‘वन भूमि से समझौता नहीं किया जा सकता|’ सुप्रीम कोर्ट के इस घोषित निश्चय के चलते, दो महीने से अरावली वन क्षेत्र में शक्ल ले रही विस्थापन त्रासदी का लब्बोलुवाब रहा कि खोरी नामक श्रमिक बस्ती का अंत हो गया| लेकिन अवैध खोरी को आगाज से अंजाम तक पहुँचाने वाली माफिया हरामखोरी फलती-फूलती रहेगी|
3 अगस्त की सुप्रीम कोर्ट सुनवाई में जस्टिस ए एम खानविलकर की अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ ने खोरी के साथ अरावली के सम्बंधित वन क्षेत्र में बने तमाम रसूखदार निर्माण भी हटाने का अपना निर्देश पक्का कर दिया| इस बीच दिल्ली-फरीदाबाद सीमा के लकड़पुर और अनंगपुर गावों के रकबे में 3-4 दशक के काल खंड में अवैध रूप से बसे करीब एक लाख खोरीवासियों के बसेरों को ढहा दिया गया और उन्हें अनिश्चय के तूफान में उजड़ना पड़ा| तो भी, ये दो स्थितियां अरावली पहाड़ी में कानूनी समता का नहीं बल्कि कानून जनित विषमता का दृष्टांत बन गयी हैं।
रसूखदार निर्माण की श्रेणी में सैकड़ों फार्म हाउसों के अलावा दर्जनों धार्मिक केंद्र, रिहायशी गगनचुंबी फ्लैट्स, भव्यतम होटल और विद्यालय/विश्वविद्यालय की आधुनिकतम इमारतें शामिल हैं, जिन्हें दशकों से विज्ञापित किया जाता रहा है| विशिष्ट तबकों की इस सरे आम वन-क्षेत्र डकैती की तुलना में खोरी बस्ती का ‘ढंका’ अस्तित्व इस संरक्षित क्षेत्र में गरीब की सेंधमारी ही कहा जाएगा|सुप्रीम कोर्ट के दखल के बावजूद, हालाँकि, दोनों परिस्थितियों में असली अंतर यह नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि दोनों ही तरह के निर्माण राजनीतिक संरक्षण और प्रशासनिक व भू-माफिया की मिलीभगत से अस्तित्व में आये हैं, लेकिन इसी समान दिखती तस्वीर में ही उनका असली अंतर भी छिपा हुआ मिलेगा। रसूखदार अपनी भरपाई को लेकर आशान्वित है जबकि गरीब को अपने विस्थापन की कीमत भी लाखों में चुकाने को कहा जा रहा है। रातों-रात उजाड़े गए खोरीवासियों के लिए पुनर्वास नीति की बात राज्य शासन और सुप्रीम कोर्ट दोनों कर रहे हैं, लेकिन इस कटु यथार्थ से मुंह चुराकर कि स्थानीय वन अतिक्रमण माफिया ही दरअसल राजकीय आशीर्वाद से अब उन्हें पुनर्वास के नाम पर भी दुहेगा।
खोरी प्रकरण से एक और बहुप्रचलित हरामखोरी का पर्दाफाश हुआ है| इसके ‘नायक’ हैं नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी और उनका, खोरी से बमुश्किल 10-12 किलोमीटर दूर स्थित, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषित, एनजीओ ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’| संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा खोरी पर जारी रिपोर्ट के अनुसार कोविड काल में हो रहे इस विस्थापन की चपेट में 10 हजार बच्चे भी आएंगे। पहले से महामारी की आर्थिक मंदी के मारे श्रमिक परिवारों के इन बच्चों को मानव तस्करी और यौन हिंसा का शिकार होने का खतरा रहेगा| ऐसे में, क्या यह सवाल नहीं बनता कि तथाकथित बाल अधिकार चैंपियन कैलाश सत्यार्थी को खोरी विस्थापन पर एक शब्द भी बोलते क्यों नहीं सुना गया?
विश्व मानव तस्करी रोधी दिवस के अवसर पर 29 जुलाई के ‘द हिन्दू’ अखबार में छपे अपने लेख में इस नोबेल विजेता ने भारत सरकार से एक सख्त मानव तस्करी रोधी बिल लाने की मांग की| यह बिल कानून बनने की प्रक्रिया में है भी लेकिन उसमें खोरी जैसे विस्थापनों या कोविड जैसी महामारी के प्रभाव से बच्चों को आर्थिक सुरक्षा कवच देने का प्रावधान नदारद है| सत्यार्थी की चिंता में भी यह पहलू नदारद है| उनका ‘चलें हमारे साथ’ अभियान ‘साहस की पत्रकारिता’ का दावा करने वाले प्रणव रॉय के एनडीटीवी के सहयोग से प्रचारित हो रहा है| इसमें यौन हिंसा के शिकार बच्चों को न्याय दिलाने का संकल्प गूंजता रहता है| इंगित बैंक खाते में कम से कम 2500 रुपये भेजकर कोई भी इस अभियान में कैलाश सत्यार्थी का हमराही हो सकता है|
दरअसल, ‘चलें हमारे साथ’ दिनों साझीदारों के लिए यश के गुब्बारे उड़ाने का एक जतन है। इसके लक्ष्य/आंकड़े/नतीजे कभी प्रचारित नहीं किये गए। केवल 5,000 लक्षित बच्चों में से अब तक मुश्किल से 2,000 बच्चों को टूटी-फूटी अतिरिक्त वकील सेवाएं पोक्सो अदालतों में प्रदान करायी गयी हैं, जबकि इस काम के लिए राज्य नियुक्त सरकारी वकील वहां पहले से ही होता है| इन बच्चों के जरूरी आर्थिक और शैक्षिक पुनर्वास के नाम पर अभियान में कोरा शब्दाडम्बर है और जमीन पर निल बटा सन्नाटा|
समझना मुश्किल नहीं कि कैलाश सत्यार्थी के अभियान की सीमा क्या है? जब वे एनडीटीवी के मंच से ‘चलो हमारे साथ’ का नारा देते हैं तो उन्हें हर हाल में सरकार के साथ ही चलना होता है। आश्चर्य क्या कि खोरी विस्थापन प्रकरण में न उन्हें पोक्सो के भावी बाल-शिकार नजर आयेंगे और न इस अंदेशे पर उनकी जुबान खुलेगी|
3 अगस्त को जब सुप्रीम कोर्ट खोरी विस्थापन-पुनर्वास पर सुनवाई कर रहा था तो मीडिया की मुख्य खबर थी राष्ट्रीय सरकार के मुखिया का टोक्यो ओलिंपिक में भारत का हॉकी मैच देखते हुए ट्वीट करना और राष्ट्रीय विपक्ष का लोकतंत्र बचाने के नाम पर संसद तक साइकिल मार्च निकालना। सुप्रीम कोर्ट में खोरी की अगली सुनवाई 25 अगस्त को है| इस बीच हरियाणा सरकार के पास अतिक्रमण हटाने के नाम पर कुछ और आंकड़े जुट जायेंगे| लेकिन, खोरी की हार और हरामखोरी की जीत में कोई शक नहीं रहना चाहिए!
अवकाशप्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय क़ानून-व्यवस्था और मानवाधिकार के मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। वो हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।