हंगर इंडेक्स में भारत @94: भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ!

‘भारत पिछले सात-आठ महीनों से अपने अस्सी करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन दे रहा है और यह इस कारण संभव हो पा रहा है कि किसानों की कड़ी मेहनत से अनाजों के गोदाम भरे हुए हैं।’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन के बाद से गत विश्व खाद्य दिवस तक अपने इस कथन को इतनी बार दोहराया है, और जैसा कि उनका स्वभाव है, इतने दर्पपूर्वक कि कई लोगों को यह बात भी उनके ‘महानायकसुलभ पराक्रमों’ का हिस्सा और इस कारण गर्व का वायस लगने लगी है! हालांकि यह गर्व से ज्यादा चिंता की बात है कि उनकी जो सरकार पहले यह स्वीकारने को भी तैयार नहीं होती थी कि इक्कीसवीं सदी के बीसवें वर्ष में भी देश में इतनी गरीबी और गिरानी है, उसने कोरोना का झटका लगते ही अस्सी करोड़ गरीब ढूंढ़ निकाले हैं।

उसी की मानें तो ये ऐसे गरीब हैं, जिनके निकट परिस्थितियां इतनी खराब हैं कि कड़ी मेहनत-मशक्कत के बावजूद वे अपने पेट नहीं भर पा रहे और उनकी मोहताजी के मद्देनजर उसको उनकी भूख  मिटाने की भी फिक्र करनी पड़ रही है-कपड़े और मकान की तो बात भी कौन करे। इसके मद्देनजर इस सरकार और उसके समर्थकों को अनाजों के गोदाम भरे होने का ढिंढोरा पीटने के बजाय खुद को इस असुविधाजनक सवाल के सामने ख़ड़ा करना चाहिए था कि ऐसा क्यों है कि एक ओर अनाज के गोदाम उफनाये पड़ रहे हैं और दूसरी ओर अस्सी करोड़ गरीब भुखमरी या कुपोषण के शिकार हैं?

अगर देश की जनता की ही तरह इस सरकार की याददाश्त भी कमजोर नहीं है तो उसे याद होगा कि 1997 से 2002 तक राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन ने अपने काल में पाया था कि खाद्यान्नों की इतनी प्रचुर उपलब्धता के बावजूद कोई देशवासी भूखा सोता है तो इसका अर्थ यह है कि उसके पास उन्हें खरीदने भर को क्रयशक्ति नहीं है। उनके इसी निष्कर्ष का प्रतिफल था कि बाद की सरकारों ने भूखे देशवासियों की क्रय शक्ति बढ़ाने के जतन तो किये ही, उन्हें खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने की दिशा में भी कई उल्लेखनीय कदम बढ़ाये।

लेकिन छः साल से ज्यादा सत्ता में रह चुकी इस सरकार के निकट इस याद को स्वीकार करने के रास्ते में भी एक बड़ी बाधा है। यह कि तब उसे यह भी याद करना पड़ेगा कि उसके छः सालों के सत्ताकाल में इस क्रय शक्ति और खाद्य सुरक्षा दोनों का खाना खराब हो गया है। इस दौरान उसने, और तो और, खाद्य सुरक्षा कानून तक को निरर्थक बनाकर रख दिया है और वह इस सबका ठीकरा ‘पिछले सत्तर साल’ पर नहीं फोड़ सकती।

वैसे ही, जैसे इसका कि इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक में 107 देशों की सूची में भारत, जिसे ‘विश्वगुरू’ और ‘विश्वशक्ति’ बनाने के थोथे दावे करती वह थकती नहीं और अभी हाल तक जिसकी अर्थव्यवस्था को फॅाइव ट्रिलियन डालर तक पहुंचाने का भरपूर तूमार बांध रही थी, 94वें स्थान पर है-पाकिस्तान, बंग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से भी गिरी हालत में।

गौरतलब है कि पिछले साल इस सूचकांक में भारत 102वें स्थान पर था। लेकिन आठ अंकों की यह तरक्की किसी संतोष का कारण नहीं बनती, क्योंकि तब भी उसका हाल उसके पड़ोसी देशों से बुरा था और अब भी है। 2014 के उस स्थान से तो वह अभी भी बहुत दूर है, जो उसे मनमोहन सरकार के कामों से हासिल हुआ था। तब 76 देशों की सूची में वह 55वें स्थान पर था। मोदी सरकार आई तो 2015 में वह 80वें स्थान पर लुढ़क गया, 2016 में 97वें, 2017 में 100वें और 2018 में 103वें स्थान पर। साफ है कि मोदी सरकार के छः साल इस लिहाज से बंटाधार के रहे हैं तो इसके पीछे उसकी गलत प्राथमिकताएं हैं।

जैसा कि हम जानते हैं, इन सूचकांकों में चार संकेतकों के आधार पर अंकों की गणना की जाती है-अल्पपोषण, बच्चों के कद के हिसाब से उनका कम वजन, वजन के हिसाब से कम कद और बाल मृत्यु दर। फिलहाल, इन चारों में से किसी भी संकेतक के आधार पर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर उसकी चौदह प्रतिशत आबादी अभी भी कुपोषित है और सूचकांक में भुखमरी की जो पांच श्रेणियां बनाई गई हैं-0 से 9.9 अंक तक मध्यम, 10.0 से 19.9 अंक तक मध्यम, 20.0 से 34.9 तक गंभीर, 35.0 से 49.9 भयावह और 50.0 को अति भयावह, उनके लिहाज से उसकी भूख की समस्या को ‘गम्भीर’ श्रेणी में रखा गया है।

सवाल है कि इस गम्भीर हालत के बावजूद हमारे सत्तातंत्र को कुछ चेत आयेगा और वह इस हकीकत को समझेगा या नहीं कि देश में भुखमरी की चुनौती इतनी बड़ी हो गई है कि महज बड़े-बड़े बोलों या डपोरशंखी एलानों से उससे नहीं निपटा जा सकता और दीर्घकालिक, समन्वित, सकारात्मक और समावेशी प्रयासों के बगैर बात नहीं बनने वाली? फिलहाल, फौरी टिप्पणियां इसकी कोई उम्मीद नहीं बधातीं। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि हालात यहां तक इसलिए पहुंचे हैं कि स्थिति से निपटने के लिए कुछ किया भी गया है तो वह खराब क्रियान्वयन की भेंट चढ़ गया और उसकी निगरानी में भी कमी रही है। इस कारण वास्तविक जरूरतमंदों तक उसका कोई लाभ नहीं पहुंचा है। कोढ़ में खाज यह कि इसके बावजूद केन्द्र य राज्य सरकारों ने लगातार उदासीन रवैया अपनाये रखा है और उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य खराब प्रदर्शन करते आये हैं।

लेकिन विशेषज्ञों की इस राय से सरकारों को शायद ही कोई फर्क पड़े, क्योकि अब वे विशेषज्ञों की नहीं, अपनी पार्टी के थिंक टैंकों की राय से चला करती हैं। उन थिंक टैंकों की,  जिनमें से अधिकतर मानते हैं कि उनके दलीय हित गरीबों, दलितों व वंचितों की भूख-प्यास और बेकारी वगैरह के उन्मूलन व जीवनस्तर ऊंचे उठाने के ठोस प्रयत्नों से नहीं बल्कि उन पर नाना प्रकार के इमोशनल अत्याचारों से सधते हैं। यह मान्यता उनको किसी भी तरह की बदहाली की शर्म महसूस करने या उसकी जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करने देती। वे अपने ‘खास मित्रों’ की जेबें भरने में लगी रहती हैं और राहुल गांधी जैसे विपक्षी नेता इस पर एतराज करते हैं तो उन्हें राजनीतिक बताकर खारिज कर दिया जाता है।

दुष्यंत कुमार ने अरसा पहले अपने एक शे’र में कहा था : भूख है तो सब्रकर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेरे बहस यह मुद्दआ। बिडम्बना यह कि उनके इस संसार को अलविदा कहने के बाद भी इस ‘दिल्ली’ की राति-नीति में कोई गुणात्मक या धनात्मक  परिवर्तन नहीं हुआ है। न ही उस व्यवस्था में, जो गैरबराबरी और शोषण पर आधारित है और जिसके पलते किसी देशवासी के विकल्प इतने सीमित हो गये हैं कि उसकी समस्या है कि वह खाये तो क्या खाये और किसी के पास इस सीमा तक सब कुछ भरा पड़ा है कि वह समझ नहीं पाता कि क्या-क्या खाये।

इसी के चलते संयुक्तराष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में उत्पादित चालीस प्रतिशत खाद्यान्न व्यर्थ हो जाता है, जो मात्रा के लिहाज  से ब्रिटेन में हर साल उपयोग में आने वाले खाद्यान्न के बराबर है। दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के ही भोजन व कृषि संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में करोड़ों लोग हैं, जिन्हें दो वक्त का भोजन नसीब नहीं है और उनमें से ज्यादातर को भूखे ही सो जाना पड़ता है।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।

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