पी: सर पर मैला उठवाने वाला ‘सभ्य’ समाज दृश्य देखकर उल्टी करता है!

इस कठिन कठोर क्वारंटीन समय में संजय जोशी दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों से आपका परिचय करवा रहे हैं. यह मीडिया विजिल के लिए लिखे जा रहे उनके साप्ताहिक स्तम्भ ‘सिनेमा-सिनेमा’ की  आठवीं कड़ी है। मक़सद है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा के साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें. यह स्तम्भ हर सोमवार को प्रकाशित हो रहा है -संपादक

 

हाशिये की एक कथा के बहाने एक फिल्म का पाठ

 

मदुरई में पले –बढ़े और अब चेन्नई में रहने वाले दस्तावेज़ी फ़िल्मकार अमुधन रामलिंगम पुष्पम हाशिये के जीवन के बड़े फ़िल्मकार हैं. वे वर्षों से ‘मरुपक्कम’ नाम से एक सालाना फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित करते रहे  हैं. 2003 में अमुधन ने मदुरई के कीलाथाप्पू इलाके में मंदिर वाली गली में काम करने वाली एक प्रौढ़ महिला सफाई कामगार मायाक्काल का एक दिन अपने कैमरे में दर्ज किया. कुल 26 मिनट का यह दस्तावेज़ हिन्दुस्तानी दस्तावेज़ी सिनेमा में मील का पत्थर बन चुका है. इस फ़िल्म का नाम है ‘पी’ यानि टट्टी-पेशाब. 

अमुधन ने मंदिर वाली गली में मानव मल उठाने वाली प्रौढ़ा मायाक्काल के एक दिन को अपने कैमरे में कैद किया. करीब 200 मीटर लम्बी सड़क को मायाक्काल सुबह 6 से लेकर 9 तक तीन बार में साफ़ करती हैं. यह पूरी सड़क जगह –जगह पड़े गू के ढेर से अटी पड़ी रहती है. मायाक्काल ने सड़क के ही एक कोने में अपने काम के सामान जमा कर रखें हैं. इन सामानों में एक बड़ा ढेर राख का है जिसे वह गू के ढेर पर छिड़कती  है ताकि गू की बदबू कम हो सके. एक टीन का पत्तर जैसा है जो जमीन से गू के ढेर को उठाने काम आता है. यह पत्तर भी उन्होंने अपने ही जुगाड़ से हासिल किया है. यहाँ किसी मास्क या दस्ताने का कोई सूत्र नहीं मिलता. वे चप्पल भी काम करते हुए उतार देती हैं क्योंकि पैर तो साबुन से अच्छी तरह साफ़ हो जाते हैं लेकिन चप्पल में एक बार गंदगी चिपकने के बाद आसानी से निकलती नहीं. सिपाही की तरह लगातार गू उठाती हुई बूढ़ी होती मायाक्काल फ़िल्मकार से एक ही शिकायत करती है. और यह शिकायत है पीठ में दर्द की. शिकायत तो मायाक्काल की बहुत सी हैं लेकिन सुनने वाला कोई नहीं. पति की शराबखोरी के कारण जल्दी मौत होने के कारण सीधे छ बेटों की जिम्मेवारी उन पर आन पड़ी जिनमें से 2 यही काम करते हैं. एक बेटे की शादी के लिए 10000 का कर्जा लिया था जिसकी वजह से 3000 की तनख्वाह से 1000 रूपये हर महीने ब्याज देने में ही निकल जाते हैं. सप्ताह में छ दिन हाड़ तोड़ने के इस काम की वजह से एक स्थायी बदबू के साथ ही मायाक्काल को सांस लेने में दिक्कत होने लगी है कमर का दर्द तो साथ में है ही. और हो भी क्यों न. मायाक्काल पिछले पच्चीस वर्षो से बिना नागा यह काम कर रही है. 

26 मिनट की इस फ़िल्म के दौरान कैमरा लगातार मायाक्काल द्वारा इस 200 मीटर लम्बी सड़क से मानव गू के ढूहों को उठाने के नारकीय काम को दर्ज करता रहता है. पूरी सड़क को साफ़ करने के बाद मानव मल के ढेर को एक लोहे के बड़े बर्तन में भरकर निगम की बड़ी गाड़ी में डालना भी उनकी जिम्मेवारी का हिस्सा है. वहीं पता चलता है कि उनकी तरह कई लोग इस काम में लगे हैं. यहाँ गौरतलब है कि यह फ़िल्म नवम्बर 2003 में निर्मित की गयी है. कल यानि 24 मई 2020 को यह लेख लिखते वक्त जब इन पक्तियों के लेखक ने इस फ़िल्म के निर्देशक अमुधन रामलिंगम पुष्पम से मदुरई नगर निगम के सफ़ाई कामगारों के हाल जानने चाहे तब पता चला कि मायाक्काल जैसे कामगारों के दिन अब और खराब हो गए हैं. पूरा तमिलनाडु साफ़ –सफाई के प्रबंधन के लिए सरकार की जिम्मेवारी से मुक्त होकर अब निजी हाथों में आ चुका है. यह जरुर हुआ है कि मैला अब उन्हें सिर पर नहीं ढोना पड़ता क्योंकि बहुत सा काम मशीनों से होने लगा है. लेकिन निजी प्रबंधन की वजह से कामगारों की स्थिति ठेके के कामगारों में बदल गई है. सरकारी नौकरी से ठेके से कामगार में बदल जाने के कारण उन्हें मिलने वाली सारी सुविधायें ख़त्म हो चली हैं. न कोई पी.ऍफ़, न स्वास्थ्य की कोई गारंटी और न ही किसी प्रकार की कोई भी अन्य छूट या सुविधा. महीने के अंत में मिलने वाली अपर्याप्त पगार ही अपने को बचाए रखने का एकमात्र सहारा है. इस फ़िल्म की शुरुआत सफ़ाई कामगारों से सम्बंधित कुछ आंकड़ों से होती है जिसके अनुसार मदुरई नगर निगम  के साथ 2700 पूर्णकालिक कामगार जुड़े हैं जिनमे से 90 प्रतिशत दलित हैं. ये सफ़ाई कामगार कौलरा, अस्थमा, कैंसर और मलेरिया जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं. इनमे से 35% से अधिक महिलाएं हैं. पूरी आशंका है कि अब इन आकड़ों की भयावहता और गंभीर हो गयी होगी. 

2003 में मायाक्काल के बहाने तमिलनाडु राज्य में सफ़ाई कामगारों के हालात से रूबरू होना इस फ़िल्म का एक पाठ है. क्या यह इस फ़िल्म का एकमात्र पाठ है या इसके कई पाठ हो सकते हैं जिन्हें हमें समझने की जरुरत है.                   

सामान्य दस्तावेज़ी काम की तरह दिखती यह फ़िल्म सिनेमा की कक्षा में सिनेमा भाषा समझाने में बहुत मददगार होती है. मसलन फ़िल्म में एक लॉन्ग शॉट है जब मायाक्काल 200 मीटर लम्बी सड़क पर छितराए गू को साफ करने की मुहिम में जुटी दिखाई पड़ती है. तब विद्यार्थियों को यह समझाने में बहुत मदद मिलती है कि लॉन्ग शॉट सिर्फ़ एक बड़े क्षेत्रफल की तरफ़ इशारा ही नहीं करता बल्कि वह वस्तुस्थिति के बारे में ठोस जानकारी भी देता है जैसे इस फ़िल्म से हमें यह पता चलता है कि मायाक्काल को हर रोज 200 मीटर लम्बी सड़क पर छितराई गन्दगी को साफ़ करना ही होता है. ऐसे ही इस फ़िल्म में कई जगह क्लोज़ शॉट का इस्तेमाल हुआ है जिससे हम जान सकते हैं कि मायाक्काल के पास न तो दस्ताने हैं न ही मास्क. फ़िल्म की एकदम शुरुआत में काले रंग के ऊपर सफ़ेद अक्षरों से दिखने वाले आंकड़ें अपनी अंतर्वस्तु की वजह से हमारा ध्यान सफ़ाई कामगारों के जीवन की भयावहता की तरफ आकर्षित करते हैं वहीं साउंड ट्रेक में इस्तेमाल की गई जोर की मुनादी की आवाज़ हमें इन आंकड़ों पर विशेष रूप से गौर फ़रमाने के लिए मजबूर करती है. फ़िल्म में मानव गू के ढेरों के क्लोज़ शॉट को फ़िल्मकार ने बार –बार हमें दिखाया है. यह बार –बार दिखाना गू से निकलने वाली भयानक बदबू हम तक पहुचाने और इस तरह मायाक्काल के पक्ष में खड़ा होने के लिए हमें प्रेरित करता है. 

इस फ़िल्म का एक पाठ और निर्मित होता है जब हम इसका प्रदर्शन लोगों के बीच करते हैं और फिर इस विषय पर बहस करने की कोशिश करते हैं. इस बात को मैं सिनेमा दिखाने के अपने तीन अनुभवों के जरिये आप तक संप्रेषित करने की कोशिश करूँगा.

 पहला अनुभव:  आज से करीब 10 वर्ष पहले लखनऊ के शिया कालेज में स्नातक स्तर के जनसंचार विषय के विद्यार्थियों के लिए एक तीन दिनी सिनेमा कार्यशाला में मैंने इस फ़िल्म को भी शामिल किया था. बहुत सी दूसरी फ़िल्मों के विषय और ट्रीटमेंट ने उन युवा विद्यार्थियों में सिनेमा माध्यम के प्रति ललक पैदा की. लेकिन असल मजा तब आया जब इस फ़िल्म को दिखाना शुरू किया. 26 मिनट की फ़िल्म शुरू होते ही सवर्ण शहरी बच्चों को गू के ढेरों से उबकाई आने लगी. फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान इसे कई बार रोकने की अपील की गई और आखिरकार इसे रोकना ही पड़ा जब एक लड़की ने कहा कि अगर इसे रोका नहीं गया तो वह कक्षा में ही उल्टी कर सकती है. लखनऊ के शिया कालेज के विद्यार्थियों के बीच इस फ़िल्म का प्रदर्शन हमें इसके किस पाठ की तरफ इशारा करता है. निश्चय ही या इशारा वर्ग विशेष के विद्यार्थियों की उस समझ पर टिप्पणी है जिसकी वजह से अपने समाज की क्रूरतम सच्चाइयों की तरफ से वे बिलकुल बेखबर हैं. 

दूसरा अनुभव : यह वाकया तीन साल पहले 2017 के जून महीने का है.  मुझे इंदौर के शहरी लोगो के बीच वहां की सांस्कृतिक संस्था ‘सूत्रधार’ द्वारा आयोजित एक सिनेमा आस्वाद कार्यशाला में हिन्दुस्तानी समाज और दस्तावेज़ी फ़िल्मों पर एक सत्र संचालित करना था. मैंने कई फ़िल्मों के अंशों से अपने तर्क को प्रमाणित करने की कोशिश की. उत्तर भारत की तवायफ़ों की बेहद आत्मीय कहानी कहती सबा दीवान की दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘द अदर सांग’ , मंजीरा दत्ता की ‘बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी’ , फैज़ा अहमद खान की ‘ सुपरमैन ऑफ़ मालेगांव’ , वसुधा जोशी और रंजन पालित की ‘वॉइसेस फ्रॉम बलियापाल’, आनंद पटवर्धन की ‘हमारा शहर’ और रीना मोहन की ‘कमलाबाई’ जैसी फ़िल्मों के अंशों के साथ अमुधन रामलिंगम पुष्पम की यह फ़िल्म ‘पी’ के भी अंश दिखाए. ‘पी’ के अंश के प्रदर्शन के दौरान कुछ प्रतिभागियों की असहजता भी मुझ तक संप्रेषित हो रही थी. असल बात तब खुली जब मैंने अपने सत्र के आख़िरी में बातचीत की शुरुआत की. दो लोगो ने एक साथ ‘पी’ के अंश दिखाए जाने के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया और दूसरे दर्शक ने अपने सहज भोलेपन के साथ मुझे सलाह दी कि आप अपनी कार्यशालाओं को संगीत और हलके फुल्के मजे वाली फ़िल्म तक ही सीमित रखें तो अच्छा है. उन्होंने यह भी कहा कि खामख्वाह के लिए निगेटिव चीजों में क्यों उलझा जाए. फ़िल्म का यह पाठ यहीं रुका नहीं यह तब और अर्थवान साबित हुआ जब एक अन्य दर्शक ने मुझे पूरी मजबूती से सब तरह की फ़िल्मों को दिखाने की सलाह दी. इस दूसरे दर्शक ने लंच के दौरान ऐसी अन्य फ़िल्मों के बारे में भी अपनी जिज्ञासा प्रकट की. जाहिर है पहले दो दर्शकों और तीसरे दर्शक की जातीय सरंचना अलग- अलग थी.

फ़िल्म का यह पाठ भी शिया कालेज जैसा बनता प्रतीत होता अगर तीसरे दर्शक ने हस्तक्षेप न किया होता. 

तीसरा अनुभव : यह वाकया थोड़ा और पुराना यानि साल 2009 का है जब भिलाई में हम प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का दूसरा फिल्म फेस्टिवल आयोजित कर रहे थे. प्रतिरोध का सिनेमा अभियान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर से शुरू हुआ स्वतंत्र सिनेमा अभियान है जिसमे सिनेमा की विभिन्न विधाओं के माध्यम से समकालीन सामाजिक परिदृश्य पर जोरदार बहस और संवाद की कोशिश की जाती है. बिना किसी कोरपोरेट सहयोग के चलने वाला यह अभियान अब पंद्रह साल पुराना हो चला है और स्वतंत्र फ़िल्म प्रदर्शन के लिए उत्तर भारत के सबसे बड़े विश्वसनीय मंच के रूप में इसको दर्शकों और फ़िल्मकारों से स्वीकृति भी मिल चुकी है. ऐसे अभियान के आयोजन के लिए भिलाई की टीम ने भी प्रकासि (प्रतिरोध का सिनेमा) की केन्द्रीय टीम से अपने दूसरे फ़िल्म फेस्टिवल के लिए महिला सफ़ाई कामगार से सम्बंधित कम से कम एक फ़िल्म को शामिल किये जाने की मांग की. असल में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्थानीय टीम का जुड़ाव भिलाई शहर के सफ़ाई महिला कामगारों की यूनियन से था और इस तरह इस यूनियन के सदस्य भी उनके होने वाले आयोजन के संभावित दर्शक थे. प्रकासि की केन्द्रीय टीम ने इस प्रस्ताव को चुनौती की तरह लिया और अमुधन की फ़िल्म ‘पी’ को शामिल करने के साथ –साथ उसके अंग्रेज़ी नैरेशन को हिंदी में अनुवाद भी करवा लिया. फ़िल्म की स्क्रीनिंग के दिन प्रदर्शन से ठीक आधा घंटा पहले भिलाई के नेहरु हाल में स्थानीय संभ्रांत दर्शकों के अलावा महिला सफाई कामगार यूनियन के सदस्यों का जत्था भी हाल में पहुँच चुका था. नियत समय पर शुरू हुई ‘पी’ फ़िल्म का यह प्रदर्शन अपने पिछले प्रदर्शनों से अलहदा था. इस बार फ़िल्म से निकलती मायाक्काल की तमिल भाषा का लाइव हिंदी अनुवाद फेस्टिवल की टीम का एक जिम्मेवार सदस्य हाल में रखे प्रोजक्टर के ठीक बगल रखे टेबल लैंप की रोशनी में बिना रुके कर रहा था. इस बिना रुके अनुवाद और नए प्रयोग ने सितम्बर की दुपहरी में नेहरु हाल में हिन्दुस्तानी सिनेमा आन्दोलन में 40 महिला सफ़ाई कामगार दर्शक बनाकर न सिर्फ एक नया इतिहास रचा बल्कि मायाक्काल की कहानी को भिलाई की मायाक्काल बहनों द्वारा समझ लिए जाने के कारण इस फ़िल्म का एक नया पाठ भी निर्मित किया. यह पाठ अमुधन की लाख कोशिशों के बावजूद एक एलिट पाठ बनकर ही रह जाता अगर प्रकासि की केन्द्रीय टीम ने इसके हिंदी अनुवाद की योजना न बनाई होती और भिलाई की टीम ने महिला सफ़ाई कामगारों से अपने रिश्ते के कारण उन्हें यह चुनौती न दी होती.   

सिनेमा के पाठ की यह तीन कहानियां अलग –अलग देश काल में घटने के कारण अलग-अलग पाठ निर्मित करती हैं. किसी सिनेमा का पाठ इस पर भी निर्भर करेगा कि उसका प्रदर्शन किस तरह किया गया. इसलिए किसी सिनेमा को देखते हुए अगर हम इतने सारे पाठों की सम्भावना को समझने की कोशिश करेंगे तब सिनेमा के नए अर्थ भी हमारे सामने खुलेंगे और निर्देशक की मेहनत को सम्मान भी मिलेगा.

फ़िल्म का लिंक : https://www.youtube.com/watch?v=a0eWOHAvVn4

 



इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे. 

दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं.संजय से thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है -संपादक

 



सिनेमा-सिनेमा की पिछली कड़ियाँ–

1.  ईरानी औरतों की कहानियाँ : मेरे बालिग़ होने में थोड़ा वक्त है

2.  नया हिन्दुस्तानी सिनेमा : हमारे समय की कहानियाँ

3. सीको: अपनी अंगुली को कूड़े के ढेर में पक्षियों को खिलाने से अच्छा है किसी को अंगुली दिखाना!

4. पहली आवाज़ : मज़दूरों ने कैसे बनाया अपने सपनों का शहीद अस्पताल

5. गाड़ी लोहरदगा मेल: अतीत हो रही एक ट्रेन के ज़रिये वर्तमान और भविष्य की पीड़ा !

6. लिंच नेशन : हिंदुस्तान के ‘लिंचिस्तान’ में बदलने की क्रूरकथा का दस्तावेज़ !

7. हाजाओ मिजाजाकी : प्रेम और विश्वास से लबरेज़ दुनिया का अनूठा फ़िल्मकार  


 

 

First Published on:
Exit mobile version