27 मई को नेहरू का पुण्यदिवस था तो अगले ही दिन सावरकर का जन्मदिन.
ज़ाहिर है सोशल मीडिया पर वबाल मचना था, मचा. वैसे इन सबलोगों को आभारी होना चाहिए पिछले कुछ सालों में बने माहौल का कि फिर से याद किये जाने लगे, वरना तो औपचारिक समारोहों के अलावा कहाँ कोई याद करता था? एक तरफ़ से फ़र्ज़ी व्हाट्सेप मैसेज चले तो दूसरी तरफ़ भी फिर से ज़रुरत महसूस हुई इतिहास को रिविजिट करने की. नतीजा तीख़ी बहसें. गाली-गुफ्ता के बीच युवाओं का एक वर्ग जो किताबों और लेखकों तक जाकर सच की तलाश करना चाहता है. नो पॉलिटिक्स प्लीज के भाषण अब बेमानी होते जा रहे हैं और हर मोबाइल राजनीति का एक लाइव अखाड़ा है.
अभी सावरकर की बात करते हैं . आजतक के रेडियो पॉडकास्ट के लिए मुझसे पूछा गया उनके बारे में तो पहला वाक्य यही निकला कि सावरकर एक नहीं दो हैं. गिरफ्तारी के पहले के सावरकर और रिहाई के बाद के सावरकर. संपत की जो हाल में किताब आई है वह पहले सावरकर से दूसरे बनने तक की कथा अपनी तरह कहकर छोड़ देती है. यह किताब सावरकर को अपने तरीक़े से डिफेंड करती है और बताने की कोशिश करती है कि उनकी माफियाँ ‘वैधानिक’ थीं. यह भी कि जेल में रहकर वह क्या कर लेते? लेकिन शायद यह 1924 पर रुक भी इसीलिए जाती है कि आगे जाने पर बताना पड़ता कि जेल से छूटकर उन्होंने किया क्या? अगर माफ़ी रणनीति थी तो छूटने का उद्देश्य क्या था? अगर वह देश की आज़ादी थी तो छूटने के बाद उस आज़ादी के लिए क्या किया गया? आसान है यह कहना कि ख़िलाफ़त आन्दोलन से नाराज़ थे, मुश्किल है इस तर्क का जवाब कि मुक्त होने के बाद मुस्लिम विरोध का आन्दोलन चलाकर और 1937 में अहमदाबाद की हिन्दू महासभा की बैठक में अध्यक्षीय भाषण देते हुए यह कहकर कि हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं, कौन से अखंड भारत की स्थापना की कोशिश की जा रही थी? अम्बेडकर का निष्कर्ष था कि जिन्ना और सावरकर दोनों ही दो राष्ट्रों के सिद्धांत के समर्थक हैं. संपत अभिलेख खंगालते तो कपूर कमीशन को छोड़ नहीं पाते जिसका निष्कर्ष था कि गांधी ह्त्या की इकलौती वजह सावरकर का षड्यंत्र है. यही वह उलझन है जिसका जिक्र मैंने किया. पूरा सावरकर न दिखाने की उलझन.
दाहिनी तरफ़ की राजनीति पहले वाले सावरकर को सेलीब्रेट करती है, दूसरे पर चुप्पी साध जाती है. कभी बहुत चालाकी से पहले वाले को दूसरे वाले पर प्रक्षेपित किया जाता है. घटनाओं को बहुत बड़ा करके दिखाया जाता है और चीज़ों को ब्लर कर दिया जाता है. सच्चाई सबके लिए असुविधाजनक है.
सावरकर पर सबसे ज़्यादा चर्चित जीवनी है धनञ्जय कीर की. सावरकर की मृत्यु के बाद जब दूसरा संस्करण आया तो इसका नाम ‘वीर सावरकर’ कर दिया गया. धनञ्जय कीर बहुत भक्ति भाव से जीवनियाँ लिखते हैं. अम्बेडकर की भी, तिलक की भी, सावरकर की भी. लेकिन इस भक्ति में भी बहुत कुछ निकल आता है, असुविधाजनक. सावरकर ने ख़ुद भी काफ़ी लिखा है. पहले वाले दौर में लिखा ‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता संगाम‘ तो सब जानते हैं. लेकिन यह जो तमाशा मचाया गया कि अंडमान की जेल में वह किताब लिखी गई, नाखून से – शुद्ध झूठ है. किताब उसके पहले लिखी गई थी. इतना तो कीर को पढ़ते ही जान सकते हैं. नाखून से दीवार पर नारे लिखे जा सकते हैं, चार सौ पेज की किताब लिखने के लिए चार किलोमीटर लम्बी और इतनी ही चौड़ी जेल की कोठरी चाहिए और एक फ्लेक्सिबल सीढी भी. लेकिन इस झूठ का ख़ूब प्रचार किया गया है. सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते मैंने भी सुना है यह क़िस्सा और वर्षों भरोसा किया है. एक किताब है ‘सिक्स ग्लोरियस एपो ऑफ़ इन्डियन हिस्ट्री.’ आख़िरी किताब उनकी. मरने के बाद 1971 में छपी. पहली और आख़िरी किताब उन्होंने मराठी में लिखी. हिन्दुत्व सीधे अंग्रेज़ी में लिखी गई थी. इसके अलावा सावरकर के लेखों भाषणों आदि को मिलाकर उनका सम्पूर्ण भी प्रकाशित हो चुका है.
इतिहास नस्लवादी राष्ट्रवाद का पसंदीदा हंटिंग ग्राउंड होता है तो सावरकर ने भी इन दोनों किताबों में इतिहास लिखने का भ्रम पैदा किया है. लेकिन ”1857 का भारतीय स्वतंत्रता संगाम’ में तो थोड़ा लुक-छिप के मामला है, एक युवा का जोश है, सिपाही क्रान्ति कहकर खारिज़ की गई 1857 की लड़ाई को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम बताने की जिद है और इसीलिए शिवाजी के वंशजों की अंग्रेज़ों की ग़ुलामी स्वीकार करने के लिए तीख़ी भर्त्सना है तो बहादुरशाह जफ़र और अजीमुल्ला खान की तारीफ़. यहाँ उनकी मुस्लिम विरोधी विचारधारा और इतिहास की कच्ची समझ जहाँ-तहाँ झांकती है लेकिन एक ईमानदारी बिलकुल स्पष्ट और आकर्षक है – जो अंग्रेज़ों के साथ है वह दुश्मन और जो ख़िलाफ़ है वह दोस्त. यह एक राष्ट्रवादी स्टैंड था और उस दौर में शानदार था, इतना कि अंग्रेज़ इस किताब को लेकर असहज थे. चोरी-छिपे लाई गई और वितरित की गई. लेकिन जो दूसरी किताब है वह उनकी यात्रा के आख़िरी पड़ाव और पहले तथा बाद के सावरकर में अंतर बताती है. यहाँ वह छः स्वर्णिम युगों की बात करते हैं और अगर आपने सरस्वती शिशु मंदिर की इतिहास की किताबें पढ़ीं हों तो लगता है यहीं से सीधे लिख दी गई हैं. हवाई तथ्य और तीख़ा मुस्लिम द्वेष. लेकिन इसके आगे भी हैं चीज़ें. मुसलमान महिलाओं के बलात्कार को राजनीति का हिस्सा बताया गया है. मेरे पढने में यह पहली किताब है जहाँ बलात्कार को केवल सही नहीं ठहराया गया बल्कि रणनीति का हिस्सा बना दिया गया है. इस किताब का लेखक एक थका हुआ कुंठित और कमज़ोर बूढ़ा है नफ़रत से भरा हुआ. 1857 का इतिहास लिखने वाला युवा इस किताब के आने तक पूरी तरह ख़त्म हो चुका है, उसके आदर्शों पर घुन लग चुकी है और गांधी ह्त्या के बाद से गुमनामी की ज़िन्दगी जीता हुआ वह जैसे अपनी ही बनाई आत्ममुग्ध फंतासी में उलझकर इस क़दर घिनौना हो गया है कि परनाले को गंगा समझकर खेले जा रहा है. सावरकर की यात्रा एक आदर्शवादी और उद्दण्ड युवा के एक कुंठित और पतित बुजुर्ग में बदलने की कथा है, जिसे वीर होने की आत्ममुग्धता और कष्टों से भागने की कायरता ने एक षडयंत्रकारी में बदल दिया.
लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर नाम की किसी चित्रगुप्त की लिखी किताब छपी 1926 में (यानी जब सावरकर माफ़ी मांगकर अंडमान से छूटकर रतनगिरी में हाउस अरेस्ट में रह रहे थे). इस किताब में सावरकर की खूब तारीफ़ थी. लिखा था – “सावरकर एक पैदाइशी नायक हैं. वह ऐसे लोगों से नफ़रत करते हैं जो भय के कारण अपने कर्तव्यपथ से पीछे हट जाएँ. अगर वह एक बार सही या ग़लत, यह तय कर लें कि सरकार की कोई नीति ग़ैरबराबरी वाली है तो उस बुराई को ख़त्म करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते.” यही समय था जब 1909 में उनके बुलावे पर इंडिया हाउस में आकर भाषण देने वाला दुबला-पतला अफ्रीका में वकालत करने वाला व्यक्ति देश में महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था. उस पर भी किताबें लिखी जा रही थीं. सावरकर पर भी लिखी गई. लेकिन एक अंतर था – सावरकर पर लिखी किताब के लेखक चित्रगुप्त को उनके जीवनकाल में कोई नहीं जानता था और उनके मरने के बाद प्रकाशक ने बताया कि चित्रगुप्त के नाम से दरअसल सावरकर ने ख़ुद अपनी जीवनी लिखी थी! उनके भीतर का एक हिस्सा दूसरे हिस्से से नफ़रत कर रहा था.
यह कुंठा एकतरफ़ और एकतरफ़ किसी राजनैतिक कार्यवाही में हिस्सा न ले पाने की मज़बूरी. हालत यह कि एक-एक बयान की सफ़ाई देनी पड़ती थी. ऐसे समय में सिर्फ़ एक काम था जिससे वीरता का भ्रम भी बना रहे और अंग्रेज़ों की नाराज़गी भी मोल न लेनी पड़े – साम्प्रदायिक राजनीति. ऐसा नहीं था कि इसके पहले सावरकर सेक्युलर थे, लेकिन इस क़दर साम्प्रदायिक नहीं थे. रिहाई के बाद वह मुंबई में बसे और महाराष्ट्र का दौरा शुरू किया. पूना में इसी दौरान उन्होंने ख़ुद को तिलकपंथी कहने वाले सनातनियों के संगठन डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी का साथ देना तय किया पहले और फिर हिन्दू महासभा का. मज़ेदार है कि इसके ठीक पहले वह रतनगिरी में छुआछूत और सामाजिक सुधार के आन्दोलन चला रहे थे जबकि सनातनी और हिन्दू महासभाई इसके ख़िलाफ़ थे. उसी समय गाँधी भी अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन चला रहे थे और कुछ समय पहले पूना में उन्हें जान से मारने की कोशिश भी हुई थी. लेकिन सावरकर सनातनियों के साथ गए! कीर ने इसका सिर्फ़ एक कारण बताया है – सावरकर और सनातनियों में गाँधी के प्रति साझा नफ़रत!
यही नफ़रत उन्होंने अपने शिष्य नाथूराम गोडसे और उसके साथियों में ट्रांसफर कर दी. गोडसे की उनसे मुलाक़ात रतनगिरी में हुई थी जहाँ नाथूराम अपने पिता के स्थानान्तरण के बाद दो साल रहा था. इस दौर में वह सावरकर के निजी सचिव की तरह काम करता था. सावरकर ने उसे अंग्रेज़ी भी सिखाई और कुंठा तथा हिंसा की अपनी विचारधारा भी. एक अंधविश्वास के कारण लड़की की तरह सोलह की उम्र तक पला चुप्पा नाथूराम सावरकर के लिए एकदम योग्य शिष्य था. अपनी तरह की कुंठा से भरा, आदर्शवादी और लगभग अपढ़. जब उसने पूना से अखबार निकालने का निश्चय किया तो सावरकर ने पंद्रह हज़ार रूपये दिए. शिष्य ने साम्प्रदायिक ज़हर से भरा अखबार अग्रणी निकाला तो उसके हर अंक में सावरकर की फोटो छपती थी. अग्रणी पर प्रतिबन्ध लगा तो हिन्दू राष्ट्र निकला, लेकिन सावरकर की तस्वीर वहीँ रही.
गाँधी हत्या हुई तो सरकारी गवाह बन गए दिगंबर बडगे ही नहीं बल्कि एक फिल्म अभिनेत्री ने भी इस बात की गवाही दी थी कि सावरकर से मिलने गए थे आप्टे और गोडसे. लेकिन जज साहब ने इसे पर्याप्त सबूत नहीं माना. और भी कई घटनाएँ थीं जिन्हें पढ़ के लगता है कि शायद था कोई सरकार में जो नहीं चाहता था कि सावरकर को सज़ा हो. फ़ैसले के ख़िलाफ़ दोषी पाए गए सबने अपील की लेकिन सरकार ने सावरकर को सज़ा देने के लिए कोई अपील नहीं की जबकि जांच अधिकारी नागरवाला का कहना था कि मैं आख़िरी साँस तक यही मानूंगा कि यह षड्यंत्र सावरकर का है. बाक़ी विस्तार से किताब में लिखूंगा ही.*
लेकिन जब . गोपाल गोडसे छूटा तो उसके सम्मान में हुई सभा में लोकमान्य तिलक के नाती केतकर साहब बोल गए कि नाथूराम ने उन्हें बताया था पहले ही गाँधी हत्या के बारे में. तमाशा मचा तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज़ जस्टिस कपूर की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई. इस कमिटी ने बहुत विस्तार से जांच की और सावरकर के अंगरक्षकों सहित अनेक लोगों ने गवाही दी की हत्या के लिए निकलने से पहले नाथूराम और आप्टे सावरकर मिले थे. जो निकल के आया उसके आधार पर कपूर कमिटी ने सावरकर को गाँधी हत्या के षड्यंत्र का दोषी पाया. लेकिन तब तक सावरकर एक गुमनाम ज़िन्दगी जीकर दुनिया से जा चुके थे. रिपोर्ट इतिहास में शामिल हो गई. वर्षों रिपोर्ट और सावरकर, दोनों गुमनामी में ही रहे. लेकिन अब सावरकर दुबारा चर्चा में आये हैं तो रिपोर्ट भी आएगी ही.
एक उत्साही क्रांतिकारी की कायरता ने उसे जिस कुंठा में धकेल दिया था शायद गाँधी की हत्या ने उस कुंठा से निजात माने में मदद की होगी, लेकिन दुर्भाग्य सावरकर का कि जीते जी वह पराजित रहे. गुमनाम और अप्रासंगिक. अब जो लौटे हैं तो चमकाने की जितनी भी कोशिशें हों, यह दाग़ उनके साथ रहेगा. वीर लिखा करे कोई इतिहास में वह एक ग़द्दार षड्यंत्रकारी की तरह दर्ज हो चुके हैं. उफान उतरेगा तो यही सच रह जाएगा.
(अशोक कुमार पांडेय कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। कुछ दिल पहले कश्मीर पर लिखी उनकी किताब कश्मीरनामा:इतिहास और समकाल ख़ासी चर्चा में रही। इसके बाद कश्मीरी पंडित शीर्षक से भी उनकी एक महत्वपूर्ण किताब प्रकाशित हुई। उसके बाद गाँधी हत्या पर उनकी एक किताब आयी जिसका शीर्षक है- उसने गाँधी को क्यों मारा. यह लेख उनकी वेबसाइट से साभार प्रकाशित.)
*यह लेख मीडिया विजिल पर पहले 31 मई 2020 को प्रकाशित हो चुका है।