….लेकिन तालिबान से मुक़ाबला अहिंसा के रास्ते ही हो सकता है!

तालिबानी राज में चुनावी लोकतंत्र का आना नामुमकिन लगता है. लेकिन तालिबान को हटाने का रास्ता हिंसा नहीं हो सकता है. अगर तालिबान हिंसा से हटाए गए तो फिर उनके बाद सत्ता में आने वाला भी हिंसा के आधार पर ही राज करेगा. अगर इस कुचक्र को तोड़ना है तो धीरे-धीरे लोकनीति और प्रशासन को मज़बूत करना होगा जिससे कि आम जनता ग़ुरबत और भुखमरी से बाहर निकलना शुरू करे. पढ़ाई-लिखाई, दवा-दारू, रोज़गार — यही मुद्दे हैं आम जनता के. इस काम में पश्चिम के देश धन, सामग्री और मानव संसाधन के ज़रिए मदद कर सकते हैं. भारत को भी यही करना चाहिए.

पंद्रह अगस्त को जब तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा किया तो हज़ारों काबुली लोग शहर और देश छोड़ कर भागने की को कोशिश करने लगे. पिछले एक हफ़्ते में हमने सैंकड़ों तस्वीरों और वीडियो में देखा बदहवास लोग जान जोखिम में डाल बाहर निकल जाना चाहते हैं. उड़ते हवाई जहाज़ से गिरकर मरने वालों की ह्रदय विदारक तस्वीरें देखने को मिली हैं. काबुल के हवाई अड्डे के बाहर लोग भीड़ में पिस कर मर रहे हैं.

तालिबान का समर्थन करने वाले कुछ लोग ये कह रहे हैं कि भागने वाले अधिकतर वो हैं जो अमेरिकी क़ब्ज़े के दौरान अमेरिका और उसकी पिट्ठू सरकार के दलाल थे. ये सही है कि हज़ारों लोगों ने अमेरिकी क़ब्ज़े के दौरान अमेरिका के साथ मिलकर काम किया था. लेकिन ये कहना ग़लत होगा कि भागने की कोशिश करने वाले सभी ऐसे ही लोग हैं. अगर ऐसा होता तो पिछले चालीस सालों से अफ़ग़ानिस्तान से भागने का सिलसिला नहीं चल रहा होता.

दरअसल पिछले चालीस सालों में अफ़ग़ानिस्तान से भागने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि आज माना जाता है दुनिया में सीरिया के लोगों के बाद सबसे अधिक तादाद के शरणार्थी अफ़ग़ान ही हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद के मुताबिक़ 2017 में पैंतीस लाख से अधिक अफ़ग़ान साठ देशों में शरणार्थी थे. इनमें पंद्रह लाख से पच्चीस लाख तो अनुमानतः सिर्फ़ पाकिस्तान में हैं. माना जाता है कि क़रीब दस लाख ईरान में हैं.

हालाँकि सारी गिनती अटकल ही है क्योंकि किसी देश ने अपने यहाँ अफ़ग़ान शरणार्थियों की जनगणना नहीं की है. शरणार्थी तो छोड़िए, अफ़ग़ानिस्तान में ही पिछले पचास साल में जनगणना नहीं हुई है क्योंकि उस देश में हिंसा के ज़रिए सत्ता परिवर्तन का सिलसिला 1970 के दशक से ही शुरू हो गया था जिसके चलते देश में अस्थिरता बढ़ती चली गई और बंदूक़ के साये में आज तक जीवन और प्रशासन सामान्य ही नहीं हो पाया है.

बहुत लोग अफ़ग़ान लोगों के स्वाभिमान और ख़ुद्दारी की दाद देते हुए बताते हैं कि ये वो क़ौम है जिसने मानव इतिहास को दो सबसे शक्तिशाली साम्राज्य — सोवियत संघ और अमेरिका — को धूल चटवा दी. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पश्चिम और मुस्लिम क़ौमों में बहुत पुराना छत्तीस का आँकड़ा है. पिछले सौ साल में पश्चिम के देशों ने मुस्लिम देशों पर या तो क़ब्ज़ा किया या फिर युद्ध में हराकर उन पर अपने पिट्ठू बादशाह बैठा दिए. इस वजह से दुनिया के कई मुसलमान अमेरिका की हार में अपनी जीत देखते हैं. ये भी सच है कि किस भी मुस्लिम देश में स्थानीय गुटों ने जितनी भी हिंसा की हो, अमेरिकी और यूरोप की हिंसा के आगे उनकी हिंसा फीकी ही मानी जाएगी. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में हिंसा के क्रम का असली मुजरिम अमेरिका, यूरोप और पूर्व सोवियत संघ है.

लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से भागने वाले लाखों शरणार्थी हों या वहाँ बसे अनुमानतः पौने चार करोड़ लोग हों, उनको इससे कोई सरोकार नहीं कि पचास साल से जारी जंग में कब कौन जीता और कौन हारा. हर पाँच-दस साल पर कोई न कोई हार और कोई न कोई जीत रहा है. लेकिन इस पूरे दौर में शरणार्थियों और अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे लोगों को हार ही हार मिल रही है. उनकी अपनी दुखद दास्तान है जो आधी सदी से ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है. भुखमरी आम है. कमाई के साधन ख़त्म होते चले गए हैं. बीमारी ने जड़ पकड़ लिया है. स्कूली शिक्षा न के बराबर है. लोग पुश्त दर पुश्त क़र्ज़ में डूब चुके हैं. पाकिस्तान में रह रहे अफ़ग़ान शरणार्थियों को नागरिक का दर्जा मिलना दूर, मूल सुविधाएँ भी मुहैया नहीं होती है. आज वहाँ शरणार्थियों में तीसरी पीढ़ी आ गई जिसने अफ़ग़ानिस्तान देखा ही नहीं. लेकिन उनको भी पाकिस्तान में शक की निगाह से देखा जाता है.

अगर सच में अफ़ग़ानिस्तान में और अच्छे दिन की कामना करनी है तो सबसे पहले पचास साल से चालू युद्ध को विराम देना होगा. यही वजह है कि अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन, जर्मनी इत्यादि के नेता कह रहे हैं कि वो तालिबान के साथ मिल कर काम कर सकते हैं बशर्ते तालिबान हिंसा को लगाम दें. साथ ही उनको ये भी समझ आ रहा है कि उनको भी अपनी हिंसा को लगाम देना होगा. दुनिया में बहुतेरे देश हैं जहाँ पर दुर्भाग्यवश तानाशाही क़ायम है. ऐसे देशों में जहाँ हिंसा से नहीं आंदोलन से और सामाजिक दबाव से बदलाव की राजनीति होती है वहीं बेहतरी की उम्मीद भी होती है.

तालिबानी राज में चुनावी लोकतंत्र का आना नामुमकिन लगता है. लेकिन तालिबान को हटाने का रास्ता हिंसा नहीं हो सकता है. अगर तालिबान हिंसा से हटाए गए तो फिर उनके बाद सत्ता में आने वाला भी हिंसा के आधार पर ही राज करेगा. अगर इस कुचक्र को तोड़ना है तो धीरे-धीरे लोकनीति और प्रशासन को मज़बूत करना होगा जिससे कि आम जनता ग़ुरबत और भुखमरी से बाहर निकलना शुरू करे. पढ़ाई-लिखाई, दवा-दारू, रोज़गार — यही मुद्दे हैं आम जनता के. इस काम में पश्चिम के देश धन, सामग्री और मानव संसाधन के ज़रिए मदद कर सकते हैं. भारत को भी यही करना चाहिए.

अगर तालिबान अपने देशवासियों को अच्छे दिन नहीं दे पाते हैं तो देशवासियों को पूरा हक़ होगा उनके ख़िलाफ़ आंदोलन करने का. ऐसे में भारत ही क्या, दुनिया के सभी देशों को जनता के साथ खड़ा होना होगा. लेकिन आज की ज़रूरत ये है कि दुनिया के सभी देश मिल कर शांति बहाल करने में तालिबान की मदद का ऐलान करें. ऐसे में तालिबान पर भी दबाव बनेगा कि वो दुनिया के सामने साफ़ करें कि वो अपनी आवाम की बेहतरी की सोचते हैं या वो महज़ वही हैं जो दुनिया उनके बारे में कहती है: आतंकवादी.

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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