शिशु मंदिर में मुझे कैसे करायी गयी ‘दुश्‍मन’ की पहचान? एक सामाजिक कार्यकर्ता के संस्‍मरण

आरएसएस और मेरा रिश्ता बहुत पुराना है. दूसरी कक्षा में थी जब मेरा एडमिशन सरस्वती शिशु मन्दिर विद्यालय, छतरपुर में हुआ. उस वक़्त शहर में दो ही बड़े स्कूल हुआ करते थे- एक था क्रिश्चियन इंग्लिश स्कूल और दूसरा था सरस्वती शिशु मंदिर. जैसा कि नाम से ही जाहिर है पहले स्कूल के बारे में आम धारणा थी कि वहां ईसाई धर्म की प्रार्थना करवाई जाती है जो बच्चों के मानसिक विकास और संस्कृति के लिए ठीक नहीं. दूसरा विकल्प यानी हिन्दू धर्म, संस्कृति से परिचय भी होगा और घर के अलावा स्कूल में भी बच्चों को संस्कार मिलेंगे. बड़ों की बातें सुन सुन कर अपने मन में भी ऐसे ही ख्याल थे कि ईसाईयों के देवी देवता से हमें क्या लेना देना. फिर सरस्वती शिशु मंदिर में एडमिशन भी तो एक प्रवेश परीक्षा के बाद ही मिला था तो गर्व से सीना अपना भी तब 56 नहीं तो उस उम्र में 26 इंच तो हो ही जाता रहा होगा.

पहले दिन जब स्कूल गए तो मालूम हुआ कि पहले एक घंटा शारीरिक व्यायाम होगा फिर एक घंटे भजन और देशभक्ति गाने गाये जायेंगे और फिर प्रार्थना के बाद पढाई शुरू होगी. अच्छी बात ये रही कि इन सभी प्रक्रियाओं के लिए कुछ लड़के और लड़कियों को हर कक्षा से प्रतिनिधि के तौर पर चुना जाता था और पहले दिन ही यह सौभाग्य मुझे मिल गया. अपनी तो ख़ुशी का कोई ठिकाना ना था. ख़ुशी इसलिए भी ज्यादा थी क्योंकि मुझसे पांच कक्षा आगे पढ़ रही मेरी बहन को ये सौभाग्य कभी नहीं मिला था.

कक्षा में आयी तो अधिकांश बच्चे मिश्रा, शर्मा, श्रीवास्तव, सिंह, चतुर्वेदी, भार्गव, कश्यप, सक्सेना, जैन आदि थे. जब घर आकर मैंने ये बात बताई तो घर वालों ने कहा कि चलों अच्छा है ब्राह्मण ज्यादा हैं.साथ ही मेरे पिता ने आगाह भी किया कि बेटा ब्राह्मण ज्यादा हैं तो तुम्हारी प्रतियोगिता ब्राह्मणों से ही ज्यादा रहेगी इसलिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी है, क्योंकि आज के दौर में 97-98 प्रतिशत से ब्राह्मणों का कुछ नहीं होता.

मेरे मन में यह बात अच्छी तरह बैठ चुकी थी कि चार घर की, कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार की भार्गव गोत्र की बेटी हूँ और हम ब्राह्मणों में भी सबसे ऊँचे स्थान पर हैं, अतः मेरे लिए सबसे आगे होना कितना ज्यादा जरुरी है.

मेरी जो सहेलियाँ और सहेला बने सभी ब्राम्हण थे सिर्फ एक थी जो श्रीवास्तव थी. हालाँकि वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी पर फिर भी थी तो कायस्थ. खैर हम भी देखते थे कि उसकी मासी जो हमारे स्कूल में पढ़ाती थीं जब भी गृह सम्पर्क के लिए घर आती थीं तो अपना कप धोने के लिए पानी मांगती थीं और ये बात मेरे मन में कहीं ना कहीं अपनी जाति और अपने जन्म पर गर्व करने का मौका दे जाती थीं.

लगभग एक महीने के बाद स्कूल में कक्षा प्रतिनिधि का चुनाव होना था हालाँकि नई होने की वजह से मैं जरा कंफ्यूज थी कि क्या करू ? पर तभी मिश्रा आचार्य जी आये और लडकियों में से मुझे और लड़कों में से नीतेश भार्गव को कक्षा प्रतिनिधि बना गए, अरे हाँ प्रतिनिधि बनाने के एक दिन पहले ही उन्होंने सभी से विस्तार से पूछा भी था कि कौन कौन सा वाला ब्राह्मण है और मुझसे कहा था कि बहिन तुम सौभाग्यशाली हो जो इतने उच्च कुल में पैदा हुयी हो. उस स्कूल में रहते हुए सचमुच अपनी जाति को लेकर गर्व करने के मौके रोज मिलते थे. अंधे को क्या चाहिए दो आँखें. वैसे ही मुझे क्या चाहिए था अपनी ऊँची जाति के होने का बोध और सर्वव्यापी मान्यता.

हमारे स्कूल में हमें संस्कृत दूसरी कक्षा से ही पढाई जाने लगी थी साथ ही संस्कृति ज्ञान, प्रगति ज्ञान  और कक्षावार श्रृंखला के रूप में गौरवगाथा  नाम की भी एक किताब हमें पढाई जाती थीं. जिसमें हमें हमारे देश, यहाँ की विविधता, हिन्दू राजाओं की गौरवपूर्ण कहानियां बहुत ही रोमांचक तरीके से पढने को मिलती थीं. एक मासिक पत्रिका बालदेव भी हमें पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था . बड़ी कक्षाओं में एक तरह से उपन्यास के रूप में अलग अलग धार्मिक ऋषि मुनियों, धार्मिक गुरुओ जैसे शंकराचार्य, साहसी हिदू राजा जैसे शिवाजी, पृथ्वीराज चौहान आदि को विस्तार से पढाया जाता था. इन सभी किताबो, पत्रिकाओं के आधार पर एक अलग परीक्षा भी आयोजित की जाती थी, जो स्कूल स्तर से होकर, जिला और संभाग स्तर से होते हुए, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भी होती थी. हालाँकि हम जानते थे कि हमारे उच्च ब्राह्मण कुल में बेटियों को बाहर नहीं भेजा जाता था तो हम पढ़ तो बहुत अच्छे से लेते थे बल्कि बहुत अच्छा भी लगता था पर परीक्षा कभी ठीक से नहीं देते थे कि कहीं चयन हो गया तो अपनी स्थिति ही ख़राब होगी, पापा तो जाने नहीं देगें.

चूँकि हमारे स्कूल का कैंपस बहुत ही विशाल था हालाँकि इन्फ्रा कोई खास नहीं था सफाई भी श्रमदान के रूप में हमसे ही करवाई जाती थी और एक भी टॉयलेट भी नहीं था पर तीन तरफ से पहाड़ी से घिरा होने की वजह से एक अलग तरह की निजता जैसा कुछ लगता था और हमें खुले में किसी पेड़ के पीछे जाना बुरा नहीं लगता था.

हाँ तो बड़ा कैंपस होने की वजह से जिले भर के सरस्वती शिशु मंदिरों और कभी कभी सम्भागीय स्तर की प्रतियोगिताएं हमारे स्कूल में सम्पन्न होती थीं साथ ही साथ शिविर का आयोजन (जो सिर्फ लड़कों के लिए होता था) भी होता था. अच्छी बात ये थी  कि स्कूल का खर्चा इन आयोजनों पर एकदम नाममात्र का होता था. हम सभी के घरों से 50 -50 किलो गेंहूँ, खाने के रूप में पूड़ी और आलू की सब्जी और जिनका घर स्कूल के 1 किलोमीटर के दायरे में था उनके घर में रहना. एक तरह से सामुदायिक भागीदारी के रूप में बड़े कार्यक्रम आयोजन हमने हमारे स्कूल में ही देखा था. अच्छा ही नहीं गर्व भी होता था कि हम हमारे धर्म और संस्कृति के रक्षक हैं और हमें सचमुच इसके लिए चुना गया है.

हम दोस्त भी इसी बात पर चर्चा करते थे कि हम बड़े होकर भी हमारे धर्म और संस्कृति को बनाये रखने में जुड़े रहेंगे. यूँ तो हर हफ्ते गृह सम्पर्क पर आने वाले आचार्य जी और दीदी (शिक्षक) पर गुस्सा भी आता था क्योंकि उनका घर में आना जाना इतना ज्यादा था कि हमसे जुडी और बहुत हद तक परिवार से जुडी बातों का भी वो हिस्सा बन जाते थे. गृह सम्पर्क के बहाने उनकी हर घर में पहुच थी; और तो और हमारे ब्राम्हण आचार्य जी तो घरों में धार्मिक पूजापाठ का काम भी मामूली से दक्षिणा लेकर कर दिया करते थे. हम पर सिर्फ स्कूल में ही नहीं हमारे घर तक आकर भी हम पर नजर रखी जाती थी ताकि हम कहीं से भी धर्म और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध आचरण ना करें.

मैंने कक्षा तीन से ही जन्माष्टमी, नवरात्रि, शिवरात्रि, आदि पर उपवास रखना शुरू कर दिया था और जब भी व्रत रखती तो ख्याल आता कि सचमुच ईश्वर मेरे साथ है मेरे धर्म की रक्षा करने मुझे प्रेरित कर रहा है, मैं एक माध्यम बन रही हूँ. यह ख्याल ही मन को एक नई ऊर्जा से भर देता और मैं भूख प्यास भूल जाती थी.

स्कूल में जब कभी कोई आचार्य या दीदी जी नहीं आते थे तो उनकी जगह पर कभी कभी सभी कक्षाओं के बच्चों को और कभी कभी कक्षावार माँ सरस्वती का ध्यान हमें कराया जाता था. माँ सरस्वती का विवरण हमें इसतरह बताया जाता था कि सचमुच ध्यान करने पर उसी तरह हमें उनको कई दफा पाया था और अगर कभी चंचलतावश ठीक से ध्यान ना कर पाने पर जब माँ सरस्वती हमें नहीं दिखती थीं तो सचमुच हम एक आंतरिक ग्लानि से भर जाते थे और उस दिन हम एक वक़्त का भोजन त्याग देते थे ताकि माँ सरस्वती हमसे नाराज ना हो जाएँ. हमारे धार्मिक आचरण से हमारे परिवार वाले भी खुश रहते थे.

को–एड में पढ़ते हुए भी कभी हमारे घर वालों को हम पर शक नहीं होता था क्योंकि स्कूल का माहौल ही ऐसा था जहाँ हम सभी लड़के लड़कियां एकदूसरे के भाई-बहिन थे. सचमुच ऐसे माहौल में ऐसे गुरुजनों के बीच पढना और आगे बढ़ना खुद की किस्मत पर गर्व करना ही सिखलाता था हमें. हमने एक ही बात को जाना और समझा था वहां हम हिन्दू हैं और हमें हिन्दू राष्ट्र बनाना और बनाये रखने में ही अपना जीवन अर्पण करना है. एक हिन्दू राष्ट्र की राह में रोड़ा हैं दूसरे धर्म के लोग जिन्हें हमें कभी अपने साथ घुलने-मिलने नहीं देना क्योंकि एकदिन हम सभी हिन्दू भाई-बहिन मिलकर उन्हें बाहर खदेड़ देंगे.

इस तरह से सरस्वती शिशु मंदिर में हम सिर्फ पढ़ नहीं रहे थे बल्कि अपने धर्म, संस्‍कृति और उसके दुश्मनों को भी पहचान रहे थे.

फिर छठी कक्षा में मेरा चयन नवोदय विद्यालय में हो गया और इसके बाद मैं उस धार्मिक माहौल से अलग कुछ दूसरे माहौल में पढने और रहने को मिला हालाँकि सुनने में यही आता था मेरे कि मैं अब बिगड़ रही हूँ.

आज मैं जब अपना अनुभव यहाँ  साझा कर रही हूँ तो इसका मतलब यह बताना कतई नहीं है कि तथाकथित धर्म-रक्षक समूहों के साथ आज मेरा क्या नाता है. समय के साथ मुझे कुछ अच्छे दोस्त और मार्गदर्शक मिले, जनांदोलनो से जुड़ने का मौका मिला और तब मैंने इन तथाकथित धर्म-रक्षकों की असलियत को जाना कि कैसे वो हमारे बल-मन पर तो प्रभाव डाल ही रहे थे, साथ ही साथ हमारे घर तक भी हमारे शुभचिंतक बनकर पहुँच रहे थे और हमारे हर हरकत पर नजर रख रहे थे.

यह वही तैयारी है जो आज दीमक की तरह भारतीय जनमानस में जगह बना चुकी है. तब हमें बताया जाता था कि कुछ समुदाय विशेष के लोग हमारे हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन हैं और आज वो मोब-लिंचिंग के जरिये उन दुश्मनों को खत्म करने की प्रक्रिया में आ गये हैं. अपने अनुभव के जरिये इन संगठनों की कार्यप्रणाली और असलियत को बाहर लाने  और इनके मोहजाल से लोगों को बाहर निकालना ही मेरा मकसद है. मैं कहना चाहती हूँ कि जो मैंने जिन्दगी के अनुभव से सीखा और जाना उसके मुताबिक “ धर्म वो नहीं जो ये बताते हैं, धर्म वो है जो सबको स्वीकारे और प्रेम करना सिखाये.”


स्‍नेहलता शुक्‍ला सामाजिक कार्यकर्ता हैं, आदिवासियों से जुड़े वनाधिकार आदि मुद्दों पर काम करती हैं और दिल्‍ली में रहती हैं।

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