महत्वपूर्ण ख़बरों की प्रस्तुति में ‘राजनीति’ करते अख़बार!

आज के अखबारों में दो खबरें खास हैं या कहिए कि (निचली) अदालतों के फैसले हैं इसलिए एक जैसे हैं और उनकी तुलना की जा सकती है। तीसरी बड़ी खबर पुंछ में सेना के ट्रक में आग लग जाने और आतंकवादियों के हमले की है। इसमें पांच सैनिक मारे गए हैं। अगर राहुल गांधी को नीचा नहीं दिखाना हो, अदालत के फैसले पर सांकेतिक टिप्पणी या उसका समर्थन नहीं करना हो तो इस खबर को प्रमुखता देने का कोई मतलब नहीं है। सेना पर हमला और पांच सैनिकों की मौत निश्चित रूप से बड़ी खबर है। लेकिन आप यह बताना चाहें कि ‘लोगों को अपमानित करने के आदी’ राहुल गांधी को कानून का तमाचा पड़ा है और जेल जाना पड़ सकता है तथा इससे आपको खुशी हो (या दुख हो) तो निश्चित रूप से खबर को प्रमुखता दी जा सकती है। 

इसी तरह, अगर आपको लगे कि 2002 के चर्चित या मशहूर नरोदा नरसंहार मामले का फैसला अब आया है और सभी 67 आरोपी बरी कर दिये गए और इनमें पूर्व मंत्री माया कोडनानी तथा बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी भी हैं तो यह भी बड़ी खबर है और इसे भी प्राथमिकता मिलनी चाहिए तो कुछ गलत नहीं है। लेकिन मूल बात यह है कि दोनों अदालतों के फैसले हैं और इनमें खास बात यह है कि अवमानना के मामले में तो सजा हो गई लेकिन नरसंहार के मामले में अभियुक्त छूट गए क्रम से चार साल और 21 साल में। इसलिए मुझे लगता है कि दोनों खबरें एक जैसा ट्रीटमेंट मांगती हैं और दो खबरें लीड नहीं बन सकतीं तो पुंछ वाली खबर लीड बननी चाहिए थी। हेडलाइन मैनेजमेंट के खेल में पुंछ की खबर को अंदर छापने वाला देशद्रोही करार दिया जा सकता है इसलिए पहले पन्ने पर रखने की मजबूरी आप समझ सकते हैं।        

कायदे से आज की तीनों खबरें बहुत स्पष्ट हैं और इनकी प्रमुखता भी निर्विवाद है। फिर भी पुलवामा को याद किए जाने के समय पुंछ का हमला सिर्फ खबर नहीं है। और आज के अखबारों में इसकी प्रस्तुति संपादकीय स्वतंत्रता पर विचार करने के लिए मजबूर करती है। गुजरात की अदालतों की ये  दो खबरें कई कारणों से एक जैसी हैं। पत्रकारिता का सामान्य सिद्धांत है, एक जैसी खबरें एक साथ। उदाहरण के लिए, कई बार देश भर से मौसम की खबर अगर एक दिन हो तो अक्सर उन्हें एक साथ छापा जाता है भले उन्हें पढ़ने वाले एक जगह नहीं रहते हों, पूरी न पढ़ें। लेकिन देश भर में मौसम के मामले में अगर कुछ हो रहा है तो वह एक खबर है, एक साथ छपती है अक्सर। यह अलग बात है कि कोई अखबार अपने इलाके की ही खबर छापे बाकी नहीं छापे लेकिन देश भर में मौसम की एक खबर होगी तो पढ़ने वाले को सहूलियत होगी और जिसे अपने इलाके के मौसम की जानकारी होगी उसे देश के बाकी हिस्से के मौसम की भी जानकारी हो जाएगी। 

आज की दोनों खबरों में कई भिन्नताएं होने के बावजूद समानताएं कम नहीं हैं और इसलिए मेरी राय में दोनों को समान ट्रीटमेंट मिलना चाहिए था। वरना कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तान टाइम्स और द हिन्दू राहुल गांधी की खबर को लीड बनाएं, टाइम्स ऑफ इंडिया ने राहुल गांधी की खबर के साथ-साथ नरसंहार वाली खबर को भी पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर रखा है और पुंछ की खबर को लीड बनाया है। अधपन्ने पर राहुल गांधी वाली खबर लीड है। हिन्दुस्तान टाइम्स में अधपन्ने पर नरोदा की खबर लीड नहीं है और यहां समान लिंग वालों के विवाह से संबंधित सुप्रीम कोर्ट का मामला लीड है। द हिन्दू में पहले पन्ने पर आधा से ज्यादा विज्ञापन है और लीड राहुल गांधी वाली खबर है। पुंछ की खबर सेकेंड लीड या दूसरी खबर है। नरसंहार वाली खबर अंदर होने की सूचना है। 

इंडियन एक्सप्रेस में पुंछ की खबर तो लीड है पर राहुल गांधी की खबर पहले पन्ने पर होने के बावजूद नरसंहार वाली खबर के साथ नहीं है। दोनों खबरें अलग-अलग हैं। इसका मतलब यही है कि राहुल गांधी की खबर को ज्यादा महत्व दिया गया है और नरोदा नरसंहार वाले को कम महत्व दिया गया है। जनहित के लिहाज से, या खबर पर नजर रखने वाले के लिए भी नरोदा नरसंहार का मामला ज्यादा महत्वपूर्ण है और राहुल गांधी का मामला भले अदालत का है लेकिन उसके राजनीतिक महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता है और इसीलिए आज की खबरों का महत्व स्पष्ट और निर्विवाद होने के बावजूद कुछ अखबारों में उसकी प्रस्तुति राजनीतिक लगती है, पत्रकारीय नहीं। खबरों की प्रस्तुति, चयन और शीर्षक आदि के कारण द टेलीग्राफ को भले सरकार विरोधी कहा जाता है लेकिन मुझे अक्सर लगता है कि यहां पत्रकारीय संतुलन रहता है। 

कोलकाता से प्रकाशित होने के कारण बंगाल की खबरों के मामले में भी। लेकिन देश भर की खबरों की प्रस्तुति के लिहाज से यह राष्ट्रीय राजनीतिक अखबार ही लगता है जबकि द हिन्दू अक्सर पत्रकारिता और राजनीति के साथ सूचनाएं परोसता भी लगता है और दीर्घ अवधि की खबरों को महत्व दिया जाता है। द टेलीग्राफ की प्रस्तुति में एक पैनापन भी होता है जो आर-पार की बात करती है। आज दोनों खबरों को न सिर्फ एक साथ प्रस्तुत किया गया है बल्कि एक-एक शब्द के तीन शीर्षक न सिर्फ पूरी खबर बता देते हैं बल्कि जो स्थिति है उसका सही आकलन भी करते हैं। मुख्य शीर्षक है, टेलिंग। मतलब दोनों खबरें बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कहती हैं।  आज आप इसका मतलब यह लगा सकते हैं कि दोनों खबरें अर्थपूर्ण हैं। राहुल गांधी की फोटो के ऊपर एक शब्द का शीर्षक है। कनविक्टेड और दूसरी खबर के ऊपर माया कोडनानी की तस्वीर है और शीर्षक है एक्विटेड। 

आप जानते हैं कि राहुल गांधी सजा बहाल रही और नरसंहार मामले में एक अभियुक्त माया कोडनानी को बाकी अन्य के साथ बरी कर दिया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि गुजरात के इन फैसलों के कई मायने निकलते हैं। दोनों खबरें बहुत कुछ कहती हैं और आज द टेलीग्राफ की प्रस्तुति उसी अंदाज में है। यह संपादकीय स्वतंत्रता का अच्छा चित्रण करता है। मेरा मतलब है कि आज की इन तीन खबरों की प्रस्तुति (कई अन्य अखबारों में) से नहीं लगता है कि अखबारों के पास संपादकीय स्वतंत्रता है या उसका उपयोग किया जाता है या उनपर दबाव नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि संपादकीय स्वतंत्रता का उपयोग द टेलीग्राफ की तरह होता नहीं दिख रहा है, कारण चाहे जो हो। अखबारों में विज्ञापन का अपना महत्व है पहले पन्ने का भी है ही। अगर विज्ञापन ज्यादा है तो पहले पन्ने की खबर अंदर नहीं होनी चाहिए पहले पन्ने की खबर को पहले ही पन्ने पर रखा जाना चाहिए भले उनका आकार आनुपातिक रूप से कम हो जाए द टेलीग्राफ में यह भी होता है और दिखाई देता है। इसके लिए आधे पन्ने से ज्यादा विज्ञापन न लेने का नियम भी बनाया जा सकता है पर वह अलग मुद्दा है। 

द टेलीग्राफ में द हिन्दू के बराबर विज्ञापन होते हुए आज की तीनों खबरें पहले पन्ने पर तो हैं ही, और भी महत्वपूर्ण खबरें हैं जो दूसरे अखबारों के लिए न हों या भले उनमें हों ही नहीं। संपादकीय प्रतिभा यही है और यह निश्चित रूप से दुर्लभ है। गुजरात की आज की दो खबरों में से एक पूर्व मंत्री और भाजपा नेता माया कोडनानी को बरी कर दिए जाने की है और इसके साथ सूचना है कि यह गुजरात में गोधरा कांज के बाद हुए दंगे या नरसंहारों में से एक का फैसला है जिसमें पहले भी बहुत सारे लोग बरी होते रहे हैं और क्लिन चिट पा चुके हैं। दूसरी ओर राहुल गांधी का मामला है जिन्हें उनके अपराध के लिए अधिकतम सजा दी गई है जिससे वे छह साल चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाएंगे और ऊपर की अदालत ने राहत तो दूर सजा कम करने पर भी विचार नहीं किया जबकि मामला अवमानना का है नरसंहार के मामले में अभियुक्त बरी हो जा रहा है और किसी को सजा ही नहीं हुई है। 

ऐसे में पीड़ित परिवारों के एक वकील ने कहा कि फैसले को गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जाएगी क्योंकि “न्याय से इनकार किया गया”। दूसरी ओर, अभियुक्तों और उनके रिश्तेदारों ने इस घटना के 21 साल से अधिक समय बाद आए फैसले को “सच्चाई की जीत” करार दिया। यह गुजरात दंगे से संबंधित खबरों की सबसे कड़वी सच्चाई है कि एसआईटी ऊंची अदालत में अपील करेगी कि नहीं …. 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

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