मीडिया का पक्षपात दिखाते अख़बार और ख़बरें

जब मीडिया सरकार के समर्थन में बेशर्म हो जाए

अक्सर लोग कहते हैं कि विपक्ष को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए। विपक्ष ऐसा क्यों नहीं कर रहा है, वैसा क्यों नहीं कर रहा है आदि, आदि। मैं नहीं कहता कि ऐसा नहीं कहना चाहिए और विपक्ष बिल्कुल सही कर रहा है या उसके काम में कोई कमी नहीं है। लेकिन विपक्ष के काम की मीडिया सही रिपोर्ट नहीं करे तो लोगों को पता कैसे चलेगा कि विपक्ष क्या कर रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी की यात्रा को मीडिया ने बहुत लचर ढंग से कवर किया और राहुल गांधी ने उसका पूरा मजाक भी उड़ाया। पर अभी मुद्दा वह नहीं है। मुद्दा संसद की कार्यवाही की रिपोर्टिंग का है। और आज के मेरे पांच अखबारों में साफ दिख रहा है कि राहुल गांधी के आरोपों को कम तरजीह दी गई है जबकि विपक्ष के पुराने आरोपों को ज्यादा महत्व दिया गया है। कल संसद में राहुल गांधी ने सरकार पर हमला बोला, अडानी से संबध की बात की जवाब में भाजपा ने पुराने आरोप दोहराए। भाजपा राजनीति कर रही है और अखबारों का काम है भाजपा कैसी राजनीति कर रही है ये बताना या उसकी रिपोर्टिंग करना। ठीक है कि भाजपा की राजनीति पर अखबार टीका टिप्पणी न करें पर खबर तो वही होगी जो नई बात है। हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद अगर विपक्ष मामले की जांच की मांग करे, संसद में विरोध करे तो संसद नहीं चलने देने का आरोप और जब अपनी बात कहे तो उसका जवाब देने की बजाय सच-झूठ के सहारे मुद्दे को बदलना या बदलने की कोशिश – अखबारों की खबरों से साफ दिख रहा है पर अखबार इस बात को कह नहीं रहे हैं।

जर्नलिज्म ऑफ करेज की टैगलाइन वाले इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक और द टेलीग्राफ के शीर्षक से पता चलता है कि संसद में हुआ क्या होगा और दोनों ने इसकी रिपोर्टिंग कैसे  की है उसे भी समझा जा सकता है। ध्यान रखिये, मैं शीर्षक की बात कर रहा हूं और मेरा मानना है कि बहुत सारे लोग शीर्षक ही पढ़ते और उसका उल्लेख करते हैं, पूरी खबर नहीं पढ़ते हैं। और पूरी खबर पढ़नी है कि नहीं या कौन सी खबर पूरी पढ़नी है इसका फैसला भी शीर्षक से ही होता है और ऐसे में शीर्षक में बेईमानी का अपना मतलब है। आप कह सकते हैं कि एक अखबार सरकार विरोधी है और दूसरा समर्थक है। हो सकता है हो भी। पर वह मेरी चिन्ता नहीं है। मैं सिर्फ खबर के शीर्षक और उसे रिपोर्ट करने के तरीके पर टिप्पणी कर रहा हूं या कहिए उसे रेखांकित कर रहा हूं।

गौरतलब यह भी है कि राहुल गांधी का आरोप और इस पर भाजपा का जवाब या संसद में हुए हंगामे की खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड नहीं है, पहले पन्ने पर तीन कॉलम में जरूर है और इसके साथ अडानी की कंपनियों के शेयरों की कीमत और उसमें बदलाव की एक तालिका भी है। खबर का शीर्षक है, “संसद विवाद : राहुल ने सरकार पर अडानी से संबंध के आरोप लगाए, भाजपा ने कहा कि कांग्रेस भ्रष्ट है।”मुझे लगता है कि भाजपा ने सत्ता में आने के बाद ईमानदार होने का दावा छोड़ दिया है। यह अलग चर्चा का विषय है पर यह चर्चा करे कौन? द हिन्दू में संसद की आज की यह खबर सिंगल कॉलम में है। शीर्षक है, “राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से कहा कि वे अडानी से संबंध स्पष्ट करें”।

इन दोनों अखबारों की खबरों, शीर्षक और प्रस्तुति के मुकाबले मुझे हिन्दुस्तान टाइम्स की प्रस्तुति ज्यादा संतुलित लग रही है। सबसे पहले तो खबर को अखबार ने लीड बनाया है और शीर्षक है, “राहुल गांधी ने विपक्ष के दबाव का नेतृत्व किया और अडानी मामले ने संसद को क्रोधित कर दिया”। हालांकि, क्रोधित संसद नहीं हुई है संसद के सदस्य हुए हैं और उनमें भी भाजपा के सांसद और संभवतः उनके समर्थक। पर यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि ये वही लोग हैं जो प्रधानमंत्री के झूठ बोलने, वादा पूरा नहीं करना, जनहित के खिलाफ होने और जनहित के मुद्दों पर नाराज नहीं होते हैं और राहुल गांधी के आरोप या दबाव से इतने नाराज हो गए हैं कि लग रहा है या बताया जा रहा है कि संसद नाराज हो गई है।

संभव है भाजपा की जवाबी कार्रवाई से कांग्रेस या राहुल गांधी के समर्थक भी नाराज हो और इससे संसद के नाराज या क्रोधित होने की तस्वीर बनती हो। पर इससे मामला स्पष्ट नहीं है। और बात इतनी ही नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इस शीर्षक वाली खबर के साथ एक और खबर छापी है उसका शीर्षक है, (अनुवाद मेरा) भाजपा ने जवाबी हमला किया, राहुल से सबूत मांगे, कांग्रेस के भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाए। कहने की जरूरत नहीं है कि इन खबरों या सुर्खियों से मामला स्पष्ट नहीं है। वह द टेलीग्राफ के शीर्षक से हो रहा है। या कहिए कि अखबार की खबर बता रही है कि संसद क्यों नाराज हो गई। बेशक खबर दो तरह से हो सकती है और एक तरीका अगर यह बताना है कि ससंद नाराज है तो उससे जरूरी यह बताना भी है कि क्यों नाराज है। लेकिन पत्रकारीय आजादी और संपादकीय नजरिये पर भाजपा की ट्रोल सेना हावी हो जाए तो शायद ऐसा ही होगा। यह भी अलग चर्चा का मुद्दा है लेकिन इसपर चर्चा करे कौन?

द टेलीग्राफ ने आज इस खबर को छह कॉलम में लीड बनाया है और फ्लैग शीर्षक है, “कांग्रेस नेता ने राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उठाया, कहा सरकार को समूह में धन के प्रवाह की जांच करनी चाहिए”। मुख्य शीर्षक अगर हिन्दी में होता तो कुछ इस तरह होता, राहुल ने अडानी पर मोदी की खबर ली या राहुल ने अडानी पर मोदी को खूब सुनाया। अखबार ने इसके साथ प्रधानमंत्री की एक पुरानी तस्वीर छापी है। इसका कैप्शन है, बिना तारीख वाली इस तस्वीर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गौतम अडानी के साथ जिसे राहुल गांधी ने मंगलवार को संसद में दिखाया और जिसे कांग्रेस ने इस पोस्ट, “पहले मोदी जी अडानी जी के विमान से यात्रा करते थे, अब अडानी जी मोदी जी के विमान से यात्रा करते हैं” के साथ ट्वीट किया है।

अखबार ने इस तस्वीर के साथ बिन्दुवार पांच सवाल भी छापे हैं और बताया है कि  बुधवार को राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से इन सवालों के जवाब मांगे। सवाल इस प्रकार हैं –

  1. अडानी के साथ आप विदेश यात्रा पर कितनी बार गये हैं।
  2. कितनी बार अडानी आपसे यात्रा में बाद में मिले।
  3. आपकी यात्रा के तुरंत बाद अडानी ने उसी देश की यात्रा कितनी बार की
  4. और इन देशों में से कितने में आपकी यात्रा के बाद अडानी को ठेके मिले
  5. पिछले 20 वर्षों में अडानी ने भाजपा को कितने पैसे दिये हैं।

 

कहने की जरूरत नहीं है ये सवाल पर्याप्त गंभीर हैं और इनका जवाब आना जरूरी है। इससे पता चल जाएगा कि सरकार के अडानी से कितने और कैसे संबंध हैं। अगर नहीं होते तो जवाब देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए लेकिन संबंध होंगे तो जवाब नहीं आएंगे या इससे सच पता चल जाएगा। अखबार ने इस  बॉक्स का शीर्षक लगाया है, क्या प्रधानमंत्री जवाब देंगे?

द टेलीग्राफ में संजय के झा की मुख्य खबर इस प्रकार है – राहुल गांधी ने मंगलवार को नरेंद्र मोदी सरकार से सवाल किया कि वह विदेशी शेल कंपनियों से अडानी समूह में कथित धन के प्रवाह की जांच क्यों नहीं कर रही है, संसद में जोर देकर कहा कि यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है क्योंकि इस समूह का नेतृत्व अडानी समूह कर रहा है। गौतम अडानी अब भारत के बंदरगाहों और हवाई अड्डों पर हावी हैं और देश के रक्षा उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वैसे तो यह पूरी खबर पढ़ने लायक है लेकिन यहां मैं इस एक पैराग्राफ से बताना चाहता हूं कि कैसे खबरों की जान निकाल ली जाती है।

खबर के अनुसार, “हिंडनबर्ग रिपोर्ट कुछ दिन पहले आई थी। इसमें कहा गया था कि अडानी की विदेशों में शेल कंपनियां हैं। ये शेल कंपनियां भारत में हजारों करोड़ रुपये का निवेश कर रही हैं। यह किसका पैसा है? इन कंपनियों का मालिक कौन है? अडानी रणनीतिक व्यवसायों में काम करते हैं; वे भारत के बंदरगाहों पर हावी हैं। हवाईअड्डे और रक्षा उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मेरा सवाल है – भारत सरकार ने इन शेल कंपनियों के बारे में सवाल क्यों नहीं उठाए हैं?” राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान यह सवाल किया। वैसे तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि हिन्दुस्तान टाइम्स के शीर्षक के अनुसार, संसद क्यों गुस्से में है पर सच यही है कि ना अखबार बता रहे हैं ना संपादक और रिपोर्टर समझना चाह रहे हैं।

ऐसे में इंडियन एक्सप्रेस की लीड (तीन कॉलम में) है, “राहुल ने मोदी राज में अडानी के विकास पर सवाल किया, सरकार ने जवाबी वार किया : सबूत दिखाइए”। आपको लगता है इस मामले में सबूत दिखाइए, जवाबी वार है? मुझे तो नहीं लगता है, फिर भी। राहुल गांधी के सवालों के जवाब हैं या जवाब नहीं देने से भी बात साफ हो जाएगी लेकिन खबर और शीर्षक देखिए। मुख्य मुद्दे की बात ही नहीं होगी। हालांकि, सबूत मांगने की जरूरत ही नहीं है हम सब देखते रहे हैं कि कैसे मोदी राज में अडानी दुनिया के नंबर एक अमीर हो गए थे और सच्चाई बताने वाली एक रिपोर्ट आई (जो नियामक एजेंसियों द्वारा कार्रवाई नहीं करने से भी संबंधित है) और अडानी धाराशाई हो गए। अगर सरकार ने उन्हें नहीं बनाया होता तो नियामक एजेंसियां काम कर रही होतीं और रिपोर्ट देसी अखबारों में भी छपी होती और जो छपी थीं उनपर  कार्रवाई हुई होती। परंजय गुहा ठाकुरता पर अदालत के जरिए प्रतिबंध नहीं लगा होता। पर वह दूसरा मामला है।

इन साफ सवालों से संबंधित इन खबरों के मुकाबले इंडियन एक्सप्रेस की खबरें या शीर्षक सबसे ज्यादा दिलचस्प हैं और भाजपा का प्रचार करते लग रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस की आज की लीड का इंट्रो है, “इलेक्टोरल बांड के जरिए अडानी ने भाजपा को 20 वर्षों में कितने पैसे दिए हैं।“ वैसे तो यह घोषित होना चाहिए था पर राहुल के सवालों में यह शायद सबसे गैर जरूरी है और जो दिया है या बताया जाना है उसमें कोई छिपी हुई राशि या 2000 के नोट तो होने नहीं हैं जो ईमानदार पार्टी ने सत्ता में आने के बाद 1000 के नोट की जगह शुरू किए और आम आदमी को मिलते ही नहीं हैं। अपने संस्थापक के नाम पर पत्रकारिता का  पुरस्कार देने वाला यह संस्थान नहीं कहता है कि राहुल गांधी के आरोप पर भाजपा के जवाब में दम नहीं है और यही राहुल गांधी के आरोपों की मजबूती का सबूत है। इसलिए, मेरी राय में इसकी जरूरत भी नहीं थी। लेकिन निष्पक्ष होने के फेर में यह भाजपा का समर्थन ज्यादा लगता है।

वैसे भी, यूपीए के घोटालों की सूची जवाब नहीं है अगर है तो भाजपा आठ साल से ज्यादा से सत्ता में है, राहुल गांधी को फांसी पर टांग सकती थी और ऐसा नहीं करके अभी बकवास कर रही है। राहुल के आरोप को निराधार कहने से बेहतर होता उनके सवालों का जवाब दे दिया जाता। पर यह भी नहीं करके कहा गया कि गांधी परिवार जमानत पर है। लेकिन यह भी कोई आरोप नहीं है। गांधी परिवार भले जमानत पर है, लेकिन उसपर जज की हत्या कराने का आरोप नहीं है। ना ही उसपर लोगों के कंप्यूटर में फर्जी सबूत प्लांट करके गिरफ्तार करने का आरोप है। यही नहीं, इतने गंभीर मामले में अदालत में जल्दी सुनवाई करवाकर पीड़ित को न्याय दिलाने की कोशिश का कोई उदाहरण भी नहीं है। ऐसे में सरकार ने किन लोगों के पीछे ईडी-सीबीआई को लगाया है कौन नहीं जानता। नेशनल हेरल्ड मामले की जांच किसलिए चल रही है कौन नहीं समझा पर अखबार हैं कि मानते ही नहीं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

 

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