मृत्यु के कई चेहरे होते हैं। लेकिन एक ही सत्य होता है। यह एक अखंड मूल्य की हानि को दिखाती है। अधिकांश दार्शनिक और धार्मिक पुस्तकों में हमें इसकी अपरिहार्यता, इसकी निश्चितता, नश्वर जगत में इसके स्थायित्व के बारे में बताया जाता है। गीता, जो अपरिहार्य है उस पर विलाप ना करने की सलाह देती है। लेकिन यह पारलौकिक तथ्य है और तमाम अन्य पारलौकिक तथ्यों की भांति सत्य को नहीं पकड़ता। सत्य तो यह है कि महाभारत में कोई भी गीता के उपदेशों पर पूरा विश्वास नहीं करता। कोई भी पात्र अपने आप को हानि की पीड़ा से मुक्त नहीं कर पाता। पूरा कथानक हानि और दुख से आगे बढ़ता है ना कि कृष्ण के शांतिपूर्ण आश्वासनों और पारलौकिक उपदेशों से। अपरिहार्य से लड़ना समझदारी नहीं है लेकिन यह कोई तर्क नहीं है कि मृत्यु कोई हानि नहीं है।
दार्शनिकों ने मृत्यु पर बहुत चर्चा की है। मृत्यु किस तरह की हानि को दिखाती है। और किसकी? मरने वाले की या जो पीछे छूट गए उनकी? सुकरात से लेकर मोन्टेन तक दार्शनिकों की पूरी परंपरा हमें अच्छी मृत्यु के लिए तैयार करने को समर्पित है। मोन्टेन के लिए मृत्यु के बारे में सोचना वास्तव में स्वतंत्रता के बारे में सोचना है। किसी प्रकार यह जान लेना कि कैसे मरना है, हमको दासता और कठिनाइयों से मुक्त करता है। लेकिन शांत चित्त मोन्टेन भी, जो मानते थे कि मृत्यु के बारे में सोचने से जीवन चमकदार और सार्थक होता है, अपने 32 वर्षीय कुशाग्र बुद्धि मित्र ला बोटी, ‘द डिस्कोर्स ऑफ वालेंटरी सर्वित्युड’ के लेखक की मृत्यु को सहन नहीं कर पाये। उपर्युक्त पुस्तक अत्याचारी सम्मोहक अपने दासों पर क्या प्रभाव डालते हैं उसका विश्लेषण करती है। यह तथ्य कि ला बोटी की मृत्यु 32 वर्ष की अल्पायु में हुई उसके दुख को और असहनीय बना देती है, उस युग में भी जबकि युवा मृत्यु कोई विरल घटना नहीं होती थी। अधिकतर मामले में दूसरे की मृत्यु की आशंका से अपने मन को समझाना अपने मृत्यु के चिंतन से कठिन होता है।
बेशक एक और अंतर किया जाना चाहिए। जैसे मृत्यु की अपरिहार्यता हानि का जवाब नहीं है उसी तरह हानि का प्रश्न वही नहीं है जो दुख या लगाव का है। दुख का प्रश्न कोई कैसे हानि के तथ्य से संतुलन बैठाता है, बिल्कुल अलग प्रश्न है और शायद अत्यंत विषयनिष्ठ है। अलग-अलग लोगों की एक ही दुख पर अलग तरीके से प्रतिक्रिया होती है इसीलिए दुःख के प्रश्न का उत्तर दार्शनिक या धर्म-शास्त्रीय नहीं हो सकता। इसमें दुखी व्यक्ति को जानना पड़ता है। इस अर्थ में मृत्यु के मौके पर हमारे उपदेश ज्यादातर संदर्भ से हटकर होते हैं। ज्यादा से ज्यादा यह उपदेश कुछ सार्वभौमिक सत्य का बखान करते हैं। वे हानि की पीड़ा को नहीं संबोधित करते। इरफान जैसे तेजस्वी कलाकार की मृत्यु उस उम्र में, जो कि हमारे युग को देखते हुए कम ही है,एक त्रासद हानि है। दार्शनिक थॉमस नैजेल मोर्टल क्वेश्चंस में पूछते हैं क्यों युवा की मृत्यु ज्यादा त्रासद होती है? कीट्स की 26 वर्ष में मृत्यु 80 वर्ष में टॉलस्टॉय की मृत्यु के मुकाबले ज्यादा त्रासद होती है,वह इसलिए कि युवा लोगों की संभावनाए अप्रयुक्त रह जाती हैं। कीट्स अपरिहार्य मृत्यु के आने के पूर्व के कई वर्ष जीने से वंचित रह जाता है। लेकिन नैजिल चेतावनी देते हैं कि इसका यह मतलब नहीं कि टॉलस्टॉय की मृत्यु कम महत्वपूर्ण है पर लेकिन अपरिपक्व अवस्था में मृत्यु हानि और उससे जुड़े संभावित दुख दोनों को बढ़ा देती है ।
लेकिन किस हानि का हम शोक करते हैं? खासकर इरफान जैसी चमकीली प्रतिभा के मामले में, जिसने कला का उत्कर्ष प्राप्त कर लिया था, वह दुनिया में एक शून्य छोड़ गया। प्रत्येक कलाकार के साथ जुड़ी हुई हानि की भावना दरअसल उसकी विकल्पहीनता की भावना है। कुछ गहन अर्थों में वे अनूठे होते हैं। यह अनूठापन सब को छूता है। यह सार्वभौमिक है। जो चीज इसको सार्वभौमिक बनाती है, वह है उपलब्धि और मूल्य। कुछ ऐसा जो हम सब लोग स्वीकार करते हैं और मानते हैं। उसके जल्दी चले जाने का हम सब शोक करते हैं क्योंकि उसकी उपलब्धियों की महानता हमें चकित करती हैं और हम उसकी संभावनाओं की कल्पना करते हैं।
एक महान कलाकार की मृत्यु के रूप में हुई हानि, एक अर्थ में उस हानि को व्यक्त करती है जो हानि मृत्यु सामान्यतः करती है। एक निजता की हानि, दुनिया में किसी मूल्य का अनूठा ठिकाना होता है। सार्वजनिक रूप से कम जाने जाने वाले लोगों में कोई भी मृत्यु असंख्य संभावनाओं की ज्वाला को बुझा देती है। हमारे पास जो कलात्मक कौशल है, हम उस में अनूठे नहीं हैं। हम सब कीट्स, टॉलस्टॉय या इरफान नहीं हो सकते। लेकिन अपने समाज में अपने जीवन इतिहास में जैसे बनाए जाते हैं, उसमें हम दुनिया को गढ़ने में अनूठे ढंग से काम करते हैं। मृत्यु एक वस्तुनिष्ठ हानि है। जीवन को जो चीज मूल्यवान बनाती है वह है मान्यता। कलाकार कुछ अर्थों में अपने आप को सार्वभौमिक मान्यता के लिए उजागर करते हैं। पहचाने जाते हैं और उसकी हानि तुरंत महसूस की जाती है क्योंकि वह सार्वभौमिक रूप से जाने जाते हैं ।
लेकिन जीवन की छोटी-छोटी कलाओं को कौन सी चीज मूल्य प्रदान करती है, साधारण विशिष्टताए हमें बनाती हैं, जो हम हैं। यही तथ्य है, जो छोटे से दायरे में ही सही एक पहचान बनाती है। जैसा कि एडम स्मिथ बताते हैं कि मनुष्य के ऊपर सबसे बड़ी बदनामी मृत्यु नहीं है, अपितु जीवन की विशेषताओं की स्वीकृति न होना है। यही जीवन को मूल्य हीन बना देती है। यह वह क्षण है जबकि मृत्यु सार्वजनिक चर्चा में है। यद्यपि मृत्यु अपरिहार्य है, आधुनिकता का यह दम्भ है कि यह इसे प्रयास करके कम से कम कुछ समय के लिए हरा सकती है। मृत्यु केवल एक पारलौकिक घटना नहीं है। इसका चक्र कुछ विज्ञान द्वारा और कुछ समाज शास्त्र द्वारा भी निर्धारित किया जाता है। सामूहिक संगठनों द्वारा भी निर्धारित किया जाता है, जो कि यह तय करते हैं कि कौन जीवित रहेगा और कौन मरेगा। हम लोग युवा लोगों के जीवन की कीमत बनाम वृद्ध लोगों के जीवन की कीमत पर बहस कर रहे हैं। लेकिन एक तरीके से हम जीवन की कीमत के विषय में दो दृश्यों की बहस कर रहे हैं। एक वह जो जीवन को शुद्ध रूप से सांख्यिकी शर्तों में देखता है जहां एक जीवन की कीमत की जगह दूसरे जीवन की कीमत से प्रतिस्थापित की जा सकती है। सांख्यिकी हमारा नया पारलौकिक शास्त्र बन जाता है। या हम इसे कलात्मक शर्तों में देखते हैं जहां प्रत्येक जीवन अनूठी अतुल्य संभावनाओं का स्रोत है। प्रत्येक मृत्यु अपने आप में एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हर बार हम गरीब और बहुत से अदृश्य लोगों को उनकी संभावनाओं के बोध से वंचित कर देते हैं। हम स्वयं भी हानि उठाते हैं। लोगों को संभावनाओं से वंचित करना जीवन से वंचित करने जैसा है। दुख की कोई क्षतिपूर्ति नहीं है, कभी-कभी मृत्यु की अपरिहार्यता के कारण मुश्किल विकल्प अपनाने पड़ते हैं। मोन्टेन ने ला बूटी की मृत्यु की क्षतिपूर्ति उसके कार्यों को अपने जीवन में उतारकर की। यह बात कुछ यूं है कि जो दृष्टि हमें मृत्यु को अपूर्णीय क्षति के रूप में दिखाती है वही हमें जीवन की असीम संभावनाओं को समझने में मदद करती है।
हमारे दौर के विशिष्ट चिंतक प्रताप भानु मेहता का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में छपा- Loss of great artiste helps in understanding the loss any death represents अनुवाद- आनंद मालवीय