हाय! हिन्दी; हमारी हिन्दी!!

क्या कारण रहा कि हमारी हिन्दी जो किसी समय किसानों और कारीगरों की जुबान थी, बुनकरों, कुम्हारों, दर्ज़ियों, मोचियों की जुबान थी,जो कबीर, रैदास, मीरा, रसखान, तुलसी और सूर जैसे फटेहाल और मिहनतक़श लोगों की जुबान थी, वह उन्नीसवीं- बीसवीं सदी में केवल भारतेन्दु और मिश्र बंधुओं जैसे लोगों की जुबान बनती चली गयी। इन लोगों ने हिंदी की प्रकृति और प्रवृति बदल दी। हिन्दी प्रचार ठेंगे पर रख दिया गया। नागरी प्रचारिणी सभाएं बनने लगीं। उद्देश्य स्पष्ट था। जो हिंदी फ़ारसी से लेकर कैथी और गुरुमुखी लिपियों में लिखी जाती थी , आग्रह हुआ कि केवल देवनागरी में लिखी जाये। भारतेन्दु ने हिन्दी को उर्दू से काट दिया। हमने खुद को जान बूझ कर ग़ालिब और मीर से जुदा कर लिया। परवर्तियों ने तो हिन्दी को बोलियों से भी दूर कर लिया।

14 सितम्बर आते ही बहुतों को हिन्दी की याद आती है। यह हिंदी दिवस होता है। जैसे गोरैया दिवस या पर्यावरण दिवस। जो चीज खतरे या मुश्किल में पड़ जाती है ,उसके लिए दिवस तय किये जाते हैं। अंग्रेजी केलिए कोई दिवस नहीं होता। अंग्रेजी की बारहों महीने जय -जय है। हिन्दी केलिए 14 सितम्बर जय -जय का होता है। कुछ महकमे हिन्दी पखवारा मनाते हैं, पितरपख अथवा पितृपक्ष की तरह।

हिन्दी दिवस के आयोजन हाल के वर्षों में भव्य से भव्यतर हुए जा रहे हैं। इसे देख मुझे थोड़ा गुस्सा होता है। आयोजन की भव्यता और कुछ नहीं, हमारी जुबान की दुर्दशा बयां करती है। मुझे भय है,भविष्य में ये आयोजन अधिक भव्य होंगे। कारण बतलाने की जरुरत नहीं समझता।

हर दिवस की तरह हिन्दी दिवस का भी इतिहास है और इस पर एक नज़र डालना बुरा नहीं होगा। 14 सितम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा ने तय किया की भारत की राजभाषा देवनागरी में लिखी हिंदी होगी और अंक होंगे भारतीय अंकों के स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय रूप। संविधान के अनुच्छेद 343 (1 ) में इसे दर्ज़ किया गया । यह संविधान 26 नवम्बर 1949 को आत्मसात किया गया और 26 जनवरी 1950 से इसे लागू किया गया । संवैधानिक व्यवस्था थी कि पंद्रह साल तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी रहेगी और तत्पश्चात समीक्षोपरांत केवल हिन्दी राज- काज की संपर्क भाषा रहेगी। संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 अन्य भारतीय भाषाओं को भी राष्ट्रीय भाषा का दर्ज़ा दिया गया।

यह सब आज़ादी के उस उत्साह में हुआ,जो राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत था। अंग्रेजी अन्य देश की भाषा थी और एक आज़ाद राष्ट्र उसे राजभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। भाषा पर संविधान सभा में जो बहसें हुईं हैं,उसका अध्ययन दिलचस्प हो सकता है। 13 सितम्बर 1949 को जवाहरलाल नेहरू ने कुछ ज्यादा ही इत्मीनान से कहा था: ” किसी विदेशी भाषा से कोई देश महान नहीं बन सकता; क्योंकि कोई विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। ”

संविधान लागू होने के तीन साल बाद 1953 के 14 सितम्बर को पहला हिन्दी दिवस आयोजित हुआ और फिर तो ये सिलसिला ही लग गया  पांच साल बाद एक समीक्षा होनी थी। अब तक आज़ादी का उत्साह कम हो गया था। लाज़िम था हिन्दी का उत्साह भी कम हुआ था।  कतरब्योंत की शुरुआत हो गयी थी। 8 सितम्बर 1956 को नेहरू जी ने संसद में भाषा के सवाल पर एक भाषण दिया, जिसमे शुरू से आखिर तक अंग्रेजी का महत्त्व बतलाते रहे। सरकार की मंशा स्पष्ट हो गयी थी। यही कारण था 1963 आते -आते यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजी की विदाई 1965 में नहीं होनी है। नहीं ही हुई । इस बीच नेहरू जी गुजर गए और लालबहादुर शास्त्री मुल्क के प्रधानमंत्री हो गए।

इस बीच और कुछ भी हुआ।  उत्तरभारत में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी विरोधी एक आंदोलन शुरू किया। यह आंदोलन वैचारिक तौर पर तो भारतीय भाषाओँ के पक्ष में था, लेकिन व्यावहारिक तौर पर हिन्दीवादी दिखता था। कुछ अतिउत्साही समाजवादियों ने तो अंकों का भी नागरीकरण कर लिया था। जिसे अपनी गाड़ी के नम्बरप्लेट पर उन्होंने चस्पा किया हुआ था। उनके इस हिन्दीवाद ने हिंदी का बहुत नुकसान किया। 1965 में अंग्रेजी विरोधी की जगह हिन्दी विरोधी आंदोलन दक्षिण में शुरू हो गया। आंदोलन का केंद्र तो तमिल भाषी मद्रास प्रान्त था, लेकिन मलयाली, तेलगु और कन्नड़ भाषी भी हिन्दी से भयभीत थे। हिन्दी विरोधी आंदोलन को उत्तर भारत के अधिकतर नेताओं ने अब तक समझने की कोशिश नहीं की है। हिन्दी पर अधिक जोर दिया जाता तो तो राष्ट्र एक बार और टूट सकता था। इसलिए यथास्थिति बनाये रखी गयी और दक्षिणावर्त को आश्वस्त किया गया कि हिंदी उन पर थोपी नहीं जाएगी। भारतीय जनसंघ और लोहियावादी सोशलिस्टों को छोड़ कर सभी राजनीतिक दल इस पर एकमत थे।

तब से अब तक यथास्थिति चल रही है। अंग्रेजी बनी हुई है और उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है। हिन्दी के हाल पर टिप्पणी अनावश्यक समझता हूँ। लेकिन प्रश्न है कि यह स्थिति कैसे आयी? क्या हिन्दी की स्थिति दक्षिण के राज्यों खास कर तमिल भाषियों के विरोध के कारण यह हुई या कुछ और कारण थे? मैं कहना चाहूंगा, दक्षिण के लोगों को हमने समझने में भूल की। यह हमारी आर्यावर्तीय प्रवृति है कि हम हमेशा ‘अन्य -भाव’ में जीते और सोचते -विचरते हैं। हम राष्ट्र की बात जरूर करते हैं लेकिन वह इतना पवित्र और संकुचित होता है कि उसमे हम अपने घर की स्त्रियों को भी शामिल नहीं करना चाहते। हम ने अपने सोच का एक दैवी ढांचा बना लिया है और उसमें स्वयं को कैद कर लिया है। इसी गुलामखाने से हमने अपने लिए तमाम तरह के विरुद खुद सृजित कर लिए हैं। अपनी भाषा को भी हमने इन्ही गुणों से संस्कारित कर रखा है। हिन्दी संस्कृत से निकली है और संस्कृत देवताओं की जुबान रही है , यह हमारी मान्यता रही है। नेहरू तक यही मानते रहे कि दक्षिण की चार जुबानों को छोड़कर ( आदिवासियों की जुबान का तो कोई जिक्र ही नहीं करता ) बाकि सब संस्कृत से निःसृत हैं। फिर एक जुमला यह भी है कि हिंदी बड़ी बहन है, बाकि छोटी बहनें हैं । इस बड़ी- छोटी की बात संस्कारवश मेरे मुंह से ही एक दफा चेन्नई की एक सभा में आ गयी। बड़ा विरोध हुआ। थोड़ी जिल्लत भी झेलनी पड़ी। फिर इस विषय पर मैंने उनके नज़रिये को समझा। दक्षिण के लोग हिन्दी से या उत्तर भारतीय जुबानों से नफरत नहीं करते, न अंग्रेजी के लिए उनके मन में व्यामोह है। वे तो बस अपनी जुबान से प्रेम करते हैं। उनकी जुबान हिन्दी ही नहीं ,संस्कृत से भी प्राचीन है। उनके काव्य ग्रन्थ खूबसूरत और मौलिक हैं। हम उनसे परिचित भी नहीं होना चाहते और चाहते हैं कि हमारी भाषायी गुलामी वे स्वीकार लें। यदि हम उनकी भाषा -संस्कृति से परिचित होने का उत्साह दिखाते, तो वे भी दिखाते। लेकिन हम तो दूसरों से कुछ सीखना नहीं चाहते , दूसरों पर खुद को थोपना चाहते हैं। झगडे की शुरुआत यहीं से होती है।

इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी एक बड़े भूभाग की भाषा है । कहा जाता है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहकर ही गाँधी ने 1918 में अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई थी । तब तिलक जीवित थे। तिलक हिन्दी नहीं जानते थे। गाँधी टूटी -फूटी जानते थे और उसी में काम करना शुरू कर चुके थे। गाँधी से भी बहुत पहले दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश लिख कर बतलाने का प्रयास किया था कि भारत में कोई आंदोलन हिन्दी के बिना नहीं चल सकता। उससे भी पूर्व भक्ति आंदोलन के कवियों ने इस जुबान को अपनी तरह से संवारा और इस्तेमाल किया था। कबीर, मीरा और रैदास की पाँतियाँ बंगाल से लेकर राजस्थान, गुजरात , पंजाब, महाराष्ट्र और हैदराबाद तक गुनगुनाई जाती थीं। वह हिन्दी उन्नीसवीं बीसवीं सदी में सिमटने कैसे लगी? इस पर हमने कभी विचार किया है? करना चाहिए। क्या कारण रहा कि हमारी हिन्दी जो किसी समय किसानों और कारीगरों की जुबान थी, बुनकरों, कुम्हारों, दर्ज़ियों, मोचियों की जुबान थी,जो कबीर, रैदास, मीरा, रसखान, तुलसी और सूर जैसे फटेहाल और मिहनतक़श लोगों की जुबान थी, वह उन्नीसवीं- बीसवीं सदी में केवल भारतेन्दु और मिश्र बंधुओं जैसे लोगों की जुबान बनती चली गयी। इन लोगों ने हिंदी की प्रकृति और प्रवृति बदल दी। हिन्दी प्रचार ठेंगे पर रख दिया गया। नागरी प्रचारिणी सभाएं बनने लगीं। उद्देश्य स्पष्ट था। जो हिंदी फ़ारसी से लेकर कैथी और गुरुमुखी लिपियों में लिखी जाती थी , आग्रह हुआ कि केवल देवनागरी में लिखी जाये। भारतेन्दु ने हिन्दी को उर्दू से काट दिया। हमने खुद को जान बूझ कर ग़ालिब और मीर से जुदा कर लिया। परवर्तियों ने तो हिन्दी को बोलियों से भी दूर कर लिया। हिन्दी तत्सम होने लगी। तद्भव, देशज और विदेशज तत्व घटते चले गए।हिन्दी पर तत्सम समाज का प्रभाव भी गहराने लगा। जो हिन्दी समानता, मानवीयता और करुणा के तत्वों -विचारों से भरी -पड़ी थी, अब वर्चस्ववादी हिन्दुत्व का प्रचारक बन कर सिमटने लगी।

इस हिन्दी दिवस पर हमें इन तमाम बिंदुओं पर विमर्श करना चाहिए। हमें अंग्रेजी विरोधी अभियान की भी समीक्षा करनी चाहिए। हम यदि यह सोचते हैं कि किसी जुबान का विरोध कर ही हम अपनी जुबान का विकास कर सकते हैं, तब यह शायद सही नहीं है। अंग्रेजी ,उर्दू या किसी भी भाषा का हम विरोध न कर अपनी जुबान को संवारने की चिंता करें तो ज्यादा सही होगा।

हिन्दी में साहित्यिक कार्य भले कुछ हो जाते हैं, लेकिन इतिहास,राजनीति, समाज शास्त्र, तकनीक और विज्ञान विषयों पर मौलिक कार्य नगण्य हैं। हिन्दी पत्रकारिता का स्तर बहुत नीचे आ गया है। वह चाटुकारिता का पर्याय बन कर रह गयी है। विदेशी जुबानों से अनुवाद का कार्य भी बहुत कम हो रहा है। ऐसे में हम हिन्दी को राजभाषा बनाये रख पाएंगे, इसमें संदेह होने लगा है।

14 सितम्बर के इस हिन्दी दिवस को सरकारी तामझाम और कर्मकांडों की उपेक्षा कर हम एक नयी परंपरा का आरम्भ कर सकते हैं। इस अवसर पर अन्य भाषा-भाषियों के साथ हम संवाद बनाएं। उन्हें हिन्दी सुनाये -सिखाएं , उनकी जुबान सुनें -सीखें , तभी हमारी हिन्दी मज़बूत होगी।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। बिहार विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं।

* लेख के साथ दिये गये सभी कार्टून हिंदी जंक्शन से साभार।

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