सिस्टम को सांप्रदायिक बना डालने का ‘गुजरात मॉडल’ अब राष्ट्रीय हो चला है- गुहा

जिस समाज में लोग पुलिस पर भरोसा करने के बजाय उससे डरते हों, जहां किसी की निर्दोषिता या दोष का निर्धारण उसके धर्म या राजनीतिक वैचारिकता के आधार पर हो-यही तो 'गुजरात मॉडल' के नतीजे हैं। सांस्थानिक स्तर पर आज हम संविधान के आदर्शों से आपातकाल के दौर से भी बहुत दूर चले गए हैं, जबकि सामाजिक और नैतिक स्तरों पर 26 जनवरी, 1950 से बहुत दूर चले गए हैं, जब संविधान को लागू किया गया था।

इन दिनों गुजरात के 2002 के दंगों पर एक नई किताब पढ़ रहा हूं, जिसका शीर्षक है, अंडर कवरः ‘माई जर्नी इनटू द डार्कनेस ऑफ हिंदुत्व।’ इसे आशीष खेतान ने लिखा है, जिन्होंने दंगों के बाद शानदार रिपोर्टिंग की थी, खासतौर से उन हमलावरों के बारे में, जो सजा से बच गए। दो दशक पहले हुए उस खूनी नरसंहार को समझने के लिए ‘अंडर कवर’ एक महत्वपूर्ण स्रोत है। हालांकि यह वर्तमान के बारे में भी बात करती है, क्योंकि तब जो उस राज्य में शासन कर रहे थे, वही आज केंद्र में हैं। मोदी के गुजरात में, खेतान लिखते हैं कि, यदि किसी नौकरशाह या पुलिस अधिकारी को आगे बढ़ना होता था, तो उसे पूरी तरह से व्यवस्था के छल-कपट का हिस्सा बनना पड़ता था। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह के आने के बाद केंद्र सरकार के लिए भी यह बात सच है। 2014 से पहले भारत सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले आधिकारिक आर्थिक आंकड़ों की उनकी विश्वसनीयता के कारण दुनिया भर में तारीफ होती थी। अब, अध्येता उन पर विश्वास नहीं करते। प्रत्येक क्षेत्र में, चाहे  वह अर्थव्यवस्था हो या स्वास्थ्य या शिक्षा या चुनावी फंडिंग, सत्य या पारदर्शिता के बजाय चालाकी और उपेक्षा सरकार के व्यवहार की विशेषता है।

देश भर में गुजरात मॉडल अपनाने का नतीजा यह हुआ है कि बहस और असहमति के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। खेतान लिखते हैं : गुजरात में बारह साल से अधिक समय तक जिन टूल्स का इस्तेमाल किया गया, उनका इस्तेमाल अब राष्ट्रीय स्तर पर असहमति को दबाने और आतंकित करने के लिए किया जा रहा है, मोदी के आलोचकों को राष्ट्र विरोधी और राष्ट्र के लिए खतरा बताकर अक्सर जेल में डाल दिया जाता है। शांतिपूर्ण विरोध को दबाने के लिए मोदी-शाह की सत्ता ने मनमाने ढंग से राज्य शक्ति का बेतहाशा इस्तेमाल किया है। पिछले साल दिल्ली पुलिस ने फरवरी के दंगों की आड़ लेकर छात्र नेताओं और महिला कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की, जिनका इन दंगों से कोई लेना देना नहीं था, वहीं दूसरी ओर उसने उन शीर्ष भाजपा नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इन्कार कर दिया, जो खुलेआम हिंसा के लिए उकसा रहे थे। दंगों के मामले में पुलिस के पक्षपाती रवैये के बारे में जूलियो रिबेरो ने लिखा : दिल्ली पुलिस के खांटी अन्याय वाले रवैये ने इस बूढ़े पुलिस वाले की अंतरात्मा को झकझोर दिया।

राज्य की दुर्भावनापूर्ण मंशा पुलिस की कार्रवाई में दिखती है, जिसने सप्ताहांत में गिरफ्तारियां कीं, जब अदालतें बंद होती हैं और वकील उपलब्ध नहीं होते। यह यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम) के नियमित इस्तेमाल से भी प्रकट होती है। यह असाधारण तरीके से कठोर कानून है, जिसके प्रावधान (जैसा कि एक कानूनी विश्लेषक ने लिखा), आपराधिक रूप से अत्यधिक, व्यापक रूप से अस्पष्ट और मौलिक अधिकारों का राज्य प्रायोजित उल्लंघन का मनमाना कानून है।

पुलिस का पक्षपात भरा रवैया सबूत है कि वह राजनीतिक वैचारिकता के अनुरूप व्यवहार करती है। अहिंसक किसानों के समर्थन में ट्वीट करने पर एक पर्यावरण कार्यकर्ता को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया जाता है, जबकि सरकार के विरोधियों को गोली मार देने के लिए कहने वाले राजनेता का मंत्री पद बचा रहता है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा सत्ताधारी राजनेताओं से आदेश लेना भारत में पुरानी परंपरा है। महाराष्ट्र का मामला इसका ताजा उदाहरण है। पर मोदी-शाह सरकार जिस तरह पुलिस बल को सांप्रदायिक बना रही है, वह ज्यादा परेशान करता है। द इंडियन एक्सप्रेस में पिछले दिनों छपे एक लेख में सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय ने, जिनकी साख रिबेरो जैसी है, मध्य प्रदेश के कुछ मुस्लिम घरों में हिंदू उपद्रवियों द्वारा सिलसिलेवार हमलों का ब्योरा दिया है। इन हमलों के ‘एक वीडियो में दिखता है कि भगवा झंडे और त्रिशूल लिए बढ़ते दो हिंदू उपद्रवियों के बीच एक पुलिस इंस्पेक्टर का सिर शर्म से झुका हुआ है।’ राय लिखते हैं कि वह इंस्पेक्टर शर्मिंदा था, क्योंकि कुछ गुंडे घरों को लूट रहे थे और असहाय स्त्री-पुरुषों को पीट रहे थे, तब वह इंस्पेक्टर और उनके साथी यह सब कुछ चुपचाप देखने के लिए विवश थे। इस दृश्य ने राय को झकझोर दिया। इस कारण उन्हें लिखना पड़ता है, ‘मध्य प्रदेश पुलिस का एक नया अलिखित मैनुअल सामने आया है, जिसके मुताबिक, पुलिस को अब कानून तोड़ने वालों को नहीं रोकना है। इसके बजाय उसे पीड़ितों को अपना घर छोड़कर बाहर चले जाने के लिए कहना है, ताकि उपद्रवियों को सुविधा हो।’

भारतीय राजनीति में पैसे और राज्य तंत्र की भूमिका हमेशा ही रही है, पर 2014 से पहले ये ऐसी निर्णायक भूमिका में नहीं थे। चुनाव आयोग द्वारा विभिन्न राज्यों के लिए तैयार किया गया चुनावी शेड्यूल लगता है कि सत्तारूढ़ दल के प्रचार अभियान की सुविधा के लिए तैयार किया जाता है। राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल कांग्रेस के समय भी होता रहा था, पर भाजपा इसे एक अलग स्तर पर ले गई है। केंद्रीय ताकत की धमकी और भाजपा की भरी जेब के तालमेल से विपक्ष की सरकार गिराने का ताजा उदाहरण छोटा-सा केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी है। और जब यह कॉलम लिखा जा रहा था, तब तमिलनाडु में एक बड़े विपक्षी दल के परिवार पर छापा पड़ा, तो असम में भाजपा के एक मंत्री ने अपने एक विरोधी को धमकी दी कि उसके पीछे एनआईए को लगा दिया जाएगा।

गुजरात में पूर्ण सत्ता की लक्ष्य पूर्ति में मोदी-शाह के तीन सहयोगी थे : प्रतिबद्ध आईएएस अधिकारी व पुलिस बल, आज्ञाकारी तथा प्रोपेगैंडा फैलाने वाला मीडिया और वशवर्ती न्यायपालिका। केंद्र में भी मोदी-शाह ने वही तरीका अपनाया है। इसमें उन्हें थोड़ी कम सफलता मिली है, तो इसके तीन कारण हैं: कई बड़े राज्य भाजपा शासित नहीं हैं, बेशक बड़े हिंदी अखबार और ज्यादातर अंग्रेजी व हिंदी टीवी चैनल्स भाजपा की लाइन पर चलते हैं पर कुछ अंग्रेजी अखबार व वेबसाइट्स अब भी स्वतंत्र हैं, तथा बेशक अदालतें कमजोर हैं पर कुछ न्यायाधीश कुछ अवसरों पर व्यक्तिगत अधिकार तथा अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होते हैं। इसके बावजूद मोदी-शाह जो चाहते हैं, और भारत जिस दिशा में बढ़ रहा है, वह स्पष्ट है। आशीष खेतान को आखिरी बार उद्धृत करता हूं : ‘बहुसंख्यकवाद के शासन को कानून की बाधा नहीं, लोकतंत्र के मुलम्मे में संविधान पर जोर नहीं, अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों को कमतर बताना, हिंदू दंगाइयों के लिए दंडमुक्ति, जबकि विरोधी विचारधारा वालों की गिरफ्तारी व जेल, कार्यकर्ताओं व मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ मुकदमे, राजनीतिक विपक्ष और विरोधियों को निशाना बनाने के लिए सांस्थानिक और न्यायिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग-किसी भी विपक्ष को तोड़ने के लिए मोदी जिस व्यवस्थागत तरीके से राज्यशक्ति का इस्तेमाल करते हैं, भारत में उसकी मिसाल नहीं है।’

जिस समाज में लोग पुलिस पर भरोसा करने के बजाय उससे डरते हों, जहां किसी की निर्दोषिता या दोष का निर्धारण उसके धर्म या राजनीतिक वैचारिकता के आधार पर हो-यही तो ‘गुजरात मॉडल’ के नतीजे हैं। सांस्थानिक स्तर पर आज हम संविधान के आदर्शों से आपातकाल के दौर से भी बहुत दूर चले गए हैं, जबकि सामाजिक और नैतिक स्तरों पर 26 जनवरी, 1950 से बहुत दूर चले गए हैं, जब संविधान को लागू किया गया था।

 

मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा का यह लेख कोलकाता से प्रकाशित द टेलीग्राफ़ में छपा। अनुवाद अमर उजाला से साभार।

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