यूनियन कार्बाइड ने कहा, एक पैसा नहीं देंगे- और ख़बर?

 

यह अपनी बेइज्जती खुद कराने की ‘राजनीति’ नहीं तो क्या है

एंटायर पॉलटिकल साइंस में एमए, प्रधानसेवक की राजनीति दिलचस्प है। वे खुद कह चुके हैं, “मेरी राजनैतिक सूझबूझ कहती है, मनरेगा कभी बंद मत करो.. मैं ऐसी गलती कभी नहीं कर सकता, क्योंकि मनरेगा आपकी (यूपीए) विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है.. आजादी के 60 साल बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा.. यह आपकी विफलताओं का स्मारक है, और मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा… दुनिया को बताऊंगा, ये गड्ढे जो तुम खोद रहे हो, ये 60 सालों के पापों का परिणाम हैं।” 

इसलिए मनरेगा को चलते रहना है। यह उनकी राजनीति है और मैं उसकी चर्चा नहीं करूंगा। नोटबंदी उनकी राजनीति थी या नहीं मैं नहीं जानता पर आईडिया उनका नहीं था यह सर्वविदित है। नोटबंदी से परेशान होने वालों का मजाक उड़ाना उनकी राजनीति हो या नहीं, स्वभाव जरूर है। यह अलग बात है कि अचानक हुई नोटबंदी से लोगों को जो नुकसान हुआ, परेशानी हुई उसके लिए सरकार जिम्मेदार है। किसी ने आप पर भरोसा करके आपको सत्ता सौंपी, आप गलत फैसले करें और उससे नुकसान हो तो उसका मजाक उड़ाएं ऐसा सब कोई नहीं कर सकता है पर जिसने किया है उसे अब हर कोई जानता है। 

नोटबंदी और उसके बाद खराब जीएसटी और इस कारण उद्योग धंधे खराब होने से देश की खराब माली हालत के बीच सरकार की नीति विरोधियों को दबाने कुचलने की रही। इसमें कुछ खास लोग आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं लेकिन ज्यादातर गरीब ही हुए हैं। खास धर्म के लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर करने के सरकार समर्थकों के खास उपायों के बावजूद आम नागरिक गरीब हुआ है और सरकार है कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ कहने के बावजूद जो बना-कमाया उसे बेचकर खर्चा चला रही है। पेट्रोल पर भारी टैक्स लगा रही है और जीएसटी वसूली बढ़ाने के लिए खून में व्यापार है जैसे दावे याद दिला रही है। मंहगाई जो बढ़ी वह मुद्दा ही नहीं है। 

ऐसे में न जाने किसलिए, शायद राजनीति में ही, भोपाल गैस त्रासदी पर यूनियन कार्बाइड से हुए समझौते को फिर से खोलने की कोशिश शुरू हुई है। हालांकि मामला सुप्रीम कोर्ट का है और पुराना मामला अब शुरू हुआ है। यह राजनीति इसलिए हो सकती है क्योंकि इसके तहत कहा गया है कि (पहले की) सरकार ने बहुत कम पर समझौता कर लिया था और वह कुछ ज्यादा चाहती है। कहने की जरूरत नहीं है कि 1984 की इस घटना के इसने वर्षों बाद इस मामले में भी कुछ कमाने या वसूलने की कोशिश सरकार का मूल स्वभाव दिखाती है। मुझे इस स्वभाव के सही-गलत या उचित अनुचित होने अथवा इसकी सेवा भावना पर कुछ नहीं कहना है।  

मैं उस कोशिश पर टिप्पणी करना चाहता हूं जिसकी वजह से इस कोशिश की या इस अथवा उस सरकार की बेइज्जझती हो रही है और कोशिश कितनी वाजिब है यह तो सुप्रीम कोर्ट ने ही पूछ लिया है। हो सकता है सुप्रीम कोर्ट के अनुकूल फैसलों से सरकार को उम्मीद बनी हो पर यह तो सोचा ही जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का अब का फैसला यूनियन कार्बाइड के लिए कितना बाध्यकारी होगा। संभव है यह सब सोच लिया गया हो और सरकार को सफलता भी मिल जाए। तो वह यूनियन कार्बाइड से कुछ करोड़ और वसूल कर अपनी कामयाबी दिखाएगी? क्या सरकार का काम यही होता है और नरेन्द्र मोदी यही सब करने के लिए प्रधानमंत्री बने थे या देश जिसके बारे में कह रहा था कि उसका विकल्प नहीं है उसका हासिल यही है। 

आप जानते हैं कि विरोधियों पर बेशर्मी से सीबीआई-ईडी लगाने वाली सरकार ने विदेशी चंदा लेने से लेकर स्वतंत्र रूप से कमाने और सरकार का विरोध करने लायक होने की स्थिति बनाना कितना मुश्किल कर रखा है। ऐसे में सरकार खुद गलती पर गलती करती जाए, मीडिया उससे आंख मूंदे रहे और सरकार मुद्दा बदल कर दूसरे की बात करने लगे। देश में आठ साल में यही हुआ है। कुछ और हुआ होता तो सरकार को हर चुनाव के पहले नए मुद्दे नहीं खोजने पड़ते वह अपने काम बताकर वोट मांगती। राहुल गांधी को बदनाम करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।   

भोपाल गैस त्रासदी मामले में समझौता होने के बावजूद और पैसे वसूलने की कोशिश को आप राजनीति मानिये या सरकार का सामान्य स्वभाव – स्थिति यह है कि इसे अखबारों में पहले पन्ने लायक भी नहीं माना जाता है। यह खबर आज द हिन्दू और टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर है। द हिन्दू में लीड है और शीर्षक है, यूनियन कार्बाइड ने कहा अब अब धेला भी नहीं देंगे। उपशीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा – भोपाल गैस पीड़ितों के लिए 470 मिलियन डॉलर के बाद और पैसे मांगते हुए सरकार कमजोर स्थिति में है, पूछा राहत के 50 करोड़ रुपए बांटे क्यों नहीं गए। आप समझ सकते हैं कि सरकार ने खुद को कैसी स्थिति में डाल लिया है। देश के अखबारों में भले इसकी चर्चा न हो या इसका सकारात्मक पक्ष ही दिखाया जाए लेकिन विदेश में तो सरकारी नियंत्रण नहीं चलेगा। 

लाइव लॉ के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने मंगलवार को अमेरिकी आधार वाले कॉरपोरेशन, यूनियन कार्बाइड (अब डॉव केमिकल्स के स्वामित्व वाली) से भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों के लिए अतिरिक्त मुआवजे की मांग करते हुए 2010 में दायर केंद्र की क्यूरेटिव याचिका की सुनवाई शुरू की। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाए जाने के लगभग 19 साल बाद दाखिल की गई क्यूरेटिव याचिका के दायरे के बारे में सवाल उठाए। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश इस बात से चिंतित थे कि क्या दोषी कॉरपोरेशन और भारत सरकार के बीच हुए समझौते को नए दस्तावेजों के आधार पर फिर से खोला जा सकता है, वह भी इतनी देरी के बाद। बेशक यह मामला भी पुराना है और इस सरकार की इच्छा या मंजूरी के बिना नहीं चल रहा है। इसलिए इसमें अगर आप राजनीति देखते हैं तो इन तथ्यों का भी ख्याल रखें। 

टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर का शीर्षक है, ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का नुकसान हो सकता है’ : कार्बाइड के खिलाफ अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है। तीन लाइन के शीर्षक के साथ 15 लाइन की खबर। हिन्दी अखबार मैं नहीं देखता। हिन्दी में, ‘कार्बाइड के खिलाफ अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा’ गूगल करने पर 21 सितंबर की खबरें पहले पन्ने पर आईं। इनमें एक, द वायर की खबर का शीर्षक है, भोपाल गैस त्रासदी: अदालत ने कहा- केंद्र पीड़ितों के लिए मुआवज़े पर अपना रुख़ स्पष्ट करे। आज की खबर इसके बाद की है। द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर सूचना के साथ यह खबर अंदर के पेज पर है। यहां, इसका शीर्षक है, केंद्र को मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ा, कार्बाइड दृढ़।      

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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