Things that Can and Cannot Be Said: The Dismantling of the World as We Know It
अरुंधति रॉय
हम उस काम को पूरा करने की कोशिश में जुटे हैं जिसे करते हुए लगता है वर्षों बीत चुके हैं। इतने सारे सहचर मनुष्यों के साथ एक साथ एक कमरे में रहने के आनंद को मैं कभी भी चलताऊ नहीं मान सकती हूँ। महामारी का प्रकोप कुछ हद तक कम हो गया है लेकिन हममें से कई लोग अभी भी इसके द्वारा छोड़े गये निशानों के दौर से निपटने की कोशिशों में हैं। मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं स्टुअर्ट से कभी नहीं मिल सकी। लेकिन उनके काम को पढ़कर मुझे ऐसा अहसास होता है कि मानो हमने लंबे अर्से तक साथ रहकर कई चीजों पर एक साथ हंसा है।
इस वक्तव्य का मुख्य शीर्षक, चीजें जिन्हें कहा और नहीं कहा जा सकता है, एक लघु पुस्तिका का शीर्षक है जिसे मैंने कलाकार जॉन कसैक के साथ लिखा था। यह एक यात्रा के दौरान हुआ था जब वे और मैं दिसंबर 2013 में मास्को में एडवर्ड स्नोडन से मुलाक़ात करने के लिए रूस की यात्रा पर थे। हमारे अन्य सहयात्रियों में डेनियल एल्स्बर्ग थे- आप लोगों में वे लोग जो उस समय काफी छोटे रहे होंगे, उनके लिए बता दूँ कि वे उस समय के स्नोडेन थे; जिन्होंने विएतनाम युद्ध पर पेंटागन पेपर्स को सार्वजनिक करने का काम किया था।
स्नोडेन ने हमें कई वर्षों पहले चेता दिया था कि हम सभी लोग एक निगरानी रखने वाले राज्य में नींद में आ गये हैं, और उन्हें मास्को में लगातार निर्वासन में रहना पड़ेगा। और हम ख़ुशी ख़ुशी उस निगरानी रखने वाले राज्य के भीतर प्रवेश कर गये जिसके बारे में उन्होंने चेताया था, अपने-अपने छोटे फोन के साथ जो हमारे लिए अपने शरीर के किसी महत्वपूर्ण अंग के समान बेहद करीबी और अनिवार्य हो गया था, जिसकी मदद से हमारे ऊपर जासूसी करने, हमारी बेहद निजी सूचना की रिकॉर्डिंग और उसे ट्रांसमिट करने ताकि हमें ट्रैक करने से लेकर हमें नियंत्रित करने, श्रेणीबद्ध और पालतू बनाया जा सके। इसे न सिर्फ राज्य के द्वारा किया गया, बल्कि एक दूसरे के द्वारा भी किया गया।
कल्पना कीजिये कि यदि आपका लीवर या आपका गाल ब्लैडर आपके दिल का ख्याल नहीं रख पा रहा है तो आपका डॉक्टर कहेगा कि आपका इलाज असाध्य बन चुका है। अपने फोन के साथ भी हम ऐसा ही कुछ पाते हैं। हम इसके बिना नहीं रहा सकते, लेकिन यह हमें तबाह कर रहा है।
अपनी बातचीत के पहले हिस्से में मैं उन चीजों के बारे में बात रखूंगी जिनके बारे में कहा और नहीं कहा जा सकता है। दूसरे हिस्से में, दुनिया को जिसे हम अब तक जानते थे को ध्वस्त करने के बारे में बात करूंगी।
यह साल उन लोगों के लिए खराब गुजरा है जिन्होंने उन बातों को कहा और किया है जिन्हें नहीं कहा जाना था। ईरान में 22 साल की महसा अमीनी की उस दौरान हत्या हो गई जब वे ईरान की नैतिकता को थोपने वाली पुलिस की हिरासत में थीं, उनका अपराध यह था कि उन्होंने आधिकारिक आदेश के विरुद्ध अपने सिर को नहीं ढक रखा था। इस हत्या के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों और जारी आंदोलन में कई लोग मारे जा चुके हैं।
इसी बीच भारत में दक्षिणी राज्य कर्नाटक में मुस्लिम स्कूली छात्राओं को, जो अपनी कक्षाओं में हिजाब पहनकर अपनी मुस्लिम महिला की पहचान को दर्ज कराना चाहती हैं, को दक्षिणपंथी हिन्दू पुरुषों के द्वारा शारीरिक रूप से धमकाया जा रहा है। यह उस स्थान पर हो रहा है जहाँ पर पिछले कई सदियों से हिन्दू-मुस्लिम बिना किसी वैमनस्य के साथ-साथ रहते आ रहे थे, लेकिन हाल के दिनों में उनके बीच में खतरनाक स्तर पर विभाजन देखने में आ रहा है।
दोनों मामलों में – ईरान में कड़ाई से हिजाब का पालन और भारत और अन्य देशों में हिजाब पर प्रतिबंध का मामला देखने में परस्पर विरोधी नजर आये, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। हिजाब पहनने के लिए महिला को मजबूर करना या किसी को उसे न पहनने के लिए बाध्य करना, में मामला हिजाब का नहीं है। यह जोर-जबरदस्ती के बारे में है। उसे ढको, उसे पर्दे से बाहर निकालो। यह महिलाओं को नियंत्रित करने और उन पर निगरानी रखने का सदियों पुराना धंधा है।
अगस्त में, न्यूयॉर्क जैसे शहर में सलमान रुश्दी के ऊपर भीषण हमला हुआ, जिसे एक इस्लामिक धर्मांध ने उनकी पुस्तक द सैटेनिक वर्सेस (शैतान की आयतें) के कारण अंजाम दिया था, जिसका प्रकाशन 1988 में किया गया था। 1989 में ईरानी क्रांति के नेता और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान के पहले नेता अयातुल्ला खोमेनी ने रुश्दी की मौत का फतवा जारी किया था। इतने वर्ष गुजर जाने के बाद, जब यह लगने लगा था कि उनकी पुस्तक ने उनके खिलाफ जो गुस्सा और भावनाओं को भड़काया था उसकी आग अब शांत पड़ चुकी होगी, और रुश्दी धीरे-धीरे अपनी खोह से बाहर निकल रहे थे, उन पर यह हमला कर दिया गया।
75 वर्षीय रुश्दी के बारे में हमले से बच जाने की शुरुआती खबरों के बाद कोई खबर नहीं है। हम सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं कि वे इस हादसे से पूरी तरह से उबर चुके होंगे और जल्द ही साहित्य की दुनिया में अपनी पूरी ताकत के साथ दुबारा हमारे बीच में होंगे। रुश्दी के समर्थन में यूरोप और अमेरिका के शासनाध्यक्ष पूरी मुस्तैदी से आये, जिनमें से कुछ ने यहाँ तक कह डाला, “उनका संघर्ष, हमारा संघर्ष है”।
इसी बीच जुलियन असान्जे को जिन्होंने उन देशों के सैनिकों के द्वारा ज्यदा भयानक युद्ध अपराधों को अंजाम दिया था को प्रकाशित करने और बेनकाब करने का काम किया था, जिन युद्धों में लाखों लोग मारे गये, के अपराध में उन्हें बेल्मार्श कैदखाने में बेहद खराब स्वास्थ्य की स्थिति के बावजूद बंद करके रखा गया है। उन्हें अमेरिका को सुपुर्द किये जाने का इंतजार है जहाँ उन्हें मौत की सजा या कई आजीवन कारावास की सजा सुनाई जानी है।
इसलिए, हमें रुश्दी पर हुए इस भयावह हमले को ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ या ‘लोकतंत्र बनाम अन्धकार’ जैसे सुस्पष्ट जुमलों के तौर पर परिभाषित करने पर खुद को रोकना होगा। क्योंकि इन्हीं तथाकथित बोलने की आजादी का प्रचार करने वाले तथाकथित संतों, जिनमें लाखों की संख्या में लेखक, कवि और कलाकार भी हैं के नेतृत्व के तहत कई हमलों में दसियों लाख लोगों को मार डाला गया है।
जहाँ तक भारत से आने वाली खबरों का ताल्लुक है, यहाँ पर जून में भारत की सत्ताधारी हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा की प्रवक्ता नुपुर शर्मा, जिनकी एक समय विभिन्न टीवी टॉक शो में स्थायी रूप से धमकाने वाली उपस्थिति बनी रहती थी, के द्वारा नबी मोहम्मद के खिलाफ कई असंयमित टिप्पणियाँ एक उकसाने वाले प्रदर्शन के तौर पर की गई थीं, जिसका एकमात्र मकसद उन्हें अपमानित करने का लगता है। इस पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बवेला मचा, और बाद में अनेकों जान से मारने की धमकियां मिलीं, जिसके चलते उन्होंने खुद को सार्वजनिक जीवन से दूर कर लिया। लेकिन दो हिन्दुओं जिन्होंने उनकी टिप्पणियों का समर्थन किया था, को निर्दयतापूर्वक मार डाला गया। इसके बाद तो मुस्लिमों की कट्टरपंथी भीड़ ने इकट्ठा होकर “तन से सिर जुदा” के नारे लगाने शुरू कर दिए और सरकार को ईशनिंदा कानून पारित किये जाने की मांग करने लगे। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं था कि इस सबसे अधिक सरकार भला और किस चीज से खुश हो सकती थी।
लेकिन सेंसरशिप और हत्या को बढ़ावा देने के मामले में सिर्फ वही तबका जिम्मेदार नहीं था। इस महीने की शुरुआत में मैं अपनी दोस्त पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की पांचवीं वर्षगाँठ के मौके पर बोलने के लिए बंगलुरू गई हुई थी, जिनकी हिन्दू चरमपंथियों ने उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी थी। उनकी यह हत्या दरअसल ऐसी तमाम हत्याओं की एक श्रृंखलाबद्ध कड़ी थी जिसमें डॉक्टर और प्रसिद्ध तर्कवादी चिंतक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को सबसे पहले 2013 में गोली मारी गई थी; उसके बाद लेखक एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य कामरेड गोविंद पानसरे की फरवरी 2015 में गोली मारकर हत्या की गई; और उसी साल अगस्त में कन्नड़ के विद्वान प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी की हत्या इसी ग्रुप के द्वारा की गई थी।
हमारा अनुभव बताता है कि सेंसरशिप लगाने के लिए हत्या ही एकमात्र जरिया नहीं रहा है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में देखें तो वर्ष 2022 में भारत का स्थान 180 देशों में 150वें स्थान पर है, जो कि पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार से भी नीचे पहुँच चुका है। हमारे ऊपर सिर्फ सरकार के द्वारा निगरानी नहीं रखी जा रही है, बल्कि सड़कों पर यह काम भीड़ के द्वारा किया जा रहा है, सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी के द्वारा और अफ़सोस की बात यह है कि खुद मीडिया के द्वारा इस काम को अंजाम दिया जा रहा है।
सैकड़ों की संख्या में 24 घंटे चलने वाले टीवी न्यूज़ चैनलों पर, जिन्हें हम अक्सर ‘रेडियो रवांडा’ के तौर पर संदर्भित करते हैं, उसमें हमारे भौंकने वाले टीवी एंकर दिन-रात मुसलमानों के खिलाफ नफरत को बढ़ाने और “देश-द्रोही” साबित करने में लगे रहते हैं, असहमति रखने वालों को गिरफ्तार किये जाने, बर्खास्त करने और दंडित किये जाने का आह्वान करते रहते हैं। उन्होंने पूरी तरह से निर्द्वन्द होकर बिना किसी जवाबदेही के उनकी जिंदगियों और इज्जत को बर्बाद कर दिया है। जहाँ तक कश्मीर का प्रश्न है, वह ऐसी घाटी बन चुकी है जहाँ से कोई खबर नहीं आ सकती है, जो एक विशाल कैदखाना बन चुकी है। जल्द ही वहां पर नागरिकों से अधिक सैनिक हो सकते हैं।
कश्मीरी लोगों के द्वारा की जाने वाली प्रत्येक वार्ता, वो चाहे निजी हो या सार्वजनिक, यहाँ तक कि उनकी सांस से निकलने वाली कविता तक पर निगरानी रखी जा रही है। स्कूलों में, गाँधी से प्रेम सिखाने के नाम पर मुस्लिम बच्चों को हिन्दू भजनों को पढ़ाया जा रहा है। इन दिनों जब मैं कश्मीर के बारे में सोचती हूँ तो पता नहीं क्यों मेरे मन में ख्याल आता है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में, तरबूज को चौकोर आकार में विकसित होने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है, ताकि वे क्यूब की शक्ल में होने पर उन्हें आसानी से एक के ऊपर एक करके रखा जा सके। कश्मीर घाटी में ऐसा लगता है कि भारतीय सरकार इसे तरबूज के बजाय संगीनों की नोक पर इंसानों के ऊपर आजमा रही है।
नीचे की ओर जाने पर गंगा के मैदानी इलाकों में, जिसे उत्तर भारत का काऊ बेल्ट कहा जाता है, हिन्दुओं की हवा में तलवार लहराती भीड़ जिसका नेतृत्व धार्मिक गुरुओं के द्वारा किया जा रहा है, जिसे मीडिया न जाने किन वजहों से “संत’ बताती है, के द्वारा खुलेआम मुस्लिमों का कत्लेआम और मुस्लिम महिलाओं का बलात्कार करने का आह्वान किया जा रहा है।
हमने दिन दहाड़े लोगों की लिंचिंग होते देखी, और 2002 में गुजरात में एक हजार से अधिक की संख्या में मुस्लिमों का नरसंहार (गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या करीब दो हजार के आसपास थी) होते देखा है और 2013 में मुजफ्फरनगर में सैकड़ों की मौत हमारे सामने है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि दोनों हत्याकांड ठीक महत्वपूर्ण चुनावों से पहले हुए थे।
हमने उस व्यक्ति नरेंद्र मोदी को देखा है जिसके मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात हत्याकांड हुआ था, जिन्होंने हिन्दू हृदय सम्राट के तौर पर अपनी स्थिति को पहले से भी कहीं अधिक मजबूत बना लिया, और देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हो गये। जो कुछ हुआ उसके लिए उन्होंने कभी भी पछतावा और माफ़ी नहीं मांगी। हमने उन्हें लगातार इस खतरनाक, मुस्लिम-विरोधी व्यंग्यात्मक अलंकारिक शब्दों के उच्चारण के जरिये राजनीतिक फायदा उठाते देखा है। हमने देखा कि किस तरह देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें सभी जिम्मेदारी, वो चाहे क़ानूनी हो या नैतिक, सबसे बरी कर दिया। हमने मितली आने तक की हद तक देखा कि किस तरह फ्री वर्ल्ड के ये तथाकथित नेताओं ने उन्हें एक राजनेता और लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के रूप में गले लगा लिया है।
पिछले महीने भारत ने बर्तानवी हुकुमत से आजादी हासिल करने की 75वीं वर्षगाँठ को धूमधाम से मनाया था। दिल्ली में लाल किले से उच्चासीन स्थिति में मोदी ने भारत में महिलाओं के सशक्तिकरण के अपने ख्वाब की घोषणा की। उन्होंने अपनी मुट्ठियों को भींचकर बड़े जोशोखरोश के साथ अपना भाषण दिया। उन्होंने राष्ट्रीय झंडे के रंगों वाली पगड़ी पहन रखी थी।
हिन्दू जातीय व्यवस्था के आधार पर समाज में महिलाओं को सशक्त बनाने की बात जहाँ पर विशेषाधिकार प्राप्त ऊँची जाति के पुरुष सदियों से जिस चीज को करते आ रहे हैं वह यह विश्वास है कि दलितों और आदिवासी महिलाओं के शरीर पर उनका निर्बाध अधिकार है, जो कि मात्र नीतिगत मसला नहीं है। यह एक समाजीकरण के बारे में है और एक धारणा पर आधारित व्यवस्था है।
भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के ग्राफ में तेजी देखने को मिल रही है, जिसने इसे महिलाओं के लिए विश्व में सबसे असुरक्षित स्थानों के मानचित्र पर डाल दिया है। आज के दिन किसी को भी इस बात में हैरानी नहीं होती है कि कैसे अक्सर ये अपराधी किसी न किसी प्रकार से मौजूदा सत्ताधारी व्यवस्था से जुड़े हुए हैं या उसके सदस्यों से उनका नाता है। ऐसे मामलों में हमने बलात्कारियों के पक्ष में सार्वजनिक रूप से रैलियां निकलते देखी हैं। सबसे हालिया मामले में उत्तराखंड में एक 19 साल की लड़की का बलात्कार और हत्या पर एक स्थानीय नेता ने यह कहकर सारा इल्जाम उसके पिता पर लगा दिया कि वह “भूखी बिल्लियों के सामने कच्चा दूध दिखा रहा था।”
यहां तक कि जब मोदी स्वतंत्रता दिवस का अपना भाषण दे रहे थे, उसी दौरान गुजरात राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार 2002 में 19 वर्षीय बिल्किस बानो और उसके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या के 11 अपराधियों को जिनको आजीवन कारावास की सजा मिली हुई थी, की विशेष माफ़ी की घोषणा कर रही थी। याद रहे कि इसमें बिल्किस के साथ बलात्कार के अलावा, उसकी माँ, उसकी बहनों, उसके छोटे भाइयों, उसकी चाचियों, चाचा, चचेरे भाई-बहनों, उनकी बहन का एक दिन के बच्चे को मार डाला गया था, और बिल्किस की तीन साल की बेटी सालेहा के सिर को एक चट्टान पर मारकर फोड़ दिया गया था।
इस भयानक अपराध को, जो कि ऐसे कई कांडों में से एक था, यह सब 2002 में मुस्लिम विरोधी गुजरात तबाही का हिस्सा था जिसका मैंने पूर्व में ही जिक्र किया था। जिस पैनल ने इनकी रिहाई को मंजूरी दी थी उसमें भाजपा के कई सदस्य शामिल थे, एक तो निर्वाचित विधायक तक था जिसने बाद में रिकॉर्ड पर कहा कि चूँकि इनमें से कुछ दोषी ‘अच्छे संस्कार’ वाले ब्राह्मण थे, इसलिए वे दोषी होंगे इसकी संभावना ही नहीं है।
सीबीआई के द्वारा जांच के मामलों में, जैसा कि इस मामले में भी था, क़ानूनी रूप से यह बाध्यता है कि दोषियों को माफ़ी दिए जाने के किसी भी फैसले में केंद्र सरकार की मंजूरी आवश्यक है, जो कि निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी की सरकार है। इसलिए, हमें निश्चित तौर पर मान लेना चाहिए कि यह मंजूरी दी गई होगी।
जब ये अपराधी कारागार से बाहर आये तो जेल के बाहर उनका स्वागत नायकों के रूप में किया गया – उनके गले में फूल-मालाएं डाली गईं, मिठाई खिलाई गई और भाजपा से जुड़े हिंदू समूहों के सदस्यों के द्वारा उनके पाँव छूकर आशीर्वाद लिया गया। याद रखें, कुछ महीनों में ही गुजरात में चुनाव होने हैं।
भारत में ठीक चुनावों से पहले ही विचित्र चीजें होने लगती हैं। हमेशा यह समय सबसे खतरनाक होता है।
जहाँ एक ओर बलात्कारी-सामूहिक हत्यारे समाज के सम्मानित सदस्यों के रूप में अपने स्थानों पर विराजमान हो रहे थे, वहीं सामाजिक कार्यकर्त्ता तीस्ता सीतलवाड़, जिनका संगठन सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस, जिसने बड़ी मेहनत से दस्तावेजी सुबूतों का एक पहाड़ खड़ा किया था, जो 2002 के हत्याकांड के लिए गुजरात सरकार और खास तौर पर नरेंद्र मोदी की संलिप्तता की ओर इंगित करते हैं, को धोखाधड़ी, गवाहों को सिखाने पढ़ाने और इस मुद्दे को हमेशा ‘गर्म रखने’ की कोशिश में लगे रहने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया जा रहा था।
ये वे हालात हैं जिनमें हम जी रहे हैं और काम कर रहे हैं। और वे बातें कह रहे हैं जिन्हें नहीं कहा जा सकता है। भाषण ही नहीं हर चीज में, कानून को जाति, धर्म, लिंग और वर्गीय आधार पर चयनात्मक रूप से लागू किया जा रहा है। एक हिंदू जिस बात को कह सकता है एक मुस्लिम नहीं कह सकता है। जिस बात हर कोई कह सकता है, एक कश्मीरी नहीं कह सकता है। एकजुटता और दूसरों के पक्ष में बोलना आज हर काल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। लेकिन यह भी अब एक जोखिम भरा काम हो चुका है।
अन्य देशों की तरह भारत में भी पहचान को हथियारबंद करना, जिसमें पहचान को विघटित और सूक्ष्म वर्गों में तब्दील कर परमाणुओं में तब्दील कर, हवा को ही दंडात्मक विधर्मी शिकारी मशीन में तब्दील कर दिया गया है। यहाँ तक कि इन सूक्ष्म पहचानों तक ने एक शक्ति क्रम को विकसित कर लिया है। दार्शनिक ओलुफेमी ओ. तैवो ने अपनी पुस्तक इलीट कैप्चर में बताया है कि तब कैसे इन समूहों से कुछ लोग इन समूहों में से ऊपर उठा लिए जाते हैं, ये व्यक्तित्व आमतौर पर शक्तिशाली देशों, बड़े शहरों, बड़े विश्वविद्यालयों, इंटरनेट पर सामाजिक पूंजी के मालिक होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को संस्थाओं, मीडिया, निगमों के द्वारा अपने समुदायों के बाकी के लोगों की ओर से बोलने के लिए मंचों को मुहैय्या कराया जाता है।
इसे ऐतिहासिक दर्द और अपमान की प्रतिक्रिया के रूप में आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन यह कोई क्रांतिकारी प्रतिक्रिया नहीं है। बेहद सूक्ष्म संख्या में इलीट कैप्चर इसका कोई जवाब नहीं है। जैसा कि कुछ अनुभवजन्य शोध ने दर्शाया है कि जब हम बहिष्कार और सेंसरशिप की संस्कृति को स्वीकार कर लेते हैं, तो इसमें दक्षिणपंथ को बड़ी मात्रा में फायदा पहुँचता है। हाल ही में पेन अमेरिका के द्वारा प्रतिबंधित स्कूली पाठ्य पुस्तकों के अध्ययन पर पता चला है कि प्रतिबंधित पाठ्य पुस्तकों में से अधिकांश हिस्सा लैंगिक और नस्ल पर प्रगतिशील सामग्री का था।
विभिन्न समुदायों द्वारा खुद को बंद रखने, अपनी पहचानों को एक खोह में सीमित और सपाट करना एकजुटता के लिए जोखिम भरा और अवरोधक साबित हो सकता है। विडंबना यह है कि भारत में जातीय व्यवस्था का अंतिम लक्ष्य यही था और आज भी यही बना हुआ है – लोगों को एक कभी न तोड़े जा सकने वाले पदानुक्रम में विभाजित रखो, जिससे कि कोई भी समुदाय दूसरों के दर्द को महसूस कर पाने में अक्षम रहे क्योंकि वे सतत संघर्ष में लगे होंगे। यह स्वचालित, आंतरिक प्रशासकीय/निगरानी मशीन के समान काम करता रहता है, जिसमें समाज के द्वारा खुद पर निगरानी रखी जाती है, और इस प्रक्रिया में दमन के ढांचों की शक्तिशाली पकड़ को निष्कंटक बनाये रखने को सुनिश्चित कर दिया जाता है। सर्वोच्च शिखर पर विराजमान और तली में बैठे लोगों (और इन श्रेणियों को भी बेहद सूक्ष्मता के साथ वर्गीकृत किया जाता है) के अलावा हर किसी का किसी न किसी के द्वारा दमन किया जाता है और किसी न किसी का दमन करना होता है।
एक बार इन तारों के गुच्छे को बिछा देने के बाद, करीब-करीब कोई भी शुद्धता के परीक्षण से गुजरने के लिए सक्षम नहीं रह जाता। निश्चित रूप से कभी जिसे अच्छा या महान साहित्य समझा गया था, है। टॉलस्टॉय भी नहीं- कल्पना कीजिये कि वे अन्ना कारेनिना नामक महिला के मन को समझ सकते हैं। न ही दोस्तोवस्की, जो वृद्ध महिलाओं को सिर्फ “बुढ़िया” के रूप में संदर्भित करते थे। उनके मानदंडों के अनुसार मैं शर्तिया एक बुढ़िया की योग्यता रखती हूँ। लेकिन इसके बावजूद लोगों के द्वारा उन्हें पढ़ा जाना मुझे पसंद है। इन मानदंडों के आधार पर प्रत्येक धर्म की हर पुस्तक गिनती में नहीं आती है।
सार्वजनिक बहसों में नजर आने वाले शोरगुल के बीच हम अचानक से बौद्धिक जकड़न में आ सकते हैं। एकजुटता कभी भी शुद्धता की गारंटी नहीं कर सकती है। इसे चुनौती देने, बहस करने, चर्चा, और ठीक किया जाना चाहिए। इसका निषेध कर, हम जिस चीज के खिलाफ संघर्ष करने की बात करते हैं को ही मजबूत करेंगे।
और अब मैं अपनी बातचीत के उप शीर्षक की ओर मुड़ना चाहूंगी – जो कि विश्व को जैसा हम जानते हैं, को ध्वस्त किये जाने पर है। मैं रानियों और उनकी शवयात्राओं के बारे में कुछ बोलना चाहूंगी।
जब रानी की मृत्यु हुई थी तो कुछ ब्रिटिश अखबारों ने उनके निधन पर एक लेख लिखने के लिए कहा था। इस निवेदन पर मैं कुछ परेशान रही। इसकी वजह शायद यह रही हो कि मैं कभी भी इंग्लैंड में नहीं रही, और क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय मेरी कल्पनाओं के किसी कोने में भी कभी नहीं रहीं। इसलिए मैंने हामी ज़रूर भरी, लेकिन यह उस रानी के बारे में नहीं था, जिसके बारे में आप सोच रहे हैं।
जिस रानी के बारे में मैं विचार कर रही थी वह मेरी माँ थीं, जिन्होंने एक हाई स्कूल की स्थापना की थी और उसे संचालित कर रही थीं, जिनकी मृत्यु इस माह के शुरुआत में हुई थी। अच्छा या बुरा, लेकिन वे मेरी जिंदगी की एकमात्र, सबसे प्रभावकारी हिस्सा थीं। हम खतरनाक शत्रु और बेहद अच्छे दोस्त थे। जिस समय मैं बेहद छोटी थी, तभी से वह मेरे लिए वह बाधा दौड़ थीं जिसके इर्दगिर्द मैंने खुद को पाया। और अब जबकि वह नहीं रहीं, और मेरा दिल न सिर्फ टूट गया है बल्कि पूरी तरह से बिखर गया है। अब मेरा आड़ा तिरछा आकार और ढांचा अब मेरे लिए किसी महत्व का नहीं रहा। मेरी इच्छा इस वक्तव्य को दो अंत्येष्टियों की राजनीति को लेकर थी। एक को विश्व मंच पर किया जा रहा था और दूसरा दक्षिण भारत के एक छोटे से शहर में किया गया। लेकिन मैं इस प्रलोभन से खुद को रोकना चाहूंगी।
संभवतः यह समय मेरे लिए उस पहली चीज को कहने का है जिसे नहीं कहा जाना चाहिए, कम से कम फिलवक्त यहाँ लंदन में नहीं कहना चाहिए।
सच कहूँ तो उनकी अंत्येष्टि पर जिस प्रकार का प्रदर्शन और जुलूस और इतने दिनों तक टेलीविजन पर अंतिम संस्कार और कर्मकांड का अंतहीन कवरेज किया गया, उस पर विश्वास नहीं हो रहा है। मैं उन काली करतूत वाले लोगों के द्वारा चापलूसी, और सम्मान की श्रद्धांजलि से जड़वत थी, जिन्होंने उनके पूर्व के उपनिवेशों में उच्च पद आसीन कर रखे थे, जिन्हें अब कामनवेल्थ के तौर पर जाना जाता है। उस खजाने के बारे में कुछ भी साझा नहीं था। यह शुद्ध निकासी थी। और इसका बहाव सिर्फ एक दिशा की ओर था। हमने उन उपनिवेशों से उन परिधानों, फर, गहनों और उन शाही स्वर्ण मुकुटों का भुगतान किया था।
उपनिवेशों, उपनिवेशवाद और सम्राटों के बारे में काफी कुछ कहने को है जिन्होंने इतिहास के उस बर्बर युग पर शासन किया था। उस कहानी को स्टुअर्ट हॉल से बेहतर भला कौन बता सकता है? लेकिन कैसे यह सिर्फ भित्तिचित्र का टुकड़ा घुड़सवारों के मद्धिम गति से गुजरने के साथ दिखाया जाता है? इतिहासकार माइक डेविस का अनुमान है कि 19वीं सदी के अंतिम हिस्से में औपनिवेशिक भारत, चीन और ब्राज़ील में मुख्यतया मानव-जनित अकाल के चलते भूख से 3 से 6 करोड़ लोगों की मौत हो गई थी। वे इसे ग्रेट विक्टोरियाई प्रलय कहते हैं।
जिन्होंने हमें अपमानित किया उनसे हम प्रेम और उनकी प्रशंसा कैसे कर सकते हैं? हमारे समय का यह सबसे उचित राजनीतिक और साथ-साथ निजी प्रश्न होना चाहिए।
मैं माफ़ी चाहूंगी यदि यह सब साम्राज्यवाद पर एक हल्की टिप्पणी प्रतीत हो। मैं खुद को उन भारतीय विद्वानों में नहीं गिनती जो उपनिवेशवाद के खिलाफ बोलते हैं लेकिन अपने खुद के समाजों के भीतर की गलतियों पर चुप रहने को चुनते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दू जाति व्यवस्था में, जो कि दुनिया में ज्ञात सबसे निर्मम व्यवस्थाओं में से एक है, को लेते हैं। कई लोग इसे उपनिवेशवाद का ही एक स्वरुप कहते हैं जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से सदियों पुरानी है और आज तक प्रचलन में है। आधुनिक भारत में जाति वह इंजन है जो इसे चला रहा है। यह देखना उल्लेखनीय होगा कि कितने सारे भारतीय लेखक और बुद्धिजीवी जाति के प्रश्न को पूरी तरह से छिपा जाते हैं। जो चीज हमारे ठीक सामने हर रोज प्रति क्षण मुंह बाए खड़ी रहती है, उसे अनदेखा करने के लिए मेरे विचार से उन्होंने संभवतः एक बेहद विस्तृत, कपटपूर्ण योग आसन वाले साहित्यिक या अकादमिक संस्करण को अपनाया हुआ है।
यह सब मेरे लेखन का विषय है, इसलिए अब मैं फिर से क्वीन के संस्कार पर लौटना चाहूंगी। वास्तव में यह क्या था?
निश्चित रूप से यह एक छोटे से द्वीप वाले देश की 96 साल की सम्राज्ञी के गुजर जाने के बारे में नहीं हो सकता है, जिसे अपने ही हिस्सों- स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड को एकजुट रख पाने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। क्या यह सिर्फ अतीत की ध्वनियों को सुनने, उदासीन मंगलाचरण, साम्राज्य के भूत का विजय गीत को सुनने की इच्छा जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था? या यह उससे कुछ ज्यादा बड़ी बात थी? क्या या अतीत के बारे में था, या यह आने वाले भविष्य को लेकर है?
जैसे-जैसे यूक्रेन में युद्ध की गांठें खुल रही हैं और आधुनिक विश्व जैसा इसे हम जानते हैं, की परतें उघड़ रही हैं, उसे देखते हुए क्या वह सारा तमाशा असल में एक मूकाभिनय रैली थी, एक पोस्चरिंग, मित्रों और सहयोगियों की एक परेड, एक ऐसे युद्ध के लिए जिसे अभी होना है?
यह मुझे बारबरा टुचमैन के द गन्स ऑफ़ अगस्त की याद दिलाती है जो प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बारे में बताती है।
“1910 की मई की उस सुबह का तमाशा इतना भव्य था जब इंग्लैंड के एडवर्ड सप्तम के अंतिम संस्कार में नौ राज्याध्यक्ष पधारे थे, कि समूची भीड़ इसे ख़ामोशी से काली पोशाक के भय में प्रतीक्षारत, प्रशंसा के उंसास को नहीं रोक पा रहे थे। …….
यूक्रेन में जिस प्रकार का खतरनाक भाईचारा खेला जा रहा है वो कहीं न कहीं दोनों पक्षों की ओर से प्रचार के शोरगुल में गुम सा हो रहा है। लेकिन इतिहास की घड़ी बड़ी तेजी से सूर्यास्त की तरफ बढ़ रही है।
युद्ध पर विभिन्न दृष्टिकोण अपने साथ कुछ बेहद कपटपूर्ण योग आसन भी शामिल किये हुए है- कुछ बेहद असाधारण दृश्यमान और अनदेखा- जो इस बात पर निर्भर करता है कि आपने खुद को किस स्थान पर बैठाये रखने का फैसला लिया है। वामपंथियों में कई स्वयं को इसे यूक्रेन पर रूस के आक्रमण कहने में अक्षम पा रहे हैं। उनका विश्वास है कि रूस के खिलाफ यूक्रेनी गुस्सा पूरी तरह से पश्चिमी साम्राज्यवाद से संक्रमित और तैयार किया हुआ है। यह कि 1930 के शुरूआती वर्षों में यूक्रेन का काल कभी हुआ ही नहीं था। वे लाखों यूक्रेनियों – इतिहासकार टिमोथी स्नाइडर के अनुमान के मुताबिक पचास लाख जो 30 के शुरूआती वर्षों में स्टालिन की कृषि में जबरन सामूहिकीकरण की नीति के चलते मारे गये थे, से इंकार करते हैं।
वे यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को नाटो के द्वारा थोपे गये अस्तित्व के संकट के खिलाफ एक रक्षात्मक युद्ध के रूप में देखते हैं। यह झूठ नहीं है। तथ्य यह है कि रूस एक बेहद गंभीर खतरे का सामना कर रहा है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है। सवाल सिर्फ इतना सा है कि यह “रक्षात्मक” युद्ध हमलावर तरीके से यूक्रेनी धरती पर यूक्रेनी लोगों के खिलाफ लड़ा जा रहा है।
जब शीत युद्ध समाप्त हुआ, तो उसके साथ ही असैन्यीकरण और परमाणु अप्रसार भी शुरू हो जाना चाहिए था। इसके बजाय, नाटो ने इसका ठीक उलट किया। इसके द्वारा और बड़ी संख्या में हथियारों का जखीरा इकट्ठा किया गया, और ज्यादा युद्ध लड़े गये और अपने मित्र देशों और पिछलग्गुओं के क्षेत्रों का इस्तेमाल सैनिक टुकड़ियों और मिसाइल की अग्रिम पंक्ति में तैनाती के जरिये आक्रामक और उकसाने वाली नीति अपनाई गई। यदि रूस ने यूरोप या अमेरिका में अपने छद्म प्रतिनिधियों के जरिये यही काम किया होता जैसा नाटो इस समय कर रहा है, तो इस बात में जरा भी संदेह नहीं कि जिस प्रकार की नैतिक बहस और पश्चिमी मीडिया का कवरेज हम देख रहे हैं वह पूरी तरह से उलट होता।
इसमें से कोई भी चेज व्लादिमीर पुतिन को साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारी या किसी प्रकार का लोकतंत्र प्रेमी नहीं बना देती है। इसमें कोई भी चीज इस तथ्य को नहीं बदल सकती कि वे प्रकट रूप से फासीवादी, यहूदी-विरोधी, समलैंगिकता-विरोधी, ईसाईयत राष्ट्रवादी विचारधारा (जिसे विडंबना है कि वे “नाजीवाद से मुक्त” बताते हैं), जिसे उनके दो प्रिय वैचारिक गुरु, एलेग्जेंडर दुगिन और एलेग्जेंडर प्रोखानोव के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
यूक्रेन, क्रीमिया और बेलारूस के बारे में उनका यह दावा कि ये प्राचीन रूस के अविभाज्य क्षेत्र थे, जो कि क्रीमिया में ईसा पश्चात 988 में वोलोदीम्यिर/वाल्देमर के क्रिश्चियन बप्तिस्मा पर आधारित सिद्धांत का सहस्राब्दी वाला मिथक है जिसपर हंसा जा सकता है।
लेकिन यहीं पर हमें सवाल करना होगा कि उन्हीं हलकों में क्यों मुस्कराहट कम होने लगती है जब फिलिस्तीनियों के साथ इस्राइली बर्ताव की बात करने की बारी आती है, और उसका यह दावा कि यहूदी लोगों के लिए प्राचीन वादे वाली भूमि होने के नाते, जिसका अर्थ आधुनिक युग में “यहूदियों के राष्ट्र-राज्य” का प्रश्न बन जाता है।
या भारत में, जब राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) जो कि हिन्दू राष्ट्रवादी मिलिशिया और सांस्कृतिक गिल्ड है, जिसके प्रधानमंत्री मोदी एक सदस्य हैं, एक अखंड भारत का आह्वान करता है, जो कि एक तरह से एक ही समय में भविष्य और प्राचीन के मिश्रण की फंतासी है– भविष्य का प्राचीन भारत जिसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश समाहित हैं, जिन पर जीत हासिल करनी है और जहाँ इसके सभी नागरिकों को हिन्दू शासन के अधीन रहना होगा।
यूरोप में आम लोगों को इस साल कड़ी सर्दी का सामना करना होगा जो कि करीब आ चुकी है, जिसमें उनके पास खुद को गर्म रखने के लिए बेहद कम या कोई उपाय नहीं होंगे, क्योंकि आर्थिक प्रतिबंधों को थोपे जाने के प्रति उत्तर में रूस की ओर से उनकी गैस आपूर्ति को बंद करने की धमकी दी गई है। जैसा कि यूक्रेन अदम्य साहस के साथ लड़ाई लड़ रहा है, और समझौते के साथ समाधान की उम्मीद कम होती जा रही है, ऐसे में युद्ध के विस्तार पाने और बढ़ने की आशंका बढ़ती जा रही है। पुतिन ने ‘आंशिक रूप से सैनिकों के जमावड़े” की घोषणा की है, इन 3 लाख रिज़र्व सेना का जो भी मतलब हो, पता नहीं। फिलवक्त अमेरिका संभवतः काफी दूरी पर पूरी तरह से सुरक्षित है, लेकिन समूचा यूरोप, रूस और एशिया का बड़ा इलाका युद्ध का वह मैदान कभी भी बन सकता है, जिसे विश्व ने शायद ही कभी इससे पहले देखा हो। एक ऐसा युद्ध जिसमें कोई एक विजेता नहीं होगा।
क्या यह समय सभी के लिए अपने कदम पीछे खींचने का नहीं है? क्या संपूर्ण परमाणु निःशस्त्रीकरण के बारे में वास्तविक वार्ता को शुरू करने का समय नहीं है?
ईश्वर न करे, यदि रूस ने परमाणु हथियारों की ओर मुड़ने के लिए अमेरिका के तर्क को अपनाने की सोची तो क्या होगा। एक लेख में जिसका शीर्षक, ‘यदि एटम बम का इस्तेमाल नहीं किया जाता’, जिसका प्रकाशन भौतिकशास्त्री और पूर्व एमआईटी निदेशक कार्ल के. कॉम्पटन के द्वारा दिसंबर 1946 में किया गया, में कहा गया था कि हिरोशिमा और नागासाकी में बम गिराने से “लाखों लोगों- संभवतः अमेरिकियों और जापानियों दोनों देशों के करोड़ों लोगों की जान को बचा लिया गया; और यह कि इसका इस्तेमाल नहीं किया गया होता तो यह युद्ध कई महीनों तक जारी रहता।” उनका तर्क था कि जापान, परास्त हो जाने के बाद भी आत्मसमर्पण नहीं करता, यदि हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम नहीं गिराया जाता तो वे अंतिम व्यक्ति के जीवित रहने तक लड़ते रहते।
कॉम्पटन खुद से प्रश्न करते हैं, “क्या एटम बम का इस्तेमाल अमानवीय था?” खुद को आश्वस्त करने वाला जवाब उनकी ओर से आता है, “सारे युद्ध अमानवीय होते हैं।” द अटलांटिक में इसका प्रकाशन हुआ था। इस तर्क के समर्थन में राष्ट्रपति ट्रूमैन ने लिखा था।
वर्षों बाद जनरल विलियम वेस्टमोरलैंड ने इस तर्क को वियतनाम युद्ध के दौरान थोड़ा और आगे बढ़ाया: “सुदूर पूर्व के लोग जिंदगी की उतनी कीमत नहीं समझते जितना एक पश्चिमी लगाता है। वहां पर प्रचुर मात्रा में जीवन है। सुदूर पूर्व में जिंदगी सस्ती है।” दूसरे शब्दों में हम एशियाई लोग अपनी जिंदगियों को उतना मूल्यवान नहीं मानते हैं इसलिए हमने श्वेत विश्व को नरसंहार के बोझ का भार सहने के लिए बाध्य किया हुआ है।
और फिर एक राबर्ट मैकनमारा साहब हैं, जिनका बेहद शानदार कैरियर का वृत्त रहा है, सबसे पहले 1946 में टोक्यो पर बम गिराने के योजनाकार के तौर पर, जिसकी बदौलत दो अलग-अलग आक्रमण में 200,000 से अधिक लोग मारे गये, फिर फोर्ड मोटर कंपनी के अध्यक्ष के रूप में, उसके बाद वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी रक्षा मंत्री के तौर पर, जिसमें अमेरिकी सैनिकों को “कोई भी ऐसी चीज जो हिल रही हो को खत्म करने” का आदेश मिला हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप 30 लाख वियतनामियों को अपनी जिंदगियां गंवानी पड़ी।
मैकनमारा का आखिरी कार्यभार विश्व बैंक के अध्यक्ष के रूप में दुनिया से गरीबी दूर करने का था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में द फोग ऑफ़ वॉर नामक एरोल मोरिस डॉक्यूमेंट्री में वे एक पीड़ादायक प्रश्न पूछते हैं: “अच्छा करने के लिए हमें कितने शैतानी कार्य करने होंगे?”
आपने ध्यान दिया होगा कि मैं ऐसे नगीनों की संग्रहकर्ता हूँ। हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रपति ओबामा के पास एक हत्या की सूची थी। और मेडलीन अल्ब्राईट, जिन्हें राष्ट्रपति जो बाईडन ने “अच्छाई के लिए एक शक्ति, कृपालु और शिष्टता और आजादी के लिए आदर्श” बताया था, से जब यह पूछा गया कि अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के चलते क्या पांच लाख के करीब इराकी बच्चे मारे गये, पर उनका बेहद चर्चित बयान था, “मेरी समझ में यह बेहद कठिन चुनाव है, लेकिन इसकी कीमत, हम समझते हैं कि यह कीमत सही है।”
हम किस दिशा में जा रहे हैं? यहाँ तक कि हममें से वे लोग जो अपने देश पर रुसी आक्रमण के खिलाफ यूक्रेन की जनता के साथ मजबूती से खड़े हैं, वे भी पश्चिमी मीडिया के यूक्रेन में चल रहे युद्ध के कवरेज और जिस प्रकार से इसने इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो के हमलों को कवर किया था के टोन और तत्व में फर्क पर दांतों तले ऊँगली दबाते देखे जा सकते हैं। इस वर्ष जनवरी में टोनी ब्लेयर, जो कि इराक में अस्तित्वहीन सामूहिक नर संहार के अस्त्र, जिसे हमले को सही ठहराने के लिए आधार बनाया गया था, के बारे में फेक न्यूज़ फैलाने वाले सबसे बड़े योद्धा होने के साथ-साथ राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर के सबसे उत्साही साथी थे, को ब्रिटेन का शिष्टता के मामले में सबसे बड़ा सम्मान नाइट कंपेनियन प्रदान किया गया।
दूसरे दिन क्वीन के अंतिम संस्कार की तस्वीरें देखते हुए मैं जो कुछ भी पी रही थी से दम घुटने लगा जब मैंने सुना कि बिशप या आर्चबिशप ने कहा कि, उन लोगों के विपरीत जो धन और सत्ता से चिपके रहते हैं, क्वीन एलिजाबेथ II को उनके आम लोगों के “जीवन की सेवा” के लिए याद किया जायेगा। उनके बेटे, जो कि इंग्लैंड के नए राजा होंगे, उनकी सम्पत्ति और धरोहर के वारिस होंगे। उनकी शाही जीवनशैली उनकी स्वयं की निजी संपत्ति पर निर्भर नहीं रहने वाली है, जिसके बारे में खबर है कि यह करीब एक अरब डॉलर के करीब है। इसे सार्वजनिक धन से चुकता किया जायेगा, ब्रिटिश लोगों के द्वारा, गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक जिसमें से लाखों लोगों ने अपने घरों में सिर्फ रोशनी जलती रहे के लिए अभी से एक जून का भोजन खाना छोड़ दिया है।”
शायद हम बाकी के लोगों के लिए ब्रिटिश लोगों का अपने सम्राट के प्रति प्रेम और गुलामी को समझना एक रहस्य बना रहे, शायद इसका संबंध पहचान एवं गौरव के राष्ट्रीय भाव से हो जिसे निश्चित ही सिर्फ आर्थिक मोलभाव के स्तर पर नहीं गिरा देना चाहिए। लेकिन मुझे एक या दो मिनट के लिए इस अशिष्टता में उतरने की अनुमति दें।
फाइनेंसियल टाइम्स के एक हालिया विश्लेषण का निष्कर्ष है कि अमेरिका और ब्रिटेन में आर्थिक गैर-बराबरी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि इसे “कुछ बेहद अमीर लोगों के साथ गरीब समाज” के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे अब हमारे जैसे “तीसरी दुनिया वाले” बनाना रिपब्लिक हो गये हैं, जिनके गरीब समुद्र में गिरते जा रहे हैं।
2022 की ऑक्सफेम स्टडी के मुताबिक भारत के 98 सबसे अमीर लोगों की संपत्ति देश के सबसे गरीब 55.2 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति के बराबर है। इस अवज्ञा के लिए, ऑक्सफेम के भारत के दफ्तरों पर आयकर विभाग के द्वारा छापा मारा जा चुका है, और शायद जल्द ही इसे भी एमनेस्टी इंटरनेशनल और हर उस संगठन जो मोदी शासन को लेकर सवाल खड़े करता है, को जल्द ही बंद कर दिया जायेगा।
किंग चार्ल्स तृतीय, भले ही अमीर इंसान हैं, लेकिन वे गौतम अडानी की तुलना में कंगाल हैं, जो कि दुनिया के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति हैं, एक गुजराती कॉर्पोरेट टाइकून और नरेंद्र मोदी के अभिन्न मित्र हैं। अडानी की संपत्ति करीब 137 बिलियन डॉलर की है – जो महामारी के दौरान बड़ी तेजी से बढ़ी है।
2014 में, मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री के तौर पर निर्वाचित हुए थे, तो उन्होंने गुजरात में अपने गृह नगर अहमदाबाद से दिल्ली की अपनी हवाई यात्रा अडानी के निजी जेट से तय कर एक इशारा दिया था – अडानी का नाम और लोगो बड़े बड़े अक्षरों में विमान पर अंकित था। मोदी के आठ साल के शासनकाल में, अडानी की संपत्ति 8 बिलियन डॉलर से बढ़कर आज के स्तर पर पहुँच गई है। यह 129 बिलियन डॉलर का संचय है। मैं सिर्फ बता रही हूँ। कृपया इसमें गहरे निहितार्थ न खोजें। अडानी का पैसा कोयले के खनन और समुद्री बन्दरगाहों और एयरपोर्ट के परिचालन से आया है। अभी हाल ही में उन्हें एनडीटीवी के आक्रामक टेकओवर में शामिल पाया गया, जो कि एकमात्र मुख्यधारा का राष्ट्रीय टीवी न्यूज़ चैनल है जो बड़े ही नाजुक ढंग से मोदी शासन की आलोचना करने का साहस करता है। अधिकांश बाकी मीडिया पहले से ही खरीद ली गई है और उसके लिए भुगतान किया जाता है।
वे निगम जो पर्वत शिखरों में धमाका करते हैं, जंगलों को साफ कर रहे हैं और कोरल रीफ की ब्लीचिंग में लगे हैं, को ‘खुशियों की सभाओं’, स्पोर्टिंग इवेंट, फिल्म और साहित्य फेस्टिवल में वित्तपोषित करते हुए पाया जा सकता है। वे साहसी लेखकों को मंच मुहैय्या कराते हैं जिस पर खड़े होकर फ्री स्पीच पर हमले की निंदा करने और शांति, न्याय और मानवाधिकार के बारे में उनकी प्रतिबद्धता के बारे में घोषणाएं की जाती हैं। और वे चीजें जिन्हें नहीं कहा जा सकता कही जाती हैं।
पूंजीवाद अपने अंतिम चरण पर है। दुःख की बात यह है कि जैसे-जैसे यह नीचे जा रहा है, यह अपने साथ हमारे ग्रह को भी मटियामेट कर रहा है।
परमाणु हथियारों की धमकी देने वालों और खनन निगमों के बीच में निचले स्तर पर जाने की होड़ लगी हुई है। इस बीच हल्के फुल्के मनोरंजन के लिए, आइये इस बात पर लड़ते हैं कि ईश्वर से क्या प्रार्थना की जाये, कौन से झंडे को लहराया जाये, कौन सा गीत गाया जाये। यदि मैंने आपकी भावना को विषादपूर्ण बना दिया है तो मुझे आपके लिए एक ईमेल पढ़ने की अनुमति दें, जिसे मैंने दर्शकों में से एक सदस्य के जवाब में लिखा है, जिसने मुझे काफी आशावादी लगने पर मेरी आलोचना करते हुए लिखा था, जब मैं गौरी लंकेश की याद में बोली थी:
यदि हमारे पास कोई उम्मीद नहीं बची, तो हम सब बैठ जाएं और उम्मीद छोड़ दें। हमारे पास निराशावादी होने के लिए लाखों कारण मौजूद हैं। यही वजह है कि मैंने सुझाया था कि हमें तर्क से उम्मीद को अलग कर देना चाहिए। उम्मीद जंगली, अतार्किक और अकारण होती है।
जो कुछ मैं लिखती हूँ उसकी प्रत्येक पंक्ति, हर शब्द जो मैं बोलती हूँ, जो कुछ मैं वास्तव में कहती हूँ, वह यह है कि हम शून्य नहीं हैं। तुमने हमें परास्त नहीं कर दिया है।
दुनिया में लाखों लोगों के लिए, जिनके पास यह सब सोचने की फुर्सत नहीं है, ये उम्मीद और नाउम्मीदी की बहस विलासिता से अधिक कुछ नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ पर भी, लंदन शहर में दौलत के पहाड़ के नीचे, एक प्रकार के तनाव, असहजता, जैसे एक ट्रेन प्लेटफार्म के पास आने लगती है, आपके पाँव के नीचे एक गड़गड़ाहट सा आभास होता है, को आगंतुक महसूस करता है।
परमाणु युद्ध यदि होता है तो इन सबका कोई महत्व नहीं बचेगा। वह हम सभी को खत्म कर देगा। यह समय दोनों पक्षों के कदम पीछे हटाने का है। और शेष विश्व को कदम बढ़ाने का है। महाविनाश के वक्त दूसरे मौके के लिए कोई जगह नहीं होगी।
(30 सितंबर, 2022 को लंदन स्थित कानवे हॉल में स्टुअर्ट हॉल मेमोरियल लेक्चर के तहत दिया गया लेखिका अरुंधति रॉय का यह भाषण द वायर में प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद लेखक और टिप्पणीकार रविंद्र पटवाल ने किया जो जनचौक में छपा। साभार प्रकाशित. तस्वीर सांकेतिक और सोशल मीडिया से प्राप्त)