महामारी और महात्मा फुले की विचार-परंपरा

जब यह बीमारी पुणे शहर में फैली तब सावित्रीबाई फुले और यशवंत ने जोतिबा फुले के कहे वचन को याद किया और रोगियों की सेवा में जुट गए. रोगियों को लाना और उनकी चिकित्सा करना उन दिनों साधारण काम नहीं था. ऐसे अवसर पर अपने परिवार के लोग भी मुंह मोड़ लेते हैं. माँ -बेटे ने पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था. नतीजतन दोनों स्वयं रोग के गिरफ्त में आ गए. 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले की मृत्यु हो गयी. कुछ वर्ष बाद यशवंत फुले की मृत्यु भी रोगियों की सेवा करने के क्रम में ही हुई. सेवा करते हुए जान देना आधुनिक भारतीय इतिहास की एक उल्लेखनीय घटना होनी चाहिए थी. लेकिन ….अँधा चकाचौंध का मारा, क्या जाने इतिहास बिचारा!

आज भारतीय नवजागरण के अग्रदूत जोतिबा फुले (1827-1890 ) का जन्मदिन है. पूरी दुनिया के साथ आज फुले का भारत भी कोरोना महामारी की चपेट में है. लोग सहमे हुए हैं. महामारियाँ पहले भी होती रही हैं. यह अलग बात है कि कोरोना वायरस कुछ अलग तरह का है. यूँ, प्लेग, चिकेन-पॉक्स, मलेरिया, एन्फ्लूएंजा आदि भी कम खतरनाक नहीं थे.

फुले -परिवार की कहानी भी एक महामारी की घटना से जुडी है. कम लोगों को मालूम है कि जोतिबा फुले की पत्नी भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई और उनके चिकित्सक बेटे यशवंत ने प्लेग महामारी में रोगियों की सेवा करते हुए अपनी जान दी थी.

फुले दम्पति को अपनी देह से कोई संतान नहीं थी. एक रोज जोतिबा जब प्रभात- भ्रमण के सिलसिले में एक नदी तट पर थे, उन्हें एक स्त्री का विलाप सुनाई दिया. देखा, नदी तट पर एक स्त्री बिसूर रही है. नजदीक जाकर जोतिबा ने पूरी जानकारी ली. स्त्री एक ब्राह्मण विधवा थी, जो गर्भवती थी. वह नदी में डूब कर अपनी जान देने आयी थी. जान देने के पूर्व उसने रो लेना जरुरी समझा होगा, या अनजाने रुलाई आ गयी होगी. अपने ज़माने की विधवाओं की ऐसी नियति से जोतिबा परिचित थे. उस विधवा औरत को जोतिबा घर ले आये. उसे बहन के रूप में रखा. जचगी हुई और विधवा को बेटा हुआ. जोतिबा ने बेटे का नाम रखा यशवंत. ( स्मरण कीजिए डॉ आंबेडकर ने भी अपने बेटे का यही नाम रखा.) इस यशवंत को फुले दम्पति ने पुत्र रूप में गोद लिया और उसका पालन -पोषण किया. यशवंत मेडिकल डॉक्टर बने और पुणे शहर में ही अपना क्लिनिक खोला.

1890 में जोतिबा फुले का निधन हुआ. मृत्यु के समय अपनी पत्नी और बेटे को जोतिबा ने यही कहा था कि वंचितों और दुखी लोगों की सेवा में प्राण-पण से लगे रहना. फुले की इस बात का दोनों ने ख्याल रखा. अपने जीवन में स्त्रियों और दलितों केलिए प्रथम स्कूल खोलने वाली महिला सावित्रीबाई ने अपने बेटे के क्लिनिक में नर्स के रूप में काम करना आरम्भ किया. फुले के निधन के सातवें साल अर्थात 1897 में दुनिया भर में महामारी फैली. इसे थर्ड पानडेमिक कहा जाता है. यह बूबोनिक प्लेग था. दुनिया भर में इससे लाखों लोगों की जान गयी थी. जब यह बीमारी पुणे शहर में फैली तब सावित्रीबाई फुले और यशवंत ने जोतिबा फुले के कहे वचन को याद किया और रोगियों की सेवा में जुट गए. रोगियों को लाना और उनकी चिकित्सा करना उन दिनों साधारण काम नहीं था. ऐसे अवसर पर अपने परिवार के लोग भी मुंह मोड़ लेते हैं. माँ -बेटे ने पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था. नतीजतन दोनों स्वयं रोग के गिरफ्त में आ गए. 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले की मृत्यु हो गयी. कुछ वर्ष बाद यशवंत फुले की मृत्यु भी रोगियों की सेवा करने के क्रम में ही हुई. सेवा करते हुए जान देना आधुनिक भारतीय इतिहास की एक उल्लेखनीय घटना होनी चाहिए थी. लेकिन ….अँधा चकाचौंध का मारा, क्या जाने इतिहास बिचारा!

 

 

इस महामारी के बीच जोतिबा फुले के जन्मदिन पर इस घटना के स्मरण के साथ ही हम उनकी परंपरा का अभिनंदन करते हैं. फुले ने हमें वंचितों और दुखियों की सेवा के लिए प्रेरित किया. जो लोग दुनिया को अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं, गुलाम बना कर रखना चाहते हैं, उनके खिलाफ विद्रोह किया. मनुष्य की आज़ादी का परचम फहराया.

फुले और आंबेडकर की विरासत को हड़पने के लिए कुछ सत्ता-व्याकुल लोग बेचैन हैं. आंबेडकर की मूर्ति लिए कई रिपब्लिकन आज भगवा ढो रहे हैं. कुछ लोगों की कोशिश है कि उन्हें दलित दायरे में कैद रखा जाये. फुले की मूर्तियों पर सब से मोटी मालाएं वे चढ़ा रहे हैं, जिन के खिलाफ कभी फुले ने विद्रोह किया था. दिलचस्प खबर है कि आरएसएस ने जोतिबा फुले के बड़े भाई राजाराम फुले की पांचवीं पीढ़ी के किसी नितिन रामचंद्र को ढूँढ निकाला है. नितिन आज स्वयंसेवक हैं और संघ की पताका ढो रहे रहे हैं. जोतिबा को घर से उनके क्रान्तिकारी विचारों के कारण निकाल दिया गया था. वही घर और वही कुल – बिरादरी आज उनके विरासत की बात कर रही है! कौन है उनका वास्तविक कुल?

सच्चाई यह है कि उनके बेटे यशवंत थे. एक कुजात ब्राह्मण. वही उनका कुल था. वही उनकी परंपरा है. यशवंत जन्मना फुले की अनुवांशिक परंपरा में नहीं थे, उन्होंने वह कुल और उनकी परंपरा अर्जित की थी. फुले के त्याग और विचार की परंपरा को उन्होंने आत्मसात किया और आगे बढ़ाया. फुले का महत्व उनके विचारों को लेकर है. जो उन विचारों के वाहक हैं, वही उनके लोग हैं.

महात्मा फुले के जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि.

 

प्रेमकुमार मणि वरिष्‍ठ लेखक और पत्रकार हैं। सत्‍तर के दशक में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सदस्‍य रहे। मनुस्‍मृति पर लिखी इनकी किताब बहुत प्रसिद्ध है। कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित हैं। बिहार विधान परिषद के सदस्‍य रह चुके हैं।

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