21 मई,2021 को राजीव गांधी की नृशंस हत्या के तीन दशक पूरे हो गये. तमिलनाडु में चुनाव प्रचार के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री गांधी का एक आत्मघाती विस्फोट में हठात हम लोगों से बिछड़ जाना किसे अच्छा लगा होगा! इसी महीने की तपती रात्रि की शुरुआत थी जब निर्मल मुस्कान और निश्छल व्यक्तित्व के धनी राजीव गांधी के पेरुंबदूर ( चेन्नई से करीब 70 किलोमीटर दूर ) में त्रासद अंत का समाचार मिला था. मैं पत्नी मधु सहित रात्रि के करीब दस बजे उनके निवास स्थान ( 10, जनपथ ) पर पहुंचा था. शोकाकुल वातावरण था, लेकिन सड़क पर खड़े कांग्रेस कर्मी बेहद उत्तेजित थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के खिलाफ नारे लगा रहे थे. प्रेस से भी नाराज़ थे क्योंकि पिछले सालों में यह राजीव -विरोधी रहा थी. दो-तीन परिचित स्थानीय नेताओं की सलाह पर हम दोनों को वहां से जाना पड़ा था. कार पर प्रेस लिखा होने के कारण हम लोगों का रहना सुरक्षित नहीं था। ख़ैर!
दिवंगत राजनेता गांधी की देश -विदेश -यात्राओं में मैं अनेक बार साथ रहा हूँ इसलिए सभी यादों को आज यहां लेखन में दावत देना संभव नहीं है. फिर भी कुछ यादें बरबस आना ही चाहती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं। मैं 19 मई की शाम कैसे भूल सकता हूं? उस शाम नई दिल्ली के अशोक मार्ग स्थित पूर्व मंत्री मार्गरेट अल्वा के निवास स्थान पर आयोजित रात्रिभोज पर मैं निमंत्रित था। पूर्व प्रधानमंत्री गांधी के साथ डिनर में चुनिंदा पत्रकारों को बुलाया गया था. तब मैं नई दुनिया का दिल्ली ब्यूरो प्रमुख हुआ करता था. डेढ़ -दो घंटे चली डिनर -चर्चा में गांधी बेहद बेतकल्लुफ़ थे. खिलखिलाहट में निश्छलता थी, मासूमियत थी. अचानक मुझसे पूछा, “ विदिशा के क्या हाल हैं?”.
मैंने कहा, “ आपके कैंडिडेट का मुक़ाबला अटलबिहारी वाजपेयी जी से है. अन्दाज़ लगा लें ?”
“फिर तो हमारे प्रतापभानु शर्मा मारे गए.” क्या कोई पार्टी अध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री अपने प्रत्याशी के बारे में सार्वजनिक रूप से ऐसा कहेगा?नहीं कहेगा। लेकिन, राजीव गांधी एक धूर्त -मक्कार -छल -कपटी -फेंकू राजनीतिज्ञ नहीं थे. बेहद सरल और पारदर्शी प्रकृत्ति के थे राजीव गांधी। मुझे क्या मालूम था कि इस निर्मल मुस्कान की छटा को अंतिम बार देख रहे होंगे! एक ऐसी ही याद दस्तक़ दे रही है जब श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में उन पर घातक हमला हुआ था.
यह इत्तफ़ाक़ ही था कि 20 जुलाई ,1987 को कोलम्बो की इस घटना के समय भी मैं प्रधानमंत्री की मीडिया पार्टी का सदस्य था. हुआ यह कि 20 जुलाई की सुबह हम पत्रकारों को होटल से सीधे एयरपोर्ट रवाना कर दिया गया। हमसे कहा गया कि प्रधानमंत्री श्रीलंका के विदाई निरीक्षण गार्ड का निरीक्षण करके पहुंचने वाले हैं. हम लोग बेफिक्र गपशप में मशगूल थे. अचानक अधिकारी ने खबर दी कि निरीक्षण के दौरान नौसेना के एक सैनिक प्रधानमंत्री पर अपनी राइफल की बट से हमला कर दिया है, लेकिन सुरक्षित हैं. सकुशल पहुंचने वाले हैं. हम लोग चिंतित हो उठे. सोचने लगे कि कहीं सेना ने तो श्रीलंका की सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह तो नहीं कर दिया है क्योंकि वहां की बहुसंख्यक सिंहली जनता भारत -श्रीलंका समझौते के ख़िलाफ़ थी. उन दिनों श्रीलंका में गृह युद्ध चल रहा था और अल्पसंख्यक तमिल आबादी अपना स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी. तरह -तरह की अटकलों के बीच राजीव गांधी हम लोगों के मध्य पहुंच गए. ज़ाहिर है, चिंतित मीडिया ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि घबराइए नहीं। कुछ नहीं हुआ है. मामूली खरोंच आई है. फिर किसी सामान्य व्यक्ति की तरह अपना कॉलर को हटा करके बट के निशान दिखाने लगे. साथ साथ हंसते भी जा रहे थे गोया कि कुछ घटा ही न हो! यह बट उनके सिर पर भी पड़ सकता था. लेकिन, संयोग से कांधे और गर्दन के बीच पड़ा। चंद पलों में प्लेन हम लोगों को ले उड़ चला दिल्ली ओर. इसे विडंबनापूर्ण संयोग ही कहेंगे कि जहां राजीव विदेशी ज़मीन पर सिंहली सैनिक से बचे तो 21 मई को अपने ही देश की भूमि पर चरमपंथी ‘तमिल टाइगर’ के भूमिगत एक्टिविस्टों के आत्मघाती विस्फोट का शिकार हो गए.
वास्तव में, मेरी दृष्टि में राजीव गांधी भारत के सियासी मिज़ाज़ के अनुकूल नहीं थे; शकुनि, दुर्योधन, दुःशासन से कैसे लड़ा जाता है, उनके बूते की बात नहीं थी. उनमें मां इंदिरा गांधी और अनुज संजय गांधी जैसी राजनीतिक चातुर्य का अभाव था. वे इतने सरल थे कि उनके प्रति मासूमियत व सहानुभूति के भाव पैदा होते हैं. सर्दियों की एक रात थी. राजीव गांधी के काफ़िले में मैं भी था. कारों का यह काफ़िला सुल्तानपूर से अमेठी जा रहा था. अचानक बीच मार्ग में काफिला रुक गया. दो -एक मिनिट के बाद हमारे कार की खिड़की पर टॉर्च की रौशनी पड़ती है. मैं खिड़की खोलता हूं और बाहर देखता हूं तो अवाक रह जाता हूं। राजीव गांधी स्वयं टोर्च लिए खड़े हैं. मैंने घबराकर पूछा, “ क्या हुआ राजीव जी ?” “ हुआ क्या ? सौ कारें हमारे साथ चल रही हैं। इसकी क्या ज़रूरत है? मैं आख़िर तक देख कर आता हूं कौन कौन कार में हैं ?” इतना कह कर युवा व भोले प्रधानमंत्री विलोम दिशा में चल पड़े. साथ में अंगरक्षक भी. हम पत्रकार एक -दुसरे का चेहरा देखने लगे – क्या यह काम प्राइम मिनिस्टर को करना चाहिए ? कोई भी पुलिस ऑफिसर यह काम कर सकता था.. हम लोग आपस में सवाल -जवाब करने लगे और राजीव जी की नादानी पर ‘तरस’ जैसा – भाव ज़ाहिर करते भी जाते. कुछ ही देर में फिर टॉर्च की लाइट पड़ी और राजीव जी बोले – मैंने पुलिस को कह दिया है कितनी कारें साथ रहेंगी। आप लोग साथ रहेंगे। इतना सूचित कर वे अपनी कार की तरफ बढ़ गए. हम लोगों के मुंह से इतना ही निकला – धन्य है राजीव जी!
ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो उनके उदार व सहज चरित्र की साक्षी हैं. संसद के दोनों सदनों में जब यह सौम्य चेहरा प्रवेश लेता था तब एक विशिष्ट राजनीतिक शैली भी उनके साथ चली आती थी। इस दौर में राजीव गांधी और भी शिद्दत के साथ याद आते हैं. वे जब भी दिल्ली होते थे आम जनता से अपने निवास पर ज़रूर मिला करते थे. उनके और आम जन के बीच खुल कर संवाद हुआ करता था; साधु-संत; गृहस्थ, युवाजन; किसान -श्रमिक; व्यापारी, अधिकार; खिलाड़ी, राजनीतिक कर्मी; बुद्धिजीवी,बच्चे -वृद्ध आदि जी खोल संवाद करते, शिकवा -शिकायत करते; ज्ञापन देते। इन दृश्यों को खूब कवर किया है. आज तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ मन की बात ‘ में एक तरफ़ा ही सब कुछ होता है. उनसे सवाल -जवाब करने वाला कोई नहीं होता है; वे एक तरफ़ा बोलते जाते हैं और उनके आलोचक सोशल मीडिया में उन्हें एक तरफा ‘कठघरे’ में खड़ा करते रहते हैं. यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है. राजीव गांधी अपनी देश -विदेश की यात्राओं और दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस भी खूब किया करते थे. उनसे गलतियां भी होती थीं. विवाद भी हुआ करते थे. लेकिन प्रेस से पलायन नहीं करते थे.
मोदी जी को प्रधानमंत्री पद पर बैठे सात वर्ष हो चुके हैं. एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं कर सके हैं. विदेश यात्राओं में भी मीडिया को साथ नहीं ले जाते हैं. सिर्फ सरकारी या गोदी मीडिया के प्रतिनिधि साथ जाते हैं. मोदी ऐसा क्यों करते हैं, यह तो वही जानते हैं.लेकिन इससे दो प्रवृत्तियां सामने आती हैं: आत्मविश्वास की गहरी कमी, दो, अधिनायकवादिता व अलोकतांत्रिकता। मोदी के समान राजीव गांधी प्रभावशाली वक्ता नहीं थे. लेकिन, वे बिना किसी नाटकीयता के सहज भाव से अपने विचार सामने रखा करते थे जोकि गरिमापूर्ण शैली में हुआ करते थे.आत्मविश्वास से समृद्ध थे. सलीके की पोशाक पहना करते थे, किसी फैशन परेड के लिए नहीं। मतदाताओं को रिझाने के लिए दाढ़ी बढ़ाया नहीं करते थे और न ही विदेशी शासकों पर अपनी धाक ज़माने के लिए लाखों के कोट पहना करते थे या झप्पी मारा करते थे. एक गरिमापूर्ण-सम्मानजनक सामीप्य या दूरी बनाए रखते थे. यह पीढ़ी एक ऐसी लीडरशिप के साथ संस्कारित हो रही है जिसने ‘ छिछोरपन’, ‘ चिरकुटपन’ और उत्तर सत्य राजनीति ( पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स) को लोकवृत्त में ‘लोकधर्म’ या ‘राजधर्म’ के रूप में स्थापित कर दिया है , और उत्तर सत्य मीडिया ( पोस्ट ट्रुथ मीडिया ) इसकी रक्षा में अहर्निश तैनात है.
इस विकृत-छद्म परिदृश्य में संस्कारशील राजीव गांधी की नेतृत्व शैली का स्मरण पहले से अधिक प्रासंगिक हो गया है!
लेखक देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।