यह केवल फुटबॉल का मैच नहीं, ये खेल के मैदान से अंदर की ज़मीन तक की कहानी थी!

चार्ल्स बर्कले कहते हैं, “अगर आप हारने के लिए तैयार नहीं हैं, तो आप जीतने के लायक नहीं हैं..” फीफा वर्ल्डकप 2022 का फाइनल मुक़ाबला खेल के ही नहीं, जीवन के भी इसी दर्शन की तस्दीक करता है। ये मुक़ाबला, जो विश्वकप फुटबॉल का अब तक का सर्वश्रेठ मुक़ाबला कहा जा रहा है; वो दरअसल जीवन में हार और जीत से परे संघर्ष, जुझारूपन और अपनी उम्मीदों को जिलाए रखने की भावना का प्रतिनिधित्व करता है। लड़ाई तब तक नहीं हारी जाती, जब तक आप लड़ना नहीं छोड़ देते..

पहला धक्का

90 हज़ार दर्शकों से भरे स्टेडियम में मैच के तीसरे ही मिनट में, अर्जेंटीना ने मानसिक बढ़त बना ली थी जब जूलियन अल्वारेज़ का शॉट सीधे फ्रांस के गोल पोस्ट में जा पहुंचा लेकिन फ्रेंच गोलकीपर कप्तान ह्यूगो लॉरेस ने उसे रोक लिया। इसके बाद फ्रांस इस मैच में लगातार पिछड़ता गया क्योंकि मैदान के उसके हिस्से में उसका नहीं, अर्जेंटीनियाई फॉरवर्ड्स और मिडफील्डर्स का ही क़ब्ज़ा दिखता रहा। 7वें मिनट में रोड्रिगो डी पॉल फिर से फ्रांस के गोल पोस्ट के नज़दीक पहुंच गए लेकिन फ्रेंच डिफेंडर्स ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। 19वें मिनट में उनके ही फाउल के चलते, फ्रांस को फ्री किक मिली लेकिन फ्रांस चूक गया और आख़िरकार 23वें मिनट में एंजेल डी मारिया को गिराने के बाद डेम्बेले के कारण मिली पैनल्टी फ्रांस के लिए भारी पड़ गई और पैनल्टी में कप्तान लियोनेल मेसी ने गोल दाग कर फ्रांस को पहला धक्का दिया।

हार की कगार पर उम्मीद?

इसके बाद फ्रांस की टीम लगातार बैकफुट पर दिखी और मनोवैज्ञानिक दबाव इस कदर बढ़ा कि 36वें ही मिनट में एंजेल डी मारिया ने दूसरा गोल कर दिया। फ्रांसीसी टीम सन्निपात में थी और इसके बाद लगा कि जैसे ये मैच अब कभी फ्रांस की ओर नहीं लौटेगा। पहले हाफ में ही नहीं, दूसरे हाफ में पहले 10 मिनट भी फ्रेंच टीम मनोवैज्ञानिक और तकनीकी दोनों ही तौर पर कमज़ोर दिखी। लेकिन पहले हाफ के बाद बदले गए फॉर्मेशन और सब्स्टीट्यूशन का नतीजा 65वें मिनट के बाद दिखना शुरू हुआ, जब फ्रांस की टीम का खेल अचानक से बेहद आक्रामक हो गया। इसका फल मिला जब खेल के 11 मिनट बचे थे और लग रहा था कि अब फ्रांस ये मैच हार जाएगा। फुटबॉल वर्ल्डकप का ये फाइनल एक तरफा हो रहेगा और 79वें मिनट में निकोलस ओडामेंटी के फाउल पर मिली पेनल्टी को फ्रांस के स्टार फुटबॉलर किलियम एम्बापे ने गोल में बदल दिया।

क्या नायक सिर्फ फिक्शन में वापसी करता है?

अभी भी ये मैच एकतरफा था लेकिन फुटबॉल में कभी भी कुछ भी हो सकता है। अंतिम 10 मिनट बचे थे और एक गोल खाने के बावजूद अर्जेंटीना विजयी बढ़त लेकर खेल रही थी लेकिन पिछले 30 मिनट में फ्रांस की मनोवैज्ञानिक बढ़त भी साफ दिख रही थी। अगले ही मिनट में एम्बापे ने अर्जेंटीना ही नहीं पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। अचानक से मैदान में सुन्न पड़े फ्रेंच दर्शकों में जीवन लौट आया। मार्कस थुरम के पास को एम्बापे ने गोल में बदल दिया था और ये गोल वाकई देखने लायक था। मैच का टाइम खत्म हो रहा था, 8 मिनट के एक्स्ट्रा टाइम के बाद भी दोनों टीम 2-2 की बराबरी पर थी। अब ये वाकई फीफा वर्ल्डकप का फाइनल बन गया था। एक ऐसा मैच, जिस पर बाक़ायदा कोई छोटी मोटी किताब लिखी जा सकती है। क्योंकि आगे का 30 मिनट का एक्स्ट्रा टाइम इसको और ऊंचाई पर ले जाने वाला था।

जैसा कि खेल के लिए कहा जाता है कि ये दुनिया का सबसे शानदार अनस्क्रिप्टेड ड्रामा है। इस मैच में वैसा ही कुछ हुआ, किसी फिक्शन के नायकों की तरह फ्रांस ने वापसी की। एक्स्ट्रा टाइम में फिर से लियोनेल मेसी ने एक गोल किया और फिर से अर्जेंटीना के फैन्स ने मान लिया कि वो वर्ल्ड चैंपियन बनने वाले हैं। लेकिन फ्रांसीसी दर्शक भी पिछले कुछ मिनट के उत्साह से भरे हुए थे और किलियन एम्बापे ने अपने देशवासियों की उम्मीदों को खाली नहीं जाने दिया। 118वें मिनट में उन्होंने फिर एक गोल कर दिया और वर्ल्डकप के फाइनल में 1966 के बाद से पहली हैट्रिक जड़ दी। मैच अंत हो चुका था…90 मिनट के बाद 30 मिनट और लेकिन दोनों टीम्स बराबर। फ्रांस की मैच में वापसी इस तरह से सिर्फ किसी लिखी गई पटकथा में ही संभव थी लेकिन असलियत किसी भी कल्पना से अधिक रोमांचकारी हो सकती है।

अंत भला तो सब..

फाइनल मैच भी इसी वर्ल्डकप के आधा दर्जन और मैचों की तरह पेनल्टी शूटआउट में गया। और इस तरह से अर्जेंटीना का वर्ल्ड चैंपियन बनने का सपना, 1978 और 1986 के बाद 2022 में जाकर पूरा हुआ। इसी समय फ्रांस का लगातार दूसरा वर्ल्डकप जीतकर, ब्राज़ील की बराबरी करने का सपना टूट गया था। पेनल्टी शूटआउट के नतीजे इस तरह थे;

फ्रांस

एम्बापे – गोल

किंग्स्ले कोमान – मिस 

एयुरेलियन टी – मिस 

रैंडर कोलो मुआनी – गोल 

अर्जेंटीना

लियोनेल मेसी – गोल

पाउलो डायबाला – गोल

लिएंड्रो परेडेस – गोल

गोंजालो मोंटिएस – गोल

पर क्या ये मैच सिर्फ एक जीत की कहानी है?

अमेरिकी पहलवान डैन गेबल ने कहा था, “स्वर्ण पदक दरअसल सोने के बने नहीं होते हैं। वे पसीने, दृढ़ निश्चय और दुनिया की सबसे दुर्लभ धातु के बने होते हैं, जिसे साहस कहते हैं।” अर्जेंटीना और फ्रांस के बीच इस मैच में ये स्वर्ण पदक के पल  आख़िरी के 11 मिनट और फिर एक्स्ट्रा टाइम की कहानी है। इन 41 मिनटों में दुनिया के सबसे लोकप्रिय स्पोर्ट्स का ये मैच, एक दंतकथा में बदल गया। फ्रांस की वापसी ने उसके खोते जा रहे आत्मविश्वास को पुख़्ता किया, अर्जेंटीना के मैच के पूरी तरह हाथ में होने के भ्रम को दूर किया। दूसरे गोल ने फ्रांस का दृढ़ निश्चय पुख़्ता कर दिया कि वे इस मैच को जीत सकते हैं, दोनों टीम्स बराबर थी और अर्जेंटीना के लिए कैसे भी एक्स्ट्रा टाइम में वापसी करने और मैच जीतने के लिए संघर्ष की घड़ी थी। एक्स्ट्रा टाइम में दोनों टीम कैसे भी पहले एक गोल कर लेने और फिर मैच को वापस बराबरी पर लाने के लिए लड़ रही थी। और फिर…पेनल्टी शूटआउट में चूका नहीं जा सकता था लेकिन अगर चूक भी गए तो इस संतोष के साथ मैदान से बाहर जाया जा सकता था कि लड़कर, ढंग से लड़कर, जीत के पास पहुंच कर हारे…

ये इस मैच से खेल भावना का पहला सबक था, लेकिन क्या ऐसे किसी खेल से खेल भावना का सिर्फ एक सबक मिलता है? नहीं…अगला सबक, जो हम सबके लिए सिर्फ इंसान नहीं, नागरिक, नेता और राजनैतिक व्यक्ति के तौर पर अहम है। वो ये है कि हारने के लिए कोई नहीं लड़ता लेकिन हारना क्या जीवन और खेल दोनों का नियम नहीं? कभी भी न हारने की इच्छा या ज़िद आपको कहां लेकर जाती है? बॉस्केटबॉल के दुनिया के महानतम खिलाड़ी माने जाने वाले माइकल जॉर्डन ने कहा,

“मैं जीवन में लगातार, बार-बार असफल हुआ हूं। और यही कारण है कि मैं जीत सका हूं।”

दरअसल ये असफलता और सफलता के बीच के जीवन को जिलाए रखने की कहानी है। हम सफलता की ज़िद या हार जाने के दुख, दोनों के बीच के जीवन को कहीं इसी ज़िद या दुख के बीच गंवा तो नहीं दे रहे हैं? क्या जीवन को मरने के पहले तक जी लेना, छोटी खुशियां, आश्वस्ति और सुख क्या हमको नहीं चाहिए? और अगर हम इस जीवन को गंवा देंगे तो अंततः हम कैसे मनुष्य बनेंगे? हमारे आसपास के मनुष्य कैसे बनेंगे?

क्या कोई खेल, लोकतंत्र के लिए भी सबक हो सकता है?

बिल्कुल नहीं, केवल कोई भी खेल या खिलाड़ी या कोई मैच लोकतंत्र के लिए सबक नहीं हो सकता है लेकिन खेल के मैदान में खेल भावना और खेल की मूल प्रवृत्ति हमारे समय में लोकतंत्र और राजनीति के लिए सबक है। अर्जेंटीना और फ्रांस के बीच के फाइनल में कोई शुरुआत में पिछड़ रहा था, कोई जीत रहा था, किसी को रेफरी के किसी फैसले पर एतराज़ था, कोई किसी से टकरा के गिर गया था…इस सब का अंत, एक टीम की जीत और एक टीम की हार में हुआ…और उसके बाद?

उसके बाद हारने वाला मायूस था पर अपनी मायूसी बिना छुपाए भी, जीतने वाले से नाराज़ नहीं था। जीतने वाला झूम रहा था लेकिन उसके बाद भी मैदान से बाहर जाते हुए, हारने वाले को गले लगाना नहीं भूला। नियमों का पालन करते हुए खेल हुआ, नाराज़गी के बाद भी किसी ने मैदान पर हिंसा नहीं कर दी और सिर्फ मैच जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का सहारा नहीं लिया गया। किसी भी कीमत पर जीतने की ज़िद ने मैदान को युद्ध का मैदान नहीं बनाया था। खेल के दौरान भी गिरे हुए खिलाड़ी को विपक्षी टीम का खिलाड़ी हाथ बढ़ा कर उठा रहा था।

इस देश की वर्तमान राजनीति के लिए खेल की भावना एक बड़ा सबक होनी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव में सीमित कर देने की प्रक्रिया, देश का और आम लोगों का नुकसान कर रही है। ज़ाहिर है खेल सिर्फ हार और जीत नहीं है। खेल में खेलने और खेल की नैतिकता बनाए रखने का जज़्बा भी है। खेल में हार न मानने का जुझारूपन भी है लेकिन दूसरे खिलाड़ी को भी अपने ही जैसा हाड़-मांस का मनुष्य मानने की भावना भी है। खेल में जीत को बधाई तो है लेकिन हारे हुए के संघर्ष को नमन भी है। बेसबॉल के स्टार रहे अर्नी बैंक्स ने कहा था,

“The only way to prove you are a good sport is to lose.” – Ernie Banks

(आप अच्छे खिलाड़ी हैं, ये साबित करने का इकलौता तरीका हार को स्वीकार करना है)

और अंत में लोकतंत्र, राजनैतिक दलों, सिविल सोसायटी और नागरिकों के लिए खेल की भावना का सबसे अहम संदेश ये है कि जो है, उसी को परिणिति, सीमा या अपरिवर्तनीय स्थिति मानकर, हार नहीं मानी जा सकती। एक लोकतंत्र, सदिच्छुक राजनेता, एक्टिविस्ट और नागरिक के तौर पर हम को ये भरोसा बनाए रखना है कि बदलाव अपरिहार्य है लेकिन उसके लिए लड़ना होगा और बिना हार माने लड़ना होगा। जीत को भाग्य या नियति के हाथ में नहीं छोड़ा जा सकता है। प्रख्यात बॉक्सर मोहम्मद अली ने एक बार कहा था,

“असंभव एक ऐसा बड़ा सा शब्द है, जो तुच्छ लोगों ने फैलाया था – जिनको लगता है कि अपनी ताकत खोजने और परिस्थितियों को बदलने की जगह, उसी दुनिया में यापन कर लेना आसान है; जो हमको दे दी गई है। असंभव होना, कोई तथ्य नहीं है बल्कि यह एक राय है। असंभव कोई घोषणा नहीं है, यह एक चुनौती है। असंभव एक संभावना है। असंभव होना अस्थायी है। असंभव दरअसल कुछ भी नहीं है।”

तो क्या खेल सिर्फ खेल है? बिना खेल भावना के खेल को क्या आप पसंद कर पाते हैं? खेल की भावना क्या है? अब लोकतंत्र के बारे में सोचिए…किस सफलता और चालाकी से पूरे लोकतंत्र को महज चुनाव की हार और जीत में रिड्यूस कर दिया गया है…

क्या खेल को केवल जीत और हार में सीमित कर दिया जाए, तो छल, प्रपंच और किसी भी कीमत पर जीत हासिल करने के लिए खेले गए मैच में आपको मज़ा आता है? क्या अगर रेफरी फिक्स हों, फेडरेशन किसी टीम को बेईमानी से जिताएं, तो आप ऐसे खेल की तारीफ करते हैं?
सोचिए…खेल आपका जीवन तय नहीं करता…आपका रोज़गार, आपके बच्चों का भविष्य तय नहीं करता…लेकिन राजनीति और लोकतंत्र…सोचिए कि आप क्या कर रहे हैं…क्या नागरिक के तौर पर आप खेल में हैं या आप कब का खेल से बाहर हो चुके हैं और खेल अब आपके साथ हो रहा है?

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