तीसरी दुनिया: भूटान के डेढ़ लाख हिंदू शरणार्थियों की उपेक्षा में छुपा है CAA का पाखण्ड

तीसरी दुनिया यानी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के विकासशील देश जिनकी खबरें 1980 के दशक के बाद से ही बड़े सुनियोजित ढंग से हाशिए पर पहुंचती चली गईं। सारा स्पेस विकसित देशों ने ले लिया- बेशक, तीसरी दुनिया के देशों के अंदर ‘पहली दुनिया’ के जो छोटे-छोटे टापू थे उनके बाशिंदों को भी थोड़ी बहुत जगह मिलती रही।

आज हम स्पष्ट तौर पर देख रहे हैं कि अमेरिका सहित विकसित देशों में दक्षिणपंथी राजनीति का बोलबाला है और इटली तथा जर्मनी में भी वे फासिस्ट ताकतें मजबूत होती गई हैं जिन्हें दशकों पहले दफना दिया गया था। हमारे यहां भारत में भी ऐसी ही स्थिति है। 1975 में इमरजेंसी के दौरान हम तानाशाही का स्वाद ले चुके हैं (जिसे हम सामान्य बोलचाल में फासीवाद कह देते थे) लेकिन अब हमें फासीवाद का प्रारंभिक चरण देखने को मिल रहा है। दक्षिण एशिया के अन्य देशों में औपचारिक जनतंत्र किसी न किसी रूप में गिरते-पड़ते बचा हुआ है- सिवाय भूटान के जहां पूर्ण राजतंत्र से अब संवैधानिक राजतंत्र की स्थिति है। नेपाल में संवैधनिक राजतंत्र समाप्त कर पूर्ण जनतंत्र की स्थापना 2008 में ही हो गयी थी।

अफ्रीकी देशों में अजीब स्थिति है। अफ्रीका अकेला ऐसा महाद्वीप है जिसके कम से कम 15 राजनेता ऐसे हैं जिन्होंने अपने देश पर 27 वर्ष से लेकर 41 वर्ष तक शासन किया। जिम्बाब्वे के दिवंगत राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे के बारे में तो काफी लोगों को पता है कि उन्होंने 36 वर्षों तक शासन किया, लेकिन बेनिन, कैमरून, चाड, कांगो, इरीट्रिया, मलावी, उगांडा, आइवरी कोस्ट जैसे कई देश इस श्रेणी में आते हैं। उगांडा में वर्तमान राष्ट्रपति मुसेवेनी 1986 से ही सत्ता में हैं। यही स्थिति कैमरून में है जहां राष्ट्रपति पाल बिया 1982 से सत्ता में हैं। इन देशों में जनतांत्रिक ढंग से चुनाव होते हैं और इन्हें भी जनतांत्रिक देशों की श्रेणी में ही रखा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार अफ्रीका के 15 देश ऐसे हैं जहां ‘दोषपूर्ण जनतंत्र’ है और 16 देश ऐसे हैं जहां ‘विशुद्ध रूप से निरंकुश’ शासन है। अभी जिन देशों का उल्लेख किया गया है वे पहली श्रेणी वाले देशों में आते हैं। इससे कल्पना की जा सकती है कि दूसरी श्रेणी वाले देशों में रहने वाले नागरिकों की क्या स्थिति होगी। वैसे, तानाशाही ताकतों के खिलाफ अफ्रीकी देशों में प्रतिरोध का इतिहास भी काफी शानदार है जिसकी अभिव्यक्ति खासतौर पर नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, घाना, केन्या, अंगोला, सेनेगल आदि देशों के विपुल साहित्य में हमें देखने को मिलती है।

Evo Morales

लातिन अमेरिकी देश एक लंबे समय से अमेरिकी साम्राज्यवाद से आक्रांत रहे हैं लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही इन देशों में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों का तेजी से ध्रुवीकरण हुआ। 1980 के दशक में निकारागुआ के दानियल ओर्तेगा के नेतृत्व में, जिन्होंने एक सांदिनिस्ता छापामार के कमांडर से ले कर राष्ट्रपति पद तक का सफर तय किया, लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोधी लहर दिखाई दी हालांकि उस समय पड़ोस के अल सल्वाडोर में अमेरिका बहुत सक्रिय था। 21वीं शताब्दी का प्रारंभिक काल ब्राजील के समाजवादी नेता लूला द सिल्वा और वेनेजुएला के ऊगो चावेज के बोलीवेरियन क्रांति का दौर था जिसके प्रभाव में अनेक लातिन अमेरिकी देशों ने अमेरिका के लिए मुश्किलें पैदा कीं। यह दौर बमुश्किल दो दशक तक ही टिका रह सका। चावेज की मृत्यु के बाद आज मादुरो सरकार के सामने जो चुनौतियां पैदा हुई हैं उनमें अमेरिका की प्रमुख भूमिका है और ऐसा लगता है कि चावेज की विरासत लंबे समय तक टिकी नहीं रह पाएगी। वेनेजुएला के ही प्रभाव में बोलीविया में लगभग क्रांति जैसी स्थिति पैदा हुई जब वहां के एक आदिवासी नेता इवो मोरेलेस जनतांत्रिक तौर से चुनाव जीतकर राष्ट्रपति पद तक पहुंचे।

चावेज के निधन के बाद समूचे लातिन अमेरिका में जनतांत्रिक ताकतों के सामने जो मुश्किलें पैदा हुईं उसका असर बोलीविया पर भी पड़ा और पिछले वर्ष अक्तूबर में हुए चुनाव में जीत के बावजूद मोरेलेस को वहां की सेना ने राष्ट्रपति पद पर नहीं रहने दिया। देश के दक्षिणपंथी समूह ने सेना की मदद से मोरेलेस के खिलाफ एक अभियान छेड़ा और आर्गेनाइजेशन ऑफ अमेरिकन स्टेट्स ने एक रिपोर्ट जारी कर यह प्रचारित किया कि चुनाव में धांधली हुई थी। सेना के दबाव में मोरेलेस को इस्तीफा देना पड़ा।

अभी 28 फरवरी 2020 को अमेरिका के प्रतिष्ठित संस्थान एमआइटी के इलेक्शन डाटा ऐंड साइंस लैब ने व्यापक शोध के बाद जानकारी दी है कि मोरेलेस के चुनाव के बारे में षड़यंत्रपूर्ण तरीके से एक सुनियोजित प्रचार किया गया। वैसे, अगले महीने बोलीविया में दोबारा चुनाव होने हैं और देखना है कि इसका नतीजा क्या होगा। तो भी, कोलंबिया और मेक्सिको को छोड़ कर लातिन अमेरिका के अधिकांश देशों में जनतांत्रिक शक्तियों के लिए बहुत निराशा की स्थिति नहीं है क्योंकि इन देशों में दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ प्रतिरोध भी जारी है।

यह तो मोटेतौर पर तीसरी दुनिया के बारे में एक जानकारी है जिस पर हम नियमित कुछ न कुछ सामग्री देते रहेंगे। अभी फिलहाल मैं पाठकों का ध्यान पड़ोस के देश भूटान पर केंद्रित करना चाहता हूं जहां निरंकुश राजतंत्र ने 1991 में तकरीबन डेढ़ लाख अपने नागरिकों को इसलिए देश से बाहर निकाल दिया क्योंकि उन्होंने शांतिपूर्ण ढंग से न्यूनतम जनतंत्र की मांग की थी। इसके लिए उन्होंने कुछ ज्ञापनों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों तक ही अपने को सीमित रखा था। वे सारे लोग दक्षिणी भूटान के नेपाली मूल के नागरिक थे जिनके पूर्वज कुछ सौ साल पहले वहां जाकर बस गए थे। भूटान में उन्हें ल्होतसोम्पा कहा जाता है।

शाही भूटानी सेना द्वारा खदेड़े जाने पर वे भाग कर भारत की सीमा में घुसे। यहां भारत की बार्डर सिक्योरिटी फोर्स और रिजर्व पुलिस ने उन्हें ट्रकों में लादकर नेपाल की सीमा में छोड़ दिया और फिर नेपाल सरकार ने उनके लिए वहां शरणार्थी शिविरों की स्थापना की जिसकी देखरेख आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र ने संभाल ली। इसका एक लंबा किस्सा है जिस पर अभी बहुत चर्चा करने की जरूरत नहीं है। खास बात यह है कि ये सभी लोग हिंदू धर्म का पालन करने वाले थे और इन्हें बौद्ध धर्मावलंबी राजा द्वारा धार्मिक और जातीय उत्पीड़न का शिकार बनाया गया था। यही वजह है कि टेकनाथ रिजाल जैसे प्रमुख भूटानी नेताओं ने भारत सरकार से, भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों से, मानव अधिकार संगठनों से और भारतीय जनता पार्टी तथा विश्व हिंदू परिषद से भी मुलाकात की और अनुरोध किया कि वे इस समस्या का समाधान ढूंढ़े ताकि शरणार्थियों की स्वदेश वापसी हो सके।

Teknath Rijal

टेकनाथ रिजाल भूटान के प्रमुख मानव अधिकारवादी हैं जिन्हें राजा ने 11 साल तक भूटान की जेल में कैद रखा था। गिरफ्तारी से पूर्व वह भूटान नरेश के शाही सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य थे। उनका कुसूर बस यही था कि उन्होंने आंदोलनकारियों की ओर से एक ज्ञापन राजा को दिया था। रिजाल इन दिनों नेपाल के झापा में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं।

शरणार्थियों की संख्या तकरीबन डेढ़ लाख थी। 1990 के दशक में इन शरणार्थियों के पक्ष में भारत में जस्टिस कृष्णा अय्यर से लेकर पत्रकार कुलदीप नैय्यर और स्वामी अग्निवेश सबने आवाज उठाई लेकिन भारत सरकार बराबर यह कहकर पल्ला झाड़ लेती थी कि यह नेपाल और भूटान का द्विपक्षीय मामला है। नेपाल का कहना था कि मानवीय आधार पर वह शरणार्थियों को हर तरह की सहायता दे रहा है लेकिन उसकी क्षमता सीमित है। नेपाल का यह भी कहना था कि अपने देश से पलायन करने के बाद वे शरणार्थी भारत की सीमा में गए और भारत ने उन्हें जबरन नेपाल की सीमा में पहुंचा दिया इसलिए द्विपक्षीय मसला कहकर भारत अपने को अलग नहीं कर सकता है।

इसके अलावा भूटान के साथ नेपाल की नहीं बल्कि भारत की सीमा लगी है। स्थिति यह हुई कि 1991 से लेकर 2015 तक भारत में विभिन्न पार्टियों की सरकारें बनीं लेकिन किसी भी सरकार ने शरणार्थियों की समस्या पर इसलिए ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह भूटान को नाराज नहीं करना चाहती थी। भारत सरकार का मानना था कि अगर भूटान नाराज हो गया तो वह चीन के करीब पहुंच जाएगा और यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक स्थिति होगी।

इसके विस्तार में न जाकर यह बताना प्रसंगिक है कि 2015 में अमेरिका और यूरोप के सात देशों ने इन शरणार्थियों को अपने-अपने यहां बसाने का फैसला किया और 96000 शरणार्थी अमेरिका चले गए और वहां के विभिन्न शहरों में उन्हें बसा दिया गया। शेष को आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, न्यूजीलैंड, नीदरलैंड्स, नार्वे और ब्रिटेन में बसाया गया। इस सूची में कहीं भारत का नाम नहीं है।

टेकनाथ रिजाल और ‘भूटान नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी’ के अध्यक्ष डा. डीएनएस ढकाल ने भारत के राजनीतिक दलों के अलावा उन संगठनों से भी गुहार लगायी जो खुद को हिंदू हितों का संरक्षक कहते रहे हैं क्योंकि सभी शरणार्थियों की ‘हिंदू’ पहचान थी और उन्हें धार्मिक उत्पीड़न का भी शिकार बनाया गया था। इन लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेतली, अशोक सिंहल से मुलाकात की और कहा कि दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के बगल में दुनिया का एकमात्र निरंकुश राजतंत्र इतने बड़े पैमाने पर अपने नागरिकों का उत्पीड़न कर रहा है और भारत सरकार खामोश है लेकिन आश्वासनों के अलावा इन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।

2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई तो टेकनाथ रिजाल ने इस सरकार को भी एक ज्ञापन दिया – वैसे ही जैसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को ज्ञापन दिया था। मोदी सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला।

अभी नागरिकता संशोधन विधेयक के आने और इसके कानून का रूप लेने तक एक बार फिर रिजाल और उनके साथियों के अंदर यह उम्मीद पैदा हुई कि शायद अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ मोदी सरकार भूटान का भी नाम जोड़े क्योंकि धार्मिक उत्पीड़न की वजह से ही डेढ़ लाख लोगों को देश छोड़ना पड़ा लेकिन उन्हें इस बार फिर मायूस होना पड़ा है। अब ये लोग नए सिरे से अपने अभियान की तैयारी कर रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी को एक ज्ञापन देने की योजना बना रहे हैं ताकि अभी झापा (नेपाल) के दो शिविरों में पड़े तकरीबन आठ हजार और भारत-भूटान सीमा पर रह रहे तकरीबन 15 हजार  शरणार्थियों के बारे में भारत सरकार कोई फैसला ले। उनका कहना है कि या तो सम्मानजनक ढंग से उनकी स्वदेश वापसी सुनिश्चित की जाय या भारत में उन्हें शरणार्थी मानते हुए नागरिकता दी जाय।


आनंद स्वरूप वर्मा भारत के वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने चार दशक पहले मासिक पत्रिका समकालीन तीसरी दुनिया की स्थापना की। नेपाल, अफ्रीका, लातिन अमेरिका सहित तीसरी दुनिया के देशाें पर हिंदी में ज्यादातर सामग्री उपलब्ध कराने का श्रेय इन्हें जाता है। इसके अलावा इन्होंने तमाम महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद किया है।

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