आजकल हमारे देश में भारतमाता और गौमाता की खूब चर्चा है। हर किसी को अपनी जन्मभूमि प्यारी होती है। यह जीवन और परिवेश के प्रति उसके लगाव का परिचायक है। लेकिन कुछ लोग इसमें भी वर्चस्व की तलाश करते हैं। ‘सब लोग बराबरी के मनुष्य कैसे हो सकते हैं ‘ की तरह उनका मानना है सब लोग बराबरी के देशभक्त कैसे हो सकते हैं। कुछ ज्यादा देशभक्त हैं, और कुछ कम। जो अधिक देशभक्त हैं, उनका कहना है कि जो कम देशभक्त हैं, उन पर शासन करने का उन्हें अधिकार है। जैसे मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों पर काबू रखना ब्राह्मणों के अधिकार क्षेत्र में है। उनके अनुसार जो अधिक जोर से भारतमाता की जय बोलेगा वह अधिक राष्ट्रभक्त है।
भारतमाता की तरह ही गौमाता का भी एक व्योम गढ़ा गया है। सच्चाई तो यह है कि गौमाता भारतमाता से भी पुरानी अवधारणा है, जिसका सामाजिक वर्चस्ववादी इस्तेमाल करते आए हैं। द्विज वर्चस्व का हिंदुत्व गौ-भक्ति के बिना संभव ही नहीं होता। तुलसीदास ने रामराज को ‘गौ-द्विजहितकारी’ यूँ ही नहीं कहा था। गाय की पूँछ पकड़ कर केवल वैतरणी ही पार नहीं की जाती, द्विजवादी सामाजिक घेरे में भी हाजिर हुआ जाता है। इसलिए गौमाता की जय कह कर भी आप उनकी वास्तविक सोच तक पहुँच जाते है। शायद यही सब सोच कर मध्यप्रदेश की भाजपा-सरकार ने गो-कैबिनेट बनाया है। खबरों के अनुसार गोपाष्टमी यानि 22 नवंबर को इसकी पहली बैठक होगी।
विडंबना यह है कि गाय की पूजा करने वालों के घर गाय नहीं, कुत्ते पाले जाते हैं। ऐसे में मिहनतक़श आम इंसान करे तो क्या करे। कोई उसकी संवेदना समझना ही नहीं चाहता। नई राजनीति के अनुसार वह न देशभक्त है, न धार्मिक।
प्रेमचंद का एक उपन्यास है ‘गोदान’, जिसमें होरी नामक एक किसान को केंद्र में रख कर तत्कालीन भारतीय किसानों की गाथा लिखी गई है। होरी की हार्दिक आकांक्षा थी, कि उसके दरवाजे पर एक गाय हो। किसान परिवारों के लिए गाय कई रूपों में लाभप्रद होती है। प्रेमचंद के समय में उसकी महत्ता और अधिक थी। होरी के बहुत जतन से उसके घर गाय आती है, लेकिन उसके साथ ही उसके जीवन का दुःखद अध्याय भी शुरू हो जाता है। उसका भाई ही गाय को जहर दे कर मार देता है। फिर तो कथा ही कथा है।
अंततः होरी किसान से मजदूर हो जाता है। दिहाड़ी मजदूर। सड़क बन रही है और वह पत्थर तोड़ रहा है। उसे चक्कर आ जाता है और आख़िरकार वह मर जाता है। लेकिन उसके आखिरी वक्त में उसके जीवन की विविध स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर स्वप्न की तरह तैर जाती हैं। इसमें वह गाय भी आती है। प्रेमचंद के ही शब्दों में –
“उसकी आँखें बंद हो गईं और जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव हो-होकर ह्रदय पट पर आने लगीं; लेकिन बेक्रम, आगे की पीछे,पीछे की आगे स्वप्न-चित्रों की भांति बेमेल, विकृत और असम्बद्ध,वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुल्हन बनी हुई, लाल चुनरी पहने हुए उसको भोजन करा रही थी। और फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिलकुल कामधेनु सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गई और…’
कथा में यह भी है कि थोड़ी देर के लिए होरी की चेतना लौटती है। तब तक उसकी पत्नी धनिया आ चुकी होती है। वह पत्नी से कहता है – ‘मेरा कहा-सुना मुआफ करना धनिया ! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गई …”
कितना करुण दृश्य है ! आखिरी समय का वह जीवन स्वप्न ! उसका बचपन है। वह माँ की गोद में सोया हुआ है। विवाह का दृश्य। दुल्हन बनी झुनिया उसे भोजन करा रही है। और जीवन के इसी सिलसिले में गाय। जिसका दूध वह दूह रहा है अपने पोते मंगल को पिलाने के लिए। और फिर वह गाय एक देवी बन जाती है। मरते समय उसकी आखिरी चाह कि गाय की लालसा मन में ही रह गई। ओह !
क्या हिन्दुत्ववादियों की गाय और होरी की गाय में कोई अंतर्संबंध है ?
हिन्दुत्ववादियों की गाय देवी पहले है, दूध देने वाली गाय बाद में। होरी की गाय देवी नहीं है। वह लालसा है होरी के लिए। ऐसी लालसा जिसके पूरे होने की गुंजायश बहुत कम रह गई थी। लालसा का घनीभूत रूप होरी के अवचेतन में उसे देवी रूप में बदल देता है। यह एक ट्रेजेडी है। मृत्यु के समय अपनी धनिया से वह इस लालसा को कितनी पीड़ा के साथ रख रहा है ! लेकिन उसके मरते ही पुरोहित पंडित को गोदान चाहिए। यह गऊदान नहीं हुआ तो उसके नर्कवासी होने की पूरी संभावना होगी। जहाँ दुखों का एक लम्बा सिलसिला होगा। यह गऊदान पुरोहितवाद का वह पाखंड है, जो किसानों की कोमल चेतना को भुनाता है। दरअसल किसान अपनी लोकोत्तर दुनिया में भी गाय का अभिलाषी होता है। पुरोहित इसी भाव का मनोवैज्ञानिक लाभ उठाता है और बिना कोई शारीरिक काम किए यानि बैठे-बिठाए वह पेट पालता है। शोषण का यह एक ऐसा घाघ रूप है, जिस पर मार्क्सवादियों की नजर कम जाती है। पुरोहितवाद के पाखण्ड को प्रेमचंद ने बहुत बारीकी से समझा था। उनके उपन्यास ‘गोदान’ का पुरोहित दातादीन पूरे इत्मीनान से कहता है –
“तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे ज़मींदारी समझता हूँ; बंकघर। ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया तो चार-पांच सौ मार लिया। कपडे, बर्तन, भोजन अलग। कहीं न कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तो भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न ज़मींदारी में है, न साहूकारी में।”
प्रेमचंद यदि होते तो ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व के संबंधों के फलसफे को सूक्ष्मता से समझा सकते थे।
लेकिन हमारी बात गाय पर हो रही थी।
गोदान की तरह ही बंगला लेखक शरतचंद्र की एक कहानी है ‘महेश ‘। कहानी बचपन में पढ़ी थी, लेकिन इसके आरम्भ की एक पंक्ति मैं कभी नहीं भूलता। ‘छोटा सा गांव था और छोटे जमींदार, मगर दबदबा ऐसा कि प्रजा चूँ तक न करे।’ उसी गाँव के गफूर नामक एक खेतिहर मजदूर के झोपड़े में एक बछड़ा है, जिसे वह महेश कहता है। उसकी माँ संभवतः गफूर की गाय रही थी। उसकी स्मृति में उसने महेश को पाल रखा है। भीषण सूखा-अकाल पड़ा है। महेश का चारा मिल नहीं पा रहा। गाँव के हिन्दू जमींदार के बाग़ में भूखे-प्यासे बछड़े ने जाकर भूख मिटाई है और इसके लिए बीमार गफूर को बुला कर बुरी तरह पीटा गया है। बुखार से तप रहे गफूर ने बेटी अमीना से पानी माँगा है। घर में पानी नहीं है। अमीना किसी तरह कुँए से घड़ा भर पानी लाती है कि प्यासे महेश ने उसकी तरफ अपना थूथन किया और घड़ा गिर पड़ता है। फूटे घड़े से लगे पानी को महेश चाटने लगता है। घड़ा फूट जाने से अमीना चीख उठती है और उसकी आवाज सुन कर गफूर झोपड़े से बाहर आता है। गुस्से में फूटे घड़े के टुकड़े से बछड़े के सिर पर वह मार देता है। भूखा-प्यासा बछड़ा लड़खड़ा कर मर जाता है। हिन्दुओं का गाँव है। डरा हुआ मुसलमान गफूर भोर में अपनी बेटी के साथ गाँव छोड़ देता है। महेश के खूंटे पर आकर आसमान की तरफ मुँह उठा कर वह जो आर्तनाद करता है, उस से किसी का दिल हिल सकता है।
होरी और गफूर की पीड़ा में अंतर-सम्बन्ध दिखता है। गाय और बछड़े के लिए यह पीड़ा किसान-मजदूर की पीड़ा है। यह मौलवी-पुरोहित की पीड़ा नहीं है। होरी और गफूर के लिए गाय उसके जिगर का टुकड़ा है, प्राणतत्व है, कोई पाखण्ड नहीं है। गाय उनके लिए धर्म नहीं, उनके जीवन की धड़कन है। इसे शायद धर्म-व्याकुल समाज नहीं समझ सकता। गाय और भारतमाता इस धर्मव्याकुल समाज के लिए अपना वर्चस्व स्थापित करने के साधन मात्र हैं। लेकिन मिहनकश लोगों के लिए परिवेश के पशु-पक्षी और देश उसके जीवन की धड़कन हैं। गाय तो गाय, वह अपनी भेंड़ -बकरी से भी वैसा ही लगाव रखता है। चिरई-चुरमन और पेड़-पौधे तक से वह जीवंत-जुड़ाव रखता है। मौजूदा हुकूमतें ग्रीन हंट के नाम पर जिन आदिवासियों को बेरहमी से मार रही है, उनसे पूछिए कि देशभक्ति क्या होती है।
प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।