अद्भुत धरती विविधता, बहुलता और रचनात्मकता का धाम रही है और इसने महान विचारों और व्यक्तित्वों को जन्म दिया है, जिनके कार्यों को दुनियाभर में पढ़ा और स्वीकारा गया है। अब तक उदारवादी वातावरण और समावेशिता, समायोजन और सहिष्णुता की भावना ने यह सब संभव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एक बंद समाज जो सीमित सोच को प्रोत्साहित करता है, उसमें शायद ही नए विचारों का प्रवाह हो सके। एक संकीर्ण दिमाग के उर्वर या अभिनव होने की संभावना न के बराबर है।
आज हमारे देश को नफरत, कट्टरता, असहिष्णुता और असत्य ने घेरा हुआ है। यदि इसे अभी नहीं रोका गया तो यह हमारे समाज को ऐसी क्षति पहुंचाएगा जिसकी भरपाई करना मुश्किल होगा। हम इसे जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकते हैं और न ही देना चाहिए। जब छद्म राष्ट्रवाद की वेदी पर शांति और बहुतवाद की बलि दी जा रही हो, हम एक मूकदर्शक व्यक्ति के रूप में खड़े होकर ऐसा होते हुए नहीं देख सकते।
आइए, हम इस प्रचंड आग और नफरत की सुनामी पर काबू पाएं और पिछली पीढ़ियों द्वारा इतनी मेहनत से अर्जित की गई परंपराओं को धराशायी होने से बचाएं। एक सदी से भी पहले, भारतीय राष्ट्रवाद के कवि ने दुनिया को अपनी अमर गीतांजलि सौंपी थी, जिसका शायद 35वां श्लोक सबसे प्रसिद्ध और सबसे अधिक उद्धृत किया गया है। गुरुदेव टैगोर की प्रार्थना, इसकी मूल पंक्तियों के साथ शुरू होती है, “जहां मन निर्भय हो…।” ये पंक्तियां आज ज्यादा प्रासंगिक हैं और इनकी प्रतिध्वनि और भी स्पष्ट है।
प्रस्तुति- कृष्णकांत
यह लेख मूल रूप से इंडियन एक्सप्रेस में छपा था।