स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ की आदि-हिन्दू अवधारणा-2

स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ का आदि-हिंदू आंदोलन बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में हिंदी पट्टी में एक नयी बेचैनी लेकर आया था। स्वामी अछूतानंद के इस आंदोलन की अवधारण का पहला भाग आप 14 जुलाई को पढ़ चुके हैं। आज पढ़िये दूसरा भाग जिसमें स्वामी जी के राजनीतिक दृष्टिकोण और आदिं हिंदू धर्म के संकल्पों का ज़िक़्र है। यह लेख प्रख्यात लेखक कँवल भारती ने लिखा है।- संपादक

 

 

                                             स्वामी अछूतानंद का राजनीतिक दृष्टिकोण

 

चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु का मत है कि आदि-हिन्दू आन्दोलन आरम्भ में सामाजिक और धर्मिक रूप लेकर उठा था। किन्तु बहुत जल्दी उसे राजनीतिक हो जाना पड़ा। लेकिन वास्तव में आदि-हिन्दू आन्दोलन की बुनियाद 1922 में ही पड़ गई थी, जब स्वामी जी ने दिल्ली में प्रिन्स ऑफ वेल्स का स्वागत किया था, और उन्हें अपनी राजनीतिक माँगों का ज्ञापन दिया था। इसलिए इसका आधार राजनक्तिक ही था। दलित-पिछड़े वर्गों की सामाजिक और आर्थिक समस्या का हल राजनीति में ही था। लेकिन इसके लिए अधिकार-वंचित जातियों को संगठित करने के लिए सामाजिक और धर्मिक आधर पर जागरूक करना जरूरी था। आजादी की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। सत्ता के दो दावेदार बन चुके थे-द्विज हिन्दू और मुसलमान। द्विज हिन्दू दलित-पिछड़ी जातियों को हिन्दू बताकर शासन-सत्ता अपने हाथ में लेना चाहते थे। गाँधी जी द्विजों के नेता थे और दलितों के राजनीतिक संरक्षण का विरोध कर रहे थे, जिसे डा. आंबेडकर ब्रिटिश सरकार से माँग रहे थे। ऐसी स्थिति में इस विशाल बहुजन समाज को, जो असंगठित भी था, और गुलाम भी था, राजनीतिक रूप से संगठित और जागरूक करना जरूरी था, अन्यथा सारे संरक्षण द्विजों को प्राप्त होते, और बहुजनों को कुछ नहीं मिलता। डा. आंबेडकर का आन्दोलन आरम्भ से राजनीतिक था, क्योंकि वे जानते थे कि अछूतों का उत्थान राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलने से ही सम्भव है। कहा जाता है कि मद्रास के आदि-हिन्दू सम्मेलन में स्वामी जी की भेंट डा. आंबेडकर से हुई थी। वहाँ उन्होंने स्वामी जी से दलितों के राजनीतिक आन्दोलन को समर्थन देने की अपील की थी।

इसलिए स्वामी जी अपनी सभी सभाओं में अछूतों के मुल्की हकों की बात जरूर करते थे। उन्होंने 19 अक्टूबर 1926 को मैनपुरी की आदि-हिन्दू सभा में सरकार से माँग की कि संख्या के अनुपात से हमारे राजनैतिक अध्किार हमें दिए जाएँ। उन्होंने कहा, ‘यह कितने खेद की बात है कि हमारे मुल्की हकों को भी द्विज भाई डकारे हुए हैं, और हमें केवल बातों में फुसलाया करते हैं। यही नहीं, वे हमारे हकों का हमें ज्ञान भी नहीं होने देते। यदि इन्हें पूर्ण स्वराज्य मिल जाए, तो शायद मनु वाला कानून फिर चलाकर हमें सिर्फ जूठन, छटकन, पफटकन और उतरन ही के हकदार बनाकर रखेंगे। इसलिए हिन्द के तमाम अछूत कहलाने वाले भाई ‘आदि-हिन्दू’ नाम से संगठित होकर अपने मुल्की हकों को हासिल करें।’

जिज्ञासु जी के मतानुसार, इसी सभा में स्वामी जी द्वारा केन्द्रीय असेम्बली तथा प्रान्तीय विधन परिषदों में आदि-हिन्दू सभा द्वारा अनुमोदित अछूत सदस्यों को नामजद करने के लिए गवर्नर के माध्यम से सरकार को एक मेमोरण्डम दिया गया था।

स्वामी जी के आदि-हिन्दू सम्मेलनों और उनके व्याख्यानों ने तत्कालीन राजनीति पर व्यापक प्रभाव डाला था। इस आन्दोलन से सबसे ज्यादा परेशान काग्रेस थी, क्योंकि इस आन्दोलन के कारण दलित जनता काँग्रेस और गाँधी के विरोध् में खड़ी हो रही थी। अतः इस आन्दोलन को खत्म करने के लिए काँग्रेसी हिन्दू नेताओं और समाचार-पत्रों ने स्वामी के खिलाफ घृणित दुष्प्रचार करना आरम्भ कर दिया था। इसकी एक झलक कानपुर (उत्तर प्रदेश) से से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रताप’ के 27 अप्रैल 1925 के अंक में, उसके सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पादकीय लेख में देखी जा सकती है, जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘इस ओर उत्तरी भारत में एक नए आन्दोलन का जन्म हुआ है। उसे हम ‘आदि-हिन्दू आन्दोलन’ के नाम से पुकार सकते हैं। स्वामी हरिहरानन्द, उर्फ अछूतानन्द नाम के एक सज्जन इधर इस काम के प्रधान सूत्रधार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि स्वामी जी पहले चमार थे, फिर ईसाई हुए, और फिर शुद्ध होकर इस आन्दोलन के कर्ता-धर्ता बने। लोग यह भी कहते हैं कि वे अधिकारियों से मिले हुए हैं, और उनके इशारे और सहायता पर हिन्दुओं में फूट डाल रहे हैं।’

इसमें सन्देह नहीं कि यदि स्वामी जी का आन्दोलन केवल धर्मिक और सामाजिक होता, तो उसका काँग्रेस और द्विजातियों में उसका इतना व्यापक विरोध नहीं होता। किन्तु चूँकि यह  आन्दोलन दलितों के लिए पृथक राजनैतिक अधिकारों के लिए आवाज उठा रहा था, इसलिए काँग्रेस और द्विजातीय हिन्दू इसे अपने विरुद्ध खतरे के रूप में देख रहे थे। काँग्रेसी हिन्दुओं ने उनके खिलाफ इतनी नफरत फैला दी थी कि अगस्त 1927 में आगरा की एक सभा में जब वे भाषण दे रहे थे, तो एक काँग्रेसी दलित ने उन पर लाठी का प्रहार कर दिया था, जो उनके कंधे पर लगी थी। यही नहीं, काँग्रेस ने स्वामी जी के विरोध में एक हरिजन नेता चौधरी बिहारी लाल को नकली अछूतानन्द बनाकर खड़ा कर दिया, जो स्वामी जी के भेष में घूम-घूमकर उनका विरोध् और गाँधी का समर्थन करता था। पर, काँग्रेस का यह दाँव भी स्वामी अछूतानन्द के प्रभाव को खत्म नहीं कर सका था। इधर, गाँधी की संस्था ‘हरिजन सेवक संघ’द्वारा भी सभाएँ करके स्वामी अछूतानन्द का विरोध् किया जा रहा था। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने अपनी पुस्तक में किया है। उनके अनुसार, प्रयाग के महाकुम्भ मेले में स्वामी जी की आदि-हिन्दू सभा हो रही थी। उसी समय वहाँ आर्यसमाज के पण्डाल में पुरुषोत्तम दास टण्डन के सभापतित्व में अखिल भारतीय दलितोद्धार की कान्फ्रेंस हो रही थी। यह खबर पाकर प्रयाग के म्युनिसिपल कमिश्नर श्यामलाल बरेठा, रामप्रसाद जैसवार, रामसहाय पासी आदि स्वामी जी को लेकर उस सभा में पहुँचे, तो देखा कि सभा में 15-20 द्विज बैठे हुए थे, और टण्डन जी बोल रहे थे कि निषाद को रामचन्द्र जी ने गले लगाया, उसने कठौता में रामचन्द्र के पैर धोए और अपना जन्म सफल किया, इत्यादि। टण्डन जी के भाषण के बाद प्रस्ताव पास होने थे। श्यामलाल बरेठा ने स्वामी जी के परामर्श से निम्नलिखित प्रस्ताव लिखकर भेजे-

1.यह दलितोद्धार सभा पास करती है कि अछूत भाई स्टेश्नों, बाजारों और मेलों आदि में चाय, शर्बत, मिठाई और कचालू वगैरह की दूकानें व खोमचा लगा सकते हैं, इससे किसी हिन्दू को आपत्ति नहीं है।

2.इस दलितोद्धार सभा के मत में पासी भाइयों के विरुद्ध जरायम पेशा होने का आरोप ठीक नहीं है। अतः यह सभा सरकार से अनुरोध् करती है कि पासी भाइयों के नाम से ‘जरायम पेशा’शब्द हटा दिया जाए और उनकी निगरानी बन्द कर दी जाए।

3.इस सभा के मत में कपड़े धोना धोबी जाति का और जूते का कारबार चमारों का आबाई पेशा है। इन पेशों को करके जो हिन्दू दलितों की जीविका करते हैं, उन्हें अपने को धोबी या चमार ही कहना-समझना चाहिए और उन्हें धेबी-चमारों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार करने में कोई आपत्ति न होना चाहिए।

जिज्ञासु ने आगे लिखा है कि टण्डन ने इन प्रस्तावों को पढ़ा और परचा एक दूसरे महाशय को देते हुए यह कहकर उठ खड़े हुए कि मुझे आवश्यक काम से जाना है, अब आप लोग अपने प्रस्ताव आदि पास कीजिए। सभा में शो मच गया और उसके बाद सभा भंग हो गई।

गाँधी ने अछूतों का नामकरण ‘हरिजन’नाम से किया था, और सारे काँग्रेसी हिन्दू अछूतों के लिए हरिजन शब्द का ही इस्तेमाल करते थे। लेकिन स्वामी अछूतानन्द हरिजन नामकरण को अछूतों के लिए अपमानजनक मानते थे। वे इस नए नाम का खण्डन करते थे। उन्होंने हरिजन के खण्डन में एक भजन लिखा, जिसमें यह प्रश्न उठाया कि यदि अछूत हरि की सन्तान हैं, तो क्या द्विज शैतान की सन्तान हैं? वे गाँधी से पूछते हैं कि हम तो आदिनिवासी हैं, आदिवंश की सन्तान हैं, भारत हमारी भुइयाँ माता है, जिनका लाल निशान है। फिर हमें हरिजन नाम क्यों दिया? उन्होंने तर्क दिया कि यदि हम हरिजन हैं, तो तुम भी हरिजन क्यों न हुए? वे कहते हैं कि यह हमारा सम्मान नहीं है, अपमान है, क्योंकि सब जानते हैं कि हरि का अर्थ खुदा और जन का अर्थ बन्दा होता है, और बन्देखुदा वह होता है, जिसके माँ-बाप का पता नहीं होता है। फिर हमें हरिजन नाम देकर हमारा अपमान क्यों किया गया? उनके इस भजन की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ ये हैं-

कियौ हरिजन पद हमैं प्रदान।
अन्त्यज पतित बहिष्कृत पादज पंचम शूद्र महान।
संकर बरन और वर्णाधम पद अछूत उपमान।
थे पद रचे बहुत ऋषियन ने, हमरे हित धर ध्यान।
फिर हरिजन पद दियौ हमैं क्यों, हे गाँधी भगवान।
हम तो कहत हम आदि निवासी, आदि वंस सन्तान।
भारत भुइयाँ माता हमरी, जिनकौ लाल निशान।
हरि को अर्थ खुदा, जन बन्दा जानत सकल जहान।
बन्देखुदा न बाप-माय का, जिनके पता ठिकान।
हम हरिजन तौ तुम हूँ हरिजन, कस न कहौ श्रीमान।
कि तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान?
हम निसर्ग से भारत-स्वामी, यहु हमरो उद्यान।
हरिजन कहि ‘हरिहर’हमरौ तुम, काहे करत अपमान।

 

स्वामी जी का समाज-सुधार

स्वामी अछूतानन्द का समाज-सुधर विशेष रूप से दलित जातियों में मानवीय गरिमा और आत्म-सम्मान पैदा करने का था। उन्होंने 1912 से 1922 तक इसी क्षेत्र में खास काम किया। उसके बाद जब आदि-हिन्दू आन्दोलन आरम्भ हुआ, तो उन्होंने अपने समाज-सुधार कार्य को और भी व्यापक रूप से आगे बढ़ाया। ये सुधार इतने क्रान्तिकारी थे कि उसने द्विजातियों में खलबली मचा दी थी। इन सुधारों में (1) अपने बच्चों को शिक्षा दिलाना, (2) गन्दे पेशों का परित्याग करना, (3) मृतक पशु के सड़े माँस को खाने से रोकना (4) बेगार के विरुद्ध संघर्ष करना, (5) सत बसना का परित्याग करना, (6) नशै उन्मूलन, और (7) आपस में छुआछूत न करना, प्रमुख थे। ये सुधार साधरण नहीं, बल्कि असाधरण थे। एक तो इन सुधारों ने अछूत समाज की यथास्थिति को तोड़कर उसे गतिशील बनाया था और दूसरे उन्होंने अछूतों को मनुष्य होने का बोध कराया था। द्विजातियों द्वारा उनसे जबरन बेगार करना एक आम बात थी। बेगार का अर्थ था, कभी भी अछूत व्यक्ति से बिना मजदूरी दिए काम करवाना और मना करने पर मारना-पीटना। स्वामी जी ने इसके विरुद्ध अछूतों को संगठित किया। इसी तरह स्वामी जी ने गन्दे पेशों को बन्द कराने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में अछूतों ने मृतक जानवरों को उठाने और उनकी खाल उतारने का गन्दा काम छोड़ दिया था। एक बहुत ही अपमानजनक प्रथा सतबसना थी, जिसके तहत दाई का काम करने वाली अछूत स्त्रियों को द्विजातियों के घरों में बच्चा जनने के लिए सात दिन तक जच्चा के साथ ही रहना होता था। स्वामी जी ने इस प्रथा का विरोध किया और अछूत स्त्रियों को सतबसना के लिए जाने से रोका। सामान्य से दिखने वाले इन सुधारों के गम्भीर राजनैतिक अर्थ भी थे, जिसने द्विजातियों के कान खड़े कर दिए थे। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि उत्तर प्रदेश की अछूत जातियों में एक बड़े राजनैतिक विद्रोह का आगाज हो चुका था। इस आगाज ने न केवल पूरे हिन्दू समाज को, बल्कि उस समय के साहित्य और पत्रकारिता को भी उद्वेलित कर दिया था।

परिणामतः हिन्दू संस्थाएँ अछूतोद्धार की सभाएँ करने लगी थीं, पत्र-पत्रिकाओं में अछूत-उत्थान के समर्थन में लेख छपने शुरु हो गए थे और ‘चाँद’ पत्रिका ने 1927 में ‘अछूत’ अंक निकाला था, जिसमें गाँधी के दलितोत्थान के पक्ष में सामग्री छापी गई थी। स्वामी जी के इस आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव साहित्यकार प्रेमचन्द पर पड़ा था। उनकी अनेक कहानियों पर यह प्रभाव दिखाई देता है, यहाँ तक कि उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ में भी नायक सूरदास में अछूतानन्द को गाँधीवादी बनाकर पेश किया गया है। कहने का अभिप्राय यह कि स्वामी अछूतानन्द का आदि-हिन्दू आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र का एकमात्रा आन्दोलन था, जिसने तत्कालीन समाज, राजनीति और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला था।

 

आदि-हिन्दू आन्दोलन की विशेषताएँ

स्वामी जी के जीवनी-लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने आदि-हिन्दू आन्दोलन की ग्यारह विशेषताओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार, उसकी पहली विशेषता यह थी कि उसमें दलित और पिछड़े दोनों वर्गों के लोग सम्मिलित थे, और दलित वर्ग के अन्तर्गत प्रायः सभी जातियों का सहयोग था। वह दोनों वर्गों का सर्वांगपूर्ण संयुक्त मंच था।

दूसरी विशेषता यह थी कि आदि-हिन्दू आन्दोलन काँग्रेस के ढंग पर चल निकला था, जिसमें हर प्रान्त और हर दलित जाति के प्रतिनिधि और दर्शक शामिल होते थे।

तीसरी विशेषता खान-पान की एकता थी। आदिहिन्दू आन्दोलन की सभाओं में होने वाले प्रीतिभोजों में सभी दलित जातियों के लोग एक पंगत में बैठकर भोजन करते थे।

चैथी विशेषता यह थी कि उसके सदस्य सार्वभौम सन्त मत को मानते थे, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।

पाँचवीं विशेषता यह थी कि वह भारत के बहुजन समाज का आन्दोलन था, जिसमें एक राष्ट्रीयता की भावना थी।

छठी विशेषता यह थी कि आदि-हिन्दू आन्दोलन इस सिद्धान्त पर आधरित था कि दलित-पिछड़ी जातियों के लोग भारत के आदिनिवासी हैं, और आर्य हिन्दू बाहर से आए हुए हमलावर लोग हैं।

सातवीं विशेषता उसमें धर्मांतरण की भावना का अभाव है। आदि-हिन्दू कहते हैं कि वह भारत की उस अपार सम्पत्ति, संस्कृति, धर्म और सभ्यता का स्वामी हो जाता है, जो आर्यों के आने से पूर्व इस देश में विद्यमान थी।

आठवीं विशेषता यह है कि आदि-हिन्दू नाम में भारत की आदि सनातन मौलिक संस्कृति का दावा है।

नवीं विशोषता यह है कि आदि-हिन्दू आन्दोलन भारतीय मौलिक समाजवाद तथा भारतीय समाज के शोषकों और सामाजिक विधनों के विरुद्ध क्रान्ति था।

दसवीं विशेषता यह है कि आदि-हिन्दू आन्दोलन आत्मवादी था, जो ब्राह्मणों के रंग-भेदी रामराज्य का विरोधी था।

ग्यारहवीं विशेषता यह है कि आदि हिन्दू आन्दोलन में आत्मनिर्भरता थी। उसका लक्ष्य यही था कि आदि-हिन्दू बन्धु पराया मुँह तकना त्यागकर अपने पैरों पर खड़े हों और आत्म-प्रदीप बनकर अपने कल्याण का मार्ग स्वयं बनाएं।

आदि-हिन्दू आन्दोलन की सात मान्यताएँ

आदि-हिन्दू आन्दोलन में स्वामी जी ने आदि हिन्दू की सात मान्यताएँ की निश्चित की थीं। जिज्ञासु जी के अनुसार, ये सात मान्यताएँ इस प्रकार थीं-

1. मैं विश्वास करता हूँ कि ईश्वर एक है और वह निरंजन, निर्विकार, अनादि, अनन्त, अरूप अज, अकाल, सर्वव्यापी, अद्वितीय और सत्य है। उस पर न कोई पुस्तक है, न वह कभी अवतार लेता है, और न उसकी कोई प्रतिमा है। वही समस्त विश्व में व्याप्त है और उसी की ज्योति मुझमें भी प्रकाशमान है। उसी की अनुभूति और उपलब्ध करना मेरा कर्तव्य है।

2. मैं विश्वास करता हूँ कि मैं भारत का आदिनिवासी होने के कारण आदि हिन्दू और निसर्ग से भारत भूमि का स्वामी हूँ। आर्य, हूण, शक, यवन, पारसी, ईसाई आदि सब बाहर से आकर यहाँ बसे हैं। अतएव, इनकी अपेक्षा अपनी तथा अपनी आदि भूमि भारत की उन्नति करने तथा यहाँ सत्य और न्याय का शासन स्थापित करने की जिम्मेदारी मुझ पर अधिक है।

3. मैं विश्वास करता हूँ कि सन्तों का धर्म ही भारत का आदि धर्म तथा मनुष्यत्व से पूर्ण होने के कारण मानव-मात्रा का कल्याणकारी धर्म है। शंकर, ऋषव देव, महावीर, बुद्ध, कबीर, रैदास, दादू, नामदेव, तुलसी साहेब आदि भारतीय सन्तों के आत्म अनुभव ज्ञान ही से मेरा और संसार का कल्याण हो सकता है।

4.मैं विश्वास करता हूँ कि मनुष्य मात्रा समान और भाई-भाई हैं। जन्म-भेद, सम्प्रदाय-भेद, देश भेद और वर्ण-भेद आदि के कारण ऊँच-नीच की भावना मिथ्या है। मनुष्य अपने सद्गुणों से ऊँचा और दुर्गुणों से नीचा होता है। मानव-हृदय ही परमात्मा का मन्दिर है, अतएव मनुष्य मात्रा के साथ समता का व्यवहार करना परम धर्म है।

5. मैं विश्वास करता हूँ कि काम, क्रोध्, लोभ, मोह, अहंकार, राग-द्वेष और मिथ्या धरणा से विरत रहना मन का धर्म है, झूठ, कटु, चुगली, निन्दा और वृथा बात न बोलना वाणी का धर्म है तथा हिंसा, व्यभिचार, जुआ और से विरत रहना शरीर का धर्म है। अतएव इस विश्वजनीन मानवधर्म पर चलकर मैं मन, वचन, कर्म से निष्पाप होने का प्रयत्न करुँगा।

6. मैं विश्वास करता हूँ कि परम सन्त कबीर के वचनानुसार ब्राह्मणों के सारे धर्म-ग्रन्थ स्वार्थ, झूठ और अन्याय पर आधरित हैं, और उन्हीं के धर्मशास्त्रों के विधान आदि-हिन्दुओं के पतन और विनाश का कारण हैं। अतएव, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं ब्राह्मणी देवताओं, ब्राह्मणी अवतारों और ब्राह्मणी कथा-कहानियों को मिथ्या और विनाशकारी समझकर उनका पूर्ण परित्याग करुँगा, और अपने जन्म, मुण्डन, विवाह और मृतक आदि संस्कार ब्राह्मणी विधान या ब्राह्मणों के द्वारा कदापि नहीं कराऊँगा। और,

7. मैं अपने पूर्वजों के उज्जवल चरित्र और आदिवंश गौरव का प्रकाश करने की चेष्टा करता रहूँगा। जातीय विधानों से उन पर ग्रन्थ लिखवाने, उनके उत्सव मनाने तथा अपने आदिहिन्दू बन्धुओं की शैक्षिक, प्राविधिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शारीरिक और मानसिक उन्नति करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहूँगा।

कहना न होगा कि आदि-हिन्दू के रूप में दलित वर्गों की इन सात मान्यताओं ने उन्हें कबीर और रैदास साहेब के ‘न हिन्दू-न मुसलमान’ वादी निर्गुण सन्तधर्म से जोड़कर ब्राह्मणवाद के खिलाफ नए ज्ञानोदय से भर दिया था। पर, ब्राह्मणों के प्रति-कामी संगठनों और काँग्रेस ने कुछ तो दुष्प्रचार, और अधिकाँश लोभ देकर उसके नेताओं को खरीदकर, इस आन्दोलन को तोड़ दिया। जैसा कि नन्दनी गुप्तू ने लिखा है कि काँग्रेस और हिन्दुओं द्वारा उन्हें हिन्दू धर्म से जोड़ने के लिए शुरू किए गए अछूतोत्थान और सुधार के प्रयास भी अछूतों की आदि-हिन्दू के बजाय हिन्दू पहचान बनाने में सफल रहे। क्रान्ति की तुलना में प्रतिक्रान्ति की धारा ज्यादा तीव्र होती है, क्योंकि उसे शक्तिशाली शासक वर्ग चलाता है।

1933 में स्वामी अछूतानन्द की आकस्मिक मृत्यु भी इस आन्दोलन के बिखरने का कारण बनी।

लेख का पहला भाग यहाँ पढ़ें–

स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ की आदि-हिन्दू अवधारणा-1

 



कँवल भारती प्रसिद्ध लेखक तथा मीडिया विजिल संलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।



 

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