‘क़िस्सा रामदेव’ उर्फ़ दि ग्रेट इंडियन आयुर्वेद रॉबरी!

आम इंसान का ध्यान भटका कर उनके कीमती चीजों पर हाथ साफ़ करने वाले ‘ठक-ठक गैंग’ पहले केवल दिल्ली की सडकों पर ही पाए जाते थे पर पिछले सात वर्षों से यह गैंग पूरे देश में सक्रिय हो चुका है. इनकी नीति गैंग के मूलभूत कार्यप्रणाली यानी ‘ध्यान भटकाओ / लूट ले जाओ’ की नीति पर आधारित है. जनता का ध्यान कभी सर्जिकल स्ट्राइक तो कभी गणेश की प्लास्टिक सर्जरी की बात बोलकर भटकाया जाता है. आम नागरिक जब इन बेतुकी बातों पर उलझा रहता है ठीक उसी समय देशभर के एयरपोर्ट, खदान, बैंक, और अन्य PSUs किसी अदानी-अम्बानियों को औने-पौने में बेच दिया जाता है. 26 फ़रवरी 2019 के दिन बालाकोट स्ट्राइक होता है और इसी दिन गौतम अडाणी को देश के पांच एयरपोर्ट औने-पौने में दे दिए जाते हैं. कोरोना लॉक-डाउन के दौरान देश के अनाज को धन्ना सेठों की तिजोरियों में भरने के लिए कृषि कानून पास होता है. फेहरिस्त लम्बी है. जब तक आम नागरिक को इस बात का पता चलता है कि सरकारी बैंक, एयरपोर्ट, PSUs बिक चुकें हैं पर तबतक बहुत देर हो चुकी होती है.

आजकल यह गिरोह आपके सामान को नहीं बल्कि आपके हजारों वर्षों के ज्ञान को लेकर उड़ने की योजना पर काम कर रहा है. इस बार काम रामदेव के नेतृत्व में किया जा रहा है. रामदेव ने ‘ठक-ठक गैंग’ के सिद्धान्तों पर अमल करते हुए एक दिन एलोपैथी पर उल-जलूल बोल दिया. देखते ही देखते एलोपैथी डाक्टर से लेकर नागरिक समाज रामदेव के झांसे में आ गया. टीवी से लेकर सोशल-साइट पर डिबेट पर डिबेट होने लगी कि रामदेव ने सही कहा या गलत. अपने मकसद के पहले चरण के बाद रामदेव ने अपना दूसरा तीर छोड़ा कि,“ किसी का बाप मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकता!”

फिर क्या था, इसके बाद तो और किसी टॉपिक पर बात करना ही बेकार था. नागरिक समाज अब इसी बात पर सर खपा रहा था कि रामदेव ने जो कहा वह कितना उचित है, अनुचित है वगैरह.

यही वह समय था जब रामदेव ने हजारों वर्षों पुरानी एक चिकित्सा के तरीके पर एकाधिकार कर लिया. आयुर्वेद और रामदेव पर्यायवाची हो गए. आयुर्वेद अब रामदेव का था.

आयुर्वेद पर अपने मोनोपोली ज़माने के इरादे पर रामदेव पिछले कई दशकों से काम कर रहा है. रामदेव योगासन सिखाता है. उसका नाम आयुर्वेद के साथ जोड़ना उतनी ही बड़ी बेवकूफी होगी जितना किसी PT टीचर को एक डाक्टर मान लेना. आज से कुछ एक दशक पहले अगर रामदेव ऐसा दावा करता तो शायद शायद लोग उसपर हँसते, पर आज परिस्थितियां बदल चुकी है.

मगर यह भी सही है कि इतने बड़े सफल डाके के लिए अकेले एक रामदेव क्रेडिट देना खुद रामदेव पर ज्यादती हो जाएगी. इस डाके में हमारे नागरिक समाज का उसे जबरदस्त समर्थन मिलता आ रहा है. कहानी को शुरू से देखा जाय यानी एकदम फ्लेशबैक करके.

 

हड़प्पा से शिवपालगंज

किसी भी मानव सभ्यता के पनपने और विकसित होने के में उसके health infrastructure या चिकित्सा शास्त्र का विकास भी बहुत जरूरी है. हर सभ्यता के तरह भारतीय उपमहाद्वीप में भी यही हुआ. बेशक हमें सिन्धु सभ्यता जैसे हड़प्पा-मोहनजोदाड़ो-लोथल में चिकित्सा शास्त्र से जुड़े किसी विशेष साक्ष्य के बारे में ख़ास जानकारी नहीं मिली है पर यह कहना भी निहायत बेतुका होगा कि सिन्धु सभ्यता में चिकित्सा व्यवस्था थी ही नहीं. दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा नहीं था कि सिन्धु सभ्यता में रोग होते ही लोग टप्प से मर जाते थे. अगर ऐसा होता तो सिन्धु सभ्यता की दूकान कब की बंद हो चुकी होती.

एक डिसिप्लिन के रूप में चिकित्सा शास्त्र विकसित होता रहा क्योंकि समाज के लिए चिकित्सा, कृषि के बाद शायद सबसे अहम् चीज है. कालांतर में आर्यों के जमाने में आयुर्वेद ने एक मुख्तलिफ डिसिप्लिन के रूप में अपने को स्थापित किया और बाद में मध्य एशिया से आये लोग अपने साथ अपनी चिकित्सा पद्धति लेकर आये जिसे बाद में यूनानी का नाम दिया गया. आयुर्वेद या यूनानी जैसे organised चिकित्सा पद्धति के अलावा भी झाड़-फूंक,ओझा-गुनीन जैसे animist चिकित्सा पद्धतियां भी प्रचलन में थीं, बेशक उनका प्रचलन ‘मुख्यधारा के जनजीवन में कम और हाशिये पर रहने वाली आबादी में ज्यादा थी. कुल लब्बोलुआब ये है कि एक भौगोलिक स्थान एक देश/देशों के समूह के रूप में भारतीय प्रायद्वीप में किसी भी अन्य देश की ही तरह एक से अधिक चिकित्सा पद्धतियाँ साथ-साथ विकसित होती रहीं. सभी के अपने अपने ‘clientele’ थे . इस बात पर जोर इसलिए दिया जा रहा है कि पूरा चित्र बहुत ही जल्द बदलने वाला था.

अंग्रेजों के आने के बाद पूरा मंजर बहुत तेजी से बदलने लगा. अंग्रेजों ने भारत को न केवल अपना आर्थिक उपनिवेश बनाया बल्कि यहाँ के इतिहास के साथ फुल्टू खिलवाड़ करते हुए लोगों की सोच को कुंद करना शुरू किया और गाहे-बगाहे यह सिद्ध कर दिया कि अंग्रेजों के आने के बाद ही भारत /भारतीय समाज का विकास शुरू हुआ. केवल यही नहीं उन्होंने कहा और हमने मानना भी शुरू कर दिया कि अंग्रेजों की चिकित्सा पद्धति एलोपैथी ही एकमात्र चिकित्सा पद्धति है. बाकी सब बकवास हैं, फिर वह आयुर्वेद हो या यूनानी या और कुछ. इस दौरान एक हद तक होम्योपैथी को प्रतिष्ठा मिली। शायद इसलिए कि एलोपैथी की ही तरह इस चिकित्सा पद्धति को भी अंग्रेजों (यूरोपियों ) ने introduce किया और इसकी जन्मभूमि भी यूरोप (जर्मनी) है. बेशक उन दिनों ‘सारे जहां से अच्छा’ में सब कुछ अच्छा नहीं था. ज्यादातर चीजें बुरी थीं. समाज में एक बड़ा हिस्सा अछूत माना जाता था. महिलाओं की स्थिति बहुत ही ज्यादा खराब थी पर यह कहना भी बेवकूफी होगी कि एलोपैथी से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में कोई चिकित्सा पद्धति थी ही नहीं.

अक्सर यह कहा जाता है कि एलोपैथी एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है जबकि आयुर्वेद या यूनानी अवैज्ञानिक है. क्या एलोपैथी एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है? एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति होती क्या है आखिर? किसी ‘बिदवान’ से पूछिए तो पता चलेगा कि वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति वह चिकित्सा पद्धति है जो empirical या प्रयोगों और व्याहारिक अनुभवों पर आधारित हैं. यानी इस चिकित्सा पद्धति में कार्य-कारण सम्बन्ध स्पष्ट होते हैं. जैसे केवल एलोपैथी की मदद से हम जान पाए हैं कि एक ख़ास विषाणु के चलते COVID-19 रोग होता है. हर रोग किसी न किसी ख़ास रोगाणु (जीवाणु, विषाणु) की वजह से होता है और उसी अनुसार दवाओं का विकास भी किया जाता है.

मुश्किल यह है कि इस परिभाषा से चलें तो एलोपैथी के पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धति होने पर सवाल उठ जायेंगे. कई बार इस पैथी को हम कसौटी से दूर खड़ा देखते हैं। इस पैमाने से तो एडवर्ड जेनर द्वारा विक्सित चेचक के टीके को नहीं अपनाया जाना चाहिए था क्योंकि डाक्टर जेनर को यह तो पता था उनके टीके से रोगी ठीक हो रहे हैं, पर उन्हें यह नहीं पता था की रोग की असल वजह विषाणु हैं. विषाणुओं या वायरस से तबतक दुनिया अनजान थी. एडवर्ड जेनर की मौत (1823) के लगभग छः दशक बाद दमित्री इवानोव्सकी ने 1892 में वायरस की खोज की. कुछ इसी तरह विलियम हार्वे ( 1578-1657) ने पहली बार शवों की चीर-फाड़ कर करके शरीर के विभिन्न अंगों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की शुरुआत की, जो लिओनार्दो डी विन्ची से होती हुई anatomy की शाखा बनी. विलियम हार्वे ने पता लगाया कि हृदय दरअसल एक पम्प है. यानी जिन तर्कों से एलोपैथी को एकमात्र चिकित्सा पद्धति के रूप में पेश किया जा रहा है इनमें से ज्यादातर तर्क खुद एलोपैथी पर लागू नहीं होते.

वैसे, लड़ाई अगर यहीं तक सीमित रहती तब भी एक बात थी. अंग्रेज और उसके दलाल उससे भी आगे निकल गए. अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास, आर्किटेक्चर,खान-पान को हिन्दू मुस्लिम में बाँट दिया और अंग्रेजों के दलालों ने चिकित्सा पद्धतियों को हिन्दू-मुसलमान में. नयी परिभाषा के अनुसार अब आयुर्वेद हिन्दू चिकित्सा पद्धति थी और यूनानी अब मुसलमान चिकित्सा पद्धति हो गयी थी. हाँ एलोपैथी/होमियोपैथी क्रिश्चियन नहीं बल्कि यूरोपीय चिकित्सा पद्धति थी.

इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि अगस्त की एक रात हम स्वाधीन हो गये.

‘स्वाधीनता’ के बाद ‘हिन्दुओं’ को अपना देश मिला और ‘देश-के-साथ-चिकित्सा-पद्धति-फ्री’ के ऑफर में हिन्दुस्तान के साथ हमें हिन्दू चिकित्सा पद्धति या आयुर्वेद भी मिल गया. इसका परिणाम वही हुआ जो होना था. तक्षशिला अब पाकिस्तानी इमारत बन चुकी थी. यूनानी अब एक चिकित्सा पद्धति नहीं बल्कि ‘मरदाना-कमजोरी’ के इलाज, बवासीर और शरबत बनाने के नुस्खे तक सीमित कर दी गयी थी. अब हमारे हिन्दुस्तान में चिकित्सा के नाम पर जो कुछ भी था वह या तो ‘यूरोपीय’ एलोपैथी/होमियोपैथी था या ‘हिन्दू’ आयुर्वेद.

जल्द ही आयुर्वेद की हालत भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद के बहादुरशाह जफ़र जैसी होकर रह गयी। उसका ‘शासन’ सर्दी-खांसी के घरेलू नुस्खों, दन्त-मंजन, दर्द का तेल, सर की मालिश के तेल तक सीमित रह गया. बहरहाल, ज्यादातर गाँव आज भी एक हद तक आयुर्वेद के भरोसे टिके हैं या कहा जा सकता है की आयुर्वेद अब गाँव के भरोसे टिका है. हमें किसी बैद जी का किरदार ‘राग-दरबारी’ के शिवपालगंज में भी मिल जाता है.

 

‘बाबा’ का तिलिस्म

‘अवैज्ञानिक’ आयुर्वेद को परे हटा कर एलोपैथी ने जल्द ही पूरे देश में एकाधिपत्य कायम कर लिया. एक दिन ऐसा आया जब एलोपैथी को एकमात्र चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकृति मिल गयी. इसमें कोई बुराई भी नहीं थी सिवाय इसके कि यह एक तरीके का विपक्षहीन ‘One-party-rule’ था. पिछले सात वर्षों से हम विपक्षहीन ‘One-party-rule’ का मजा लूट ही रहे हैं.

सरकार ने स्वाधीनता के बाद के दशकों में अपने स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के नाम पर केवल और केवल एलोपैथी पर जोर दिया. बात अब भी ख़ास नहीं बिगड़ी थी. सरकार या Public-money की मदद से चलने वाले जन-स्वास्थ्य में कमियाँ थीं पर गुलामी के दौर के public-health की तुलना में यह बहुत ही ज्यादा efficient था और इसका सीधा नतीजा यह निकला कि कुछेक दशकों में ही देश के नागरिकों के औसत आयु में काफी इजाफा हुआ.

सन नब्बे से हालत बदलने लगे. हम अपने public-health infrasturcture को ईंट दर ईंट तबाह करने लगे और देखते ही देखते सरकारी स्वास्थ्य सेवा खंडहर में तब्दील हो गयी. प्राइवेट अस्पताल अब लूटने के लिए पूरी तरह आजाद थे. मध्यम वर्ग इस कॉर्पोरेट स्वास्थ्य सेवा की चमक–दमक और ‘health-insurance’ के नशे में मदहोश था. मैक्स,फोर्टिस, एदानता-मेदानता, अपोलो अब उसके पसंदीदा अस्पताल थे.

यही यह वक्त था जब रामदेव का आगमन होता है जो लोगों को पहले कहता है की योग करो, शरीर को स्वस्थ रखो. जाहिर है इसमें बुरा कुछ नहीं है. योग को एक नयी पहचान मिलती है और साथ ही साथ इसकी खोयी हुई प्रतिष्ठा मिलती है पर रामदेव एक चतुर व्यवसायी की तरह इस नये विशाल बाजार को भांप लेता है और कल तक योग सिखा कर शरीर को स्वस्थ रखने के अपने फार्मूले में धीरे से लौकी-करेले-जामुन के रस को जोड़ देता है. यह कुछ इतना ही मासूम है जैसे कोई PT टीचर मोच-कटने-छिलने की दवा और मरहमपट्टी की दूकान डाल ले.

रामदेव के बिजनेस मॉडल का कमाल यह था कि उसने योग+सन्यासी का भेष+ करेले, जामुन के रस का ऐसा कॉकटेल बनाया जिसके आगे सबको फेल होना ही था. आयुर्वेदिक दवा तो डाबर, वैद्यनाथ, गुरुकुल कांगड़ी और ऐसे ही कई कम्पनियां जाने कब से बना रही हैं. पर उनमे वह कॉकटेल नहीं था. रामदेव की यह बड़ी सोची-समझी नीति थी क्योंकि उसे पता था कि ‘बाबाओं’ और ‘अम्माओं’ के लिए भारत हमेशा से ही ‘सुजलाम-सुफलाम’ रहा है. रामदेव को पहले ‘बाबा’ फिर ‘स्वामी’ बनते देर नहीं लगी. तब तक उसके पीछे भक्तों की भारी भीड़ इकठ्ठी हो चुकी थी. रामदेव की नजर अब आयुर्वैदिक दवाओं के विशाल बाजार पर टिक जाती है. उसने एक ओर सरकारी समर्थन से जमीने हथियायीं और दूसरी ओर ‘देश-प्रेम’ के तड़के के साथ अपने लौकी-करेले-जामुन के रस को बाजार में उतारा और जल्द ही एक विशाल बिजनेस अम्पायर खड़ा कर लेता है जो अब आयुर्वेद की दवा से लेकर नूडल्स तक बेच रहा था.

इसके बाद महामारी फैलती है जो दवाओं का इतना बड़ा बाजार बनाती है जिसके बारे में सपने में भी कोई सोच सकता था ( या शायद केवल सपने में ही सोच सकता था!). इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की 26 मई 2021 की रिपोर्ट बता रही है कि अगले अगले दशक तक देश फार्मा उद्योग के तीन गुना वृद्धि की सम्भावना है. रिपोर्ट आगे बता रही है कि सन 2021 में देश का दवा बाजार 41 बिलियन डालर ( लगभग 30,000 करोड़ रुपये) का है जिसके 2030 तक बढ़ कर 120-130 बिलियन डालर (लगभग 94,000 करोड़ रुपये) तक पहुँचने का अनुमान है. ध्यान रहे यह पूरा बाजार केवल और केवल एलोपैथी दवाओं का है. रामदेव ने बहुत पहले ही भांप लिया कि केवल आयुर्वेद पर मोनोपोली कब्ज़ा कर के इस अरबों-खरबों के बाजार में सेंध लगाया जा सकता है. देखते ही देखते वह महामारी के आयुर्वैदिक विकल्प ‘कोरोनिल’ को बाजार में उतारता है. रामदेव की खूबी यह भी है कि एक ओर बात कोरोनिल की करता है ,एलोपैथी को गरियाता है पर अपने साथी ‘आचार्य’ बालकृष्ण को इलाज के लिए AIIMS भेजता है.

उधर श्रेष्ठता के नशे में चूर एलोपैथी के डाक्टर रामदेव की इस चाल को समझ नहीं पाते और उसके हर उलटे-सीधे बयान में वह अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं. रामदेव को यही तो चाहिए क्योंकि डाक्टरों की हर प्रतिक्रिया रामदेव और आयुर्वेद को समानार्थी बनाती चलती है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए की अब यह नारा दिया जाने लगा है कि ‘बाबा रामदेव की आलोचना करना आयुर्वेद की आलोचना करना है!’
तय है कि एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की इस लड़ाई में हार केवल आम नागरिकों की होगी.

 

आरोग्य-निकेतन

ताराशंकर बंदोपाध्याय के उपन्यास ‘आरोग्य-निकेतन’ की थीम इसी एलोपैथी बनाम आयुर्वेद पर आधारित है. इस उपन्यास में एक कविराज (बांगला में वैद्य को कविराज बोलते हैं) की कहानी है जिसका बेटा शहर में जाकर एलोपैथी पढ़ना चाहता है. जाहिर है कविराज पिता को यह नहीं पसंद कि बेटा एलोपैथी पढ़े. बाप-बेटे के बीच विवाद इतना बढ़ जाता है कि बेटा घर छोड़ कर शहर आ जाता है . अपनी पढ़ाई के बाद वह अपने गाँव लौट कर प्रेक्टिस शुरू करता है. बाप-बेटा एक गाँव में रहते हुए भी एक दूसरे से बात नहीं करते. एक बार गाँव, हैजे के महामारी की चपेट में आता है.

लोगों की भीड़ वैद्य (पिता) को छोड़ कर एलोपैथी डाक्टर ( बेटे) के पास जा रही है क्योंकि आयुर्वैदिक पद्धति के पास हैजे की कोई कारगर दवा नहीं है और जो दवा है वह बहुत धीरे-धीरे असर करती है और अक्सर लोग मर जाते हैं. दूसरी और एलोपैथी तब तक एंटीबायोटिक का आविष्कार हो चुकी है जिससे जल्द ही मरीज ठीक हो जा रहे हैं.

एक दिन एक रोगी का इलाज करते हुए बेटे को लगता है कि एक मरीज को एंटीबायोटिक दिये बिना बचाया नहीं जा सकेगा पर वह असमंजस में है क्योंकि एंटीबायोटिक का असर तीन दिन के बाद शुरू होगा और तीन दिन तक मरीज जिन्दा रहेगा या नहीं यह कहना मुश्किल है. ऐसे में वह अपने पिता के पास मदद मांगने जाता है क्योंकि उसे पता है कविराज रोगी की नाड़ी देखकर यह बता देते हैं कि रोगी और कितने दिन जियेगा. बंगाल में इस ‘निदेन’ कहते हैं. पिता आते हैं और उस मरीज की नाड़ी देखकर बेटे को कहते हैं कि मरीज तीन दिन तक आसानी से जी जायेगा. इसके बाद बेटा बेझिझक मरीज को एंटीबायोटिक देता है और उसकी जान बच जाती है.

अपने इस उपन्यास में ताराशंकर केवल एक कहानी ही नहीं सुनाते बल्कि भारत जैसे एक गरीब देश के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एक मॉडल भी प्रस्तुत करते हैं जो मुख्तलिफ़  चिकित्सा पद्धतियों के बीच दुश्मनी को नकार कर उनके बीच आपसी-सहयोग पर टिका होगा. जहां चिकित्सा पद्धतियां एक दूसरे की कमियों को पूरा करते हुए नागरिकों के लिए एक सुलभ चिकित्सा व्यवस्था का निर्माण करेंगी.

देखना है कि हमारे नीति निर्माताओं को कब यह बात समझ में आती है.

 

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और कार्टूनिस्ट हैं।

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