आदिवासी महिलाएं, पितृसत्ता और सत्ता- दोनों से सवाल कर रही हैं!

आदिवासी महिलाओं पर बातचीत करते हुए सामुदायिकता को विशेष रुप से चिन्हित करने की आवश्यकता है. आदिवासी पुरुषों और स्त्रियों दोनों को एक मंच पर आकर खुलकर संवाद करने की बहुत आवश्यकता है. आदिवासी समाज वाकई कुछ चुनौतियों और परेशानियों से गुजर रहा है, जिनका हल समाज द्वारा मिल बैठकर संवाद से सामूहिकता में तलाश किया जा सकता है. जिस प्रकार हमें, हमारे रूढ़िवादी होने पर गुमान होता है – उसी प्रकार कुछ है, जो अंदर ही अंदर अदिवासी स्त्री मन में खदबदा रहा है और उसका हल ढूंढा जाना नितांत आवश्यक दिखता है. आज हमारे सामने कुछ घटनाए जो बारंबार दोहराई जा रही हैं, उन पर गौर करने का दम हम में होना चाहिए. हमें अपने आज के हालात और मुद्दों पर बहुत गंभीर और संवेदनशील होकर विचार-विमर्श  करने की आवश्यकता है. जैसा कि हाल में नया चलन दिखने लगा है, परम्परा, संस्कृति को चोट पहुंचाने की बात करके उस पर पंचों के हवाले से सजा देना बहुत गलत है. मीडिया में आई कई ख़बरों के हवाले से इस पर बात करना जरुरी हो गया है. इस विषय पर आदिवासी स्त्रियाँ संवाद, स्पष्टता, चिंतन, पक्षधरता, समानता व न्याय की मांग करती है.

सोशल मीडिया में आदिवासी पुरषों और महिलाओं के द्वारा कई मतों से परिचित होने के बाद,पितृसत्ता में लिपटी उन बातों को आपको सामने रखना बहुत जरुरी लगा. उसे बहुमत या सर्वसम्मत नहीं माना जा सकता लेकिन एक बड़ी तादाद आदिवासी महिलाओं के विरोध में आई इन अखबारी ख़बरों पर एक अजीब सा उत्सवधर्मी आनंद महसूस करने लगी है. उसपर मैं आपसे एक समानतावादी, न्यायप्रिय पुरुषों व महिलाओं द्वारा हस्तक्षेप की मांग करती हूँ.

पहला मुद्दा है,आदिवासी स्त्रियों को सम्मान पूर्वक जीने का हक मिलना – जिसमें उनकी आर्थिक सबलता हेतु उनके द्वारा जमीन पर हक़ की मांग है.

दूसरा मुद्दा है, विवाह में वर चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार जिसमें अन्य समाज से शादी करने पर उसकी जाति प्रमाण पत्र को, अर्थात उसके कास्ट सर्टिफिकेट को खत्म करने की बात की जा रही है – जो न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि भयानक पितृसत्तात्मक भी.

तीसरा मुद्दा है : कोई भी आदिवासी महिला जिसने गैर आदिवासी से शादी की है वह आदिवासी जमीन नहीं खरीद सकती इसको लेकर ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (TAC) और झारखंड सरकार की कई नीतियां बनती और बिगड़ती रही हैं. इसके मूल में उसका आदिवासी होना भूलकर,  हिंदूवादी, ब्राह्मणवादी,पितृसत्तात्मक व्यवस्था में ढलकर – गैर आदिवासी पिता (स्त्री के पति) का तर्क दिया जा रहा होता है कि जमीन समाज से बाहर चली जाएगी. यह चिंता जायज है पर ऐसी कितनी शादियां हुई और कितने जमीन बाहर गए? उसका क्या डाटा उपलब्ध है? या फिर सरकारी लूट से जमीन कितनी बाहर गई इस पर भी एक संवाद आवश्यक है. साथ ही आदिवासी पुरुषों द्वारा आदिवासी जमीन कितनी बेची गई इसका भी कोई डेटा प्रस्तुत किया जाना चाहिए. हवा में बातें आखिर कब तक की जाएंगी? आदिवासी जमीन के तीन प्रकार से समाज से बाहर चले जाने का विधिवत अध्ययन किया जाना चाहिए. बार-बार केवल स्त्री के बाहर विवाह करने की बात कहकर, उसे जैसे सच बना दिया जा रहा होता है.

सत्ता में बैठे लोगों से अनुरोध है और सामाजिक अगुवाओं से निवेदन है कि आर्थिक नीति निर्धारकों में आदिवासी महिला की जमीन में हिस्सेदारी की मांग को बेहतर तरीके से समझा जाए. उसे सिरे से खारिज किए जाने की राजनीति पर आज महिलाओं ने एक स्वर होकर यह बातें विभिन्न मंचों पर उठानी शुरू कर दी है. पिछले कई दशकों से इस सवाल को सुना जा सकता है.

क्रय-विक्रय से इतर,जमीन का हक आदिवासी महिलाओं के नाम जाने से इतर, उसके सम्मान के साथ जीने का अधिकार तय किए जाएं. यह एक बात स्वीकारी जा रही है. सामान्यतः अविवाहित आदिवासी महिला को भी अपने घर में सम्मान व प्यार कई बार नहीं मिल पाता जिससे यह मांग उठने लगी है. वहीं विवाहित आदिवासी महिला को यह कहकर ससुराल पक्ष दुत्कार जाता है कि तुम तो ‘बाहरी’ हो इस जमीन जायदाद पर तुम्हें बोलने का हक नहीं है.

वहीं तीसरे प्रकार की वह आदिवासी महिला जो किन्हीं कारणों से शादी के उपरांत छोड़ दी गई हो या वह अपने सिंगल स्टेटस को जी रही हो या वह परित्यक्ता कहलाती हो; उनकी स्थिति ना मायके में सम्मानपूर्वक है और ना ही ससुराल में सम्मानपूर्वक. जिंदगी भर वह एक कमरे तक को तरसती रह जाती है. यह स्त्रियां वैसी ही हैं जिसे वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी लेखनी ‘आ रूम ऑफ माय ऑन’ में कुछ यूँ लिखा है कि अपने-अपने घरों की बनावट में यह तलाश कर देखिए कि एक स्त्री का कमरा हम क्यों नहीं बनने देते? बेडरूम, रसोई, डायनिंग, पूजा, गेस्ट रूम, स्टडी रूम, बालकनी आदि कई प्रकार के रूम बन जाते हैं. पर एक स्त्री का निज अपना कोना उसे कभी नहीं मिल पाता जहां वह अपनी रह पाए. वह सामाजिकता से खुद को अलगा कर खुद के ‘स्व’ को पहचान पाए. क्योंकि हमने एक स्त्री के अस्तित्व को कभी स्वतंत्र रूप से स्वीकार ही नहीं किया है. वह बंधी हुई है. पारिवारिक जिम्मेदारियों में, नातेदारी और रिश्तेदारियों  में. आपने ऐसे कई आयोजन बना रखे हैं जहां वह अपना स्व खो चुकी है. यह इतना ‘नार्मल’ बना दिया गया है कि जब आज इसपर बात होती है तो वह असहज हो उठती है. वह अपने सामाजिक नियमावलियों को दूर नहीं कर पा रही होती है. खुद को ‘अनलर्न’ (unlern) कर पाने की प्रक्रिया में वह पीछे रह जाती है. पूरे एक घर में उसका कोई अपना कमरा नहीं उसी तरह से पूरे जीवन काल में उसका अपना स्व से भरा अस्तित्व को ‘एक्सप्लेन’ करने के लिए समझने के लिए. कोई एक अपना स्थान नहीं.

एक अन्य रूढ़ि प्रथा के अनुसार हल न जोतने की बात कही गई है. यह भी समय अनुसार आज अपने अंदर परिवर्तन की चाह रखता है. कई आदिवासी मिथक कथाओं में इन कामों को ना करने देने के पीछे कई कहानियाँ हैं, जो उस समय के लिए कारगर रही होंगी परन्तु आज 2020 में इसमें बदलाव होने चाहिए. बहुत संभव है कि अगर घर में कोई पुरुष नहीं है, तो क्या स्त्रियां अपने श्रम को समेटे बैठे रहेंगे या जीवन को जीने के लिए इन परंपरागत चीजों से बाहर आकर काम भी करेंगे?

कोड़ा कमाने चले जाना, पलायन करना, काम न कर सकने की स्थिति में आ जाना, मृत्यु आदि को पा जाना. ऐसे कई कारण हो सकते हैं. इसलिए आज आदिवासी महिलाओं के हाथ में भी हल की मूठ और छप्पर आदि छाने या छानने का काम आना चाहिए. पुरातन समय में यह सब अस्वीकार्य था. परंतु आधुनिक समय में एकल परिवार आदि की स्थापना होने के कारण, आज इन आयोजनों में परिवर्तन, बदलाव की मांग की जारही है.

उसी प्रकार पाहन द्वारा पूजा पाठ की प्रथा पर एक आदिवासी स्त्री का निषेध समझ से परे की बात है. वह भी पूजा-पाठ कर अपने आराध्य और पूर्वजों को नमन, प्रणाम व पहनाई कर सकती है परंतु पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उससे यह हक छीना हुआ है. शायद कई वजहों में एक वजह यह भी रही होगी कि विवाह उपरांत उसका गांव-घर बदल जाता रहा है तो यहां विवाह जैसी संस्थाओं पर भी कई सवाल खड़े होते हैं. इस वजह से कई बदलावों की जरूरत महसूस होती है.

मैं अपने चिंतन की सीमाओं को आपके सामने चिन्हित कर आप से संवाद कर इन प्रश्नों के हल चाहती हूं. यह एक निजी मेरा सवाल नहीं अपितु आदिवासी समाज में अरुणाचल प्रदेश से लेकर  असम,पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान गुजरात, छतीसगढ़, हिमाचल, नागालैंड आदि जगह की महिलायें कर रही हैं.

उम्मीद है कि मेरा समतामूलक आदिवासी समाज मुझे निराश नहीं करेगा. मैं चीजों के जवाब ‘हां’ और ‘ना’ में नहीं अपितु सार्थक बहस और चौतरफा अवलोकन के बाद किसी बात पर पहुंचने की पक्षधर हूं. इन सभी सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है. पर तार्किक होकर इस पर सही में निर्णय लिए जाने की आवश्यकता महसूस करती हूं. विश्व इतिहास में महिलाओं कि दुर्गति के विभिन्न कारणों और उनके साथ हुए अन्यायों को न्याय में परिवर्तित करने का समय आगया है. भारत का आदिवासी समाज इसका अगुवा बने यह एक चाह है.


नीतिशा खलखो, दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कॉलेज में अध्यापन करती हैं। आदिवासी समाज और वहां महिलाओं के मसलों पर मुखरता से लिखती और बोलती हैं।

 

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