“दिल्ली के पीछे एक दिल्ली, दिल्ली के आगे एक दिल्ली, बोलो कितनी दिल्ली। आगे आगे दिल्ली, पीछे पीछे दिल्ली, पीछे पीछे दिल्ली, आगे आगे दिल्ली। भीगी दिल्ली भीगी बिल्ली, भीगी बिल्ली भीगी दिल्ली। दिल्ली के पीछे पड़ गई दिल्ली। इचक दिल्ली, बिचक दिल्ली, दिल्ली ऊपर दिल्ली, इचक दिल्ली। दिल्ली बन गई बिल्ली बिल्ली बिचक दिल्ली। एक बिल्ली के पीछे दिल्ली, एक दिल्ली के आगे बिल्ली, बोलो कितनी बिल्ली। तुम छोटी दिल्ली हम बड़की दिल्ली। हम बड़की दिल्ली, तुम छोटकी दिल्ली। ख़ूब घुमाओ जनता को, जनता बन जाए भीगी बिल्ली। तो हज़रात, हमारा यही कहनाम है कि नई दिल्ली बड़ी दिल्ली हो गई है। इस दिल्ली में दो दिल्ली नहीं रह सकती। जब भी उस दिल्ली को लगता है कि दिल्ली बन रही है बड़ी दिल्ली बताने आ जाती है कि वह दिल्ली बनने का ख़्वाब नहीं देख सकती। इसलिए दिल्ली ने दिल्ली को दिल्ली बनने से रोकने के लिए दिल्ली के ऊपर एक दिल्ली बिठा दी है। यही कहानी का सार है। और इसी भूल भुलैये के खिलाफ आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने आवाज़ उठाई है कि एक दिल्ली दूसरी दिल्ली का गला घोंट नहीं सकती।”
प्राइम टाइम के मंगलाचरण में मैंने यह बातें केवल तुकबंदी के सेवार्थ नहीं लिखी हैं। इन गिज-बिज बातों का ध्वनि प्रभाव यही है कि दिल्ली राज्य के संवैधानिक ढाँचे को इतना ध्वस्त कर दो कि किसी चीज़ का कोई मतलब नह रहे। आपको याद होगा दिसंबर 2016 से मार्च 2018 के बीच आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की सदस्यता रद्द करने का खेल चला। इस खेल में चुनाव आयोग से लेकर राष्ट्रपति भवन तक को घसीट लिया गया और वो काम करवाए गए जो कभी न हुए थे। अंत में बीस विधायकों की सदस्यता रद्द करने के फ़ैसले को दिल्ली हाई कोर्ट ने निरस्त कर दिया। दो साल तक हर हफ़्ते यह बहस होती थी कि आम आदमी पार्टी की सरकार गिरेगी। बीस विधायकों की सदस्यता जाएगी। इसके पक्ष में हज़ारों तरह के अनर्गल तर्क दिए गए। इसी तरह के टकराव के क़िस्से आम आदमी पार्टी की सरकार के आते ही शुरू होते हैं और हर खेल में मात खाने के बाद भी केंद्र ने एक बार फिर से दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकारों को कम करने की फिर से कोशिश की है। विधायक नहीं ख़रीद सकते तो सरकार का नाम बदल दो, उसका काम कम कर दो।
देश भर में कई चुनावी जीत हासिल करने वाली नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी उसी दिल्ली में दो दो बार हार गए जहां से वे इन दिनों हर दिन किसी न किसी राज्य की चुनावी सभा के लिए उड़ते हैं। दिल्ली को जीतने के लिए पिछले साल के चुनाव में भाषणों के ज़रिए सांप्रदायिक तापमान को बढ़ा दिया गया। दिल्ली दंगों में झुलस गई। उस समय नागरिकता क़ानून का विरोध चल रहा था। सरकार के मंत्री और गृह मंत्री के भाषणों को सुनकर लगता था कि इस क़ानून को लागू करना ही होगा। आज ही करना होगा। देश घुसपैठियों से भर गया है। वग़ैरह वग़ैरह। आज तमिलनाडु में बीजेपी उस पार्टी के साथ चुनाव लड़ रही है जिसने अपने घोषणापत्र में कहा है कि वह केंद्र से आग्रह करेगी कि नागरिकता क़ानून को रद्द करे। जयललिता का अन्ना द्रमुक पार्टी नागरिकता क़ानून का विरोध करती है। यानी बीजेपी इस क़ानून का विरोध करने वालों के साथ भी चुनाव लड़ सकती है। यह भी सही है कि एआईएडीएमके ने नागरिकता क़ानून को पास कराने में संसद में सरकार का साथ दिया था। वही पार्टी अब इस क़ानून के ख़त्म होने की बात कर रही है और बीजेपी को कोई परेशानी नहीं है। एक बयान देकर निपटा दिया गया है कि क़ानून रद्द नहीं होगा।मगर आप इस क़ानून को हटवाने के नाम पर वोट माँग सकते हैं। इसका मतलब तो यही हुआ।
बीजेपी कहती है कि वह चुनावों के कारण फ़ैसला नहीं लेती है। देशहित में लेती है। फिर क्यों एक साल बाद भी नागरिकता क़ानून को लागू करने की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई ? जब यह सवाल पूछा गया तो अमित शाह ने जवाब दिया कि कोरोना वायरस के कार इसके नियम नहीं बनाए गए हैं। वैक्सीन की प्रक्रिया शुरू होते ही नियम बनाने का काम शुरू हो जाएगा। क्या आपको हंसी नहीं आती है? कोरोना के कारण निजीकरण से लेकर कृषि क़ानून बना दिए गए और नागरिकता क़ानून को लागू करने के नियम नहीं बने? कोरोना के कारण दिल्ली के संवैधानिक अधिकारों और दर्जे को ख़त्म करने का बिल लोकसभा में पेश हो गया है और कोरोना के कारण नागरिकता क़ानून को लागू करने के नियम नहीं बन पाए?
तमिलनाडु, असम और बंगाल में बीजेपी अब इस मुद्दे पर ललकारी नहीं है। इधर उधर बयान देकर औपचारिकता निभा लेती है। इस क़ानून का नाम लेने से बचा जा रहा है।जबकि इस क़ानून के नाम पर कितना बवाल हुआ था। आप देखेंगे कि कैसे बांग्लादेश की यात्रा का इस्तमाल बंगाल चुनाव के लिए होगा जबकि इसी का नाम लेकर हर चुनाव में दहशत पैदा किया जाता था कि वहाँ से घुसपैठिए आकर बंगाल और असम में भर गए हैं। आप फिर से बेवकूफ बनाए जाएँगे।
इसी संदर्भ में सोचें तो समझ नहीं आएगा कि इस वक़्त दिल्ली की सरकार के अधिकारों को कम करने का बिल क्यों लाया गया? जब सुप्रीम कोर्ट ने 535 पन्नों में लिख कर दिल्ली के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या कर दी थी और साफ़ साफ़ दोनों के काम को अलग कर दिया था तब इसकी क्या ज़रूरत थी? क्या इसलिए कि राजनीतिक तापमान कहीं और बढ़ाया जाए? टकराव नहीं हो रहा है तो टकराव पैदा किया जाए ताकि गोदी मीडिया के मंच से भाषण देने का मौक़ा मिले?
दिल्ली के लिए लाया गया यह बिल बेहद ख़तरनाक है। बात केवल दिल्ली की नहीं है। बात है संवैधानिक प्रक्रियाओं का इस्तमाल कर ऐसे क़ानून लाने की जिनसे राज्यों के ही संवैधानिक अधिकार कम नहीं होते हैं बल्कि नागरिकों के भी होते हैं। हाल ही में लाया गया आईटी रुल्स दिल्ली के लिए लाए गए बिल की नीयत से कुछ ख़ास अलग नहीं है। उम्मीद है अपनी आँखों के सामने हो रही इन बातों के पीछे के खेल को आप उदार मन से सोचेंगे। नहीं सोचेंगे तो उसमें भी कोई दिक़्क़त नहीं है। अभी सात साल का नतीजा अर्थव्यवस्था में देख ही रहे हैं। आगे भी कुछ समय तक देखने वाले हैं। वो दिन दूर नहीं जब नागरिक की जेब में पैसे नहीं होंगे और अधिकार भी नहीं होंगे।
रवीश कुमार, जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।