उड़ते झूठ: रफाल सौदे पर लिखी किताब से तार-तार होता दलाली का खेल! 

 

मीडिया के लिए कहानियों का खजाना है पर यह उम्मीद व्यर्थ है कि वह इसका उपयोग करेगा 

 

रफाल सौदे पर नई आई पुस्तक के लोकार्पण की सूचना देते हुए मैंने बताया था कि छपने से पहले इसकी तारीफ किन लोगों ने की है। अब मैं पुस्तक की प्रस्तावना और भूमिका पढ़ रहा हूं तो लग रहा है कि वह भी पूरी पुस्तक को पढ़ कर लिखा गया है और लेख (लेखकों) का लिखा हुआ नहीं है। एन.राम के फोरवर्ड (दो शब्द) के बाद आकार पटेल की प्रस्तावना है। पुस्तक में उनका जो परिचय है वह है, लेखक, पत्रकार, ऐक्टिविस्ट और भारत में ऐमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व प्रमुख। उनकी कई किताबों में एक किताब है, ‘प्राइस ऑफ द मोदी ईयर्स’ (हिन्दी में होता तो नाम हो सकता था, मोदी राज क्या भाव पड़ा?) जैसा कि नाम से स्पष्ट है, मोदी सरकार की बखिया कायदे से उधेड़ी गई है। इसे ऐसे भी कह सकता हूं कि किताब पढ़ते जाइए मोदी सरकार (और उसके काम) के बारे में जो राय बनी है वह डिलीट होती जाएगी। प्रचार से बनाई गई छवि की सिलाई उधरती चली जाएगी।

इसका असर हुआ और मुझे आकार पटेल की किताब के साथ सरकार पर उसके असर का पता तब चला जब उन्हें विदेश जाने से रोक दिया गया। फिर खबर आई, आकार पटेल के खिलाफ लुकआउट सर्कुलर वापस करने के साथ ही माफी मांगेगी सीबीआई! यह निर्देश दिल्ली की अदालत का था। उनके खिलाफ विदेशी योगदान नियमन अधिनियम के कथित उल्लंघन का मामला बना दिया गया था। ऐसे मामलों में जैसा होता है, सीबीआई तुरंत ऊंची अदालत में चली गई। मेरा मानना है कि सीबीआई जिन मामलों में ऊंची अदालत में नहीं गई है वह भी देखने जानने लायक है लेकिन गोदी मीडिया उसपर खबर नहीं करेगा और अभी वह अलग मुद्दा है।

सीबीआई माफी मांगेगी वाली खबर के बाद 12 अप्रैल 2022 को खबर आई थी, केंद्र (सरकार) ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया’ और उसके पूर्व प्रमुख आकार पटेल के खिलाफ विदेशी चंदा विनियमन कानून (एफसीआरए) के कथित उल्लंघन के मामले में मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी है। और इससे पहले जिस तरह सीबीआई के मुखिया को हटाया गया था उससे आप समझ सकते हैं कि जांच किसलिए होनी है। हो रही है। उसपर फिर कभी। अभी तो आकार पटेल ने रफाल सौदे से संबंधित किताब,  ‘उड़ते झूठ?’ की भूमिका में जो लिखा है वो बता रहा था।

आकार पटेल के अनुसार भष्टाचार संस्थानों का क्षरण है जिससे स्थायी क्षति होती है। उन्होंने लिखा है, “भ्रष्टाचार” शब्द के दो अर्थ हैं। पहला वह जिसमें इसका सबसे अधिक उपयोग किया जाता है, जो रिश्वतखोरी के रूप में है, व्यक्तिगत लाभ के लिए पद का दुरुपयोग। दूसरा अर्थ गहरा है और ‘भ्रष्ट’ शब्द की व्युत्पत्ति की बात करता है। यह क्षय, सड़ांध और जंग लगने में पाया जाता है। इस अर्थ में, भ्रष्टाचार संस्थानों का क्षरण है, जिससे स्थायी क्षति होती है। राजीव नायर और परंजय गुहा ठकुराता की यह किताब मोदी सरकार द्वारा फ्रांस से युद्धक विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार के दोनों पहलुओं की उपस्थिति को प्रदर्शित करती है। यह माामले को उस गहराई तक ले जाती है जो अन्य पत्रकारों के लिए लगभग असंभव है और यह वह गहराई है जो इन दो लेखकों से अपेक्षित है।

आकार पटेल के अनुसार यह एक जटिल मामला है और इसके केंद्र में, यह सवाल है कि भारत ने उन उपकरणों के लिए 40 प्रतिशत अधिक भुगतान क्यों किया जिनकी कीमत तय हो चुकी थी। इसके भीतर और भी बहुत सारी समस्याएँ हैं। खासकर इसलिए कि भारत सरकार ने और खासकर पहले प्रधान मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से, उस पर फिर से बातचीत क्यों की जो पहले तय हो चुकी थी? मेरा मानना है कि अगर पहले की बातचीत में कोई कमी थी तो उसे बता दिया जाना चाहिए। मामला खत्म हो जाता। ऐसे में जानबूझकर की गई गड़बड़ी का पता लगाना और उसे समझना और लिखना ऐसा काम है जो अन्य लोकतांत्रिक देशों में किया जाता है। भारत में ऐसा पहले कभी होता हो तो अब गायब हो गया है।

किसी अन्य देश में यह पुस्तक पेंटागन पेपर्स के प्रभाव, या बर्नस्टीन और वुडवर्ड के प्रारंभिक कार्य के बराबर होती। हमारी राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा यह बाद में पता चलेगा। एक कार्यशील लोकतंत्र में एक स्वतंत्र और सतर्क न्यायपालिका होनी चाहिए। सरकार से स्वतंत्र और इस तथ्य के प्रति सचेत कि इसकी प्रमुख जिम्मेदारी सत्ता में बैठे लोगों द्वारा नागरिकों और राज्य के खिलाफ दुर्व्यवहार की जांच करना है। क्या हमारे यहां ऐसी न्यायपालिका है? हमारे चारों ओर की घटनाएँ हमें एक स्पष्ट उत्तर देती हैं। इसी तरह, लोकतंत्र के लिए एक ऐसे मीडिया की आवश्यकता है और उसे बनाए रखा जाता है जो अन्य सभी चीजों से पहले प्रहरी का अपना काम करे। सरकार के काम-काज की की जांच करनी चाहिए। लेकिन मुख्यधारा का भारतीय मीडिया ऐसा नहीं करता है।

ऐसे में यह कल्पना करना व्यर्थ है कि भारतीय मीडिया इस स्रोत से सामग्री लेगा और इसके साथ ऐसी कहानियाँ उजागर करेगा जो सरकार पर  सही स्थानों पर दबाव डाले। जब सबूत स्पष्ट हैं और जैसा इस पुस्तक में दिखाया गया है – एक लोकतांत्रिक राज्य को भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने से कौन रोकता है? यह पुस्तक साहसी और महत्वपूर्ण है। यह आशावादियों का काम है, जो मानते हैं कि व्यवस्था, भले ही भ्रष्ट है, को उबारना और ठीक करना होगा। ऐसा होने के लिए, सबूत इकट्ठा करना पहले आना चाहिए। और लेखकों ने हमारे लिए ऐसा किया है, और इसके लिए हमें परंजय और राजीव का आभारी होना चाहिए।

पुस्तक वर्तमान समय की भारत सरकार में पारदर्शिता की कमी को भी अच्छी तरह उजागर करती है। कार्यशील लोकतंत्र में पारदर्शिता आधारशिला है लेकिन यहां पारदर्शिता चाहने वालों से तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया जाता है। हमने रफाल सौदे के इस मुद्दे से जुड़े एक अन्य क्षेत्र में भी यही अस्पष्टता देखी है और वह है चीन से विवाद। यह बयान देने के बाद कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है, प्रधान मंत्री और सरकार ने आगे कोई जानकारी  नहीं दी है। यदि दोनों देशों की सेना अपनी जगह पर है, एक-दूसरे के विरुद्ध हैं, तो जो तनाव बना रहता है उसका कारण क्या है? बताया नहीं जा रहा है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पूछा भी नहीं जा रहा है। जो पूछ रहा है उसे परेशान करने के कई मामले हैं।

 

 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं.

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