जब पत्रकारीय आजादी व विवेक का मामला अपनी खास स्थिति में है,
इन विचारों औऱ खबरों को चुनावी तैयारियों के साथ संविधान बदलने की कवायद माना जाए?
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इंटरव्यू का यह अंश कल (बुधवार, 11 जनवरी को) इंडियन एक्सप्रेस में लीड था। इंडियन एक्सप्रेस में ऐसी खबरों को प्रमुखता मिलती है यह मैं लिखता रहा हूं। कल नहीं लिख पाया। दूसरे अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से नहीं दिखी थी। इसलिए मैंने इसे नजरअंदाज भी किया। कल मैंने यूनियन कार्बाइड से वसूली की संभावना टटोलने की द हिन्दू की खबर पर लिखा था। हिन्दी के अपने पाठकों को बता दूं कि इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, आरएसएस प्रमुख ने एलजीबीटीक्यू अधिकारों को समर्थन दिया। मुख्य शीर्षक है, भागवत ने कहा, हिन्दू जागरूक हैं, युद्ध में आक्रामकता स्वभाविक है। उपशीर्षक है, इस्लाम में डरने लायक कुछ नहीं है, सर्वोच्चता का प्रचार/दावा छोड़ना चाहिए। निजी तौर पर मुझे लगता है कि मैं किसी को सीख क्यों दूं। कोई अपने बारे में जो सोचे-समझे, मेरे बारे में गलत न जाने।
इंडियन एक्सप्रेस ने मोहन भागवत की इस तकरीबन गैर जरूरी सलाह (और मेरी समझ से मुसलमानों के मामले हस्तक्षेप) को पहले पन्ने पर लीड बनाया तो यह उसके संपादकीय विवेक और आजादी का मामला है। इस ‘खबर’ के साथ बढ़ता प्रभाव शीर्षक से ‘एक्सप्लेन्ड’ में अखबार ने बताया था, आरएसएस प्रमुख की टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और राजनीतिक बंटवारे को लेकर चिन्ता जताई जा रही है और आशंका है कि 2024 के चुनाव से पहले यह सब बढ़ेगा। भागवत ने ऐसे समय में यह रेखांकित किया है कि संघ समाज को संगठित करना जारी रखेगा और इसके साथ उन्होने स्वयंसेवकों के राजनीतिक पदों पर बढ़ने को भी महत्व दिया है।
इंडियन एक्सप्रेस में आज इस खबर का कोई फॉलोअप या उसपर किसी तरह की प्रतिक्रिया की खबर पहले पन्ने पर नहीं है। ऐसी एक खबर को द टेलीग्राफ ने आज पहले पन्ने पर लीड बनाया है। फ्लैग शीर्षक है, हिन्दुओं और मुसलमानों पर टिप्पणी को लेकर नाराजगी। मुख्य शीर्षक है, भागवत ने अपने रंग दिखाए। संजय के झा की इस बाइलाइन वाली खबर के अनुसार भागवत की इस टिप्पणी पर विपक्ष की मजबूत प्रतिक्रिया आई है। उनपर हिंसा की अपील करने और संविधान को चुनौती देने का आरोप लगा है। द टेलीग्राफ के मुताबिक भागवत का दावा है कि हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करने के लिए युद्ध में हैं और मुसलमान सर्वोच्चता की अपनी समझ को छोड़कर देश में रह सकते हैं।
हिन्दू समाज की आक्रामकता को उन्होंने गलत ऐतिहासिक समझ के नाम पर उचित ठहराया है और कहा है कि हिन्दु युद्ध कर रहे हैं। दरअसल धार्मिक संबद्धता के आधार पर उन्होंने भारतीय नागरिकों के एक वर्ग के खिलाफ हिन्सा की अपील की है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार बयान में कहा गया है, यह हिन्दू समाज नहीं है बल्कि आरएसएस के आदर्शों से प्रेरित हिन्दुत्व ब्रिगेड है जिसे भागवत जैसे नेताओं का समर्थन है जिन्होंने अल्पसंख्यकों के मन में डर का भाव पैदा कर दिया है। भागवत के बयान को हेडगेवार और गोलवलकर जैसे आरएसएस के दिग्गजों के घृणा से भरे सांप्रदायिक लेखन का अपडेट कहा गया है कि मुस्लिम भारत में तभी रह सकते हैं जब वे अधीनस्थ स्थिति स्वीकार करें।
द टेलीग्राफ की आज की इस खबर से जाहिर है कि इंडियन एक्सप्रेस ने इंटरव्यू तो छापा लेकिन अगले दिन उसपर प्रतिक्रिया नहीं छापी। यही बात द टेलीग्राफ के लिए कही जा सकती है पर खबर छापने वाले के लिए प्रतिक्रिया छापना ज्यादा जरूरी होता है। और मूल खबर ही खबर है या उसपर प्रतिक्रिया यह तो संपादक ही तय करेगा जैसे एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ ने अलग-अलग किया है। मीडिया में आजकल ऐसी नैतिकता की कोई पूछ नहीं है। नैतिकता का पाठ और मोरल पोलिसिंग सिर्फ आम लोगों के लिए है जिसकी लाठी उसकी भैंस की तरह। चिन्ता की बात यही है कि इसमें कानून और संविधान का कोई महत्व नहीं है। जो थोपा जा रहा है उसे ही झेलना है कोई विकल्प नहीं है। सबके लिए समान रूप से।
फेसबुक पर रोज एक कहानी लिखने वाले साथी संजय सिन्हा ने आज अपनी कहानी में लिखा है, “तीन-चार साल पहले की ही बात है, हम लोग भोपाल गए थे। हमारे कुछ दोस्त और उनकी पत्नी भी। हम एक होटल में रुके थे। मेरी पत्नी मेरे साथ नहीं आई थी, पर उसे उसी रात दिल्ली से भोपाल आना था। वो शाम की फ्लाइट से आई, मैं सुबह भोपाल पहुंच चुका था। मैंने वहां एक होटल में अपने और अपनी पत्नी के नाम से कमरा बुक कराया था। जब मेरी पत्नी होटल में पहुंची और उसने अपना परिचय पत्र होटल के काउंटर पर जमा कराया कि मेरे कमरे में उसकी बुकिंग है तो होटल मैनेजर ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है। आपके पति का नाम संजय सिन्हा और आपका नाम दीपशिखा सेठ? “मैडम हमारी ही आंखों मं धूल झोंक रही हैं? सिन्हा की पत्नी सेठ कैसे हो सकती है?
उसने उसे कमरे में ठहरने की अनुमति नहीं दी। मेरी पत्नी ने मुझे फोन किया मैं भाग कर नीचे आया। आधार कार्ड और दूसरे परिचय पत्र से ये साबित किया कि सेठ सिन्हा की पत्नी है तब उसने मेरी पत्नी को मेरे कमरे में ठहरने की अनुमति दी। कायदे से यह नियम विरुद्ध है कि उसने एक बालिग महिला को किसी बालिग पुरुष के साथ कमरे में रहने से रोका। कानूनन कोई भी दो बालिग सहमति से होटल के एक कमरे में रुक सकते हैं। बस इसके लिए उन्हें अपना परिचय पत्र दिखाना होता है। पर होटल वाला मोरल पुलिसिंग में यकीन करता था। मैंने उससे पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने कहा कि सर, पुलिस हमें परेशान करती है। वो कहती है कि जो पति-पत्नी नहीं है, वो एक कमरे में नहीं ठहर सकते हैं।” दरअसल वह वेश्यावृत्ति रोकने की आड़ में ऐसा करती है और इससे दूसरे लोगों में फैलने वाले डर की चिन्ता किसी को नहीं है। पुलिस को जिस काम को गलत कहकर रोकना चाहिए उसका वह अपने हित में उपयोग कर रही है।
ऐसे में गलती या अपराध करने वाले को तो भरोसा है पर सही करने वाले परेशान किए जा रहे हैं। शादी का प्रमाणपत्र अभी हाल तक नहीं होता था। ठीक है कि शादी के बाद महिलाएं पति का ही उपनाम लिखती रही हैं पर जिन लोगों ने किसी कारण से नहीं बदला उसे परेशान करने का अधिकार किसने दिया। कोई कह रहा है कि वह पति-पत्नी है तो क्यों नहीं मानना और सबूत क्यों मांगना जबकि कानूनन जरूरी नहीं नहीं है। मैंने कई बार, कई जगह होटलों में यह सब देखा है। इसलिए यही समझ रहा था कि अब नियम बदल गए हैं लेकिन न भी बदले हों और पुलिस थाने में बैठा ले या पुलिस लीक के आधार पर खबर बन जाए कि फलां साब किसी और महिला के साथ या फलां महिला किसी और पुरुष के साथ पकड़ी गई तो जो नुकसान हो चुका होगा उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। इसी को डर का माहौल कहा जाता है और बहुमत के दम पर देश में कुछ ऐसी प्रथाओं को लागू करने की जबरदस्ती है जो आदर्श नहीं हैं। अखबारों को इसमें जैसी भूमिका निभानी चाहिए, निभाते नहीं नजर आ रहे हैं।
मुझे लगता है कि आरएसएस प्रमुख का इंटरव्यू हिन्दुत्व का झंडा गाड़ने वाला था और उसे पहले पन्ने पर उतनी प्रमुखता देना पत्रकारिता कम हिन्दुत्व का समर्थन ज्यादा था। अभिव्यक्ति की आजादी है तो देने का फैसला विवेक का मामला है और इसपर अलग राय हो सकती है लेकिन जब उसे महत्व दिया गया था तो उसके खिलाफ जो बातें कही गईं वह भी अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है और उसे भी उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए था भले यह प्रतिक्रिया उन लोगों की है जिनका कद अखबार की राय में वो नहीं है जो मोहन भागवत का है। ऊंचे कद वाले से मतभिन्नता व्यक्त करना तभी संभव होगा जब उसे महत्व दिया जाएगा वरना जिसकी लाठी उसकी भैंस ही होगा। लाल आंखें तो कोई भी दिखा सकता है। और बात इतनी ही नहीं है। जबरदस्ती की नैतिकता के साथ झूठ के प्रचार और गैर कानूनी मामलों में कार्रवाई न होने के उदाहरण भी हैं।
ऐसी स्थिति में आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड है, (जगदीप) धनखड़ (उपराष्ट्रपति) और (लोकसभा अध्यक्ष ओम) बिड़ला ने न्यायपालिका के आगे बढ़ने (अतिक्रमण) का विरोध किया। इस खबर का इंट्रो है, संवैधानिक संस्थाओं को ऐक्टिविज्म से बचना चाहिए : स्पीकर। आज के मेरे पांच में से चार अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर है। द टेलीग्राफ अपवाद है। इंडियन एक्सप्रेस में यह लीड है, उपराष्ट्रति ने सुप्रीम कोर्ट की बुनियादी संरचना को निशाना बनाया। द हिन्दू में भी यह खबर लीड है, उपराष्ट्रपति ने कहा कि अदालत संसद की संप्रभुता को कमजोर नहीं कर सकती है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर लीड नहीं है लेकिन पहले पन्ने पर है और शीर्षक है, बुनियादी संरचना पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने गलत परंपरा डाली।
मुझे लगता है कि यह संविधान बदलने की तैयारी है या बदलने पर होने वाली प्रतिक्रिया को जानने-समझने अथवा टटोलने की कोशिश है। यह भी संभव है कि ऐसी खबरों से लोगों के विचार बदले जाएं और वह सब बताया जाए जिससे आरएसएस सही या सच मानता है। बहुत संभावना इस बात की भी है कि ये उपराष्ट्रपति के अपने विचार हों पर ओम बिड़ला का भी ऐसा कहना और सभी अखबारों में समान महत्व मिलना मायने रखता है। मुमकिन है, बहुत से लोग शीर्षकों से ही मामला नहीं समझ पाएं। उनके लिए पेश है खबर का खास या संबंधित अंश। अखबारों में छपी इन खबरों के अनुसार उपराष्ट्रपति जो राज्यसभा के अध्यक्ष भी हैं ने प्रेसाइडिंग ऑफिसर्स के 83वें कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा कि 1973 के केसवानंद भारती मामले में यह फैसला कि संविधान को संशोधित करने की सीमा है और इसे इतना नहीं बढ़ाया जा सकता है कि बुनियादी संरचना ही बदल जाए। धनखड़ की राय में यह गलत परंपरा डालना था और न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित करने की कोशिश थी।
अगर यह सही है और इसे स्वीकार कर लिया जाए संविधान को बदल कर हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जा सकता है और संसद की सर्वोच्चता स्थापित रहेगी जैसे नोटबंदी और धारा 370 के मामले में स्थापित है। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे भाजपा को ही फायदा हुआ है देश को नहीं पर वह राय है और सबकी राय अलग हो सकती है। संसद से संविधान बदलने की बात का मतलब तब होता जब पिछले कुछ मामलों में राज्य सभा में जो हुआ वह सब नहीं हुआ होता। किसान कानून बनाकर उसे वापस नहीं लिया गया होता और उसके लिए लोगों को अपमानित करने, देशद्रोही कहने तैसी जो तपस्या हुई वह नहीं हुई होती। संविधान बदलना या कानून बदलना भी मजाक नहीं है। लेकिन जिस ढंग से यह सब हो रहा है उसमें इस चर्चा का अपना महत्व है। देखते रहिए। पढ़ते रहिये।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।