लॉकडाउन में गरीबों को महफूज़ रखना राज्य की जिम्मेदारी है, कोई धर्मार्थ कार्य नहीं!

भारत में चल रहे मौजूदा लॉकडाउन की तुलना 2016 की नोटबंदी के दौर से की गयी है। इसके कुछ वाजिब कारण हैं। प्रधानमंत्री ने देश भर को बंद करने की घोषणा अचानक ही की थी। समाज के लिए इसके निहितार्थ बहुत व्यापक हैं, खासकर गरीबों के लिए। उनके राजकाज की यह शैली जीएसटी को लागू करने के तरीके में भी सामने आयी थी। यह सरकार के शीर्ष स्तर पर सत्ता के केंद्रीकरण को दिखाता है। यह इंदिरा गांधी के दौर की याद दिलाता है। फ़र्क बस इतना है कि सत्तर के दशक में सरकार के काम करने के तरीके से उलट मौजूदा सरकार में राज्य की भूमिका संकुचित होती देखी गयी है।

एक अप्रत्याशित तरीके से 2014 वाला नरेंद्र मोदी का मोटो- मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस- फलित होता दिख रहा है। आज इसे तीन रूपों में पहचाना जा सकता है। पहला, समाज से कहा गया है कि वह अपना खयाल खुद रखे। अपने आखिरी संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नज़रिये से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आज़ादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाये जा रहे थे। सेवा भारती सहित संघ परिवार की सामाजिक कल्याण केंद्रित गतिविधियां इसी नज़रिये पर काम करती हैं और यह मानकर चलती हैं कि धर्मार्थ कार्य कल्याणकारी राज्य को आंशिक रूप से अप्रासंगिक बना सकती हैं।

दूसरे, संघ परिवार मानता है कि समाज को स्वनियमन के माध्यम से अपना खयाल रखना चाहिए। “जनता कर्फ्यू” इसी सोच का एक सूक्ष्म संस्करण और रूपक है। स्वनियमन का मतलब हालांकि स्वनियंत्रण यानी सेल्फ पुलिसिंग भी है। नागरिकता संशोधन विरोधी कानून के खिलाफ कार्यकर्ताओं को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से नाम लेकर शर्मसार किए जाने और नागरिक सतर्कता को बढ़ावा दिए जाने में इसे देखा जा सकता है। ये सतर्कता गिरोह अपने शक़ के आधार पर केवल उन मुसलमानों की फ़िराक में नहीं रहते हैं जो गाय कटवाने जा रहे हों, बल्कि अब तो ये लॉकडाउन को भी अमल में लाने के काम में लगे दिख रहे हैं।

तीसरे, राज्य अब सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों से अपने पांव पीछे खींच चुका है। यह उदारीकरण की देन है। भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 फीसद से कम खर्च करता है। देश में 1000 व्यक्तियों पर 0.7 बिस्तर हैं। इस मामले में इंडोनेशिया, मेक्सिको, कोलम्बिया आदि भी भारत से बेहतर हैं। आश्चर्य कैसा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अल्पव्यय ने मध्यम वर्ग के बीच निजी अस्पतालों की मांग को पैदा किया है। पिछले दो दशक में निजी अस्पताल कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं और आज स्थिति यह है कि देश के अस्पतालों में उपलब्ध कुल बिस्तरों में इनकी हिस्सेदारी 51 फीसद है। ज़ाहिर है, इनमें से ज्यादातर गरीबों की जेब की क्षमता से बाहर हैं।

कल्याणकारी राज्य के सिकुड़ते जाने का लेना देना वित्तीय बंदिशों से भी है। भारत का वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और आज जीडीपी के करीब 9 फीसद तक पहुंच चुका है (केंद्र, राज्यों और सार्वजनिक इकाइयों के घाटे को जोड़कर)। यह घाटा आंशिक रूप से हालिया आर्थिक सुस्ती के चलते हैं (पिछले दो वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर 7 फीसद से गिरकर 4.5 फीसद पर पहुंच गया है), जिसके कारण कर संग्रहण में भी गिरावट आयी है।

आज भारत सरकार इसी कारण से समूची जनता के स्तर पर एक व्यापक राहत कार्यक्रम चला पाने की स्थिति में नहीं है। आर्थिक वंचितों की मदद के लिए वित्तमंत्री द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज जीडीपी का महज 0.8 फीसद है, जो यूपीए सरकार के अंतर्गत मनरेगा कार्यक्रम के शीर्ष बजट के बराबर है। वित्तमंत्री के पैकेज में भले ही तमाम किस्म के प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण शामिल हैं, लेकिन घोषित राशि निराश करने वाली है। जनधन खाताधारक महिलाओं को 500 रुपये का हस्तांतरण या फिर मनरेगा की दिहाड़ी में 182 रुपये से 202 रुपये तक का इजाफा शायद बहुत मददगार साबित न हो, खासकर इसलिए कि अधिकांश मनरेगा मजदूरों के लिए फिलहाल काम ही उपलब्ध नहीं है। कुल मिलाकर वित्तमंत्री के आर्थिक पैकेज से यही समझ में आता है कि या तो सरकार अब भी समस्या की व्यापकता और गंभीरता को नहीं समझ पा रही है या फिर उसके पास आवश्यक संसाधनो का टोटा है।

इस बंदी के दौरान सबसे ज्यादा मार उस 40 फीसद से ज्यादा भारतीय कार्यबल पर पड़ी है जो लघु और मध्यम उद्यमों (एसएमई) में रोजगाररत है। यह राहत पैकेज उनकी स्थिर लागत को कवर नहीं करता है, जो कुल लागत का 30 से 40 फीसद पड़ता है। इसके चलते इन उद्यमों को लागत में कटौती करनी पड़ रही है। उसके लिए ये मजदूरों की छंटनी कर रहे हैं, जो वैसे भी लॉकडाउन में बेकार हो जाते हैं। भारत में 50 करोड़ से ज्यादा संख्या वाले गैर कृषि कार्यबल का 94 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र में रोजगाररत है। ये बिना किसी अनुबंध के काम करते हैं और ट्रेड यूनियनें भी इन्हें कवर नहीं करती हैं। इसीलिए इन मजदूरों की छंटनी करना आसान हो जाता है। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वास्तव में, इस बंदी के दौरान तो असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर श्रमिकों से इस बहाने रिहाइश खाली करने को कह दिया गया कि वे सेहत के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।

समाज के सर्वाधिक कमजोर तबकों का संकट केवल वित्तीय नहीं है। यह लॉकडाउन इस तरीके से लागू किया गया है कि इसने उन्हें पहले ही कमजोर कर दिया है। जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत जितनी अतिरिक्त खाद्य सामग्री बांटे जाने की ज़रूरत है उसे कई राज्यों में कम आंका गया है। इस मामले में केरल अपवाद है और दूसरे राज्यों के लिए मॉडल का काम कर सकता है।

गरीब और कमजोर आदमी को महफूज़ रखना राज्य और निजी क्षेत्र के लिए जिम्मेदारी का मसला है, कोई धर्मादा कार्य नहीं। प्रवासी मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया जाना और उन्हें गांव लौटने को बाध्य करना केवल कोरोना वायरस के फैलाव में काम आएगा। इस संदर्भ में शहरी और ग्रामीण गरीबों को मदद के प्रावधानों में साफ़ अंतर बरता जाना चाहिए ताकि गरीबों के बीच संसाधनों का आवंटन बेहतर तरीके से हो सके।

भारत में आर्थिक हालात खतरनाक हैं। बैंकों पर एनपीए का बोझ पहले से ही है। सरकारों ने बीते वर्षों के दौरान इस मसले को गहराने ही दिया है। भारत में कर्ज और जीडीपी का अनुपात पहले से ही ज्यादा है। यह 69 फीसद है, जो ब्राज़ील को छोड़कर ज्यादातर उभरते हुए देशों से ज्यादा है। यह स्पष्ट संकेत है कि वित्तीय अनुशासन और दूसरे किस्म की अराजकताएं यहां कदमताल कर रही थीं। शह एक अप्रत्याशित दौर है, जैसा कि पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकान्त दास ने कहा था, और इसीलिए कल्याणकारी राज्य को यहां हरकत में लाने के लिए भारत को और पैसे उधार लेने होंगे।

वक्त आ गया है कि सरकार कल्याणकारी राज्य के अहम क्रियाकलापों को बहाल करे। सरकार को केंद्र में मैक्सिमम गवर्नेंस के नाम पर पैदा किया गया सत्ता का केंद्रीकरण कम से कम करना चाहिए और मिनिमम गवर्नमेंट के बजाय गरीबों व वंचितों की मदद ज्यादा से ज्यादा करनी चाहिए।


यह लेख 30 मार्च 2020 के द इंडियन एक्सप्रेस से साभार प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।

 

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