एवरग्रैंड संकट और चीनी अर्थव्यवस्था की बर्बादी का ‘नींबू-काट’ ख़्वाब!

सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाचेव ने ग्लासनोश्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) के जो प्रयोग किए, वे आत्मघाती साबित हुए। चीन ऐसे जोखिमों से मुक्त है, ये दावा कोई नहीं कर सकता। लेकिन प्रयोग में सफलता और विफलता की गुंजाइश हमेशा रहती है। कई बार प्रयोग हाथ से निकल जाए, तो वह खतरनाक भी होता है। मगर खास बात यह है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने 72 साल के अपने इतिहास में ऐसे प्रयोगों से कभी गुरेज नहीं किया। ग्रेट लीप फॉरवर्ड, सर्वहारा की सांस्कृतिक क्रांति, नियंत्रित आर्थिक सुधार, विकसित उत्पादक शक्तियों को पार्टी में स्थान देने और अब साझा समृद्धि को सुनिश्चित करने की कोशिश ऐसे प्रयोगों की ही मिसाल हैं। समाजवादी आदर्श के साथ कानून का राज कायम करना भी वैसा ही प्रयोग होगा, जैसा अभी तक दुनिया में कहीं नहीं  हुआ।

एवरग्रैंड 

संकटः चीन का कॉलैप्स करीब है!

 

चीन में रियल एस्टेट कंपनी एवरग्रैंड के कर्ज संकट पर शुक्रवार को वेबसाइट asiatimes.com ने अपनी खबर की हेडिंग दी- Evergrande bubble popped in time: no Lehman moment (एवरग्रैंड bubble सही समय पर दिख गयाः इसलिए लीमैन जैसा क्षण नहीं आएगा). यानी आखिरकार तथाकथित विश्व मीडिया का एक हिस्सा इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि एवरग्रैंड संकट अपने-आप में चाहे जितना गंभीर हो, लेकिन उससे चीन की वित्तीय व्यवस्था उस तरह ढहने नहीं जा रही है, जैसा 2008 में संयुक्त राज्य अमेरिका में बैंक लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के साथ ही देखने को मिला था। जबकि 16 सितंबर को एवरग्रैंड की मुश्किलों के सामने आने के बाद बीते दिनों में पश्चिमी (और उसके समाचार स्रोत से चलने वाले बाकी दुनिया के) मीडिया में कुछ ऐसे शीर्षक देखने को मिलेः Evergrande’s debt crisis: Time to ditch China, Evergrande and the end of China’s ‘build, build, build’ model, Evergrande debt issues a wake-up call for China’s economy, Evergrande’s crisis highlights China’s shortcomings.

अब इसे पश्चिमी दुनिया के अवचेतन मन में छिपी चीनी अर्थव्यवस्था के ढहने की इच्छा का इजहार कहें, या चीन की व्यवस्था को समझ पाने में अक्षमता- लेकिन एवरग्रैंड प्रकरण में सामने यही आया है कि पश्चिमी समाचार स्रोतों ने एक बार फिर एक समाजवादी व्यवस्था के गतिशास्त्र की यथार्थ से दूर व्याख्या पेश की है। जबकि कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिनकी बातों को ये प्रमुखता दे सकते थे। उन विशेषज्ञों के सामने आरंभ से ही यह स्पष्ट था कि असल में एवरग्रैंड के साथ क्या हो रहा है और ये संकट कहां तक जा सकता है। मसलन, भारत की ब्रोकरेज फर्म फर्स्ट ग्लोबल की सह-संस्थापक देविना मेहरा ने वेबसाइट मनी कंट्रोल को दिए एक इंटरव्यू में कहा- ‘हमारी राय में यह मुद्दा चीन सरकार की सोची-समझी पहल का हिस्सा है, जिसमें सोच यह है कि कुछ कारोबार घरानों को फेल होने दिया जाए, ताकि अधिक बड़ी समस्या को नियंत्रित किया जा सके। इसलिए वे इसे अपने हाथ से बाहर नहीं जाने देंगे। ये स्थिति एक प्रकार के नियंत्रित विस्फोट की तरह है। चीन जैसी अपेक्षाकृत एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था में ऐसा करना पूरी तरह संभव है।’ एशिया में निवेश के रणनीतिकार के रूप में जाने जाने वाले फंड मैनेजर होमिन ली ने कहा– ‘एवरग्रैंड की स्थिति एक नियंत्रित विध्वंस जैसी है। पूरी व्यवस्था पर इसका प्रभाव पड़ने की संभावना सीमित है।’

संकट यह खड़ा हुआ कि चीन की सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी समझी जाने वाली एवरग्रैंड के सामने कर्ज चुकाने में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गई। कंपनी पर 305 अरब डॉलर का कर्ज है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा अमेरिका में बॉन्ड बेच कर उगाहा गया है। कंपनी की वित्तीय स्थिति इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह अपने यहां अनेक प्रबंधकों को और कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का भुगतान भी इस महीने समय पर नहीं कर पाई। ताजा घटनाक्रम में कंपनी पहली बार चर्चा में तब आई, जब ये खबर फैली कि वह इस महीने अमेरिकी बॉन्ड पर ब्याज और कर्ज के मूलधन को चुकाने की समयसीमा के अंदर भुगतान नहीं कर पाएगी। उसके साथ ही कंपनी के कॉलैप्स करने (ध्वस्त होने) और उसके संक्रामक असर से पूरी चीनी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त हो जाने के अनुमान लगाए जाने लगे। कंपनी की मुसीबत को पूरे चीन की मुसीबत के रूप में पेश किया गया।

पश्चिमी मीडिया में इस बात पर आक्रोश जताया गया कि चीन सरकार इस कंपनी का बेलआउट करने के लिए आगे नहीं आ रही है। इस कंपनी के संदर्भ में भी too big to fail (यानी कंपनी इतनी बड़ी है कि उसे फेल होने नहीं दिया जा सकता) का मुहावरा चर्चित होने लगा। इस मुहावरे का इस्तेमाल अमेरिका में तत्कालीन बराक ओबामा प्रशासन ने बीमा कंपनी एआईजी- अमेरिकन इंटरनेशनल ग्रुप- और ओटोमोबिल सेक्टर की संकटग्रस्त हुई कंपनियों को बेलआउट पैकेज देने के तर्क के रूप में पेश किया था। ओबामा प्रशासन ने कंपनी अधिकारियों की बिना कोई जवाबदेही तय किए और उन कंपनियों में पब्लिक सेक्टर की भूमिका सुनिश्चित करने का बिना कोई उपाय किए सरकारी कोष से लाखों डॉलर की रकम उन्हें दे दी थी। पश्चिम के कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की एवरग्रैंड के सिलसिले में भी यही इच्छा है कि चीन सरकार करदाताओं के पैसे से इसे उबार ले, ताकि इस कंपनी में पश्चिमी निवेशकों ने जो पैसा लगाया हुआ है, वह संकट में ना पड़े। लेकिन चीन सरकार ने उनकी ये इच्छा पूरी नहीं की है।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एवरग्रैंड जैसी बड़ी कंपनी का फेल होना चीन की अर्थव्यवस्था में पैदा हुई विसंगतियों का परिणाम है। ये विसंगतियां चीन में अपनाई गई नीतियों का नतीजा हैं। माइकल हडसन जैसे अर्थशास्त्री लंबे समय से ये चेतावनी देते रहे हैं कि चीन का रियल एस्टेट सेक्टर कभी भी बड़े संकट से ग्रस्त हो सकता है। इसकी वजह यह है कि चीन के स्थानीय प्रशासनों ने रियल एस्टेट कंपनियों को जमीन लीज पर देकर मकानों की सट्टा बाजारी को बढ़ावा दिया। इन कंपनियों को वित्तीय संस्थाओं ने आसानी से कर्ज मुहैया कराए। कंपनियां बड़ी हो गईं, तो उन्होंने अंतरराष्ट्रीय शेयर बाजारों से भी पैसा उगाहा। इस क्रम में लाखों की संख्या में ऐसे फ्लैट बनाए गए, जिनके खरीदार नहीं हैं। ऐसे में इस कारोबार का देर-सबेर ढहना तय मान कर चला जा रहा था।

लेकिन क्या इसके साथ ही पूरी चीनी अर्थव्यवस्था भी कॉलैप्स कर जाएगी, जैसा 2008 में अमेरिका और उसके बाद कर्ज संकट के कारण ही कई यूरोपीय देशों में हुआ था? इस बिंदु पर आकर जरूरत चीन की (या किसी भी समाजवादी) अर्थव्यवस्था की सही समझ अपनाने की होती है। चीन और पश्चिम की अर्थव्यवस्थाओं में मूलभूत फर्क यह है कि चीनी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन है। बैंक और वित्तीय क्षेत्र का तो लगभग 80 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र में है। वित्तीय नीतियां बाजार की स्वच्छंदता से नहीं, बल्कि सरकार की प्राथमिकताओं के अनुरूप तय की जाती हैं। चीन की सरकार ने पूरी व्यवस्था और अर्थव्यवस्था में अपना बड़ा दखल बनाए रखा है।

जबकि पश्चिम में हाल यह है कि सरकार ने अपने कुछ प्रमुख अंगों का भी निजीकरण कर दिया है। इसलिए सब-प्राइम क्राइसिस और उसके परिणामस्वरूप लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने समय अमेरिका सरकार ने अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कोई निर्णायक कदम उठाने में खुद को अक्षम पाया था। लेकिन चीन में स्थितियां अलग हैं, जिस बारे में ठोस समझ देविना मेहरा, होमिन ली और कॉरपोरेट- फाइनेंस जगत के कई दूसरे लोगों ने भी दिखाई है।

दरअसल, एवरग्रैंड संकट खड़ा नहीं होता, अगर चीन की सरकार ने पिछले वर्ष अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने का निर्णय नहीं लिया होता। उन निर्णय के साथ ही सुविचारित और सुनियोजित ढंग से ‘बेकाबू’ होती जा रही बड़ी कंपनियों को नियंत्रित करने की शुरुआत की गई। पहला कदम अरबपति जैक मा के एंट ग्रुप के खिलाफ उठाया गया, जब उसके इनिशियल पब्लिक ऑफर यानी शेयर जारी करने की प्रक्रिया को आखिरी वक्त पर रोक दिया गया। तब से अब तक बड़ी टेक कंपनियों, प्राइवेट ट्यूशन और कोचिंग कंपनियों, ऑनलाइन म्यूजिक कारोबार, वीडियो गेम्स की सेवा देने वाली वाली कंपनियों आदि के खिलाफ कार्रवाई की जा चुकी है। बहरहाल, यहां मुद्दा एक रियल एस्टेट कंपनी का है। तो गौर करने वाली बात ये है कि इस सेक्टर की कंपनियों के मामले में आखिर क्या फैसले लिए गए, जिससे एवरग्रैंड के डिफॉल्ट करने की शुरुआत हो गई।

राष्ट्रपति शी जिनपिंग के निर्देश पर चीन की विनियामक संस्थाओं बीते साल रियल एस्टेट सेक्टर के लिए तीन ‘रेड लाइन्स’ का एलान किया था। इसके तहत सबसे प्रमुख बात यह थी कि अब ऐसी कोई कंपनी अपनी जायदाद के कुल मूल्य के 70 फीसदी से ज्यादा का कर्ज नहीं ले सकेगी। अगर ये नियम नहीं होता, तो एवरग्रैंड नया कर्ज लेकर पुराने कर्ज को चुकाने की समय-सारणी के मुताबिक भुगतान कर देती। लेकिन इस नए नियम ने उसके हाथ बांध दिए। तो ये सहज सवाल उठता है कि खुद अपनी अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचा कर आखिर चीन सरकार क्या हासिल करना चाहती है? इसे समझने के लिए चीन सरकार के इन उद्देश्यों पर ध्यान देना चाहिएः

दरअसल पिछले कुछ महीनों में चीन सरकार ने बड़े उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को प्राथमिकता क्षेत्रों में निवेश के लिए प्रेरित (या कहें मजबूर) किया है। साथ ही धनी लोगों से ‘साझा समृद्धि’ के लक्ष्य को हासिल करने के लिए योगदान देने को प्रेरित (या मजबूर) किया है। इस क्रम में अलीबाबा से लेकर टेन्सेंट और ऐसी बहुत सी दूसरी कंपनियों ने अरबों डॉलर की रकम उपलब्ध कराई है।

इसके बावजूद चीन की इस नई दिशा को लेकर पश्चिमी मीडिया में कयासों का दौर गर्म है। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने इसकी व्याख्या इस हेडिंग के साथ की हैः Xi Jinping Aims to Rein In Chinese Capitalism, Hew to Mao’s Socialist Vision (शी जिनपिंग का लक्ष्य माओ की समाजवादी दृष्टि के अनुरूप चीनी पूंजीवाद पर नियंत्रण हासिल करना है) द इकॉनमिस्ट ने कहा- Xi Jinping’s assault on tech will change China’s trajectory (शी का टेक्नोलॉजी पर आक्रमण चीन की दिशा बदल देगा). बीबीसी ने कहा- Changing China: Xi Jinping’s effort to return to socialism (बदलता चीनः शी जिनपिंग की समाजवाद की ओर लौटने की कोशिश). और फाइनेंशियल टाइम्स की हेडिंग रहीः The Chinese control revolution: the Maoist echoes of Xi’s power play (चीन में नियंत्रण करने की क्रांतिः शी के सत्ता के खेल में माओवादी झलक).

ये बात पूरे भरोसे से कही जाती है कि जब पश्चिमी मीडिया या बुद्धिजीवी समाजवाद की बात करते हैं, तो वे ऐसा इस विचार की बिना बुनियादी समझ रखते हुए करते हैँ। उन्होंने अपने और अपने श्रोता वर्ग के दिमाग में ये धारणा बैठा रखी है कि समाजवाद एक उत्पीड़क व्यवस्था है, जिसमें सबके बीच में गरीबी का बंटवारा किया जाता है। ये बात उनकी समझ के दायरे से बाहर रहती है कि समाजवाद एक आदर्श है और उस आदर्श की दिशा में बढ़ने के कई प्रयोग दुनिया में हुए हैं। उनमें से ही एक प्रयोग अभी चीन में चल रहा है।

न्यूयॉर्क के जॉन जे कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर झुन शू ने हाल में ये उल्लेखनीय बात कही कि चीन कोई एक finished product नहीं है। यानी चीन में समाजवाद ठोस रूप ले चुका है, ऐसा नहीं है। न ही ये सच है कि उसने समाजवाद का रास्ता छोड़ कर पूंजीवाद को अपना लिया है। बीते 70 साल में उसने कई प्रयोग किए हैं। माओ जे दुंग के बाद के काल में जो प्रयोग किया गया, उसमें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को प्रमुख स्थान मिला। इस कारण अनेक विकृतियां चीनी समाज में आईं। उनमें सबसे खास अभूतपूर्व गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार हैँ। लेकिन इस दौर में भी स्कूलों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ जे दुंग विचार चीन के वैचारिक विमर्श और शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम में सर्वोपरि बने रहे हैं। इसलिए वहां स्कूल और कॉलेजों से हर साल लाखों ऐसे छात्र निकलते हैं, जो मार्क्सवाद में दीक्षित होते हैँ। उनमें से बहुत वे चीन की दशा-दिशा का मार्क्सवादी नजरिए से विश्लेषण करते रहे हैँ। यह वह सामाजिक आधार है, जिसकी अनदेखी चीन की सरकार उस स्थिति में भी नहीं कर सकती, अगर वह दिल से पूंजीवाद और नव-उदारवाद को ग्रहण कर चुकी हो।

ये बात गौरतलब है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरे विकासक्रम में माओवाद को कभी अस्वीकार नहीं किया, जिसे चीन के बाहर की दुनिया में समाजवादी या समतावादी दौर समझा जाता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने देंग श्योओ फिंग की मृत्यु के बाद no two denials का सिद्धांत अपनाया था। इसका अर्थ था कि वह ना तो माओवादी (यानी समातावादी) दौर को अस्वीकार करती है, और ना देंग की लाइन को, जिसमें गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार का जोखिम का उठाते हुए ‘उत्पादक शक्तियों को विकसित होने’ का पूरा अवसर देने की दिशा अपनाई गई थी।

देंग की दिशा में चीन लगभग ढाई दशक तक दौड़ता रहा। हालांकि इस बीच कई बार कोर्स करेक्शन (यानी दिशा में सुधार) किया गया, लेकिन वह बहुत स्पष्ट नहीं था। लेकिन 2020 से चीन ने जो कोर्स करेक्शन शुरू किया है, जो वह सबको दिख रहा है। उसकी ही दुनिया में आज चर्चा है। इसको लेकर पश्चिमी कॉरपोरेट मीडिया ने चीन को चेतावनी दी है कि उसकी नई दिशा उसे उच्च आर्थिक वृद्धि दर और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आविष्कार भावना से वंचित कर देगी। चूंकि कॉरपोरेट मानस यह नहीं समझ पाता कि जीडीपी की वृद्धि दर और अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने वाली तकनीक से भी अलग और ज्यादा महत्त्वपूर्ण भी जीवन में कुछ हो सकता है, इसलिए उसे ये लगना स्वाभाविक ही है कि चीन ने आत्म विनाश का रास्ता चुन लिया है।

बहरहाल, जो लोग यह समझते हैं कि समाजवाद एक निरंतर प्रयोग है, जिसकी मूल बात यह होती है कि उसकी नीतियों और अपनाए जाने वाले सामाजिक ढांचों के केंद्र में आम लोग रहते हैँ। आर्थिक विकास लोगों के लिए होता है, लोगों की कीमत पर नहीं। चीन ने एक समय धन निर्मित करने की दिशा चुनी, ताकि वह लोगों की गरीबी दूर कर सके और एक समृद्ध समाज बन कर समाजवाद का नया और ऐसा मॉडल पेश कर सके, जो सबको खुली आंखों से भी पूंजीवाद से अधिक आकर्षक दिखे। जैसा कि झुआन शु ने कहा है कि चीन एक फिनिस्ड प्रोडक्ट नहीं है, इसलिए अभी ये कहना ठीक नहीं होगा कि चीन का मॉडल सचमुच सबको अधिक आकर्षक दिखता है। वहां अभिव्यक्ति की आजादी पर नियंत्रण और अपने विचार के अनुरूप संगठित होने की स्वतंत्रता का अभाव ऐसी बातें हैं, जो चीन की व्यवस्था को लगातार कठघरे में खड़ा किए रखती हैँ।

लेकिन इस बिंदु पर दो और बातों पर गौर किया जाना चाहिए। चीन ने हाल में डेटा संरक्षण का ऐसा कानून लागू किया है, जिसमें लोगों के निजी डेटा के दुरुपयोग को रोकने की कारगर व्यवस्था की गई है। जिस दौर में डेटा सबसे अहम पहलू बन कर उभरा है, उसमें लोगों की निजता सुरक्षित करना एक ऐसे अधिकार का संरक्षण है, जिसकी जरूरत आज दुनिया भर में महसूस की जा रही है। लेकिन दुनिया में ऐसे देश अभी कम हैं, जिन्होंने इस दिशा में सार्थक कदम उठाए हों। जबकि चीन ने इस ओर ठोस पहल की है।

दूसरी बात चीन का यह लक्ष्य है कि 2035 तक वह अपने यहां कानून का राज (rule of law) स्थापित कर लेगा। सर्वहारा की तानाशाही की अवधारणा के तहत कानून को सबसे ऊपर मानने और उसे सुनिश्चित करने के लिए निष्पक्ष न्यायपालिका का चलन नहीं रहा है। मगर ये समझ मौजूद रही है कि यह ऐसा लक्ष्य है, जिसके बिना समग्र न्याय की व्यवस्था समाज में नहीं हो सकती।

यह बात नजरअंदाज नहीं करनी चाहिए कि ऐसे तमाम प्रयोग जोखिम भरे होते हैँ। सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाचेव ने ग्लासनोश्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) के जो प्रयोग किए, वे आत्मघाती साबित हुए। चीन ऐसे जोखिमों से मुक्त है, ये दावा कोई नहीं कर सकता। लेकिन प्रयोग में सफलता और विफलता की गुंजाइश हमेशा रहती है। कई बार प्रयोग हाथ से निकल जाए, तो वह खतरनाक भी होता है। मगर खास बात यह है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने 72 साल के अपने इतिहास में ऐसे प्रयोगों से कभी गुरेज नहीं किया। ग्रेट लीप फॉरवर्ड, सर्वहारा की सांस्कृतिक क्रांति, नियंत्रित आर्थिक सुधार, विकसित उत्पादक शक्तियों को पार्टी में स्थान देने और अब साझा समृद्धि को सुनिश्चित करने की कोशिश ऐसे प्रयोगों की ही मिसाल हैं। समाजवादी आदर्श के साथ कानून का राज कायम करना भी वैसा ही प्रयोग होगा, जैसा अभी तक दुनिया में कहीं नहीं  हुआ।

इन तमाम प्रयोगों में चीन के कॉलैप्स हो जाने का खतरा है। लेकिन एवरग्रैंड कंपनी के साथ जो हो रहा है, उससे उसका कॉलैप्स होगा, इसकी तनिक भी आशंका नहीं है। हां, जिनकी दबी इच्छा है कि ऐसा हो, वे ऐसी चर्चाएं करते रहेंगे। आखिर पश्चिमी व्यवस्था में, जहां विमर्श को वित्तीय पूंजीवाद नियंत्रित करता है, ऐसी चर्चाओं की न सिर्फ पूरी आजादी रहती है, बल्कि ऐसी चर्चा करने में ही मीडिया और बुद्धिजीवियों का स्वार्थ भी निहित रहता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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