कमल कृष्ण रॉय
पहले कुछ तारीखों पर गौर कर लिया जाय-
- 30 जनवरी 2020 को केरल राज्य के त्रिशूर जिले में करोना के पहले मरीज की पहचान हुई जो चीन के यूहान प्रांत से आया एक छात्र था।
- 4 फरवरी 2020 को केरल के सरकार ने इसे राज्य स्तर पर महामारी घोषित कर दी।
- 11 फरवरी 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका “कोविड-19″ नामकरण कर दिया।
- 11 मार्च 2020 को पुनः विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों व यात्राओं को प्रतिबन्धित कर दिया।
भारत की मोदी सरकार इन सबसे बेखबर अमरीकी राष्ट्रपति और उनके साथ आये कारपोरेट महाशक्तियों व बड़े उद्योगपतियों के स्वागत के तैयारी में व्यस्त थी। 24 फरवरी 2020 को 8000 मील की सीधी उड़ान के बाद ट्रंप जब 1200 लोगों के लावलश्कर के साथ भारतीय जमीन पर उतरा तो मोदी जी करीब सवा लाख लोगों से स्वागत में तालियां बजवा रहे थे और उसके दर्शन करके धन्य हो रहे थे। गुलामों के बाजार जैसा तमाशा था जिसके पीछे अरबों डालर के रक्षा सौदों का दस्तावेज लिखा जा रहा था।
उस वक्त कोरोना भारत की धरती पर पाँव रख चुका था लेकिन प्रधानमंत्री को एक एजेण्डा और पूरा करना बाकी था, वह था मध्य प्रदेश में एक चुनी हुई सरकार को गैर संवैधानिक तरीके से गिरा कर अपनी सरकार बनवाया जो खरीद–फरोख्त, धमकी–अपहरण के सारे सारे एपीसोड के बाद 20 मार्च 2020 को कमलनाथ के इस्तीफे और 23 मार्च 2020 के शिवराज चौहान के शपथ ग्रहण से पूरा हुआ। प्रादुर्भाव और पदार्पण का समय आ चुका था। बीमारी और महामारी पर चिकित्सा विज्ञान की और डब्लू.एच.ओ. की सलाहों के उलट अनिष्ट की आशंका वाले एक भय को राष्ट्रव्यापी बनाया गया। 22 मार्च 2020 को 12 घंटे के कर्फ्यू का एलान किया गया। 24 मार्च को रात 08:00 बजे प्रधान मंत्री का एलान हुआ कि 04 घंटे बाद यानि आधी रात से पूरे देश में तालेबंदी/ लॉकबन्दी। लॉक डाउन का पहला चरण 21 दिन के लिये 25 मार्च से 14 अप्रैल तक, फिर दूसरा चरण 19 दिन का 15 अप्रैल से 3 मई और तीसरा चरण 4 मई से 31 मई तक। अनलॉक का प्रथम चरण रहा 1 जून से 30 जून तक और दूसरा चरण 1 जुलाई से 30 जुलाई तक चलेगा।
इस लॉक डाउन के पीरियड में सारे कल-कारखाने, उद्योग, स्कूल कालेज, कचहरी, बस-रेलवे ज्यादार दुकानें पूरी तरह बंद। रोज कमाने-खाने वाले, स्वरोजगार करने वाले लोगों के चूल्हे ठंडे होने लगे। उसका कोई कौरी, अल्पकालिक या स्थायी समाधान न देकर पूरे देश के जनमानस पर पोंगापैथी विचारों, की भभूत लपेटने की कोशिश की गयी। वैज्ञानिक चेतना ओर लोकतांत्रिक आचरण पर अंधविश्वासों का परदा डाला गया। जरा याद करिये, 22 मार्च को 12 घंटे के कर्फ्यू के बाद सबको बारजे से, छतों से ताली और थाली बजाने को कहा गया और दावा किया गया कि थाली-ताली के वाइब्रेशन से करोना वाइरस का चेन टूट जायेगा। फिर राष्ट्र को संबोधित करते हुए मिस्टर मोदी ने कहा कि करोना का मनोबल तोड़ने के लिये 3 अप्रैल को रात 09 बजे अपने घर की सभी बत्तियां बुझा दें और 9 मिनट तक दीया, मोमबत्ती, टार्च या मोबाईल लाईट जलायें। यह संविधान का शपथ लेने वाले प्रधानमंत्री का नहीं वरन् किसी मठ के महंत का यह उद्घोष लग रहा था। इस दकियानूसी विचार को धर्म का चाशनी और पाखण्ड में लपेटने के लिये एक राष्ट्रीय जाल फैलाया गया जिसमें तमाम चैनलों को आगे कर दिया गया।
यही यह समय था जब भूख, बेकारी, बेबसी और बेघरी से बदहाल उन शहरों को छोड़ अपने प्रांत, जिले और गांव की तरफ पैदल चल पड़े। साथ में झांला, बैग, कंधे पर बच्चे, बूढं माँ–बाप गर्भवती महिलाएँ। क्या सूरत, क्या मुंबई कलकत्ता, दिल्ली, हरियाणा, बंगलूर, नेन्नई और क्या कोयम्बटूर।
28 मार्च को दिल्ली आनन्द विहार टर्मिनल पर करीब 15 हजार लोग इकट्ठा हो गये और यू0पी0 बिहार की तरफ चल पड़े। धूप में, बारिश में। एन.एच.–24 पर। 800-900 कि0मी0 पैदल चलने के लिये। दूर-बस सेवा पूरी तरह बंद थी। हरियाणा के गुड़गांव, द्वारका, महिपालपुर, उत्तम नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद से दूध मुंहे बच्चों पत्नियों, माओं को लेकर दिहाड़ी मजदूर, यू०पी, बिहार, उड़ीसा, बंगालके मजदूर पैदल चल पड़े। रास्ते में न रहने-रूकने का कोई गैर न खाने के एक दाने की कोई आस। थाणे, वीटी0, जलगांव, ईगतपुरी, ईटारसी, जबलपुर, रीवा की सड़कों पर भारी भीड़ चलने लगी। भूख, दुर्घटनाओं में खुली सड़कों पर लोग मरने लगे। लॉक डाउन से 8 मई तक कुल 350 मोतों का सरकारी आंकड़ा आ गया।
औरंगाबाद में रेल की पटरी पर सोये 16 श्रमिक और उनके परिवार वालों के ऊपर से ट्रेन गुजर गयी। बेहद दर्दनाक मौत। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स (आर0पी0एफ0) ने बताया कि श्रमिक ट्रेनों में 7 से 27 मई के बीच 80 मजदूर और उनके परिवार वालों की मौत भूख और बीमारी से हुई। कौन भूल सकता है, मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म पर मृत पड़ी माँ के के कफन के चादर को आँचल समझ कर खेलती उस अबोध बच्ची का वीडियो।
एक बेरोजगार-गरीब पिता अपनी साइकिल पर बिठाकर 15 साल की किशोरी ज्योति पासवान 10 मई को गुड़गांव से चली और 16 मई को 12 सौ कि0मी0 साईकिल चलाकर दरभंगा जिले के अपने गाँव सिरहुली पहुंची। सीमेन्ट गिट्टी मिलाने वाली मशीने मजदूर छुप कर जा रहे थे। यह एक ऐसी भयावह स्थिति थी जिसकी मिसाल देश बंटवारे के दौरान जससंख्या के अदला-बदली व पलायन में नहीं मिल रहा था।
2018 में कांवड़ियों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाने वाली पुलिस जगह-जगह इन मजदूरों को लाठियों से पीट भी रही थी। ऐसा नहीं कि अपने घर लौटने वाले सबके साथ यही हो रहा था। अमीरों व इण्डिया और गरीबों के हिन्दुस्तान की सारी रस्में अलग-अलग थी। लॉक डाउन की घोषणा के बाद चीन, ईरान और इटली से सरकारी खर्चे पर लोगों की विशेष उड़ानों से भारत लाया गया।
दूसरे चरण में ‘वंदे भारत मिशन’ की घोषणा हुई जिसमें पहले फेज को विशेष विमानों से 23000 लोगों को भारत लाया गया। दूसरे फेज में 16 से 21 मई तक 31 देशों से 30,000 लोग ऐशो आराम से हवाई जहाजों से भारत लाये गये। ये अमीर लोग थे। पर जो बहुत ज्यादा अमीर थे, उनके बच्चे इन यात्रियों के साथ हवाई यात्रा में कुछ अप्रसन्नता जाहिर की और वे कुछ 102 चार्टर्ड फ्लाईट से दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतरे। उसमें एक-एक चार्टर्ड फ्लाइट का एक खेप का किराया 90 लाख तक था। कुछ जगहों में तो, दो या तीन नौनिहाल ही आये। उत्तराखण्ड में फंसे गुजरात के सैलानियों के लिये मुख्यमंत्री ने अहमदाबाद से 252 लक्जरी बसें भेजी। बनारस से तेलंगाना के तीर्थ यात्रियों को वापस लाने के लिये 100 से ज्यादा लक्ज़री बसों की व्यवस्था सांसद बी0जे0पी0 नरसिम्हा द्वारा की गयी। उत्तर प्रदेश सरकार ने सम्पन्न परिवारों से, मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय परिवार के कम्प्टीशन की तैयारी में राजस्थान के कोटा गये 7500 छात्रों को लाने के लिये 100 विशेष बसें भेजी।
महामारी के आगाज और लॉकडाउन ने हिन्दुस्तान को दो हिस्सों में बांट दिया। थोड़े से वे जो जहाजों और लक्जरी बसों से घर लौट रहे थे और बाकी खुली सड़कों पर, तेज गर्मी और बरसात में मौत और मुसीबत का निवाला बन रहे थे। संसद पर ताला पड़ा हुआ था, विधानसभायें बंद थी। प्रधानमंत्री सब कुछ देख रहे थे और अपना एजेण्डा आगे बढ़ा रहे थे। जमाती, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, बंगाल, राजस्थान खेल रहे थे। विपक्ष, इस राष्ट्रीय विपदा में कमोवेश सरकार के साथ था। जिनके संदेश स्पष्ट आ रहे थे कि यह राजनीति करने का समय नहीं है। इसी ‘राष्ट्रीय एकता’ के माहौल में सरकार के विश्व बैंक व एशिया डेवलपमेन्ट बैक से 194 हजार करोड़ का कर्ज ले लिया जिसका फायदा कॉरपोरेट को पहुँचना था।
वैसे सुप्रीम कोर्ट पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है, इन दिनों। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने 9 नवम्बर 2019 को अयोध्या मसले पर जिस तरह फैसला दिया, उससे लगा कि सर्वोच्च न्यायपालिका सत्ता के सम्मुख झुकने को तैयार है। फिर जिस निर्लज्जता ने चीफ जस्टिस गोगोई ने 16 मार्च 2020 को भाजपा के समर्थन से राज्यसभा में नामित हुए, रहा-सहा परदा भी हट गया। जस्टिस लोया के संदिग्ध मौत के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का बर्ताव, राफेल मामले में उसका रूझान यह स्पष्ट संकेत दे रहा था कि ज्यूडिशियरी केन्द्रीय सत्ता के मर्जी के खिलाफ नहीं जाना चाहती। फिर भी भारत व विश्व की मीडिया ने आम आदमी, दिहाड़ी मजदूर, औद्योगिक श्रमिक के दुर्दशा का जो भयावह सच सामने रखा, लगा कि उम्मीद की एक मात्र किरण न्यापालिका ही है, जो आम जन के सम्मानजनक जीने के अधिकारों की रक्षा करेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह स्पष्ट था कि इसके केन्द्रशासित प्रदेशों द्वारा 134 करोड़ की आबादी (विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी) वाले देश को तैयारी के लिये प्रधान मंत्री ने सिर्फ चार घंटे का समय दिया।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रवैया तो केन्द्र सरकार को राहत पहुंचाने वाला रहा जिसकी कई मिसालें हैं।
26 मार्च 2020 को याचिकाकर्ता अलख श्रीवास्तव ने पहली पिटीशन फाइल की और सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सड़कों पर पैदल चल रहे लाखों लोगों की भोजन, आराम, दवा व आश्रय की सुविधा दी जाये। 31 मार्च को सालिसिटर जरनल ने कोर्ट से सफेद झूठ बोला कि सड़क पर एक भी मजदूर नहीं है। यह भी कहा कि जो मजदूर सड़कों पर थे, वे स्वेच्छा से या किसी मजबूरी से नहीं थे, वरन् सोशल मीडिया में जानबूझ कर फैलायी गये अफवाहों और फेक न्यूज के चलते मजदूर सड़क पर आ गये। 23 अप्रैल को यह कहकर केस निस्तारित कर दिया गया कि केन्द्र सरकार यचिका द्वारा उठाये गये सवालों पर विचार करेगी। संविधान के रक्षक सुप्रीम कोर्ट, जिसे अनुच्छेद 21 में दिये सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार का स्मरण है, ने एक कलम से करोड़ों मजदूरों की समस्याओं को उसी सरकार के हवाले कर दिया जिन्होंने इसे पैदा किया था।
एक इशारा मिल गया था जिस पर सुप्रीमकोर्ट को आगे चलना था, और यही नहीं, देश के उच्च न्यायालयों व जिला अदालतों के लिये यह जजमेंट मार्गदर्शक सिद्धान्त बन गया।
अगली बारी प्रसिद्ध मानवाधिकार नेता व पूर्व आई0ए0एस0 हर्ष मंदर की थी जिन्होंने सावधानी बरत कर एक जनसंगठन ‘स्वार’ द्वारा जमीनी स्तर पर प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को मेहनत के साथ इकट्ठा किया था। पर कोर्ट के पहले ही सावधान मुद्रा में था। मौखिक रूप से यह झिड़की दी वे किसी स्वतंत्र जनसंगठन द्वारा इकट्ठा किये गये दस्तावेजों और सबूतों पर विश्वास नहीं कर सकते क्योकि केन्द्रीय सरकार उसमें उलट सबूत दे रही है। इसी केस में सुप्रीम कोर्ट के 7 अप्रैल को कहा कि अगर सरकार प्रवासी मजदूरों को भरपूर भोजन दे रही है तो उन्हें पैसा क्यों दिया जाये। आखिरकार 21 अप्रैल को केस समापत कर दिया गया और सरकार पर भरोसा कर उसे उचित इन्तजाम करने को कह दिया गया।
न्यायपालिका की बेरुखी का यही अंत अंतिम अध्याय नहीं है। चुनावों में प्रत्याशियों के जवाबदेही व पारदर्शिता पर काम करने वाले संगठन ए0डी0आर0 के निदेशक नामचीन हस्ती डा0 जगदीप कोचर एक पेटीशन लेकर सप्रीम कोर्ट पहुंचे कि प्रवासी मजदूरों के घर वापसी की सारी व्यवस्था सरकार करे और यह भी कहा कि उनके यात्रा का किराया न वसूला जाय। कोर्ट का दो टूक जवाब था कि मुफ्त यात्रा के बिन्दु पर वह कोई आदेश नहीं देंगे। सबको पता है कि यात्रा का किराया जुटाने के लिये मजदूरों को क्या-क्या नहीं करना पड़ा। जब रेल पटरी पर सोये 16 प्रवासी मजदूर ट्रेन से कुचल कर मर गये तो अलख आलोक श्रीवास्तव पुनः एक दरख्वास्त लेकर कोर्ट पहुंचे कि, विभन्न दुर्घटनाओं और मौतों का हवाला दिया और सुरक्षा की मांग की। यह महत्वपूर्ण मामला जस्टिस मांगेश्वर राव, जस्टिस संजय कृष्ण कौल और जस्टिस बी0आर0 गवई की पीठ द्वारा सुना जा रहा था। जस्टिस संजय कुष्ण कौल ने कहा कि अगर लोग पटरी पर सोयेंगे तो मरेगे ही, फिर सड़क दुर्घटना में म0प्र0 के गुना जिले के हुए आठ मजदूरों के दर्दनाक मौत का हवाला याचिकाकर्ता ने दिया तो कोर्ट के पास रेडीमेड जवाब था, किससे पूछ कर सड़क पर चल रहे थे मजदूर… और जो लोग सड़क पर आ गये हैं उन्हें यह कोर्ट वापस नहीं भेज सकती।
लगा कि सुप्रीम कोर्ट के दीवार पर यह इबारत लिख दी गयी है कि कृपया अदालत की कीमती समय न नष्ट करें और गरीब वहां से इंसाफ की उम्मीद न करें। हाल ही हाल में रिटायर हुए सुप्रीम कोर्ट जज दीपक गुप्ता ने ठीक ही कहा था कि न्यायालय सम्पन्न और अमीर लोगों को न्याय देती है, सामान्य और गरीब लोगों को नहीं।
हुजूर आते-आते बहुत देर करी दी। आखिर में प्रवासी मजदूरों पर कुछ दया दृष्टि पड़ी तब तक काफी देर हो चुकी थी। 26 मई को तीन जजों की पीठ ने स्वतः संज्ञान लेकर कहा कि पेटीशन सिविल 6/2020 प्रवासी मजदूरों की सहायता में कुछ चूक रह जा रही है और आदेश दिया कि केन्द्र और राज्य उन्हें परिवहन, भोजन, आश्रय की मुफ्त व्यवस्था करे।
जब यह आदेश निर्गत हुआ, ज्यादातर प्रवासी मजदूर अपने-अपने ठिकानों पर पहुंच चुके थे। तो क्या यह स्वतः संज्ञान से ली गयी याचिका थी। शायद नहीं। क्योंकि इसके ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय के और बंबई उच्च न्यायालय के करीब डेढ़ दर्जन वरिष्ठ और सम्मानित अधिवक्ताओं ने एक लंबा पत्र लिख कर सुप्रीम कोर्ट के मजदूर विरोधी रवैये पर असंतोष जाहिर किया था और हस्तक्षेप की मांग की थी।
सुपीम कोर्ट का अमीर परस्त रूझान यहां पर भी देखने को मिला जब 8 अप्रैल 2020 को कोर्ट ने आदेश दिया कि सरकारी और प्राइवेट अस्पताल दोनों कोविड-19 का फ्री टैस्ट करेंगे। टेस्ट का न्यूनतम खर्च 4500, था जो दो बार कराना पड़ता है। आदेश आते ही भारी-भरकम अस्पतालों के भारी भरकम वकील मुकुल रोहतमी कूद पड़े और सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में अपना आदेश संशोधित कर दिया कि जो ‘अयुष्मान भारत योजना’ के लाभार्थी होंगे, उन्हें ही फ्री टेस्ट का लाभ मिलेगा।
क्या सर्वोच्च अदालत को नहीं मालूम कि आज की तारीख में देश के पचास करोड़ (500 मीलियन) लोग ‘आयुष्मान योजना’ के बाहर हैं। प्राइवेट अस्पतालों की मजबूत लॉबी के सामने सर्वोच्च न्यायालय नतमस्तक हो गयी।
सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये का नतीजा बहुत ही बुरा निकला। सरकारें, निचली अदालतें और पुलिस बेलगाम हो गयी। खुद सुप्रीम कोर्ट की अच्छी बातें भी कोई सुनने को तैयार नहीं रहा। 16 मार्च को और फिर 23 मार्च को सुपीम कोर्ट ने करोना संक्रमण के फैलाव को रोकने उन कैदियों को जमानत देने का आदेश दिया जिसमें सजा 7 साल की थी। केरल हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस एस0 रवि कुमार के अध्यक्षता वाली खण्डपीठ में 23 मार्च के और कोलकाता हाईकोर्ट ने 24 मार्च को आदेश दिया कि अगर बेहद जरूरी न हो और अपराध खतरनाक न हो तो किसी को जेल न भेजा जाये। भारतीय जेलों में क्षमता से दूने से भी ज्यादा कैदी हैं। इन आदेशों को ठेंगा दिखाकर सरकारों ने क्या किया। उ0प्र0 में जेल में अदालतें लगातार करीब 1100 कैदियों को रिहा किया गया और फिर सामान्य आरोपों में करीब दो हजार से उपर लोगों को जेल में डाल दिया। सजा राजनैतिक करणों से झूठे मुकदमें डालकर जेल भेजा गया।
आजमगढ़ में 19 लोगों पर एकमुश्त देशद्रोह लगाकर जेल भेज दिया गया। ये नागरिकता विरोधी आन्दोलन में शांतिपूर्ण ढंग से शामिल थे। इसी आन्दोलन के 16 लोगों को मऊ जिले में गैंगस्टर एक्ट में लगा दिया गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पोलिटिकल साइंस के प्रोफेसर मो0 शाहिद की झूठे आरोप में 2 महीने जेल में रहना पड़ा। फर्जी आरोप में नागरिकता विरोध आन्दोलन में मंसूर पार्क धरने में सक्रिय खालिद उमर 24 मार्च से 2 महीने से ज्यादा जेल में रहे और सभासद फजलखान देशद्रोह के आरोप में अभी भी नैनी जेल में है। गाजियाबाद के शहजाद सिर्फ इसलिये जेल में हैं कि उन्होंने नागरिकता विरोधी आन्दोलत के दौरान हुए पुलिसिया जुल्म पर तथ्य इकट्ठा कर इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। मजेदार बात यह है कि शहजाद पर आगजनी, तोड़फोड़ के दो एफ.आई.आर. दो जिलों (मेरठ और गाजियाबाद) के दो थानों में दर्ज हैं, जिनके बीच की दूरी 40 किमी0 से ज्यादा है। दोनों एफ0आई0आर0 में घटना की तारीख और समय एक ही है।
नागरिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जो मूल्य संविधान व न्यायालयों ने स्थापित की थी एक लंबे दौर में उसकी आज के सुप्रीम कोर्ट ने धज्जियां उठा दी। कानून बदलो, जेल जेने, जमानत से इन्कार करने में जो होड़ ली हुई है, उसकी प्रेरणा मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के फैसले हैं।
मीरान हैदर, इशरत जहाँ, खालिद सैफ, नताशा नरवाल, देवांगरा वलीता, गुलाकिशा, शरजील इमाम, आसिफ इकबाल, सब को लॉक डाउन के दौरान जेलों में रखा गया। जम्मू कश्मीद हाईकोर्ट ने जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के बार एसोसियेशन के अध्यक्ष मियाँ कय्यूम की पब्लिक सेफ्टी एक्ट में गिरफ्तरी को उचित ठहराया, आज कश्मीर के हाई कोर्ट में 99 प्रतिशत हैबियस कारपस की पेटीशन की सुनवाई नहीं हो रही है। 13000 लोग जेलों में है। पीरजादा आसिफ और गौहर जिलानी जैसे लेखक पत्रकार के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज है। 6 अप्रैल को बिहार मुंगेर के वेब जर्नलिस्ट पवन चौधरी को गिरफ्तार कर लिया गया। 27 अप्रैल को अण्डमान के पत्रकार जुबैर अहमद को गिरफ्तार कर दिया गया। 16 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने गौतम नवलखा व आनन्द तेलतुम्बडे की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी। 6 अप्रैल को वे जेल चले गये। गौतम नवलखा ने लिखकर बताया है कि कितनी अमानवीय स्थिति में डीड़, गंदगी के माहौल में वे रह रहे हैं व 67 साल के हैं और कई बीमारियों से ग्रस्त हैं।
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के जयापुर गांव पर एक रिपोर्ट लिखने पर स्क्रोल की पत्रकार सुप्रिया पर क्रिमिनल केस कर दिया गया। अप्रैल को अयोध्या के एक रिपोर्ट को आधार बनाकर दि वायर के सिद्धार्थ वरदराजन के विरूद्ध एफ0आई0आर0 दाखिल की गयी। प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ को दिल्ली पुलिस ने दिल्ली दंगों में शामिल पाया। 55 पत्रकारों पर हमले हुए जिसमें उ0प्र0 में 11, कश्मीर में 6, हिमांचल में 5, पंजाब, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, प्रत्येक में 4। जब पत्रकार पर मुकदमा हो, लेखक संपादक जेलों में रखे जाने लगे, विचारक, मानवाधिकार नेता व कवि की जमानतें खारिज होने लगें तो मतलब यही है कि नागरिक अधिकारों व स्वतंत्रता का प्रहरी सुप्रीम कोर्ट सोया हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट की उदासीनता, निष्क्रियता ने सरकारों का मनोबल बढ़ा दिया है। जहाँ एक ओर पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को छूट मिलने लगी, कर्जमाफी शुरू हुई वहीं मजदूरों को जो अधिकार अंग्रेजी शासन तक में प्राप्त थे, जिसे आजादी में बाद श्रमिक वर्ग ने यूनियन बनाकर, कुर्बानी देर प्राप्त किया था, उन श्रम कानूनों और अधिकारों को समाप्त किया जाने लगा।
6 मई को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक आर्डिनेन्स द्वारा काम के घंटे 8 से 12 कर दिये। राजस्थान, पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश में तीन महीने के लिये समस्त श्रम कानूनों को स्थगित कर दिया। हड़ताल, धरना प्रदर्शन आदि के अधिकार समाप्त कर दिये। इण्डस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट, फैक्ट्री एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट को तीन वर्षों के लिये ठंडे बस्ते में डालना दरअसल मजदूर वर्ग के हाथों से उन संवैधानिक अधिकार को छीन लेने जैसा है जिसे अनुच्छेद 14, 15, 21, 23 से उसे प्राप्त है।
यही नहीं उत्तर प्रदेश में ‘उ0प्र0 लोक व निजी क्षति वसूली नियमावली, 2020 को भी पारित किया गया जिसके तहत धरने, प्रदर्शन बंद, हड़ताल के दौरान हिंसा, लूट, आगजनी व संपत्ति नाश पर जुर्माना लगा कर वसूली की जायेगी। अभी लखनऊ में गरीब परिवार के युवा पर 68 लाख की वसूली की नोटिस दी गयी है। वहीं दूसरी तरफ पूँजीपतियों/कारपोरेट घरानों का एक लाख पचास हजार करोड़ का कर्जा माफ किया गया और 6 से लाख करोड़ रुपया का कर्ज एन0पी0ए0 डाल दिया गया।
अगर 12 जून को सुप्रीम कोर्ट मालिकों का पक्ष लेते हुए यह कह सकता है कि लॉक डाउन पीरियड में मजदूरों को मजदूरी देने के लिये मालिकों को बाध्य नहीं किया जा सकता। अगर गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस परदीवाला व जस्टिस जस्टिस इलेश बोहरा की बेंच को 25 मई को इसलिए बदल दिया जा सकता है कि 22 मई को उन्होंने अहमदाबाद के सिटी सिविल हास्पिटल के नाटकीय स्थिति पर कठोर टिप्पणी कर उसका दौरा करने की बात कर दी थी। 26 फरवरी को अगर दिल्ली हाईकोर्ट के लोकप्रिय जज एस0मुरली धर को आधी रात को आदेश निकाल कर चीफ जस्टिस बोबडे पंजाब रवाना कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार लगायी थी कि उसने अभी तक भाजपा नेता को दंगा उकसाने व हेट स्पीच देने में गिरफ्तार क्यों नहीं किया, तो याद कर लीजिये, जेहन में रख लीजिये, महान संविधान वेत्त एच0एम0सीरवई का यह अमर वाक्य जो उन्होंने ‘ए.डी.एम., जबलपुर’ के नाम से विख्यात उस केस के फैसले के लिखाया जब सुप्रीम कोर्ट ने बहुलमत के निर्णय से कहा था कि संसद व्यक्ति के जीने का अधिकार भी छीन सकती है। सीरवई ने लिखा था ‘यह सुप्रीम कोर्ट का सबसे काला दिन है।’
आज स्थितियाँ और भयावह है। आपात काल के दिनों से भी ज्यादा खतरनाक कानून कुंडली मारे बैठे हैं। आज सुप्रीम कोर्ट अपने काले दिनों से गुजर रहा है। संविधान की मूल आत्मा व मूल भावना खतरे में है। सर्वोच्च न्यायालय नागरिक अधिकारों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानवीय मूल्यों की रक्षा में असफल हो रहा है।
लेखक, के के रॉय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं।