जयदेव: तुमुल कोलाहल कलह में मैं ह्रदय की बात रे मन!


अमिताभ श्रीवास्तव

जयशंकर प्रसाद की कविता की यह पंक्ति एक तरह से हिंदी सिनेमा की कोलाहल और कलह भरी दुनिया में जयदेव जैसे अनूठे संगीतकार का परिचय पत्र भी बन जाती हैं। शोरशराबे वाली फिल्मी धुनों के जंगल में जयदेव का संगीत बहुत अलग तरह से , ठहराव के साथ दिल की बात करता है, दिल को छू लेता है। प्रसाद की कविता को जयदेव की रची धुन में आशा भोंसले ने अत्यंत मोहक अंदाज़ में गाकर ग़ैर फिल्मी गीतों के दायरे में अविस्मरणीय बना दिया है। आशा भोंसले ने ही गा़लिब को जयदेव की रची धुन में क्या खूब गाया है- कभी नेकी भी उसके जी में गर आ जाए है मुझसे, जफ़ाएँ करके अपनी याद शर्मा जाए है मुझसे। इन्ही जयदेव के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर ने गाया – जो समर में हो गये अमर । शहीदों को समर्पित नरेंद्र शर्मा का यह गीत अद्भुत प्रभाव छोड़ता है। जयदेव के संगीत और लता मंगेशकर की गायकी ने इसको भी ऐ मेरे वतन के लोगों की तरह यादगार बना दिया है। जयदेव के रचे संगीत में मुकेश की आवाज़ में कैफी आज़मी की ग़ज़ल सुनकर मुकेश की गायकी का एक अलग अंदाज सामने आता है- तुझको यूँ देखा है, यूँ चाहा है, यूँ पूजा है , तू जो पत्थर की भी होती तो खुदा हो जाती। बच्चन की मधुशाला को पढ़ा भी खूब गया और जयदेव के संगीत में मन्ना डे की आवाज़ में उसकी प्रस्तुति को सुना भी खूब गया है। जयदेव इस अर्थ में विलक्षण और संभवतः अकेले संगीतकार हैं जिन्होंने गैर फ़िल्मी संगीत रचने में अपनी महारत एकाधिक बार सिद्ध की है ।

लेकिन जयदेव को फिल्म संगीत के इतिहास में किसी एक गाने के लिए हमेशा याद रखा जाएगा तो वह है देव आनंद की फिल्म हम दोनों का गीत- अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम , सबको सन्मति दे भगवान।यह गाना भारत के राजनीतिक-सामाजिक माहौल के लिए जितना जरूरी साठ साल पहले था, उससे कहीं ज्यादा आज है। महात्मा गांधी की प्रार्थना सभाओं में गाए जाने वाले रघुपति राघव राजाराम, ईश्वर अल्ला तेरो नाम से प्रेरणा लेकर जयदेव और साहिर की जोड़ी ने ‘हम दोनों’ फिल्म के माध्यम से हिंदी सिनेमा और हमारे समाज को एक अमर गीत तो दिया ही है, यह भारत जैसे देश के लिए एक सार्वकालिक सामाजिक, सांस्कृतिक सन्देश भी है। देव आनन्द ने अपनी आत्मकथा में हम दोनों के संगीत को बड़े लगाव और सम्मान के साथ याद किया है।

3 अगस्त 1918 को नैरोबी में पैदा हुए संगीतकार जयदेव की कहानी बहुत दिलचस्प है। नैरोबी में बचपन के शुरुआती दौर में पिता के मित्र से मिले माउथ ऑर्गन पर अफ़्रीकी धुनें निकालते जयदेव कुछ समय बाद ही लुधियाना आ गये थे । संगीत में दिलचस्पी माँ को गाते देखकर बढ़ी । अलीबाबा चालीस चोर फिल्म देखकर सिनेमा के कीड़े ने काटा तो एक्टर बनने मुंबई भाग गये। पिता कुछ ज्योतिष भी जानते थे तो उन्होंने कहा कि इसे रोको मत। कुछ फिल्मों में एक्टिंग भी की। सरोद के उस्ताद अली अकबर खान से तालीम ली। उदयशंकर के अल्मोडा स्थित सेंटर गये इस उम्मीद में कि वहाँ रविशंकर, अलाउद्दीन खान वगैरह मिलेंगे जिनसे संगीत सीखा जाएगा लेकिन तब तक उदयशंकर की मंडली बिखर चुकी थी। अली अकबर खान को चेतन आनंद ने संगीत निर्देशन का मौका दिया आँधियाँ में । जयदेव उनके सहायक बन गये। फिर सचिनदेव बर्मन के साथ जुड़े। विजय आनंद के निर्देशन में बनी हम दोनों ने सही मायने में उन्हें एक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित संगीतकार का रुतबा दिलाया।

साहिर लुधियानवी के साथ उनकी जुगलबंदी ने वो गीत-संगीत रचा जिसे हम हर अर्थ में क्लासिक कह सकते हैं । हम दोनों के अलावा ‘ मुझे जीने दो’ भी उसकी एक कड़ी है।

तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ , और दुआ दे के परेशान सी हो जाती हूँ- मुझे जीने दो की ये लोरी फिल्मों में आम तौर पर इस्तेमाल की गयी मीठी, मासूम, लाड़ जगाती और गुनगुनाने लायक लोकप्रिय लोरियों की तरह नहीं है। डाकुओं के अड्डे पर उनके बीच अपने बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित मां का दर्द लता की आवाज़ में क्या खूब उतरा है और परदे पर वहीदा रहमान ने उसे बेजोड़ अभिव्यक्ति दी है । मुझ सी मांओं की मुहब्बत का कोई मोल नहीं- एक तो साहिर की कलम और उस पर जयदेव की बनायीं तर्ज़ -एक अजीब, गहरी सी उदासी घेर लेती है इसे सुनकर, आंख डबडबा जाती है. एक थरथराहट सी होती है की ऐसी भी लोरी लिखी जा सकती है, धुन में ढाली जा सकती है और खूबसूरती से गायी जा सकती है।

उसी फिल्म में साहिर का लिखा एक और गाना है जो 15 अगस्त और 26 जनवरी को खूब सुनाई देता था- अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आज़ाद है । ये आज़ादी के बाद की तरक्की को लेकर वो आशावाद था जिसे 70 के दशक का सिनेमा जिलाये रखने की कोशिश कर रहा था लेकिन ज़मीनी सियासी और समाजी हक़ीक़त इस सपने को हर पल कुचलती दिख रही थी। रफ़ी की आवाज़ के उतार चढाव ने जयदेव की संगीत रचना को एक अद्भुत उठान दी है। साहिर के शब्द- शेख का धर्म और दीने बरहमन आज़ाद है- जिस सांप्रदायिक सद्भाव की बात करते हैं वो तब से कहीं ज़्यादा आज के दौर की ज़रुरत है।

वहीदा रहमान ने अपनी अभिनय यात्रा में जिन फिल्मों को उल्लेखनीय माना है उनमें मुझे जीने दो और रेशमा और शेरा का भी ज़िक्र आता है . दोनो फिल्मों का संगीत जयदेव ने दिया है. रेशमा और शेरा के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था- उनका पहला. दूसरा गमन के लिए और तीसरा अनकही के लिए.

तीन-तीन राष्ट्रीय पुरस्कार लेकिन फ़िल्मी दुनिया में तो टिकट खिड़की वाली कामयाबी को ही सलाम किया जाता है. इसलिए अच्छे संगीत लेकिन फ्लॉप फिल्मों के चलते जयदेव को उतना काम मिला नहीं जितना उनके जैसे आला दर्जे के संगीतकार को मिलना चाहिए था. इस लिहाज से जयदेव की त्रासदी मदनमोहन से मिलतीजुलती है। वैसे दोनों हमप्याला भी थे। कम लोगों को ही मालूम होगा कि मदनमोहन के देहांत के बाद लैला मजनू का संगीत जयदेव ने पूरा किया था।

तीस साल से थोड़ा ऊपर का समय बिताया उन्होंने संगीत रचते हुए लेकिन फिल्मों की गिनती पचास से भी कम. हाँ लकिन एक बात ज़रूर है कि उनका एक भी गाना ऐसा नहीं है जिसे संगीत की किसी भी कसौटी पर साधारण कहा जा सके. बल्कि फ़िल्मी दुनिया के संगीतकारों की भीड़ में जयदेव ऐसे विरल संगीतकार नज़र आते हैं जो अपने लिए खुद फिल्म दर फिल्म ही नहीं एक ही फिल्म में एक से बढ़कर एक वाली चुनौती पेश करते हैं. रेशमा और शेरा, मुझे जीने दो, हम दोनों, गमन, परिणय, आलाप इसकी कुछ बेहतरीन मिसालें हैं।

भजन तो उन्होंने जो रचे वो हमारी रोज़मर्रा की प्रार्थनाओं में, धार्मिक सभाओं में संगीत सम्मेलनों में कहीं भी, अपनी आध्यात्मिकता का अलग उजाला बिखेरते हैं. परिणय का ‘जैसे सूरज की गर्मी’ हो या आलाप की सरस्वती वंदना याद कीजिये , भाव विभोर हो जायेंगे।

जयदेव सूफ़ियाना मिज़ाज के इनसान थे। लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए कई गानों की धुनें तैयार कीं। शादी की नहीं, जिंदगी भर किराये के मकान में रहते रहे। नये गायक गायिकाओं को सबसे ज्यादा मौका उन्होंने ही दिया। गमन में छाया गांगुली को आपकी याद आती रही रात भर के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला । उसी फिल्म में सुरेश वाडकर और हरिहरन की आवाज़ें चर्चित हुईं और उनके लिए आगे के रास्ते खुले।परिणय में राजेंद्र मेहता और शर्मा बंधु, घरौंदा में रूना लैला को याद करें। भूपिंदर तो थे ही। घरौंदा, दूरियाँ, आलाप, आंदोलन में भूपिंदर के गाने बेहतरीन हैं। वैसे भी भूपिंदर ने जिन संगीतकारों के साथ अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है, उनमें ख़य्याम और आर डी बर्मन के अलावा जयदेव ही हैं। अनकही में जयदेव ने पंडित भीमसेन जोशी से गवाया।

इसे फ़िल्मी दुनिया की खुदगर्ज़ी ही कहा जायेगा कि उसने जयदेव को उनका हक़ नहीं दिया। और ये जयदेव के सुरों की ताक़त ही है जो इस उपेक्षा के बावजूद उन्हें लोकप्रिय संगीत की दुनिया में हमेशा ज़िंदा रखेगी।

 अमिताभ श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख जयदेव जी के जन्मदिन 3 अगस्त पर उनके फेसबुक पेज पर छपा। आभार सहित प्रकाशित।

 

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