एनडीटीवी के ही अनुसार, ‘शिवपुरी और श्योपुर के बीच स्थित गांव ककरा में, जो तस्वीरें एनडीटीवी की टीम को देखने को मिली, वो कभी भी मीडिया में सामने नहीं आईं. मीडिया में बताया जा रहा है कि चीतों के आने से इलाके में कैसे बहुत बड़े बदलाव होंगे. यह बात सच भी है कि बदलाव हो सकते हैं लेकिन जैसा वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि इन बदलावों को होने में करीब 20-25 साल लग जाएंगे. ये बदलाव तब आ सकते हैं जब इन जंगलों में चीतों की बड़ी आबादी हो जाएगी और पर्यटक उन्हें देखने आएंगे।’ वन्यजीव अभय होकर विचरण करें, यह सभी चाहते हैं पर आदिवासी और जंगलों के बीच बसे लोग, भी स्वस्थ रहें और, वे भी अभय होकर विचरण करें, यह तो उससे भी अधिक ज़रूरी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि, इन खबरों के सार्वजनिक होने, और प्रधानमंत्री के उस इलाके का दौरा करने के बाद, चीजें बदलेंगी और लोगों के हालात में परिवर्तन आएगा।
चीते, भले ही हाल ही में तशरीफ़ लाये हों, और चीतोत्सव भले ही, 17 सितंबर को आयोजित किया गया हो, पर 1952 में भारत सरकार द्वारा, चीतों को विलुप्त वन्य प्रजाति घोषित करने के बाद, भारत सरकार ने प्रोजेक्ट चीता पर विचार करना शुरू कर दिया था। वन्य जीव के बारे में सबसे पहले प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के समय, साल 1972 में, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। इसके बाद एक आईएएस अधिकारी, रंजीत सिंह, ने चीतों के संदर्भ में, एक प्रोजेक्ट का विचार पेश किया। तब चीतों को, ईरान से लाने की योजना बनी।। 1973 में, भारत और ईरान के बीच एक समझौता हुआ कि, चीते ईरान से आयेंगे और ईरान को भारत से शेर भेजे जाएंगे। लेकिन, ईरान में राजनीतिक उथल पुथल और बाद में, ईरान में सत्ता परिवर्तन के बाद, यह मामला टल गया।
चीतों के लिए पहले अभ्यारण्य, गुजरात में बनना था, वहां का माहौल, चीतों के अनुकूल नहीं पाए जाने पर, मध्यप्रदेश में अभ्यारण्य बनाने की योजना बनी। रंजीत सिंह, रिटायर होने के बाद भी इस प्रोजेक्ट पर काम करते रहे और, 2008-09 में उन्होंने एक नया प्रस्ताव पेश किया। जिसके आधार पर, पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने एक कमेटी बनाई और रंजीत सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया। वहां से शुरू हुआ सिलसिला 2022 तक चला क्योंकि बीच में मामला 2019 तक सुप्रीम कोर्ट में अटक गया था।
सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई कि, अनुकूलता की दृष्टि से, अफ्रीकी चीते भारत में रह पायेंगे या नहीं, इसका अध्ययन इस प्रोजेक्ट में नहीं किया गया है। मई 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के पालपुर के कुनो अभयारण्य में अफ्रीकी चीतों को सरक्षित करने की योजना को, इस याचिका के दायर होने के बाद, इस आशंका से रोक दिया था कि, क्योंकि, वे उसी अभयारण्य में बसाए जा रहे थे, जिसे, शेरों को बसाने के लिए तैयार किया जा रहा था और शेरो को फिर से एक बार उस अभयारण्य में लाने के लिए एक समानांतर परियोजना, लंबे समय से चल रही थी। ऐसी स्थिति में एक ही अभयारण्य में, दोनो जानवरों को रखना, दोनो के ही लिए घातक हो सकता है, ऐसा वन्य जीव विशेषज्ञों का मानना था। अदालत, इस बात से भी चिंतित थी कि, जहां तक शिकार की बहुतायत का संबंध है, अफ्रीकी चीतों को उस अभयारण्य में, अनुकूल जलवायु मिलेगी या नहीं।
लंबे समय तक याचिका लंबित रहने के बाद, जनवरी, 2020 में, मुख्य न्यायाधीश शरद ए बोबडे की अगुवाई वाली एक पीठ ने, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) को, अफ्रीकी बिल्ली यानी चीता को भारत लाने की अपनी योजना के साथ आगे बढ़ने के लिए संकेत दे दिए। रोक हट जाने के बाद, चीता लाने की योजना बनने लगी।
लेकिन बेंच ने सुनिश्चित किया कि सही सावधानियां बरती जाएं। इसने तीन सदस्यीय समिति का गठन किया, जिसमें भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व निदेशक रंजीत सिंह, भारतीय वन्यजीव संस्थान के महानिदेशक धनंजय मोहन और डीआईजी, वन्यजीव, पर्यावरण और वन मंत्रालय शामिल थे, जो एनटीसीए का ‘मार्गदर्शन’ करेंगे। मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने पीठ की ओर से बोलते हुए समिति को हर चार महीने में एक प्रगति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “चीतों के लिए सर्वोत्तम संभव आवास की पहचान के लिए एक उचित सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए कि वे भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल हों। समिति इन मुद्दों पर एनटीसीए की मदद, सलाह और निगरानी करेगी। जानवर को लाने की कार्रवाई एनटीसीए के विवेक पर छोड़ दी जाएगी।”
यह सुनवाई एनटीसीए द्वारा दायर एक आवेदन पर हुई जिसमें कहा गया था कि भारतीय चीता विलुप्त होने के कगार पर है।
2012 में नामीबियाई चीतों को लाने की योजना पर रोक लगाने के लिए, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कई कारण रखे गए थे। अदालत अपने समक्ष पेश किए गए उन, वैज्ञानिक अध्ययनों से प्रभावित थी जिसमें कहा गया था कि, “एक विदेशी प्रजाति के जानवर को ला कर उनका संरक्षण करने केबारे में, तभी विचार किया जाना चाहिए जब देशी प्रजाति उपयुक्त जानवर उपलब्ध न हो। अदालत कुनो अभयारण्य के चुनाव से भी नाखुश थी। शीर्ष अदालत ने मई 2102 के अपने आदेश में कहा भी था, “यह अफ्रीकी चीता के लिए प्राकृतिक आवास नहीं है। अदालत ने विशेषज्ञों के हवाले से कहा था कि “किसी भी प्रजाति को एक नए निवास स्थल पर लाने के लिए तब तक विचार नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि, उस स्थल या जंगल के बारे में पारिस्थितिकी जलवायु, अन्य वन्य जीव से जुड़े कारकों का अध्ययन, सक्षम पारिस्थितिकीविदों द्वारा समझा दिया जाए”।
अदालत इस बात से भी आशंकित थी कि क्या चीतों के उस अभयारण्य में आने पर, कुनो में मानव-पशु संघर्ष होगा। सबसे अहम बात यह थी कि, 2012 में कोर्ट ने शेरों की चिंता जताते हुए कहा, “क्या शेर और चीता दोनों सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, यह एक ऐसा मामला है जिसके लिए विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने सात साल पहले अपने आदेश में कहा था कि हमारी अपनी प्रजातियों के संरक्षण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में, प्रायोगिक आधार पर नामीबिया से अफ्रीकी चीतों को भारतीय अभ्यारण्य में लाने के प्रस्ताव पर सात साल से चली आ रही रोक हटा दी। और अब चीते लाए गए।
चीतों के बारे में कानूनी उलझन सुलझी तो, कुनो अभयारण्य की भूमि से जुड़ा एक पुराना मामला भी सामने आ गया। कुनो नेशनल पार्क की जमीन को वापस लेने के लिए एक अलग कानूनी लड़ाई रही है जिससे, भारत में चीतों की वापसी में एक नया पेच आ गया है। श्योपुर में, पालपुर राजघराने की ओर से, श्योपुर जिले के विजयपुर अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायालय में, ग्वालियर हाईकोर्ट के आदेश की अवमानना से संबंधित एक याचिका दायर की गई है। जिसमें पालपुर राजघराने के वंशजों ने, कूनो नेशनल पार्क के अंदर स्थित, प्रशासन द्वारा, राज्य अधिग्रहित राजपरिवार के किले और जमीन पर, कब्जा वापस करने की मांग की है। इस याचिका पर अगली सुनवाई 19 सितंबर 2022 को, विजयपुर एडीजे कोर्ट में होगी।
दरअसल पालपुर रियासत के वंशज शिवराज कुंवर, पुष्पराज सिंह, कृष्णराज सिंह, विक्रमराज सिंह, चंद्रप्रभा सिंह, विजयाकुमारी आदि ने ग्वालियर हाईकोर्ट में कूनो सेंक्चुरी के लिए की गई भूमि अधिग्रहण के खिलाफ साल 2010 में ग्वालियर हाईकोर्ट में याचिका (क्रमांक 4906/10) लगाई थी। याचिका में निम्न आपत्तियां की गई है-
० सिंह परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण की अधिसूचना 1981 में जारी हुई अधिसूचना के 2 साल में अधिग्रहित की गई संपत्ति का अवार्ड जारी करना होता है लेकिन जिला प्रशासन ने लगभग 30 साल बाद यह अवार्ड जारी किया, लिहाजा अधिग्रहण की कार्रवाई नियमानुसार नहीं है।
० कूनो पालपुर सेंचुरी में 220 बीघा सिंचित उपजाऊ जमीन अधिग्रहित की गई थी, जिसके बदले में 27 बीघा उबड़ खाबड़ पथरीली जमीन भी है।
० 220 बीघा जमीन के बीच धौलपुर रियासत के ऐतिहासिक किले का अधिग्रहण में कोई जिक्र नहीं है,ना कोई मुआवजा मिला फिर भी सरकार इन संपत्तियों का उपयोग कर रही है।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला जिला और सत्र न्यायालय द्वारा सुनने योग्य है, इसीलिए कोर्ट ने 2013 में श्योपुर कलेक्टर के द्वारा, इस मामले को विजयपुर डीजे कोर्ट में ले जाने के निर्देश दिए थे। लेकिन 2013 से श्योपुर में कलेक्टर इस मामले को टालते रहे। मामला लंबित बना रहा।
पालपुर रियासत के वंशजों ने 2019 में श्योपुर कलेक्टर के खिलाफ हाईकोर्ट की अवमानना की कार्रवाई शुरू की तब तत्कालीन श्योपुर कलेक्टर ने आनन-फानन में विजयपुर सेशन कोर्ट में मामला भेजा। पालपुर रियासत का आरोप है कि कलेक्टर ने गलत जानकारी के साथ मामला पेश किया। हाईकोर्ट के आदेश की अवमानना के खिलाफ ही पालपुर राजघराने ने विजयपुर कोर्ट में याचिका लगाई है। जिसकी पहली सुनवाई की अगली तारीख कूनो में चीते आने के दो दिन बाद यानी 19 सितंबर की लगी है।
पालपुर रियासत के श्रीगोपाल देव सिंह ने दावा किया है कि उन्होंने अपना किला और जमीन श्योपुर के कुनो पालपुर अभयारण में बब्बर शेरों के दूसरे सुरक्षित घर के तौर पर बने कुनो पालपुर अभयारण के लिए दी थी। लेकिन अब कूनो पालपुर अभयारण्य में शेरों की जगह चीते बचाने का काम किया जा रहा है। कूनो को गुजरात के गिर शेरों को लाने के लिए अभयारण्य घोषित किया गया तो उन्हें अपना किला और 260 बीघा भूमि खाली करनी पड़ी। कुँवर गोपाल देव ने आरोप लगाया कि सरकार ने कूनो पालपुर सेंचुरी का नाम बदलकर कूनो नेशनल पार्क भी कर दिया है। फिलहाल यह मामला अदालत में लंबित है।
विजय शंकर सिंह भारतीय पुलिस सेवा के अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।