आज समाजवादी चिंतक व राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया की 110वीं जयंती है। डॉ. लोहिया अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाते थे क्योंकि आज ही के दिन शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर में फांसी दी गयी थी। डॉक्टर साहब की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उनका जन्मदिन मनाना शुरू कर दिया। इस बार कोरोना महामारी की वजह से देश भर में डॉ. लोहिया की जयंती पर होने वाले प्रायः सभी छोटे-बड़े कार्यक्रम स्थगित कर दिये गये हैं।
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें दर्जनों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और हजारों लोगों के घर और दुकानदार दंगाइयों की भेंट चढ़ गए। 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे के छत्तीस साल बाद दिल्ली मज़हबी हिंसा का शिकार हुई। भारत विभाजन के समय भी देश भर में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। पंजाब और बंगाल में सबसे ज्यादा हत्याएं, लूट और बलात्कार की घटनाएं हुई थीं। कलकत्ता, नोआखाली और चटगांव मानो मरघट में तब्दील हो गये थे। कलकत्ता, पटना, छपरा, गया और नोआखाली में शांति बहाली के लिए खुद महात्मा गांधी ने काफी प्रयास किये। तीन महीनों तक नंगे पांव उन्होंने पूर्वी बंगाल के नोआखाली में हिंसा प्रभावित गांवों की पदयात्रा की। अमन बहाली और कौमी एकता के इस प्रयास में डॉ. राममनोहर लोहिया भी उनके साथ थे।
नोआखाली की स्थिति सामान्य होने पर डॉ. लोहिया ने चटगांव में शांति स्थापना के लिए कई गांवों का दौरा किया। इस दौरान मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं द्वारा उनके ऊपर हमले भी किए गए। चटगांव टाउनहॉल की सभा में तो उनका सिर काटने वालों को दस हजार रूपये देने की घोषणा तक की गयी। फिर भी वे विचलित नहीं हुए क्योंकि जिस मज़हबी एकता के बल पर अंग्रेजों का मुकाबला किया गया था उसे बंटवारे के नाम पर वह छिन्न-भिन्न होता नहीं देख सकते थे। नोआखाली और चटगांव में कौमी एकता और सांप्रदायिकता के विरूद्ध उनके दिये भाषणों का कोई ऑडियो वगैरह या उनके साथ शांति मिशन में शामिल कोई शख्स तो जीवित नहीं है लेकिन भारत की आजादी के दो दशक बाद यानी 1967 में एकीकृत बिहार के रांची-हटिया में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद उनका दिया एक भाषण जरूर उपलब्ध है और सोशलिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित कौमी एकता सभा से जुड़े चश्मदीद भी ज़िंदा हैं।
जैसा नफ़रत और अविश्वास का माहौल देश में बन रहा है, ऐसे में डॉ. लोहिया समेत हर महापुरुष के सांप्रदायिक सद्भाव वाले विचारों को जन-जन तक पहुंचाया जाना चाहिए था। आज देश को इन जैसे महापुरुषों के विचारों की बहुत आवश्यकता है। पिछले साल नवंबर में डॉ. लोहिया से जुड़े शोध कार्यों के सिलसिले में मैं रांची गया था। तिरानवे वर्षीय वयोवृद्ध समाजवादी विचारक और डॉ. लोहिया को करीब से जानने वाले देवकीनंदन नरसरिया से डॉ. लोहिया के संबंध में लंबी बातचीत हुई।
रांची में हुई सांप्रदायिक हिंसा को याद करते हुए देवकीनंदन कहते हैं, “पांच दशक बाद भी बर्बरता के वे दृश्य उनके स्मृतिपटल पर कायम हैं, मानो कल की ही घटना हो। रांची दंगे के बाद हम समाजवादियों के आग्रह पर डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ रांची आए। डाक बंगले से थोड़ी दूर कचहरी मैदान में उनका भाषण होना था। मेरा सौभाग्य था कि उस कार्यक्रम की तैयारियों का जिम्मा मुझे दिया गया था। दंगे के बाद धीरे-धीरे रांची की स्थिति सामान्य होने लगी थी, लेकिन लोगों के मन में खौफ़ कायम था। सोशलिस्ट पार्टी की ओर से रिक्शा-तांगा पर डॉ. लोहिया की प्रस्तावित जनसभा का प्रचार-प्रसार हफ्ता-दस दिनों से जारी था। नतीजतन कचहरी मैदान में डॉ. लोहिया की सभा शुरू होने से पहले पूरा मैदान भर चुका था। तब रांची आज की तरह कंक्रीट के जंगल में तब्दील नहीं हुआ था। मैदान में जगह न मिलने पर सैकड़ों लोग पेड़ों पर चढ़कर सांप्रदायिक एकता से संबंधित डॉ. लोहिया का भाषण सुन रहे थे।”
वे बताते हैं, “हिंदी के प्रख्यात विद्वान व समाजसेवी डॉ. फादर कामिल बुल्के और डॉ. राममनोहर लोहिया गहरे मित्र थे। फादर बुल्के वर्ष 1936 में रांची आये जो बाद में उनकी कर्मभूमि भी बनी। वैसे तो जब भी डॉ. लोहिया रांची आते, फादर कामिल बुल्के उनसे मिलने ज़रूर आते थे। डॉ. लोहिया ज्यादातर डाक बंगले में रुकते थे और कभी-कभी हमारे घर भी। रांची दंगे के बाद कौमी एकता की सभा के सिलसिले में जब डॉ. लोहिया रांची आये थे तो फादर कामिल बुल्के भी लगातार उनके साथ रहे। कौमी एकता की सभा में फादर बुल्के भी थे। अमूमन डॉ. लोहिया और फादर बुल्के के बीच हिंदी भाषा और साहित्य पर चर्चा होती थी। दोनों के बीच बड़ा ही आत्मीय संबंध था। रांची की सभा के बाद डॉ. लोहिया दो दिनों तक रांची में रहे। उसके बाद मेरे अलावा सोशलिस्ट पार्टी के तीन और साथियों के साथ डॉ. लोहिया झुमरी तिलैया गये। झुमरी तिलैया के बाद वे हजारीबाग गये और वहीं से वे दिल्ली चले गये। डॉ. लोहिया से यह हमारी आखिरी भेंट थी।“
बिहार सोशलिस्ट पार्टी द्वारा रांची में आयोजित सांप्रदायिक सौहार्द पर डॉ. राममनोहर लोहिया के भाषण का लिप्यन्तरणः
“दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, यह अद्भुत देश है कई बातों में। क्या गीता, क्या और कोई भी किताब, कोई भी श्लोक, उसमें अहिंसा को और अभय को बहुत जगह दी जाती है। जैसे गीता में भी कभी जाके पढ़ना तो जो दैवी गुण या बड़े गुण गिनाये जाते हैं। एक दफे तो अभय सबसे ऊंचा रखा गया है। मेरी भी यही राय है कि मनुष्य के लिए सबसे बड़ा गुण है अभय, निर्भयता। किसी से डरो मत, तो जब किसी से डरोगे नहीं तो किसी को डराने वाली बात भी नहीं होगी। जो किसी से डरोगे नहीं किसी को डराओगे नहीं, तभी तो निर्भय हो सकोगे।
एक तो अभय और दूसरी अहिंसा। हिंसा मत करो, लेकिन किसी के पीठ में छुरा भोंक देना, सौ-पचास की टोली बना करके एक-दो चार आदमियों के ऊपर चढ़ बैठना, नन्हे-नन्हे बच्चों को खत्म कर देना, ये तो हिंसा भी नहीं है, इसको तो मैं नहीं जानता क्या शब्द कहूं। ये तो विशुद्ध क्रूरता है, जानवर भी ऐसा काम नहीं करता। मैंने देखा है और जो कुछ भी पढ़ा-लिखा है जानवरों की आदत बारे में। जैसे शेर है, वह तभी हमला करता है या मारता है, जब उसे भूख लगती है। बिना भूख लगे बेमतलब चढ़ बैठे और खत्म किया क्योंकि दिमाग मतवाला हो गया, क्योंकि कुछ गुस्सा आ गया। उसी प्रकार कहीं कोई खबर पढ़ी और उससे गुस्सा आ गया। तो आप देखो कि यह तो विचित्र संस्कृति और विचित्र देश हुआ कि एक तरफ वह गीता की अहिंसा और मांस-मछली नहीं खाने वाली अहिंसा। और दूसरी तरफ लुक-छिप कर घबराए हुए आदमी के ऊपर चढ़ बैठ करके उसको छुरा भोंक करके जैसे-तैसे मार डालने वाली हिंसा। तो कहीं कोई चीज हमारी बहुत गड़बड़ हो गयी है। उसके उपर हम सब लोगों को ध्यान देना चाहिए।
जो कौम क्रूर हिंसा सीख जाती है, सौ-पचास का झुंड बना करके एक-दो चार आदमियों पर टूटना सीख जाती है, वो कौम फिर परदेसी हमलावर के सामने बहादुरी नहीं दिखा सकती है, वो कमजोर हो जाती है, वो अपनी रक्षा नहीं कर सकती, उसका देश गुलाम बन जाया करता है। इसलिए इस बात पर आप सब लोगों को बहुत ताकत और धीरज के साथ सोच-विचार करना चाहिए।
यह सही है कि हरेक को अपने समूह के साथ थोड़ा लगाव होता है। कोई भी समूह हो, जैसे मान लो जात का समूह है, भाषा का समूह है, धर्म का समूह है या खेती-कारखाने में एक खास ढंग से काम करने वालों का समूह है। अब जैसे मान लो धर्म के हिसाब से हिंदू-मुसलमान सिख वगैरह। हिंदू-सिख तो एक ही समझो, लेकिन फिर भी कहने के लिए अलग-अलग धर्म हैं। भाषा के हिसाब से जैसे समझो बांग्ला, तमिल, हिंदी, उर्दू वगैरह। हिंदी-उर्दू तो एक ही हैं, लेकिन कहने के लिए मान लो उनको अलग कह दो। ये सब अलग-अलग समूह हैं। जैसे समझो आर्थिक जीवन में कोई व्यापारी है, दुकानदार है। दुकानदार में कोई है फुटकर, तमोली या बीड़ी बेचने वाला। कोई है जरा और उंचा पैसे वाला दुकानदार, कपड़े की बड़ी दुकान वाला। फिर उससे और बड़ा थोक दुकानदार। इसी तरह से अलग-अलग टुकड़ियां होती है। हरेक अपने टुकड़ी के साथ थोड़ा लगा हुआ रहता है, लगाव होता है, लेकिन वो लगाव अगर इतना ज्यादा हो जाए कि उस टुकड़ी के लगाव के लिए हम अपने राष्ट्र को छिन्न- भिन्न कर डालें तब तो फिर हमारी कोई हैसियत नहीं रहेगी न।
हम में से न जाने कितनों से कब कौन सा कुकर्म हो जाया करता है, लेकिन फिर आदमी ऊंचा उठता है। मन को अगर पछतावा हो, अगर वो समझ जाय, सोच ले कि उससे बुरा काम हुआ और बुरा काम हुआ सोचने के बाद वो अपने जीवन को और पग को बदल दे, दूसरी तरफ ले जाय, तब वो आदमी ऊंचा उठता है। बहुत आदमी जो ऊंचे उठते रहते हैं वो अपने किए हुए बुरे कामों पर पछतावा करने से ऊंचा उठते हैं। बुरा काम तो कौन नहीं करता? किसी का कोई बुरा काम है, किसी का कोई बुरा काम है। अच्छे और बुरे में खाली एक ही फर्क है कि बुरा आदमी तो बुरा काम करता रहता है लगातार। उसको कभी पछतावा नहीं होता और वो अपनी गलती को कभी सुधारता नहीं और अच्छा आदमी वो है जो अपनी गलती समझ जाय और गलती को सुधारे।
तो, इसलिए अगर आपमें कोई लोग ऐसे हों जिनका हाथ इन कामों में सीधे लगा हो तो मैं उनसे आज बहुत जोर प्रार्थना करूंगा कि देखो समझ के रखना, अगर आमने-सामने की वीरता चाहते हो तो फिर ये लुक्के-छुप्पे हमले को छोड़ो। ये आदमी को निहायत जंगली, निहायत मतवाला, निहायत क्रूर और निहायत नपुंसक बना दिया करता है। इस फैसले को आप जरूर मेरी तरफ से परखें और सोच-विचार करना।“
(जुलाई 1967 में रांची में भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। अगस्त 1967 में बिहार सोशलिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित कौमी एकता की सभा को डॉ. राममनोहर लोहिया ने रांची स्थित कचहरी मैदान में संबोधित किया था। डॉ. लोहिया के जीवन का यह आखिरी भाषण था और ढाई महीने बाद 12 अक्टूबर, 1967 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। )
हैदराबाद में डॉ. लोहिया द्वारा दिए गए एक भाषण के कुछ अंश हमें पढ़ना चाहिए। अपने भाषण में वे कहते हैः
आखिर जब हम हिंदू और मुसलमान की बात करते हैं तो हवा में नहीं, अरब के मुसलमान की नहीं, हिंदुस्तान के मुसलमान की, और हिंदुस्तान का मुसलमान तो आखिरकार हिंदू का भाई है, अरब के मुसलमान का तो है ही नहीं। आमतौर से जो भ्रम हिंदू और मुसलमान, दोनों के मन में है, वह यह कि हिंदू सोचता है पिछले 700-800 वर्ष तो मुसलमानों का राज रहा, मुसलमानों ने जुल्म किया और अत्याचार किया और मुसलमान सोचता है, चाहे वह गरीब से गरीब क्यों न हो, कि 700-800 वर्ष तक हमारा राज था, अब हमको बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों के मन में यह गलतफहमी धंसी हुई है। यह सच्ची नहीं है।
असलियत यह है कि पिछले 700-800 वर्षों में मुसलमान ने मुसलमान को मारा। तैमूर लंग जब चार-पांच लाख आदमियों को कत्ल करता है, तो उसमें से तीन लाख तो मुसलमान थे। सभी हिंदुओं को यह समझना चाहिए कि रजिया, शेरशाह, जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं। उसी तरह मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि गजनी, गोरी और बाबर लुटेरे थे और हमलावर थे।