रामनरेश राम: पुलिस फ़ाइलों में मृत पर जनता के दिलों में अमर स्वाधीनता सेनानी विधायक!

जातीय समीकरण की राजनीति की आड़ में भूस्वामियों, पूंजीपतियों, दबंगों और अपराधियों का हित साधने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए रामनरेश राम हमेशा एक चुनौती बने रहे। जब वह अपार जनसमर्थन से विधायक बने तो सत्ता ने उन्हें भूमिगत जमाने से भी ज्यादा खतरनाक समझा। कांग्रेसी राज के पुलिस रिकार्ड में वह मृत घोषित किए जा चुके थे। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने उन पर लादे गए सारे फर्जी मुकदमों को खत्म करने का ऐलान किया था। लेकिन लालू-राबड़ी राज में भी वे मुकदमे खत्म नहीं किए गए, बल्कि नए-नए फर्जी मुकदमे लाद दिए गए। ऐसा ही एक मुकदमा नीतीश राज में उनके निधन तक कायम रहा, जबकि पुलिस द्वारा उन्हें उग्रवादी कहे जाने के खिलाफ पूरा विपक्ष उबल पड़ा था।

दसवें स्मृति दिवस पर विशेष–

सन् 1924 में सहार प्रखण्ड के एकवारी गाँव में एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मे कामरेड रामनरेश राम 18-19 साल की उम्र में ही 1942 के आन्दोलन में शामिल हो गए थे। भगतसिंह और उनके साथियों के इंकलाबी विचारों और स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नेतृत्व में चले किसान आन्दोलन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। 1947 में जो आजादी मिली, उससे बहुत सारे क्रान्तिकारियों की तरह वह सन्तुष्ट नहीं थे। उन्हें लग रहा था कि आजादी की घोषणा तो हो गई है, पर यह जमींदार और पूंजीपतियों की ही आजादी है, व्यवस्था के जनविरोधी स्वरूप में कोई बदलाव नहीं आया है।

आज़ादी के तुरंत बाद एक ओर कांग्रेसी सत्ता की बंदरबाट में लग गये हुए थे, तो दूसरी ओर तेलंगाना किसान विद्रोह हो रहा था। रामनरेश राम तेलंगाना किसान आन्दोलन के समर्थन में और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के फाँसी के खिलाफ कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हुए और देश के करोड़ों शोषित-वंचित-मेहनतकश लोगों के लिए असली आजादी और वास्तविक लोकतंत्र की लड़ाई में आगे बढ़ चले। जनकवि रमाकांत द्विवेदी रमता समेत उस दौर के कई ईमानदार स्वाधीनता सेनानी उनके साथ थे। जब कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित थी, तब रामनरेश राम उसमें शामिल हुए और शाहाबाद जिला कमेटी के सदस्य बनाए गए। उन्हें किसान सभा की जिम्मेवारी मिली। 1954 में उन्होंने सोन नहर में पटवन का टैक्स बढ़ा देने के खिलाफ जबर्दस्त आन्दोलन संगठित किया।

उनके लिए राजनीति जनता के संसाधनों को लूटकर घर भरने का माध्यम नहीं थी। उन्होंने गरीब-मेहनतकश लोगों की आजादी और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए राजनीति की और उसमें अपना पूरा जीवन लगा दिया। जनता के बुनियादी संघर्षों से वह कभी अलग नहीं हुए। उनकी राजनीति की दिशा गरीब, भूमिहीन खेत मजदूर और मेहनतकश किसानों के बुनियादी जनसंघर्षों के अनुसार तय होती रही। 1965 में वह भूस्वामियों के विरोध और साजिशों को धता बताते हुए एक बड़ी जनवादी गोलबन्दी के जरिये एकवारी पंचायत के मुखिया बने। भारत के नये लोकतंत्र का हाल यह था कि उनका मुखिया बनना भूस्वामी बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे। जब 1967 में उन्होंने सीपीएम के उम्मीदवार के बतौर सहार विधानसभा का चुनाव लड़ा तो उन्होंने उनके चुनाव एजेंट जगदीश मास्टर पर जानलेवा हमला किया। तब तक नक्सलबाड़ी विद्रोह हो चुका था। चारु मजुमदार के नेतृत्व में भाकपा (माले) का निर्माण हो चुका था। लेकिन पश्चिम बंगाल में भीषण दमन और बिखराव के कारण पार्टी धक्के का शिकार थी, लेकिन जैसे ही उस विद्रोह की चिंगारी एकवारी पहुंची तो एक शक्तिशाली सामंतवाद विरोधी आंदोलन फूट पड़ा। 1974 में पार्टी का पुनर्गठन हुआ। 1975 तक जगदीश मास्टर, रामेश्वर यादव, शीला, अग्नि, लहरी, बूटन मुसहर और भाकपा (माले) के दूसरे महासचिव सुब्रत दत्त भी शहीद हो गए। रामनरेश राम को पुलिस सूँघती फिरती रही और हर मुठभेड़ के बाद उनकी मौत की खामख्याली पालती रही। लेकिन भूमिगत स्थिति में ही भाकपा (माले) को व्यापक जनाधार वाली पार्टी बनाने का उनका अभियान जारी रहा। उन्हीं के नेतृत्व में माले ने खुले मोर्चे आईपीएफ के जरिये चुनाव में शिरकत की शुरुआत की। उस वक्त उन्होंने कम्युनिस्टों की चुनाव में भागीदारी के सवाल पर एक पुस्तिका भी लिखी। इसके पहले ‘भोजपुर के समतल की लड़ाई’ नाम की एक पुस्तिका भी उन्होंने लिखी थी।

वह हमेशा संघर्ष के सारे रूपों को मिलाते हुए जनता के संघर्ष को संचालित करते रहे। उनकी राजनीति कभी भी हथियारों या धन की आश्रित नहीं रही, हमेशा उसके केन्द्र में जनता और उसकी पहलकदमी रही। जातीय दायरे को तोड़ते हुए उन्होंने गरीबों, खेत मजदूरों, किसानों, नौजवानों और लोकतंत्रपसंद-न्यायपसंद लोगों का एक व्यापक मोर्चा बनाने की कोशिश की। उन्होंने दलित परिवार में जन्म लिया, पर कभी भी दलित-पिछड़ों के नाम पर शासकवर्ग द्वारा संचालित जातिवादी राजनीतिक धाराओं के साथ नहीं गये। उन्होंने जीवन में वर्ग-संघर्ष की राह पकड़ी और हमेशा उस पर कायम रहे। उन्होंने अपने संघर्षों के जरिये बताया कि दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक लोगों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-संघर्ष के ही रास्ते संभव है, उसी के भीतर से निकलकर कुछ लोगों के शासकवर्ग में शामिल हो जाने से मुक्ति सम्भव नहीं है।

उन्होंने चुनाव को वर्ग-संघर्ष के तौर पर ही लिया। जब 1995 में वह सहार से चुनाव जीत गए और 1967 के विधान सभा चुनाव के बाद 28 वर्षों तक एक लंबा संघर्ष चलाते हुए गरीब-मेहनतकश किसान-मजदूर जनता और शोषित-दलित-वंचित-अल्पसंख्यक समुदायों, सामंती सामाजिक ढांचे के खिलाफ सम्मान, बराबरी और आजादी के लिए संघर्ष कर रही स्त्रियों, ख़ासकर मेहनतकश महिलाओं के प्रतिनिधि के रूप में बिहार विधानसभा में प्रवेश किया, तब प्रतिक्रिया में शासकवर्ग ने अपने संरक्षण में रणवीर सेना को जन्म दिया। उस वक्त भी अपने अनुभवों को आधार पर उन्होंने कहा कि यह सेना किसी जाति का भी भला नहीं कर सकती, बल्कि जिस जाति के नाम पर बनी है, उसके लिए ही भस्मासुर हो जाएगी। रणवीर सेना ने महिलाओं, बच्चों और वृद्धों तक की हत्या की और भाकपा (माले) को खत्म करने की कोशिश की। लेकिन उनके कुशल राजनीतिक निर्देशन में जो चौतरफा लड़ाई लड़ी गई उससे न केवल रणवीर सेना खत्म हुई, बल्कि जिस जाति के नाम पर वह सेना बनी थी, उससे भी वह अलगाव में पड़ गई।

जातीय समीकरण की राजनीति की आड़ में भूस्वामियों, पूंजीपतियों, दबंगों और अपराधियों का हित साधने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए रामनरेश राम हमेशा एक चुनौती बने रहे। जब वह अपार जनसमर्थन से विधायक बने तो सत्ता ने उन्हें भूमिगत जमाने से भी ज्यादा खतरनाक समझा। कांग्रेसी राज के पुलिस रिकार्ड में वह मृत घोषित किए जा चुके थे। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने उन पर लादे गए सारे फर्जी मुकदमों को खत्म करने का ऐलान किया था। लेकिन लालू-राबड़ी राज में भी वे मुकदमे खत्म नहीं किए गए, बल्कि नए-नए फर्जी मुकदमे लाद दिए गए। ऐसा ही एक मुकदमा नीतीश राज में उनके निधन तक कायम रहा, जबकि पुलिस द्वारा उन्हें उग्रवादी कहे जाने के खिलाफ पूरा विपक्ष उबल पड़ा था। पुलिस ने उन्हें कई बार गिरफ्तार करने की कोशिश की, पर वह कभी उनके हाथ नहीं आये। जैसा माओ ने कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के बारे में कहा था कि जनता के साथ उनका रिश्ता पानी और मछली की तरह होना चाहिए, तो वैसा ही रिश्ता रामनरेश राम का भोजपुर की जनता के साथ था। इसी गहरे जुड़ाव के कारण ही उनके खिलाफ की जाने वाली सत्ता और प्रशासन की साजिशें कभी सफल नहीं हो पाईं।

जनता के व्यापक लोकतांत्रिक मुद्दों पर उनके नेतृत्व में भाकपा (माले) ने हमेशा हस्तक्षेप किया। यहाँ तक कि जब आपातकाल में दूसरी पार्टियों के नेता दमन और गिरफ्तारी से बचने के लिए नेपाल की ओर रुख कर रहे थे, तब सर पर भारी ईनाम के बावजूद वह भोजपुर के गाँवों में थे और आपातकाल के खिलाफ उनके साथी गाँव-गाँव पोस्टर लगा रहे थे। कार्यकर्ता बताते हैं कि उन्होंने शिक्षा और वैचारिक अध्ययन पर भी हमेशा जोर दिया। चुने हुए जनप्रतिनिधि के तौर पर उन्होंने जो भूमिका निभाई, वह किसी भी ईमानदार और जनपक्षधर जनप्रतिनिधि के लिए प्रेरणास्रोत का काम करेगा। आज जबकि मुखिया तक के चुनाव में लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं, तब भी उनके नेतृत्व में एक मुखिया से भी कम खर्च में उनकी पार्टी माले पूरे जिले में विधान सभा या लोकसभा का चुनाव लड़ती रही। जनता का मुखिया या जनता का विधायक कैसा होना चाहिए, वह इसके मिसाल थे। विकास योजनाओं में पारदर्शिता और उस पर जन-नियंत्रण की परम्परा वह हमें दे गए हैं।

1995 से 2010 तक वे लगातार सहार विधान सभा क्षेत्र से विधायक रहे। उन पर कमीशनखोरी या फण्ड के गबन का आरोप कभी नहीं लगा। उन्होंने सहार विधानसभा के प्रत्येक गरीब टोलों में सामुदायिक भवन और चबुतरे बनवाये। शायद इसके पीछे भी उनकी मंशा सामुदायिकता को मजबूत करने की ही थी। अनेक ऐसे गाँव जो मुख्य सड़कों से कटे हुए थे, उनको मुख्य सड़कों से जोड़ने का काम आजादी के बाद पहली बार उन्होंने किया। विधायक होते हुए भी जनांदोलनों की राह को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। उनके नेतृत्व में सहार की जनता ने सड़क और सोन नदी में पुल को लेकर पन्द्रह दिनों तक प्रखण्ड कार्यालय पर घेरेबन्दी की थी, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने सिंचाई की व्यवस्था को दुरुस्त करने पर खास ध्यान दिया। अपने इलाके में साम्प्रदायिक सद्भावना कायम करने में भी उनकी अहम भूमिका रही। केन्द्रीय कमेटी और पोलित ब्यरो सदस्य समेत वह भाकपा (माले) की कई उच्चतर जिम्मवारियों में रहे। वह अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा के संस्थापक अध्यक्ष थे। वह माले विधायक दल के नेता भी थे।

रामनरेश राम को सदियों में हासिल जनता के सामूहिक ज्ञान और न्याय के लिए होने वाले संघर्षों और परम्पराओं के प्रति बेहद सम्मान था। उन्होंने 1942 में लसाढ़ी में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों की स्मृति में भव्य स्मारक बनवाया। कुँवर सिंह समेत 1857 के महासंग्राम के शहीदों की याद में जगदीशपुर में आयोजित ‘बलिदान को सलाम’ कार्य़क्रम के मुख्य उत्प्रेरक वही थे। भगतसिंह की जन्मशती पर आयोजित समारोह में स्वाधीनता सेनानी और भोजपुर किसान आन्दोलन के साथी जनकवि रमाकांत रमता द्विवेदी के साथ वह शामिल हुए थे। वे सर्वहारा वर्ग की दृढ़ता और उसकी परिवर्तनकारी शक्ति के प्रति आस्था के नाम हैं। भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, कृषि की बदहाली, किसानों की आत्महत्या, मजदूरों की भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी की वाहक पतनशील राजनीति के इस दौर में वह एक ऐसी क्रांतिकारी जनराजनीतिक परम्परा हमें दे गए हैं, जिस पर भोजपुर ही नहीं, पूरे देश की जनता गर्व कर सकती है और उस राह पर चलते हुए परिवर्तन और इंकलाब की उम्मीदों को नई ऊँचाई दे सकती है।

लेखक बिहार के सुपरिचित लेखक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और रंगकर्मी हैं।


 

First Published on:
Exit mobile version