प्रदीप कुमार बनर्जी नहीं रहे। वे सर्वकालिक मशहूर फुटबॉलर थे, जिन्होंने कैंसर जैसे रोग पर अपनी जिजीविषा से विजय पायी थी। पीढ़ियों तक वे फुटबॉलरों के पितामह रहे। शुक्रवार को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गयी। प्रदीप कुमार बनर्जी की जिजीविषा, कैंसर से उनकी जंग को फिल्म प्रभाग बंगाल के फिल्मकार जोशी जोसेफ ने कुछ साल पहले अपनी एक डॉक्युमेंटरी में कैद किया था। A Poet, A City and A Footballer नाम की यह फिल्म एक कैंसरग्रस्त फिल्मकार और कवि गौतम सेन, कोलकाता शहर और फुटबॉलर प्रदीप कुमार बनर्जी के जीवन को आपस में मिलाकर रची गयी है। कुछ साल पहले इस फिल्म की डीवीडी जारी होते वक्त वरिष्ठ सिनेमा आलोचक विद्यार्थी चटर्जी ने एक लंबी समीक्षा अंग्रेज़ी में लिखी थी। राष्ट्रीय पुरस्कार-2014 में इस फिल्म को स्पेशल जूरी पुरस्कार से नवाज़ा गया था।यह फिल्म जितनी कलात्मक और दार्शनिक है, उसकी समीक्षा भी उतनी ही कवित्वपूर्ण। प्रदीप बनर्जी के कदमों को जब फुटबॉल छूता था, तो कविता की तरह बह निकलता था। फुटबॉल के इस सौदर्यशास्त्र और प्रदीप बनर्जी उर्फ पीके की जिंदगी को समझने के लिए यह फिल्म देखना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी विद्यार्थी चटर्जी के लिखे को पढ़ना भी है।
प्रस्तुत है मीडियाविजिल के पाठकों के लिए फिल्म प्रभाग द्वारा निर्मित A Poet, A City and A Footballer पर विद्यार्थी चटर्जी का सुदीर्घ लेख अविकल, हिंदी में। लेख के बीच में फिल्म के ट्रेलर, पीके से बातचीत और पूरी फिल्म का लिंक है, साभार फिल्म प्रभाग। तस्वीरें स्पोर्ट्सकीड़ा और दि हिंदू से हैं। (संपादक)
यह फिल्म विरोधाभासों के बारे में है- जैसे दिन और रात, भरपूर जिंदगी और आसन्न मौत, जैसे झरती हुई चीज़ों की ऊर्जा या कोलाहल के बीच उभरी एक अदद आवाज़। जोशी जोसेफ की यह ताज़ा डॉक्युमेंट्री लंबी है, लेकिन आपको बांधे रखती है। यह फिल्म मौत पर विचार करती है लेकिन जिंदगी का जश्न भी मनाती है। कम से कम तीन किरदार तो परदे पर साफ़ दिखते ही हैं, जबकि एक चौथे संभावित किरदार की मौजूदगी का संयोग निरंतर बनता-बिगड़ता रहता है।
सबसे प्रमुख किरदार एक फिल्मकार है जो फिलहाल मृत्युशैया पर है। गौतम सेन युवावस्था में एक उभरता हुआ कवि था। अपनी जिंदगी और करियर के उरुज पर चालीसेक साल की अवस्था में उसे छल से भरी इस दुनिया से विदा लेना पड़ता है। दूसरा किरदार है ‘पी.के.’ यानी प्रदीप कुमार बनर्जी, जो बीते दशकों और पीढि़यों के दौरान बंगाल के हज़ारों फुटबॉल-प्रेमियों के लिए एक प्रतीक बन चुका है। इन्हीं दोनों किरदारों के बीच एक शहर है जिसे कलकत्ता कहते हैं। कुछ साल पहले हुए पक्षाघात के बावजूद ‘पी.के.’ ने हार नहीं मानी है, बिलकुल अपने उस शहर की तरह, जो कभी थकता नहीं, कभी रुकता नहीं।
ए पोएट, ए सिटि एंड ए फुटबॉलर नाम की यह फिल्म चार अध्यायों में विभाजित है। कोई अध्याय छोटा है, तो कोई लंबा। सभी के विषय भी विविध हैं, लेकिन इन्हें एक सूत्र में बांधने वाली चीज़ अस्तित्व के अंधेरे कोनों व दरारों को भरने वाली वह जिजीविषा है, जो सच्ची और सुंदर है।
पहले अध्याय के शुरुआती फ्रेम में गौतम अस्पताल के कमरे में पड़ा हुआ है। अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे वह खिड़की से बाहर एक प्राचीन झरती हुई इमारत को एकटक देख रहा है। उसे देखकर सेन कहता है कि ऐसी इमारतें उसे उदास करती हैं। कट! बिल्कुल अगला दृश्य उसी इमारत में कभी रहे किसी स्कूल की कक्षा में बैठने के लिए भागकर जाते हुए शोर मचा रहे बच्चों का है। अचानक दोनों दृश्य टकराते हैं। एक ही समय में ये दो दृश्य मिलकर जिस चीज़ का सृजन कर रहे हैं, वही जिंदगी है।
बीते कई साल तक गौतम की संगिनी रह चुकी एक मशहूर बांग्ला अभिनेत्री- जो आजकल मां की भूमिकाएं करती है और उसने एक मलयालम फिल्म भी की है- उसका किरदार भले ही फिल्म के टाइटिल में दर्ज नहीं है, लेकिन यही वह चौथा पात्र है जो फिल्म में सार्थकता और गहराई को भरता है। सबसे पहले इस किरदार को हम गौतम की उस कविता का पाठ करते हुए देखते हैं, जो दशकों पहले जाधवपुर विश्वविद्यालय के दिनों में लिखी गई थी जहां वे दोनों बांग्ला साहित्य के छात्र और सहपाठी थे। दोनों ने बाद में साथ रहने का फैसला किया था। तब जाकर शायद उसे गौतम को ज्यादा करीब से जानने-समझने का मौका मिला और उसका अंधेरा पक्ष उसे पहली बार दिखा। दृश्य में वह दो बार कविता का पाठ करती है। पहली बार शायद कुछ जल्दबाजी में, जैसे कि इसे निपटाना भर हो, लेकिन निर्देशक उसे नए सिरे से दोबारा थोड़ा मद्धम स्वर में पढ़ने को कहता है। दूसरी बार अदायगी कहीं बेहतर और प्रभावशाली है।
दृश्य बदलता है और इस महिला को निर्देशक के साथ संवाद में देखा जा सकता है। निर्देशक फ्रेम में मौजूद नहीं है। उससे वह गौतम के बारे में ऐसी बातें कह रही है जो परंपरागत नजरिए से कहें तो बुरी मानी जाती हैं। भारत के लोग जज्बाती होते हैं और वे किसी मरते हुए या गुजर चुके शख्स के बारे में बुरी बातें कहने से बचते हैं। इसीलिए जो बातें वह कहती है, उसे पचा पाना दर्शकों के लिए तभी संभव होगा जब वे सचाई का सीधे मुंह सामना करने को तैयार हों। यह काम वास्तव में बहुत कठिन है।
ये बातें करते वक्त अभिनेत्री का जो फ्रेम रचा गया है, वह तकरीबन एक अधूरे पोर्ट्रेट के जैसा है जिसमें उसकी दायीं ओर एक सफेद दीवार है और उसके ठीक बाईं ओर एक खिड़की खुली हुई है। बातचीत के दौरान वह अचानक एक शब्द कहती है- बोहेमियनिज्म (रूढि़यों से मुक्त जीवनशैली)। ज़ाहिर है, इस शब्द के भीतर जो अर्थ और विचार निहित है, वह किसी के लिए प्राय: अप्रिय भी हो सकता है। बोहेमियन जीवनशैली में निहित अतियों के प्रति अभिनेत्री की नापसंदगी उसकी बातचीत से साफ़ ज़ाहिर होती है। कथित बोहेमियाई जीवन बिताने वालों के वास्तविक जीवन और आदर्शवादी दावों के बीच जो फ़र्क होता है, उसे अभिनेत्री गौतम के साथ बिताए दिनों के तजुर्बे के आधार पर बहुत सरलीकृत ढंग से पेश करती है।
इस फिल्म में गौतम की कविता का पाठ कई लोगों ने किया है। अभिनेत्री के कविता पाठ की शैली, अदायगी, उतार-चढ़ाव और विराम का तरीका बिलकुल भिन्न है। उसे सुनकर ऐसा लगता है कि ऐसा एक प्रशिक्षित अभिनेता ही कर सकता है जिसे रंगमंच और परदे पर प्रदर्शन का अभ्यास हो। जब गौतम के पिता उसकी कविता सुनाते हैं, तो ज़ाहिर तौर पर यह मुलम्मा वहां नहीं दिखता। कविता पाठ की गति भी तेज़ है, लेकिन उन्हें सुनकर दर्शक को ऐसा करने में एक पिता के गौरव-भाव का सहज अहसास हो जाता है जब वह दुनिया के वंचितों के लिए अच्छे दिनों की आकांक्षा पर अपने बेटे की लिखी पंक्तियां पढ़ रहा होता है।
गौतम के पिता के स्वर में कविता पाठ पर रात में ठहरी हुई एक नदी का जो दृश्य फिल्माया गया है, उसका अपना एक आकर्षण है। ठहरे हुए फ्रेम में धीरे-धीरे एक नाव चुपचाप पानी से गुजरती हुई पास आती है। यह एक अजीब से रहस्य और जिज्ञासा को उत्पन्न करती है। निस्तब्ध करने वाला यह दृश्य कविता के कोलाहल भरे स्वर के साथ एक वैपरीत्य पैदा करता है जिसमें कवि एक इंकलाबी बदलाव की बात कर रहा है, उस दिन की जब अपने संघर्षों और त्याग के रास्ते इस दुनिया के वंचित लोग खुद अपनी नियति के स्वामी बन जाएंगे। इसे आप एक विशिष्ट सिनेमाई औज़ार की संज्ञा दे सकते हैं जहां परदे पर मौजूद दृश्य और कविता-पंक्तियों के प्रभाव से दिमाग में बन रहा दृश्य परस्पर विरोधाभासी है।
पहली कविता पढ़ते वक्त गौतम के पिता के स्वर में ऊर्जा है लेकिन दूसरी कविता पर आते-आते यह चुकने लगती है। शुरुआती एकाध पंक्तियों के बाद वे अपने जज्बात को रोक नहीं पाते। वे निर्देशक से कहते हैं कि आगे पढ़ पाना संभव नहीं होगा। एक पिता के लिए इससे ज्यादा निर्मम और क्या हो सकता है कि उसकी सेहत पूरी तरह ठीक है जबकि उसका जवान बेटा धीरे-धीरे मौत की तरफ बढ़ रहा है। यह दृश्य उदास करता है, लेकिन यह उदासी बहुत न्यायपूर्ण तरीके से संतुलित रखी गई है। जिंदगी में अगर आंसू हैं तो यहां उॅम्मीद भी है और साथ बिताए अच्छे दिनों की याद भी है। इस बूढ़े किरदार के लिए जिंदगी का एक मतलब वह उम्मीद भी है कि उसका बेटा एक न एक दिन ठीक हो जाएगा। हम अपने अनुभव से जानते हैं कि उम्मीद के खिलाफ की जाने वाली ऐसी उम्मीदें ही सबसे खराब वक्त में भी हमें बचाए रखती हैं।
बेटे की लिखी दूसरी कविता को पढ़ पाने में असमर्थ पिता उसके जीवन की शुरुआती घटनाओं का जि़क्र करता है। वह उस वक्त की बात करता है जब गौतम बिना बताए अपनी पसंद की जगहों पर घूमने निकल पड़ता था। वह अकेले या फिर दोस्तों के साथ यहां-वहां रोमांच की तलाश में निकल जाता था। एक बार वह अपने साथ राजा नाम के एक व्यक्ति को घर लेकर आया। उसका पूरा नाम राजा सेन था। वह एक तस्कर था और लंबे समय तक वह सेन के घर में शरण लिए रहा। इस शख्स के बारे में गौतम के माता-पिता जिस तरह बात करते हैं, उसे देख-सुन कर आपको सहज ही उस पर भरोसा हो आता है। वे याद करते हुए बताते हैं कि राजा एक प्यारा इंसान था। वह जैसे यहां आया था, वैसे ही चुपचाप यहां से चला भी गया। गौतम के ऐसे असामान्य दोस्तों से जुड़ा यह संस्मरण बताता है कि आज एक मरता हुआ कवि कल कितना रोमांचक और दिलचस्प शख्स रहा होगा।
मैंने जब शुरुआत में कहा था कि यह फिल्म मौत पर विचार करती है लेकिन जिंदगी का जश्न भी मनाती है, तो मेरे दिमाग में दरअसल गौतम की जिंदगी और मौत के बारे में कौंध रहे ऐसे छोटे-छोटे विवरण ही थे। इंकलाबी बदलाव पर लिखी अपने बेटे की एक कविता का पिता द्वारा पाठ हो या फिर उसी पिता द्वारा अपने बेटे की दूसरी कविता को पढ़ पाने में असमर्थता क्योंकि वह वहां तक आते-आते भावनात्मक रूप से कमज़ोर हो जाता है- ये दृश्य दरअसल जिंदगी और मौत के बीच घटने वाले द्वंद्व से पैदा हुई उन उच्चतर स्थितियों की ओर संकेत करते हैं जिनसे हम वाकिफ़ हैं। जिंदगी और मौत का यह ‘खेल’ हमें उदास करता है, हताश करता है। इसमें हालांकि ज्ञान का प्रकाश भी निहित है। यह हमें सहज बनाता है। यह हमें इस बात का अहसास कराता है कि हमारी मुट्ठी से ऐसी क्या चीज़ फिसल चुकी है जिसे अब दोबारा हम हासिल नहीं कर सकते।
सेन के घर में राजा के प्रवास की कहानी भले कुछ संस्मरणात्मक पंक्तियों और कुछेक शॉट्स तक सीमित हों, लेकिन यह संदर्भ हमारी कल्पना का विस्तार उस क्षितिज तक कर देता है जहां जीवन और मौत के बीच की दूरी मिट जाती है। यह संदर्भ कलकत्ता के अतीत को खोलकर सामने रख देता है जब कई नौजवान इस उम्मीद में खतरनाक रास्तों पर चल देते थे कि इन रास्तों पर ही सामाजिक बदलाव की फसल पैदा होगी। राजा का इस परिवार में प्रवास उस अतीत का जश्न भी है जहां सिर्फ दर्द और अवसाद था, लेकिन साथ ही वह बिरादराना भाव और साथ रहने का सुख भी मौजूद था जिसके बारे में कलकत्ता के वासी बातें किया करते थे और साठ व सत्तर के दशक में कई ने जिसके लिए अपनी जान भी दी थी। यही वह दौर था जब एक सामाजिक व बौद्धिक शख्सियत के रूप में गौतम का विकास हो रहा था।
अपने दिल के किसी कोने में गौतम के पिता को अपने बेटे पर फख्र है और उसके संग-साथ रहने वालों पर भी उन्हें गर्व है। गौतम के कई दोस्त नक्सली थे। गौतम के पिता उन्हें ”समाज के सबसे उन्नत लोग” (क्रीम ऑफ सोसाइटी) कहते हैं। इनमें से कई पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए तो कई को पुलिस का दमन झेलना पड़ा और सालों कैद में रहना पड़ा। इनमें से कई नौजवान ”युनिवर्सिटी के टॉपर” थे लेकिन अपने आदर्शों के लिए उन्होंने कष्ट सहना चुना। गौतम के बूढ़े पिता की आवाज़ में एक खनक आ जाती है जब वे कहते हैं कि ”मैंने अकसर गौतम से कहा कि वह मेरे एक दोस्त के बेटे पर फिल्म बनाए जो मारा गया था। मेरी बहुत इच्छा थी कि गौतम उस साहसी नौजवान पर फिल्म बनाए। पता नहीं क्या वजह रही कि गौतम ने मेरे जितना उत्साह इस मामले में नहीं दिखाया।”
ऐसी साफ़गोई और ईमानदारी के लिए इस बुजुर्ग को एक सलाम बनता है। वे आशंका ज़ाहिर करते हैं कि हो सकता है गौतम ने इसलिए फिल्म बनाने में दिलचस्पी न ली हो कि वह इस संवेदनशील विषय से डर गया था। यह वाक्य कलकत्ता के सार्वजनिक जीवन पर एक मौजूं टिप्पणी है। लगता है कि अचानक ही कुछ ऐसा हुआ है कि अब किसी के पास नक्सलियों के त्याग और नायकत्व पर चर्चा करने का न तो वक्त रहा, न ही किसी की इसमें अब दिलचस्पी बची है। वास्तव में हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि यदि कोई इन इंकलाबी शहीदों के बारे में ज़रा सा सम्मान से बोलता भी है, तो उसे या तो जिज्ञासा के साथ देखा जाता है या फिर दिक्कत पैदा करने वाले एक ऐसे तत्व के रूप में बरता जाता है जिसे चुप कराया जाना ज़रूरी है। ”प्रदर्शनों के शहर” से ”मृत शहर” तक का यह सफ़र एक छोटे से कदम में ही पूरा कर लिया गया है। गौतम के पिता के लफ्ज़ चर्च के घंटे-घडि़याल से दिमाग में बजते हैं, बिलकुल साफ़ और स्पष्ट, कि कैसे शहीदों की नामौजूदगी में उनके बारे में एक झूठ फैलाया जा रहा है। फिल्म के इस राजनीतिक आयाम को नज़रंदाज़ करना नादानी होगी1
गौतम के तमाम दोस्त एक बेहतर समाज के निर्माण में दिन-रात जुटे हुए थे और इस क्रम में उनका लगातार मौत से सामना होता था। फिल्म ने न केवल कवि के आखिरी दिनों को कैमरे में कैद किया है बल्कि वह अपने विशिष्ट तरीके से उसके सभी दोस्तों को भी एक श्रद्धांजलि है जो गौतम से पहले यह दुनिया छोड़ गए। इसीलिए, इतनी कम अवस्था में गौतम की आसन्न मौत कोई विशिष्ट बात नहीं है। इसके उलट, बेहतर होगा यदि हम यह कहें कि वह अपने गुज़र चुके साथियों के मुकाबले कहीं ज्यादा सौभाग्यशाली रहा। यह कहना हालांकि कठिन होगा कि गौतम ने इस आलोक में चीज़ों को देखा था या नहीं या फिर यह, कि उसे यह विषय वास्तव में काम करने लायक समझ में आया भी रहा होगा। एक दर्शक को बेशक फिल्म के दृश्यात्मक पाठ के पार जाकर उसकी व्याख्या करने और समझने का अधिकार है।
देह से इतर मन की भी एक गति होती है। खासकर उस व्यक्ति का मन, जो जानता हो कि उसकी जिंदगी के दिन गिने-चुने बाकी हैं। निर्देशक के गौतम के पिता के संवाद वाले हिस्से के तुरंत बाद कैमरा गौतम पर केंद्रित होता है जिसमें वह अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा खिड़की से बाहर देख रहा है। उसके चेहरे पर आशावाद के भाव हैं। खिड़की से बाहर दो कबूतर अठखेलियां कर रहे हैं। बिस्तर पर पड़े-पड़े मरीज़ का मन विस्तार लेता है। वह उन जगहों, लोगों, पशुओं, दृश्यों और स्थितियों की कल्पना करने लगता है जो उसे अब जीवन में सहज उपलब्ध नहीं होंगे। यह कवि की कल्पना है। यह एक फिल्मकार की भी कल्पना है क्योंकि गौतम फिल्मकार भी था। यह बात अलग है कि उसकी कविताओं को सुनते हुए और उसकी फिल्म को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह कवि की भूमिका में ही बेहतर था। यह सुदीर्घ दृश्य आलिंगनबद्ध कबूतरों से शुरू होता है और वहीं आकर खत्म भी होता है। यहां हम एक कवि और एक फिल्मकार की संयुक्त कल्पना का गवाह बन रहे हैं और उन तमाम बिम्बों, संवेदनाओं व ”आख्यानों” का अर्थ निकालने की कोशिश कर रहे हैं जो अस्पताल के उस कमरे से बाहर मौजूद हैं।
फिल्म में गौतम की कविता का पाठ करने वाला एक तीसरा शख्स भी मौजूद है। वह बांग्ला से अंग्रेज़ी में अनूदित कविता का पाठ करता है। उसका चेहरा हमें नहीं दिखाया गया है, लेकिन पाठ के बाद वह एक ऐसी बात कहता है जो एक कलाकार के उत्तरदायित्व की ओर इशारा करती है। गौतम 17-18 साल की अवस्था में कविताएं लिखता था, लेकिन कुछ साल बाद फिल्मवालों के साथ संपर्क में आने पर उसने सिनेमा बनाने की राह चुन ली। गौतम ज्यादा से ज्यादा एक औसत फिल्मकार बन कर रह गया। यदि उसने पूर्णकालिक कवि होने का फैसला किया होता, तो बहुत से लोगों की यही राय है कि वह अपनी जिंदगी के अवसान तक शीर्ष पर होता।
यह हिस्सा कुल मिलाकर यह निष्कर्ष देता है कि हमें अपने जीवन में फैसले लेने के बारे में काफी सतर्क रहना चाहिए, खासकर तब जबकि फैसला किसी रचनात्मक उद्यम से संबंधित हो। क्या फिल्मकारी की चमकती-भड़कती और लोकप्रिय दुनिया के पीछे भागा जाए या फिर कविता लिखी जाए, जिसके साथ लोकप्रियता का कोई लेना-देना नहीं है और लोगों की निगाह में आने में जहां थोड़ा वक्त लगता है। इस मामले में गौतम सेन ने बहुत बड़ी गलती की थी। वह एक आला दरजे का कवि हो सकता था, लेकिन उसने एक मझोले दरजे का फिल्मकार होने की राह चुनी। एक मर चुके शख्स के बारे में ऐसा कहना बहुत क्रूर होगा और मैं इससे पर्याप्त वाकिफ़ हूं, लेकिन जिंदगी भी कहां कम निर्मम होती है। बेहतर है कि कुछ और करने के बजाय सच को सामने खड़े होकर झेला जाए।
फिल्म का दूसरा अध्याय कलकत्ता के सामान्य जीवन का एक दस्तावेजीकरण है, जो जितना कोलाहल भरा है उतना ही विविध भी है। इस विखंडन को दृश्यात्मक तरीके से हमारे सामने लाया गया है और इसके सर्वसामान्य में स्वीकार को भी उसी तरीके से दर्शाया गया है। यह परिघटना उसी के सामने साकार अर्थ ग्रहण कर सकती है जिसने कुछ वक्त इस प्यारे शहर में बिताया होगा। यहां इंसानों और मशीनों की परस्पर रगड़-घिस्स दिन-रात चलती रहती है और दोनों सह-अस्तित्व में जीते हैं। विभिन्न किस्म और तीव्रता की ध्वनियों से युक्त दृश्यों को कुछ देर दिखाने के बाद दृश्य में अचानक एक ऐसा बिंदु आता है जहां आवाज़ तकरीबन नदारद है और एक किस्म का मौन दृश्यों की सतह पर उतरता चला जाता है। ध्वनि और मौन के बीच का यह विरोधाभास फिल्म की एक खूबी है जिसका अपना एक विशिष्ट सौंदर्य है। कोलाहल ओर मौन का एक साथ होना जितना किसी भीड़भाड़ वाले शहर के लिए हकीकत है, उतना ही इंसानी वजूद के लिए भी सच है। आखिर कहीं न कहीं तो जिंदगी को जाकर ठहरना ही है- इस लंबी और सुव्यवस्थित फिल्म को देखते वक्त या देखने के बाद इसमें मौजूद विपरीतों को तौलते हुए दर्शक अंतत: इसी अहसास पर जाकर ठहरता है।
फिल्म में कलकत्ता के लुप्तप्राय चीनी समुदाय के जीवन का चित्रण बहुत सोच-समझ कर किया गया है, जिसमें सड़क किनारे बन रहे चीनी व्यंजनों व विभिन्न समुदाय के लोगों को उसे खाते हुए दिखाया गया है। इसकी तुलना गौतम की आसन्न मौत से की जा सकती है। कैंसर के असर से गौतम जिस तरह काफी तेज़ी से क्षीण होता जा रहा है, यही हाल शहर के जातीय समुदायों का भी है। यहां शहर के एक अदद नागरिक गौतम की जिंदगी और मौत उन समुदायों की अपरिहार्य नियति के साथ समानांतर आख्यान रचती है जो एक समय इस शहर के साथ उभरे थे लेकिन अब गायब हो रहे हैं। इस शहर में आने वाले कुछ आरंभिक प्रवासी, जैसे आर्मेनियाई, यहूदी, एंग्लो-इंडियन और चीनी समुदाय यहां किस्मत, रोमांच और सुविधाजनक जीवन की तलाश में आए थे, जो समय के साथ अब झर रहे हैं। इस अर्थ में देखें तो यह फिल्म कभी विभिन्न जातीय/नस्ली/मज़हबी रेशों से मिलकर बने एक भव्य ताने-बाने के विखंडन व विलुप्ति का शोकगीत है। वे जातीय समुदाय जो इस शहर की जिंदगी को नया अर्थ और आयाम देते थे, वे अब अपनी जगह खोते जा रहे हैं। इस लिहाज से यहां भी मूल विचार मृत्यु पर ही केंद्रित है, भले ही एक अलग परिप्रेक्ष्य में, जहां वह किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि समूचे समुदायों को प्रभावित कर रही है। इनमें जो बचे रह जाएंगे, वे भी धीरे-धीरे शहर के चौखटे से बाहर होते जाएंगे और यह उनका अपना चुनाव नहीं होगा, मजबूरी होगी। उनके पास बचेंगी केवल वे यादें, जो कभी उनके लिए वादों, उम्मीदों और जीवन का पर्याय थीं। कुछ की मौत शारीरिक होती है, जैसे हमारा कवि गौतम। कुछ अन्य हमारे सामने से बस ओझल हो जाते हैं। वे कहीं और जाकर एक नई शुरुआत करते हैं।
अपने बीस साल से ज्यादा लंबे करियर में जोशी जोसेफ ने जितनी फिल्में बनाई हैं, उनमें यह फिल्म सबसे ज्यादा दार्शनिकता से युक्त है। कलकत्ते के अलावा अपने कैमरे के लिए वे कोई और उपयुक्त जगह को चुन भी नहीं सकते थे, जो एक साथ कोलाहल, अवसाद, उत्साह और अनिश्चय के तत्वों से भरा पड़ा है। वे दर्शक को तमाम संवादों और दृश्यों की एक ऐसी बेतरतीब यात्रा पर ले जाते हैं जिसका ओर-छोर बिलकुल अलग है। इन यात्राओं में जो भी किरदार मौजूद है, वह इस भव्य शहर का रहवासी है। कोई यहां पैदा हुआ है तो कोई यहां आकर बस गया है। वे जिस चीज़ के बारे में बोलते हैं, उसके बारे में कहीं ज्यादा जानते भी हैं। उनके संवादों या एकालाप के बीच-बीच में आने वाला विराम ऐसी आकर्षक ध्वनियों व दृश्यों से भरा गया है जो दर्शक की कल्पनाशक्ति को ललकारता है और उसमें अर्थ खोजने को उसे विवश करता है।
फिल्म में मरता हुआ कवि-फिल्मकार एक साथ आशा और निराशा का गढ़ है। गौतम को हम एक फिल्म की शूटिंग करते हुए देखते हैं जिसमें बंगाल की अग्रणी अभिनेत्री ऋतुपर्णा सेनगुप्ता काम कर रही हैं। कीमोथेरपी के कई सत्रों के चलते गौतम के सिर से बाल उड़ चुके हैं। उसका चेहरा काला और खुरदुरा हो चला है। एक मौके पर हमें निर्देशक गौतम और अभिनेत्री के बीच पेशेवर संबंध की एक झलक भी मिलती है। सड़क पर शूट के दौरान एक मौके पर अभिनेत्री बाहर मचे हो-हल्ले और कोलाहल से थोड़ा उदास दिखने लगती है, जिस पर गौतम उससे पूछता है कि सब ठीक है न! अभिनेत्री ना में जवाब देती है। इसके ठीक बाद सेकंड के कुछ हिस्सों भर की एक हलकी सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर उतर आती है। यह कौन सा भाव था? पहले शिकायत, फिर मुस्कुराहट? क्या उसके मन में कोई अपराधबोध था, कि उसने एक ऐसे निर्देशक को सपाट जवाब दे डाला जिसके बारे में वह जानती है कि शायद वह फिल्म के पूरा होने तक जीवित नहीं रहेगा? या फिर उस पल यह कोई स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया थी जो अपने आप उसके चेहरे पर आ गई? जहां तक गौतम की बात है, वह तो पूरे उत्साह में है। अपनी गंजी खोपड़ी को छुपाने के लिए बनाना कैप पहने निर्देशक अपनी टीम को निर्देश दे रहा है कि कैसे क्या करना है। उसकी देह-भंगिमा से साफ झलक रहा है कि इन स्थितियों पर किसका नियंत्रण है। इसके बावजूद ठीक दो शॉट के बाद हमें तकरीबन खामोशी भरी एक आवाज़ साउंडट्रैक पर सुनाई देती है, ”ओह… इस सब का क्या मतलब!” यह निर्देशक एक ऐसे तीर्थयात्री की तरह है जिसने पूरी भक्ति के साथ यात्रा शुरू की थी, लेकिन उसके मन में द्वंद्व है कि यह यात्रा वह पूरी कर पाएगा या नहीं। जैसा कि मैंने पहले कहा, वह एक साथ आशा और निराशा का एक गढ़ है।
मनुष्य का मन ऐसा ही होता है। हालात उतने चरम पर न भी हों जैसे गौतम के साथ हैं, तब भी मन कई दिशाओं में खिंचता चला जाता है। एक रचनात्मक दिमाग कुछ सूक्ष्म और चिरकालिक रचने की फि़राक में रहता है, इसीलिए वह कभी भी आश्वस्त नहीं होता। इस फिल्म को देखने का सुख थोड़ा तकलीफ़देह है क्योंकि केंद्रीय किरदारों में एक ऐसा है जो न तो खुद आराम करता है और न ही दर्शक को चैन से रहने देता है। उसके शब्दों में एक ऐसी आशंका और निस्सहायता व्यक्त है जो जिसका असर विनाशक हो सकता है। इस किरदार का परदे पर बार-बार आना और गायब हो जाना उसकी जिजीविषा और उसके कहे शब्दों की मारक क्षमता को एक साथ रेखांकित करता है।
फिल्म के कई हिस्सों में जोशी व्यक्ति और समूह के बीच आवाजाही को बड़ी सहजता से अंजाम देते हैं। जब हम चीनी समुदाय को देख रहे होते हैं, तो एक किस्म का ठहराव या कहें निस्तब्धता भीतर उतरती आती है। हर कोई कुछ न कुछ कर रहा है, सामूहिक ऊर्जा का स्तर बहुत ज्यादा है, फिर भी चीजें ठहरी हुई जान पड़ती हैं। यह निस्तब्धता एक किस्म की है। दूसरे किस्म की निस्तब्धता हमें नखोड़ा मस्जिद के नमाजि़यों में देखने को मिलती है। फिल्म में अब तक जिंदगी और मौत के रिश्ते को ईश्वर व मनुष्य के संदर्भ में नहीं देखा गया था। दृश्य में हम देखते हैं कि वज़ू करने के बाद कतारों में नमाज़ी अपने देवता के सामने झुके हुए हैं। इनमें से कोई बेहतर जिंदगी के लिए प्रार्थना कर रहा है, तो कोई घर-परिवार और दुनिया-जहान में अमन चैन की दुआ मांग रहा है। कोई आखिरी वक्त में सुख की मांग कर रहा है। सवाल है कि मौत के बाद जिस अमन-चैन की हम आकांक्षा करते हैं, उसका क्या? फिल्म का यह हिस्सा अगर गौतम की छीजती हुई जिंदगी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो बेहद दार्शनिक हो उठता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि डॉक्टर उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं या खुद गौतम जिंदगी से हार मानने को तैयार नहीं है। फिल्म के कुछ दूसरे हिस्सों में यदि दिमागी वर्जिश की दरकार है, तो यह हिस्सा भावनात्मकता की मांग करता है। चीनी समुदाय वाले हिस्से में हम पाते हैं कि जिंदगी अपनी गति से चल रही थी लेकिन हमारा ही ध्यान उस पर नहीं जाता। उसके उलट नखोड़ा मस्जिद वाले दृश्य में जीवन अधिभौतिक ढंग से अचानक ठहर गया है- यह ईश्वर और उसकी रचना के बीच संवाद का एक ऐसा क्षण है जो झुके हुए सिरों, मुड़े हुए घुटनों और हज़ारों दुआओं में साकार हो रहा है।
तीसरा अध्याय कलकत्ता में फुटबॉल खेलते लड़कों के चमकदार श्वेत-श्याम दृश्य से शुरू होता है। यह दृश्य वैसे तो आज के कलकत्ता का है, लेकिन उसकी श्वेत-श्याम संरचना पचास और साठ के दशक की स्मृतियों को ताज़ा करती है जब हर बंगाली, हर कलकतिया आदमी सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार की ऐतिहासिक रूमानी जोड़ी वाली श्वेत-श्याम फिल्मों का दीवाना हुआ करता था। यही वह दौर था जब फुटबॉल में लोगों की रुचि अपने चरम पर थी और खेल के मैदान किसी तीर्थ से कम नहीं हुआ करते थे। फुटबॉल खेल रहे लड़कों के इस दृश्य की पृष्ठभूमि में धुंधला सा दिखता सेंट पॉल्स कैथीड्रल और एक हिंदू देवी की परित्यक्त प्रतिमा बीते दिनों का प्रतीक गढ़ती हैं। निर्देशक बताना चाह रहा है कि कलकत्ता के लोगों के लिए फुटबॉल बिलकुल ब्राजील या अर्जेंटीना की जनता के जैसे ही एक धर्म से कम नहीं होता था। हर तबके के लोग फुटबॉल के लिए लड़ते-झगड़ते थे, एक-दूसरे की जान भी ले सकते थे और बेशक, फुटबॉल के लिए ही जीते भी थे। इन श्वेत-श्याम दृश्यों को अतीत की पैमाइश माना जाना चाहिए, हालांकि आज की तारीख में तो यह शहर क्रिकेट का दीवाना है जिसमें ज्यादा पैसा भी है और लोगों का उत्साह भी देखते बनता है। उन दिनों हालांकि क्रिकेट अन्य खेलों की ही तरह हुआ करता था जिसमें सामाजिक रूप से अभिजात तबका विशेष दिलचस्पी लेता था।
श्वेत-श्याम दृश्यों के बाद एक बार फिर निर्देशक हमें गौतम के पास अस्पताल में ले जाता है जहां वह अपने बिस्तर पर बैठा अपने सहयोगी को समझा रहा है कि उसकी अगली फिल्म, जो कि कलकत्ता के मशहूर फुटबॉलर पी.के. बनर्जी पर होगी, कैसे बनाई जानी है। गौतम उसे इस विस्तार से समझा जा रहा है गोया शॉट दर शॉट पूरी फिल्म को उसके सामने खेलकर रखे देगा। सुनने वाला भी उतनी ही तन्मयता से सुन रहा है। गौतम कहता है कि प्रस्तावित फिल्म फुटबॉलर पी.के. पर उतना केंद्रित नहीं होगी बल्कि वह कहीं ज्यादा उस खिलाड़ी के जीवट पर केंद्रित होगी, उसके इंसानी गुण पर बनाई जाएगी जिसकी ताकत से वह पहले उत्तरी बंगाल से और बाद में बिहार से होते हुए देश की फुटबॉल की राजधानी में पहुंचा और जिसके सहारे उसने एक चमकदार करियर बनाया।
इसके बाद गौतम अपने सहयोगी से कहते हैं कि इस शहर और खिलाड़ी के जीवट को फिल्म के तीसरे अध्याय में ही दिखाया जाना होगा क्योंकि फिल्म मोटे तौर पर पी.के. के वर्तमान जीवन पर केंद्रित होगी जो अपनी बढ़ती उम्र और बीमारी के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं हैं। सत्तर पार की उम्र में यह खिलाड़ी कुछ साल पहले हुए पक्षाघात के बावजूद जबरदस्त साहस और नजरिये का धनी है जिसने अपने शरीर के प्रभावित दाहिने हिस्से को कभी भी बाधा नहीं बनने दिया। इससे निराश होने के बजाय वह अपने पास आने वाले हर शख्स से फुटबॉल की बात करता है और शरीर की गतिविधियां बाधित होने के बावजूद नौजवानों को प्रशिक्षण देता है। पी.के. कभी एक खिलाड़ी के बतौर और बाद में ईस्ट बंगाल और मोहन बागान के प्रशिक्षक के बतौर देश-दुनिया में जाने जाते थे। उन्हें ”वोकल टॉनिक” की संज्ञा मिली हुई है यानी ऐसा शख्स, जिसकी भाषा और भंगिमा बेहद प्रेरणादायी है। अपने खेलने या प्रशिक्षण देने के दिनों में उन्होंने अपनी इस विशिष्ट भाषा व भंगिमा का जैसा इस्तेमाल इच्छित नतीजे पाने में किया था, ठीक वैसे ही आज की तारीख में वे इसके सहारे उन लोगों के मनोबल को बढ़ाने का काम करते हैं जो शारीरिक या मानसिक रूप से खुद को हताश पाते हैं।
दरअसल, गौतम के दिमाग में जो कहानी बुन रही है, वो यह है कि अपनी स्थिति को इस फुटबॉलर के जीवट के समानांतर रखा जाए और दोनों को जोड़ने वाला सूत्र शहर कलकत्ता हो, जो दूसरे विश्व युद्ध, 1943 के अकाल, विभाजन जैसी ऐतिहासिक त्रासदियों के बावजूद यह कहने को तैयार नहीं कि ”बस, अब बहुत हो चुका”। ये विरोधाभास आपस में मिलकर एक ऐसी कसी हुई आध्यात्मिक यात्रा पर दर्शक को ले जाते हैं जिससे महरूम रहकर वह अपना ही नुकसान करेगा। एक शहर, एक कवि और एक फुटबॉलर, तीनों किसी न किसी स्तर पर खत्म हो रहे हैं, बावजूद इसके मौत के सामने पनाह मांगने को तैयार नहीं हैं। अपनी सारी कोशिश के बावजूद कवि अपने गंतव्य को पहुंच चुका है। फुटबॉलर भी आज नहीं तो कल अपनी नियति को प्राप्त हो ही जाएगा। अंतिम बारी होगी इस शहर की…। लेकिन जैसा कि हमारे कवि या दार्शनिक ने कहा है, इस पूरी कवायद का साध्य गंतव्य नहीं है बल्कि उसकी ओर शुरू होने वाली एक यात्रा है। यह यात्रा कुल मिलाकर उत्तेजक संभावनाओं का एक योग है, जहां उतार-चढ़ाव के कई आख्यान हैं। एक बार मनुष्य अपनी नियति को पहुंच गया, तो आगे देखने के लिए फिर कुछ नहीं बचता, न ही कुछ ऐसा है जिसके खिलाफ संघर्ष किया जा सके।
गौतम पूरे आवेग में अपने सहयोगी को समझा रहा है कि कैसे अलग-अलग फिल्मों और आरकाइव से फिल्मों की क्लिप लेनी होगी और उन्हें मिलाकर फिल्म कैसे बनाई जाएगी। फुटबॉल की पत्रिकाओं से कतरनों और किताबों को भी इसमें शामिल किया जाना होगा। गौतम का एकालाप जारी रहता है और उसका सहयोगी बिस्तर के पास एक जमी हुई शिला की तरह खड़ा सुनता जाता है। अपनी मौजूदगी के अलावा उसके पास और कुछ भी कहने को नहीं है। गौतम उसके सामने अपने दिमाग में चल रही चीज़ों को विस्तार से बताता है। वह विषयांतर भी करता है। वह पी.के. के अदम्य जीवट के बारे में एक कहानी भी सुनाता है। किस्सा कुछ यूं है कि पी.के. जब पक्षाघात से जूझ रहे थे, तब उनके पास एक आदमी मिलने आया और उसने कहा कि कि एक कैंसर का मरीज़ है जो उनसे बेतरह मिलने की आस रखता है ताकि उनसे कुछ बात कर सके। क्या वे चल सकेंगे। पी.के. उस मरीज़ से मिलने को तैयार हो गए। कुछ हफ्ते बाद पी.के. ने पता करना चाहा कि मरीज़ की हालत कैसी है। उन्हें पता चला कि डॉक्टरों के मुताबिक मरीज़ के पास जिंदगी के सिर्फ पांच दिन और थे, लेकिन पी.के. से मिलने के बाद वह सतरह दिन जी गया।
इस घटना पर पी.के. के कहे को याद करते हुए गौतम बताते हैं कि उनके मुताबिक जिंदगी और मौत मनुष्य के हाथ में नहीं है, लेकिन उस मरीज़ का अतिरिक्त बारह दिनों तक जी जाना बताता है कि जीवन के अंतिम छोर पर शायद उसके भीतर नए सिरे से एक उम्मीद जागी थी। उस शख्स ने मरते हुए कहा था, ”अगर मैं पी.के. से पहले मिल लिया होता तो बेहतर होता।” फिल्म में इस किस्म के संस्मरण डालकर गौतम शायद मौत को मात देने की मानवीय क्षमता को तो नहीं, लेकिन बुरे से बुरे वक्त में भी सबसे बेहतर नतीजे निकाल लाने की संभावना को रेखांकित करना चाहते थे। गौतम अगर इस फिल्म को पूरा कर पाते, तो शायद यह फिल्म अखंड व्यक्तित्व के धनी उन तमाम ताकतवर लोगों को एक सशक्त अभिवादन होती जिन्होंने मौत की अपरिहार्यता को समझते हुए भी जिंदगी से कभी हार नहीं मानी और खुद उदाहरण बने हैं।
मनुष्य चाहे कितनी ही बुरी स्थिति में क्यों न हो, वह मरना नहीं चाहता है। वह थोड़ा सा और लंबा जीने के लिए अपने भीतर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक इच्छाशक्ति पैदा कर ही लेता है। हम में से कई लोग इस बात को शायद स्वीकार करने को तैयार न हों, लेकिन हकीकत यही है कि हमारे जीने की इच्छा अंतहीन है। मेरे हिसाब से जीने का कायदा भी यही होना चाहिए क्योंकि हमें जीने के लिए बस एक ही जीवन मिला है। हम नहीं जानते कि हमारे जन्म से पहले हम क्या थे और मरने के बाद हमारा क्या होगा, या फिर मौत के बाद कुछ होता भी है या नहीं।
इस बारे में गौतम के पास सुनाने को अपनी कहानी है। उसे जब कैंसर का पता चला और उसने यह ख़बर पी.के. को दी, तो उन्होंने कहा कि किसी भी बीमारी से ज्यादा अहम और ताकतवर वह जज्बा होता है जिसके सहारे आप उसका सामना करते हैं। पी.के. ने कहा कि अगर अपने पक्षाघात को वे सही तरीके से जज्ब कर सकते हैं, तो गौतम भी ज़रूर ऐसा कर सकता है। इसीलिए गौतम लगातार यह बात कहता है कि पी.के. ने भारत को जितनी बार भी जीत दिलवाई, उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में जितने भी पदक जीते, फिल्म में इनके जि़क्र से कहीं ज्यादा ज़रूरी इस शख्स के न चुकने वाले साहस और उस नज़रिये को स्थापित करना है कि प्रतिकूल स्थितियों में हार मानने के बजाय अंत तक सिर ऊंचा कर के चीज़ों का सामना करना कहीं ज्यादा विवेकपूर्ण व फलदायी होता है। गौतम अपने सहयोगी को जो निर्देश दे रहा है, उस समूचे पाठ के भीतर निहित मानवीय तत्व बेहद प्रेरणादायी और प्रोत्साहनकारी है।
गौतम सेन के जीवन को भीतर से खोलकर रखने में अभिनेत्री लाबोनी सरकार ने अहम भूमिका निभाई है। किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि फिल्म के नाम में उसका उल्लेख क्यों नहीं है, चूंकि कवि के साथ अपने रिश्तों के संबंध में वह जिन बातों का उद्घाटन करती है, वे काफी अहम हैं। इन दोनों ने कई साल साहचर्य में बिताए हैं, इस लिहाज से उसकी बातों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए था। बात सिर्फ रिश्ते तक सीमित नहीं है बल्कि इसलिए और अहम है क्योंकि यह अभिनेत्री अपने निजी रिश्ते की पड़ताल के पार जाकर व्यापक महत्व के विषयों पर भी बात करती है। इसके बारे में बहुत कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। सपाट शब्दों में हम कह सकते हैं कि वह अपने विशिष्ट तरीके से स्त्रीवाद को परिभाषित कर रही हे। इस स्त्रीवादी दृष्टिकोण को सेमीनारों में पढ़े जाने वाले अकादमिक परचों के मुकाबले कहीं ज्यादा अनुभवजन्य कहा जा सकता है। यह स्त्रीवाद रात की किसी कॉकटेल पार्टी में दाहिने हाथ में शराब के प्याले और बांए हाथ की उंगलियों में दबी सिगरेट की मुद्रा से अलहदा है। इसके बजाय, वह चीज़ों की गहराई में जाती है और अपनी तथा अपने पुरुष मित्रों के जीवन को प्रस्थान-बिंदु बनाकर बात करती है। उसकी स्वतंत्र चेतना उसकी भाषा में ही निहित है- ”आमि तीनती पुरुष पुशे छिलाम” (एक समय ऐसा था जब मैं तीन आदमियों को अपने पास ‘रखती’ थी)। यह भाषा सामान्यत: पालतू जानवरों के लिए इस्तेमाल की जाती है जिसे वह अपने पुरुष मित्रों के लिए करती है। यह सायास है। जिन पुरुषों का जि़क्र वह कर रही है, उनमें एक गौतम और बाकी दो करीबी उसके दोस्त थे, जिनका खर्चा-पानी और रहना-खाना वही चलाती थी। ज़ाहिर है, उसकी कमाई सामान्य से काफी ज्यादा रही होगी, तभी वह तीन-तीन पुरुषों को अपने पास ‘रख’ पा रही थी- उसके इस दावे में अवमानना का एक हलका सा स्वर है। यह कहना शायद गलत न होगा कि जिस दृढ़ और दुस्साहसिक भाषा में यह अभिनेत्री पुरुषों के साथ अपने संबंध का जि़क्र करती है, उसे सुनकर कई स्वनामधन्य स्त्रीवादी सिद्धांतकार भी अपने-अपने बिल में दुबक जाएंगे।
लाबोनी यह कहने में कोई संकोच नहीं करती कि बोहेमियन लोग अकसर बहुत स्वार्थी होते हैं जो एक साथ दो नावों की सवारी करते हैं और हर चीज़ में अपना फायदा खोजते हैं। वह कहती है कि उसने अपने अनुभव से सीखा है कि ऐसे लोगों से सतर्क रहना है। ऐसा लगता है कि वह उन तथाकथित बुद्धिजीवियों के बड़े तबके के खिलाफ एक माहौल-सा बना रही हैं जिसके लिए मैले कपड़े पहनना, बाल में कंघी नहीं करना और संज्ञाशून्य मुद्रा लिए घूमना एक सुविचारित योजना का हिस्सा होता है। उसका स्पष्ट मत है कि ऐसे लोग इस बात को लेकर बहुत सचेत होते हैं कि जीवन की तमाम अच्छी चीज़ों का सुख कैसे लिया जाए, लेकिन बाहर से वे खुद को बाग़ी और संन्यासी दिखाते रहते हैं। यहां हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि इस अभिनेत्री ने संदिग्ध नीयत वाले तीन पुरुषों को यथासंभव सारी सुविधाएं काफी लंबे समय तक मुहैया करवाईं, इसलिए उसे इनके दावे और हकीकत के बीच का फर्क इतने तीखे शब्दों में जाहिर करने का अधिकार बेशक होना चाहिए।
अभिनेत्री के ये शब्द दर्शकों को चौंकाने वाले हैं। एकबारगी यह लग सकता है कि कवि के मूल्यांकन में वह कहीं ज्यादा निर्मम तो नहीं हो रही है और उसकी स्मृति के साथ कहीं यह विश्वासघात तो नहीं है। लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, साहस के साथ बोला गया सच निर्मम हो सकता है और खासकर गुज़रे हुए शख्स के परिजनों व दोस्तों के लिए अप्रिय भी हो सकता है। जहां तक मेरा सवाल है, मुझे एक क्षण भी ऐसा नहीं लगा कि अभिनेत्री अपने साथी के प्रति करीबी और गहरा जुड़ाव महसूस नहीं कर रही होगी, बल्कि लंबे समय तक उसके साथ रहते हुए दरअसल यह जुड़ाव धीरे-धीरे छीजता गया है उसके भ्रम टूटते गए हैं और खालिस सच उसके सामने खुलता गया है।
सुनने में अजीब लग सकता है कि मृत्यु जैसे विषय पर केंद्रित होने के बावजूद यह फिल्म कुछ हिस्सों में हास्यप्रद भी है- कि जब मौत आसन्न और अपरिहार्य हो, तभी उसे विलंबित करने के प्रयास भी किए जा रहे हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि आखिर जीवन भी तो ऐसा ही है- आखिर दुखी से दुखी मनुष्य भी बिना हास्य के, थोड़ा मनोरंजन के बगैर कैसे जी सकता है। उसे कुछ तो राहत चाहिए होगी। हम अपने और दूसरों के तजुर्बे से इतना तो जानते ही हैं कि किसी बीमारी, क्षय या विखंडन से निपटने के लिए मनुष्य एक सुरक्षा प्रणाली ईजाद कर लेता है जो उसे मौत की सूरत में भी नाउम्मीदी से बचाती है। इस संदर्भ में हम गौतम सेन के सुनाए खटमलों वाले किस्से का जि़क्र कर सकते हैं। गौतम कहता है कि हर रात दो से तीन बजे के बीच अस्पताल के कमरे के एक कोने से दो खटमल बाहर निकल आते हैं और टक-टक टक-टक की आवाज़ निकालते हैं। वह कहता है कि ये कीड़े अपने बिलों से उसकी नींद तोड़ने के लिए ही निकलते हैं क्योंकि एक बार नींद टूटने पर उसे फिर नींद नहीं आती है। वह बताता है कि एक बार तो उसने उनके ऊपर एक किताब फेंक दी थी जिसके बाद वे शांत हो गए थे।
आप इस किस्से की अपने विवेक के चश्मे से कैसे व्याख्या करेंगे? बहुत संभव है कि कवि की नींद खटमलों से नहीं बल्कि दर्द की एक लहर से या किसी दुस्वप्न के चलते टूटती हो। क्या यह मुमकिन है कि कवि दरअसल अपने क्षय को छुपाने के लिए किस्सागोई की राह अपना रहा हो? दर्द और इलाज के सघन माहौल में क्या मरीज़ ऐसा कहते हुए वाकई गंभीर है या बस खुद को और अपने श्रोता को भरमाने के लिए ऐसे किस्से गढ़ रहा है? आखिर कौन दावा कर सकता है! हो सकता है कि उसे सपने में यह बात दिखी हो और जागने के बाद उसने इसे हकीकत में घटी चीज़ समझ लिया हो। शायद, सारे रास्ते बंद हो जाने के बाद जिंदगी का बचा-खुचा आनंद उठाने की उसकी यह क्षमता हो। यह किस्सा दिखाता है कि वह जिस बिगड़ते हुए हालात का पात्र है, उसमें भी रात के अपने दुश्मनों के इर्द-गिर्द एक किस्सा गढ़ने की उसकी कल्पना-शक्ति अब तक चुकी नहीं है। दर्द के आवेग और मौत की अपरिहार्यता के ऐन क्षण में एक किस्सागो का दांव पर लगा जीवन ही कहानी का केंद्रीय तत्व बन जाता है। दोबारा कहना चाहूंगा कि सिनेमा और क्या है सिवाय किस्सागोई के? बस किस्सागो और निर्देशक के बदलने से आख्यान का गुण बदलता जाता है।
यह कहना मुश्किल होगा कि अपनी कविता के तीसरे और अदृश्य पाठक की राय से गौतम खुद सहमत था या नहीं, कि उसे और कविताएं लिखनी चाहिए थीं, हालांकि अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े वह अपने सहयोगी को तीन-चार ताज़ा कविताएं ज़रूर सुनाता है। ये सभी कविताएं उसके कैंसर का पता लगने के बाद लिखी गई थीं। इन कविताओं में एक किस्म का रोष हे, कुछ छूट गए अवसरों का एक बोध है, निस्सहायता का एक सघन अहसास है। उसने अपनी युवावस्था में जो कुछ लिखा था, नई कविताएं उनसे बिलकुल विपरीत हैं। उसकी आरंभिक कविताएं उम्मीद और आशावाद से लबरेज़ थीं जिनमें जनता की बेहतरी के लिए ज़रूरत पड़ने पर एक हिंसक क्रांति की ज़रूरत भी उभर कर सामने आती थी। सचाई यह है कि काव्यात्मक ऊर्जा ने कभी भी गौतम का साथ नहीं छोड़ा। अगर उसने और कविताएं लिखी होतीं तो उसका काव्य-कौशल और निखर कर सामने आता। अगर वह और कविताएं लिख पाता, तो आज हम एक फिल्मकार का नहीं, बल्कि एक कवि-फिल्मकार के गुज़रने का शोक मना रहे होते।
आदमी को अपनी ज़मीन का पता होना चाहिए। एक कलाकार को पता होना चाहिए उसका कला-क्षेत्र क्या है। सिनेमा, कविता, चित्रकला, संगीत, रंगमंच या नृत्य- आखिर वह किस ग्रह का वासी है। सही चुनाव करना बेहद अहम है, लेकिन ऐसा करने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति सबसे पहले खुद को अच्छे से समझ ले। गौतम की संभवत: अंतिम कविताएं सुनते हुए आपको इस बात का दुख और अफसोस होता है कि यदि वह लगातार कविताएं लिखता रहता तो आज कितना बेहतर कवि होता। उसकी ये आखिरी कविताएं जिंदगी के साथ उसके अदम्य जुड़ाव का पता देती हैं। एक कविता में वह अपने प्रेम की बात कर रहा है। दूसरे में वह सोचता है कि काश, कट्टरता के खिलाफ़ हज़ारों लोगों के साथ आंदोलन में वह ढाका के शाहबाग चौक पर रह पाता और सामूहिकता के मूल्यों की रक्षा में अपनी भी आवाज़ मिला पाता। गौतम के भीतर का कवि दरअसल कभी भी बूढ़ा नहीं हुआ। यहां तक कि कैंसर के सबसे विकसित चरण में उसके भीतर का कवि जवान रहा।
मरता हुआ यह कवि मृत्यु के बारे में कई सार्थक बातें कहता है, लेकिन कभी उसकी प्रेमिका रही लाबोनी सरकार मौत के बारे में जो बातें कहती है वे कहीं ज्यादा गहरी हैं। उसके पास अभी पूरी जिंदगी बाकी है, लेकिन अपने बचपन से ही देखती आ रही शव-यात्राओं के बारे में वह जिस ठस यथार्थवादी तरीके से बात करती है, वह स्तब्धकारी है। उसके जितने भी प्रियजन थे, सब उसे समय से पहले छोड़ कर चले गए। इन असामयिक मौतों के चलते उसके भीतर मौत से जुड़ी आकस्मिकता, रहस्यात्मकता और बुनियादी निर्ममता घर कर गई। लाबोनी कहती है कि गौतम की मौत आखिरी मौत नहीं होगी जिसका वह गवाह बनी है। जो लोग उसे गौतम जितने ही प्यारे थे, उन्हें उससे छीन लिया गया। एक के बाद एक सब चले गए- बचपन के दोस्त, कॉलेज के शिक्षक, थिएटर के गुरु- सभी की असामयिक मौत हो गई। हर बार इन मौतों से उपजा घाव उसके भीतर और गहराता ही गया। वह कहती है कि उसे मौत समझ में नहीं आती क्योंकि मनुष्य की नियति यही है कि वह मौत की व्याख्या नहीं कर सकता। ऐसा लगता है कि समय के साथ और गहन पीड़ा के सतत आघात से वह एक ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है जहां मृत्यु और उससे उपजने वाले दुख को उसने जिंदगी के एक अनिवार्य हिस्से के बतौर स्वीकार कर लिया है।
फिल्म का चौथा और आखिरी अध्याय श्वेत-श्याम दृश्यों से खुलता है जिसके माध्यम से अतीत का आवाहन किया गया है। साउंडट्रैक पर ईस्ट बंगाल क्लब का गीत सुनाई देता है जो काफी ऊर्जा और ऊंचे स्वर में गाया जा रहा है। इस गीत के बीच हमें एक टूटे-फूटे फिल्म थिएटर का दृश्य दिखाई देता है। उसकी हवा में मकडि़यों के जाले तैर रहे हैं और फिल्म की एक रील भी लहरा रही है गोया लपटन से अभी-अभी छूटी हो। ये दृश्य और पृष्ठभूमि की ध्वनियां मिलकर एक सुखद सौदर्यशास्त्रीय अनुभव का सृजन करती हैं। क्लब के गीत की थाप पर अपने आप दर्शक के पैर थिरकने लगते हैं। दृश्यों का संपादन जिस गति को परदे पर जन्म देता है, दर्शक उससे प्रभवित हुए बिना नहीं रह पाता।
एक बार यह वाचाल आदमी बोलना शुरू करता है तो फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाता है। वह एक साथ कई स्तरों पर बात करता है। पी.के. जब अपनी स्मृतियों की यात्रा पर हमें ले जाते हैं, उसके थोड़ी देर बाद एक छोटा सा अंश अचानक आता है जिसमें गौतम सेन को फिल्म प्रभाग के महानिदेशक के साथ बात करते हुए दिखाया गया है। इसी सरकारी एजेंसी ने उन्हें पी.के. पर फिल्म बनाने का काम दिया था। महानिदेशक वी.एस. कुंडू गौतम से पूछते हैं कि किसकी जिंदगी ज्यादा रोमांचक रही- पी.के. की या खुद उसकी? गौतम तपाक से जवाब देते हैं कि उसकी अपनी जिंदगी ज्यादा रोमांचक रही है। ये कुछ ऐसे अवांतर हैं जिन्हें ध्यान से देखा जाना चाहिए। जब आप एक ऐसी एजेंसी के मुखिया के सामने बैठे हों जिसने आपको फिल्म बनाने के पैसे दिए हैं, तो स्वाभाविक कायदा यह है कि इतनी तेज़ी से इस तरह का जवाब देना उपयुक्त नहीं माना जाता। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए किस जिस शख्स की हम बात कर रहे हैं, वह एक गंभीर यंत्रणा से गुज़र कर एकदम बेसाख्ता और दुस्साहसिक हो चुका है। वह किससे बात कर रहा है और क्या कह रहा है, इसकी उसे तनिक भी परवाह नहीं है।
कैमरे पर बोलते हुए पी.के. कुछ ऐसे अनुभव बयान करते हैं जिन्होंने उनकी जिंदगी में रंग भरे। ये खालिस सच्चे अनुभव हैं। बड़े महानगर और छोटे से कस्बे के बीच के फर्क पर जब वे बोलते हैं, तो उनके स्वर में एक किस्म की निराशा झलकती है। देश के तथाकथित विकसित हिस्सों में रहने वाले लोगों के सुदूर और अविकसित इलाकों के वासियों के प्रति नफ़रत भरे नज़रिये को पी.के. बखूबी रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि जब पहली बार वे कलकत्ता में फुटबॉल खेलने आए थे, तो इस शहर के कुछ बड़े लोगों ने उनसे बड़े सपाट लहजे में कहा था कि वे एक पिछड़े इलाके से आते हैं और ऊंचे ख्वाब पालने का उन्हें कोई हक नहीं है। वे उन्हें जितना हतोत्साहित करने की कोशिश करते रहे, पी.के. का संकल्प उतना ही दृढ़ होता गया और मैदान पर उम्दा प्रदर्शन में तब्दील होता गया। बाकी की कहानी इतिहास है। वे बरसों तक कलकत्ता में फुटबॉल के बेताज बादशाह बने रहे और जनता के बीच उतने ही लोकप्रिय रहे जितना अपनी टीम के बीच थे।
ऐसा शख्स परदे पर आपके सामने अपने मामूली अतीत की कहानी सुना रहा है। बता रहा है कि कैसे उसने पहले एक खिलाड़ी के बतौर और बाद में प्रशिक्षक की भूमिका में सिर्फ लगन और मेहनत से इस अतीत को बदल डाला। यह एक ऐसा शख्स है जो अपनी वृद्धावस्था और अशक्तता को भी पूरे साहस और विवेक के साथ बिलकुल सामने खड़े होकर चुनौती देता है। इस किरदार की जीवन-यात्रा को फिल्म में काफी शानदार तरीके से प्रदर्शित किया गया है। खुद को पीडि़त मानने के बजाय यह आदमी एक महान उत्तरजीवी की भूमिका निभाना पसंद करता है। यह काफी कुछ उस शहर की प्रकृति के करीब है जिसने उसे वास्तव में गढ़ा है। वह शहर, जो घुटन के बावजूद दम छोड़ने से लगातार इनकार करता रहा है।
ए पोएट, ए सिटि एंड ए फुटबॉलर जीवन और मृत्यु पर केंद्रित एक व्यापक दृश्यात्मक विमर्श है जिसे मैं भव्य की संज्ञा दूंगा। उतना ही अहम यह बताना भी है कि कला और सौंदर्यशास्त्र के लिहाज से यह फिल्म अनिवार्यत: एक बंगाली फिल्म है। इसका मुहावरा भले स्थानीय है, लेकिन इसकी अपील सार्वभौमिक है। यह स्थानीय मुहावरा आखिर कहां से आ रहा है? यह शहर की प्राचीन झरती हुई इमारतों से आ रहा है; यह कार-शेड में प्रेतछाया का आभास देती रात के सन्नाटे में निश्चल खड़ी ट्रामों की कतारों से आ रहा है; यह हुगली और उसके ऊपर बने पुल जैसे कालातीत प्रतीकों से निकल रहा है; यह मुहावरा फुटबॉल के खेल और कविता के उद्यम से उपज रहा है जिनके बगैर कलकत्ता नाम के शहर और उसके लोगों पर एक प्रामाणिक निबंध लिखना नामुमकिन है। और अंत में, यह स्थानीय मुहावरा गपबाज़ी के लिए मशहूर उन अड्डों से निकल रहा है जिसके इर्द-गिर्द फिल्म के आखिरी अध्याय को विशेष तौर से गढ़ा गया है।
कवि मर जाता है, लेकिन कविता नहीं मरती; शहर लड़खड़ा तो सकता है, लेकिन गिरता नहीं; फुटबॉलर भले शिथिल पड़ जाए लेकिन जिंदगी के खेल में हार से अभी वह बहुत दूर है। इन सबका साध्य मौत ही है, लेकिन उससे पहले जो घटता है वह कहीं ज्यादा रहस्यमय और प्रेरक है।