बैंकों के बेचने का समर्थन बैंकों के भीतर भी खूब है, बेचने वाला ही उनका नेता है!

बार बार कहा गया कि दस लाख कर्मचारी निजीकरण के ख़िलाफ़ हड़ताल कर रहे हैं। बैंककर्मी कहने लगे कि मीडिया नहीं दिखा रहा है। इस कार्यक्रम में भी इस दस लाख की संख्या पर मैं टिप्पणी कर रहा हूँ कि इसका कोई महत्व नहीं रहा, लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि बैंक वाले भी मुझे सही साबित कर देंगे। उन्हें पता था कि हड़ताल की रात अगर कहीं कवरेज हुआ होगा तो प्राइम टाइम में हुआ होगा। आप भी देखिएगा कि इस शो को बैंक वाले कितने देखते हैं। अगर इसका जवाब जानना है तो आप कम से कम ये शो देखिए।

मैं प्राइम टाइम में कह रहा हूँ कि व्हाट्स एप ग्रुप की सांप्रदायिक बातों और उनके प्रति राजनीतिक निष्ठा से बड़ा इनके लिए कोई सवाल नहीं है। सांप्रदायिकता ने इनकी नागरिकता ख़त्म कर दी है। आप किसी बैंक कर्मी को नेहरू मुसलमान हैं वाला पोस्ट दिखा दीजिए मुमकिन है वह निजीकरण का ग़ुस्सा भूल जाएगा। बेशक सारे लोग इस तरह के नहीं हैं लेकिन आप दावे से नहीं कह सकते कि ऐसी सोच के ज़्यादातर लोग नहीं है। मैंने प्राइम टाइम में एक सवाल किया कि बैंक अफ़सरों के व्हाट्स एप ग्रुप में किसानों के आंदोलन को क्या कहा जाता था। आतंकवादी या देशभक्त? किसी बैंक वाले को मेरी बात इतनी भी बुरी नहीं लगी कि कोई जवाब देता। तो क्या मैं मान लूँ कि उनके अफ़सरों के व्हाट्स एप ग्रुप में वाक़ई किसानों को आतंकवादी कहा जाता था?

बैंक के ही कुछ लोग बता रहे हैं कि उन व्हाट्स एप ग्रुप में इतना हिन्दू मुस्लिम है कि आपके शो का लिंक तक शेयर नहीं करते हैं। देखने की बात तो दूर। इन ग्रुप में मुझसे इतनी दूरी बनाई जाती है। हैं न कमाल। और हमीं से उम्मीद कि बैंक की हड़ताल कवर नहीं कर रहे हैं। मुझे इसका कोई दुख नहीं है। बस मुझे ख़ुशी इस बात की होती है कि मैंने सही पकड़ा। यह बात जानते हुए मैंने कल प्राइम टाइम में बैंकों की हड़ताल को कवर किया। मुझे पता था कि जिस ग्रुप में हिन्दू मुसलमान कर लोग सांप्रदायिक हुए हैं वहाँ मेरी बात उन्हें चुभेगी। सबको चुभती है। सांप्रदायिकता नागरिकता निगल जाती है। ये लाइन तो शो में कही है। आज अगर बैंकों के भीतर रायशुमारी कर लीजिए तो ज़्यादातर नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़े होंगे। जबकि वे विरोध बैंक बेचने का कर रहे हैं। ज़रूर एक बैंक अधिकारी ने लिखा है कि ऐसा करने वाले लोग हैं मगर सभी ऐसे नहीं हैं। ऐसे लोगों की संख्या एक प्रतिशत है।

फिर भी बैंक वालों को एक सलाह है। जब भी आंदोलन करें तो दस पेज का डिटेल में प्रेस नोट बनाए। उसमें सारी बातें विस्तार से लिखें। उदाहरण दें कि क्यों उनके अनुसार बैंकों को बर्बाद किया गया है। क्यों निजीकरण का फ़ैसला ग़लत है? जो प्रेस नोट मिलता है उसमें कुछ ख़ास होता नहीं है। कम से कम दस पेज का प्रेस नोट ऐसा हो जिसे पढ़ कर लगे कि बैंक के लोगों ने भीतर की बात बता दी है। कोई भी पत्रकार भले कवर न करे लेकिन कुछ जानने का तो मौक़ा मिलेगा। अब अलग अलग विषयों के लिए पत्रकार नहीं होते हैं। वो सिस्टम ख़त्म हो गया है। जो प्रेस नोट मिले वो बेकार थे। सिर्फ़ यही कहते रहें कि सरकार बैंक बेच रही है। ग़लत कर रही है। हड़ताल केवल एक तस्वीर बन कर रह जाएगी जिसका कोई अर्थ नहीं होगा। इन्हीं सब आलस्य को देख कर मैं कहता हूँ आंदोलन में ईमानदारी नहीं है। किसानों के आंदोलन में ईमानदारी थी तो उन्हें हर बात और एक एक बात को लिख कर बताया. बार बार बताया कि क्यों विरोध कर रहे हैं।


रवीश कुमार, जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

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