कवि कुल गुरु रवींद्रनाथ टैगोर (7 मई 1861 – 7 अगस्त 1941) को उनकी काव्य रचना ‘गीतांजलि’ के लिए नोबेल से सम्मानित किया गया था। यह सम्मान पाने वाले वे अकेले भारतीय कवि-लेखक हैं। टैगोर अकेले कवि हैं जिनकी रचना दो देशों का राष्ट्रगान हैं-भारत और बांग्लादेश। भारत का जन-गण-मन.. और बांग्लादेश का आमार सोनार बांग्ला..!
लेकिन दक्षिणपंथी उन्माद के बढ़ने के साथ भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ में आये ‘अधिनायक’ शब्द को लेकर विवाद खड़ने का फ़ैशन बन गया है। बार-बार यह आरोप लगाया जाता है कि यह गीत ब्रिटेन के राजा जार्ज पंचम के स्वागत में लिखा गया था। हाँलाकि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने बहुत दुखी होकर ऐसा सवाल उठाने वालों में ‘कॉमनसेंस की कमी’ होने की बात कही थी, लेकिन जब नीयत में कुछ और हो तो फिर कविगुरु को भी कौन सुने!
टैगोर के मुताबिक राष्ट्रगान में ‘अधिनायक’ शब्द, राष्ट्र की जनता, उसका सामूहिक विवेक या फिर वह सर्वशक्तिमान है जो सदियों से भारत के रथचक्र को आगे बढ़ा रहा है। मूल रूप से संस्कृतनिष्ठ बांग्ला में लिखे गये इस पांच पदों वाले गीत का तीसरा पद ग़ौर करने लायक है-
पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।
हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।
दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे
संकटदुःखत्राता।
जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
इस बंद में एक ‘भीषण विप्लव’ की कामना कर रहे टैगोर ‘भाग्यविधाता’ के रूप में कम से कम जॉर्ज पंचम की बात नहीं कर सकते। न अंग्रेज सम्राट की कल्पना भारत के ‘चिरसारथी’ के रूप में की जा सकती है। जाहिर है, टैगोर ऐसे आरोप से बेहद आहत थे। वे इसका जवाब देना भी अपना अपमान समझते थे। 19 मार्च 1939 को उन्होंने ‘पूर्वा’ में लिखा–
‘अगर मैं उन लोगों को जवाब दूंगा, जो समझते है कि मैं मनुष्यता के इतिहास के शाश्वत सारथी के रूप में जॉर्ज चतुर्थ या पंचम की प्रशंसा में गीत लिखने की अपार मूर्खता कर सकता हूँ, तो मैं अपना ही अपमान करूंगा।’
टैगोर की मन:स्थिति का कुछ अंदाज़ 10 नवंबर 1937 को पुलिन बिहारी सेन को लिखे उनके पत्र से भी चलता है। उन्होंने लिखा- “ मेरे एक दोस्त, जो सरकार के उच्च अधिकारी थे, ने मुझसे जॉर्ज पंचम के स्वागत में गीत लिखने की गुजारिश की थी। इस प्रस्ताव से मैं अचरज में पड़ गया और मेरे हृदय में उथल-पुथल मच गयी। इसकी प्रतिक्रिया में मैंने ‘जन-गण-मन’ में भारत के उस भाग्यविधाता की विजय की घोषणा की जो युगों-युगों से, उतार-चढ़ाव भरे उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए भारत के रथ की लगाम को मजबूती से थामे हुए है। ‘नियति का वह देवता’, ‘भारत की सामूहिक चेतना का स्तुतिगायक’, ‘सार्वकालिक पथप्रदर्शक’ कभी भी जॉर्ज पंचम, जॉर्ज षष्ठम् या कोई अन्य जॉर्ज नहीं हो सकता। यह बात मेरे उस दोस्त ने भी समझी थी। सम्राट के प्रति उसका आदर हद से ज्यादा था, लेकिन उसमें कॉमन सेंस की कमी न थी।“
टैगोर इस पत्र में 1911 की याद कर रहे हैं जब जॉर्ज पंचम का भारत आगमन हुआ था। इसी के साथ 1905 में हुए बंगाल के विभाजन के फैसले को रद्द करने का ऐलान भी हुआ था। बंगाल के विभाजन के बाद स्वदेशी आंदोलन के रूप में एक बवंडर पैदा हुआ था। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद यह पहला बड़ा आलोड़न था जिसने पूरे देश को हिला दिया था। आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा था। उस समय कांग्रेस मूलत: मध्यवर्ग की पार्टी थी जो कुछ संवैधानिक उपायों के जरिये भारतीयों के प्रति उदारता भर की मांग कर रही थी। ऐसे में अचरज नहीं कि बंगाल विभाजन रद्द करने के फैसले के लिए सम्राट के प्रति आभार प्रकट करने का फैसला हुआ। 27 जुलाई 1911 को इस अधिवेशन में सम्राट की प्रशंसा मे जो गीत गाया गया था वह दरअसल राजभुजादत्त चौधरी का लिखा “बादशाह हमारा” था। लेकिन चूंकि अधिवेशन की शुरुआत में जन-गण-मन भी गाया गया था इसलिए दूसरे दिन कुछ अंग्रेजी अखबारों की रिपोर्ट में छपा कि सम्राट की प्रशंसा में टैगोर का लिखा गीत गाया गया। भ्रम की शुरुआत यहीं से हुई।
समय के साथ यह भ्रम राजनीतिक कारणों से बढ़ाया गया। आरएसएस से जुड़े लोगों की ओर से यह प्रचारित किया जाता रहा कि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगान होना चाहिए था, लेकिन ‘जन-गण-मन’ को यह दर्जा दिया गया जो अंग्रेज सम्राट के स्वागत में रचा गया था। आशय यह बताना था कि आजाद भारत को मिला पं.नेहरू का नेतृत्व कम राष्ट्रवादी था और उसने असल राष्ट्रवादियों को अपमानित करने के लिए ऐसा किया। यह बात भुला दी जाती है कि 24 जनवरी 1950 को जब डा.राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के सामने ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान घोषित किया था तो अपने बयान में वंदे मातरम को भी समान दर्जा देने का ऐलान किया था।
टैगोर सही अर्थों में विश्वकवि थे। उन्होंने कथित राष्ट्रवाद के ख़तरे को समय रहते पहचाना था और कहा था कि वे ‘मनुष्यता के हीरे को छोड़कर राष्ट्रवाद का कांच कभी नहीं लेंगे।’ आज भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह उनकी चेतावनी को सही साबित कर रहा है। गुरुदेव ने भारत के लिए जैसी कल्पना की थी,वह आज भी हमारे लिए एक चुनौतीहै। वे ऐसे भारत की कल्पना करते थे जहाँ किसी को किसी तरह का भय न हो, ज्ञान के मुक्त प्रवाह के बीच भारतीय माथा उन्नत करके खड़े रहें। टैगोर की इस कविता का ये हिंदी अनुवाद एक बार पढ़ लीजिए, शायद कुछ बिसरे संकल्पों की याद आ जाये–
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों,कर्मों की गति फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा.
लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।