नालंदा बौद्ध महाविहार को किसने जलाया?

शशि अहलावत

 

यह लेख बिहार में स्थित नालंदा बौद्ध महाविहार के ध्वंस की कथा से सम्बन्धित है। व्यापक प्रचलन में कथा यह ही रही है कि पूर्वी भारत में अपने बारहवीं शताब्दी के अभियान के दौरान तुर्क सेनापति मुहम्मद बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा को नष्ट कर दिया गया था। यह भी कहा जाता है कि उनकी सेना ने नालंदा के पुस्तकालयों में आग लगा दी जिससे वहां रखी सभी पाण्डुलिपियां नष्ट हो गईं। मैं इस लेख में इन दो भागों के स्रोतों का विश्लेषण करूंगी जो नालंदा के ध्वंस के महाआख्यान का निर्माण करते हैं।

इस आख्यान की जांच न केवल इसके बाद के लेखे-जोखे को समझने के लिए महत्वपूर्ण है जो मुसलमानों के हिंदुओं पर आतंक से जुड़ी सार्वजनिक स्मृति का एक बड़ा हिस्सा है बल्कि भारत से बौद्ध धर्म के पतन की परिघटना के साथ इसके जुड़ाव को भी प्रतिबिंबित करता है। यह आलेख चार मुख्य स्रोतों की जांच करता है जिन्हें अक्सर नालंदा पर मौजूद प्रमुख कार्यों में ध्वंस की व्याख्या करने के लिए संदर्भित किया जाता है। इसमें तेरहवीं शताब्दी में रचित एक फ़ारसी तिथि-ग्रंथ और तेरहवीं से अठारहवीं शताब्दी के बीच की मुख्यतः दो तिब्बती रचनाएं शामिल हैं।

परिचय

नालंदा का पुरातात्विक स्थल बिहार-शरीफ से लगभग 15 किमी दक्षिण में स्थित है, जो नालंदा के नामांकित जिले का मुख्यालय है, और बिहार राज्य की राजधानी पटना से लगभग 95 किमी दक्षिण-पूर्व में स्थित है। हर साल हजारों पर्यटक उस स्थान पर आते हैं जो कभी एक प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षा केंद्र हुआ करता था और भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर के कई देशों के छात्रों को आकर्षित करता था।

ऐसा माना जाता है कि नालंदा महाविहार की स्थापना पांचवी शताब्दी में राजकीय प्रश्रय के साथ हुई थी और जो कम से कम बारहवीं शताब्दी के अंत तक फलता-फूलता रहा। यहां धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोल विज्ञान, तत्वमीमांसा और दर्शन से जुड़े विषयों की एक श्रृंखला शामिल थी। इस तरह की सूचना जुआनज़ैंग (ह्वेन-सांग) और यित्जिंग जैसे चीनी यात्रियों के विस्तृत विवरणों में पाई जाती हैं जो विभिन्न कालों में इस मठ से जुड़े थे।

बिहार के कई अन्य बौद्ध मठ स्थलों की तरह, नालंदा महाविहार को बौद्ध धर्म के पतन के बाद यानि बारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के बीच एक परित्यक्त स्थल के रूप में माना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में इस क्षेत्र का दौरा करने वाले शुरुआती ब्रिटिश सर्वेक्षकों ने ईंटों और पत्थरों के अवशेषों के साथ मिट्टी के बड़े टीलों का दस्तावेजीकरण किया।

सर्वप्रथम 1807 और 1814 के बीच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा नियुक्त एक स्कॉटिश चिकित्सक एवं सर्वेक्षक फ़्रान्सिस बुकानन-हैमिल्टन ने तत्कालीन बंगाल सरकार के लिए इस क्षेत्र का एक व्यापक सर्वेक्षण तैयार करने हेतु वर्तमान बिहार और बंगाल में कई स्थानों का दौरा किया। जैसे-जैसे वे विभिन्न स्थलों से गुज़रे उन्होंने संरचनात्मक पुरातन खंडहरों को भी दर्ज किया।

1811-12 के उनके वृत्तांत में नालंदा से जुड़े वे आख्यान शामिल हैं जो उन्हें वहां देखे गए बड़े टीलों के बारे में बताए गए थे। स्थानीय जैनों ने इन टीलों को राजा श्रेणिका के निवास स्थान से जोड़ा जो जैन परंपरा में उच्च माने जाने वाले राजा और उनके पूर्वजों के थे। दूसरी ओर ब्राह्मणों ने उन्हें बताया कि यह स्थल कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का जन्मस्थान है। इस पर बुकानन ने खेद व्यक्त किया कि नालंदा और बिहार-शरीफ के लोग, चाहे वे मुसलमान हों या हिंदू, “ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने इतिहास की हर परवाह छोड़ दी है।”

बर्मा में बिताए समय से बौद्ध कला से परिचित होने के कारण बुकानन पूजास्थलों पर रखी मूर्तियों, जो ग्रामीणों द्वारा हिंदू देवताओं के रूप में पूजी जा रही थीं, के बौद्ध लक्षणों को पहचानने में सक्षम थे। इसके चलते बुकानन ने नालंदा के खण्डहरों (उस समय बड़गांव) में बौद्ध उपस्थिति का संकेत दिया लेकिन उस बिंदु पर साक्ष्य की कमी के कारण इसकी पहचान वह एक मठ रूपी संस्था के तौर पर नहीं कर सके। अपने अवलोकन के माध्यम से उन्होंने टिप्पणी की, “इस क्षेत्र में बौद्धों के सिद्धांत प्रबल हैं … पूरी तरह से विलुप्त नहीं हुआ है।”

बुकानन के बाद 1847 में मेजर किट्टो और 1837-38 में एम. मार्टिन नालंदा पहुंचे पर वे भी इन टीलों को एक ऐतिहासिक बौद्ध मठ से जोड़ पाने से अभी काफ़ी दूर थे। यह 1861-62 में ही था जब जनरल अलेक्जेंडर कनिंघम, जिन्हें भारतीय पुरातत्व के पिता के रूप में भी जाना जाता है, ने सातवीं और आठवीं शताब्दी के जुआनज़ैंग के यात्रा वृत्तांत के आधार पर बिहार और बंगाल में बौद्ध स्थलों का मानचित्रण करना शुरू किया जो तब तक फ्रेंच अनुवाद के माध्यम से ही उपलब्ध था। जुआनज़ैंग के सावधानी से प्रलेखित यात्रा मार्गों के बाद उन्होंने नालंदा महाविहार सहित कई स्थलों की पहचान की या पहचानने का दावा किया। इसके बाद 1915-37 और 1974-82 के दौरान नालंदा के अवशेषों के उत्खनन की एक श्रृंखला शुरू की गई जिसमें छह प्रमुख ईंट मंदिरों और ग्यारह मठों के व्यापक अवशेषों का अनावरण हुआ।

बख्तियार खिलजी द्वारा ‘विध्वंस

1930 के दशक तक नालंदा का स्थल न केवल अपने पुरातात्विक महत्व के लिए बल्कि भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण हो गया था। इसलिए नालंदा के विनाश की जांच बौद्ध धर्म के पतन को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाने लगी। चीनी यात्री के वृत्तांत से इस विषय पर कोई ठोस जानकारी नहीं मिल सकी। इसलिए नालंदा के शुरुआती शोधकर्ताओं ने बाद के दो स्रोतों की ओर रुख किया–तबक़ात-ए-नासिरीमिन्हाजुद्दीन-सिराज द्वारा तेरहवीं शताब्दी में रचित इस्लामी दुनिया के साथ-साथ भारत में इस्लामिक शासकों के विजय अभियानों का एक विस्तृत इतिहास, और तारानाथ नामक एक तिब्बती भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म के इतिहास पर सत्रहवीं शताब्दी का एक सार-संग्रह।

तबक़ातनासिरी के एक खण्ड में मिन्हाज बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के दौरान पूर्वी भारत में खिलजी के अभियानों को दर्ज़ करते हुए लिखता है:

“वह (मुहम्मद-ए-बख्तियार खिलजी) उन हिस्सों और उस देश में अपने लूटपाट को तब तक ले जाता रहा जब तक कि उसने बिहार के किलेबंद शहर पर हमला नहीं किया। … और उन्होंने किले पर कब्जा कर लिया, और बड़ी लूट हासिल की। उस स्थान के निवासियों में अधिक संख्या ब्राह्मणों की थी, और उन सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडे हुए थे; और वे सब मारे गए। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं; और, जब ये सभी पुस्तकें मुसलमानों की निगरानी में आईं, तो उन्होंने बहुत से हिंदुओं को बुलाया ताकि वे उन्हें उन पुस्तकों के सम्बन्ध में जानकारी दे सकें; पर सारे हिन्दू मारे जा चुके थे। (उन पुस्तकों की सामग्री से) परिचित होने पर यह पाया गया कि किला और शहर एक कॉलेज था, और हिंदी भाषा में, वे कॉलेज को बिहार कहते हैं।”

नालंदा से जुड़े कथनों में, जिन्हें अक्सर साइट गाइड द्वारा भी बताया जाता है, यह भी जोड़ा जाता है कि नालंदा में लूटपाट के अलावा बख्तियार खिलजी द्वारा वहां आग भी लगाई गई थी। उपरोक्त विवरण में स्थानीय रूप से बिहार के रूप में जाने जाने वाले केवल एक स्थान की लूटपाट का उल्लेख है। इसे नालंदा महाविहार समझा जाने लगा। तर्क दिया गया कि विहार या बिहार शब्द बौद्ध मठों से जुड़ा है अतः नालंदा महाविहार पर आधारित मान लिया जाए जबकि स्पष्ट है कि नालंदा नाम का ज़िक्र मिन्हाज ने कहीं नहीं किया।

कुछ विद्वानों ने बाद में तर्क दिया है कि यह स्थल वास्तव में नालंदा से 15 किमी दूर बिहार-शरीफ में स्थित उदन्तपुरी (ओड़न्तपुरी/ओदंतपुरी/उड़्यन्तपुरी) का किलाबद्ध विहार हो सकता है। यह तर्क खिलजी के अभियान के भौगोलिक विवरण पर आधारित होने के साथ-साथ बिहारशरीफ शहर में मौजूद पत्थर के किले के अवशेषों पर आधारित है। बिहारशरीफ के नाम में ‘बिहार’ शब्द का मिलना भी इसकी पुष्टि करता है।

मिन्हाज का लेख खिलजी के आक्रमण को एक दुर्गनुमा विहार तक ही बताता है। दिलचस्प बात यह है कि इस पर रक्षात्मक प्रतिक्रिया यह रही है कि यदि बख्तियार खिलजी बिहार-शरीफ तक पहुंचा  तो उसने नालंदा के स्थल को भी बहुत आसानी से क्षति पहुंचाई होगी। पर यह समझ में नही आता की खिलजी के पराक्रम का बखान करने वाले मिन्हाज ने आखिर उसके द्वारा नालंदा के ध्वंस का किस्सा क्यों छुपाया होगा। साफ़ है कि इस तर्क का मूल आधार ऐतिहासिक आख्यान को विकृत कर अपने मतलब की बात आगे करना है।

धर्मस्वामी नामक एक तिब्बती भिक्षु खिलजी द्वारा किए आक्रमण के कुछ वर्षो बाद नालंदा पहुंचता है। कालांतर में उसके एक शिष्य द्वारा लिखी जीवनी से पता चलता है के उस समय उदन्तपुरी में तुरुष्क डेरा डाले हुए थे जो खिलजी के कब्जे के उपरान्त वहाँ तैनात किए गए होंगे। एक दिन नालंदा में रह रहे भिक्षुओं तक खबर पहुँचती है कि एक तुरुष्क टोली लूटपाट के इरादे से नालंदा के लिए तैयार हो रही है। इस समय धर्मस्वामी और उनके गुरु राहुलश्रीभद्र पास ही एक मंदिर में छुप कर अपनी रक्षा करते हैं।

“जब धर्मस्वामी और उनके गुरु राहुलश्रीभद्र वहां रह रहे थे तो अचानक कोई तीन सौ तुरुष्क प्रकट हुए, सशस्त्र और युद्ध-तत्पर। सैनिकों द्वारा उन दोनों का मारा जाना तय था, पर जब वे उन्हें मिले ही नहीं तो सैनिक लौट गए। (गुरु के) दो सामान्य तरफ़दारों को कई दिनों तक बेड़ियों में जकड़े रखा गया लेकिन फिर छोड़ दिया गया।”

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी मुठभेड़ें और भी हुई होंगी। इस कथन में किसी के मारे जाने का उल्लेख नहीं है पर माना जा सकता है कि ऐसी वारदातें भी समय-समय पर हुई होंगी। हालाँकि इसे स्थानीय लोगों या बौद्ध भिक्षुओं का सफाया मान लेना अतिशयोक्ति ही होगी। ये भी ध्यान रहे कि इन सब घटनाओं के बावजूद धर्मस्वामी की जीवनी के अनुसार वे वहां दो साल तक अपने गुरु के साथ रहे। अतः नालंदा महाविहार किसी न किसी रूप में जीवंत रहा। और नालंदा के पुस्तकालयों में आग लगने का वाकया तो अब तक सामने आया ही नहीं। फिर आग किसने लगाई?

“जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा में आग लगाई तब उसके पुस्तकालयों के अंदर रखी सभी पाण्डुलिपियां जल कर राख हो गईं” यह दिल दहला देने वाला वाकया बचपन से ही सबने सुना होगा जिसे एक मिलेजुले अहसास के साथ बताया जाता रहा है–आक्रोश यह कि सभी ज्ञानोपार्जन की पाण्डुलिपियां भस्म हो गईं और गर्व इस पर कि नालंदा के पुस्तकालय इतने विशाल थे कि हमले के बाद तीन महीने लगे सब जलकर खाक हो जाने में। कोई तीन दिन कहता है तो कोई तीन महीने। छह महीने से लेकर तीन साल तक सुनने को मिलता है। इस तरह के कथन का इस्तेमाल एक किस्म के मार्मिक दृश्य को पैदा करने के लिए किया जाता है-‘हिंद’ के ज्ञानातुर शांतिपूर्ण लोगों पर बर्बर ‘मुसलमानों’ द्वारा लगातार किए गए अत्याचारों के खिलाफ घृणा एवं रोष।

आज का भगवाधारी हिंदू इस वाक्य को अपनी ढाल बनाकर बदले को उचित ठहराता है। जबकि खिलजी के आक्रमण वृतांत में ऐसा कोई ज़िक्र है ही नहीं। यह समझना मुश्किल है कि मिन्हाज आग का ज़िक्र न करके इस घटना को कमतर बताकर बल्कि इसे एक गलतफहमी के फलस्वरूप हुई बर्बादी के रूप में ही क्यों पेश करना चाहता था। यह तो एक सेनापति के पराक्रम के बखान के खिलाफ हुआ। मालूम चलता है कि कहानी में आग लगने की घटना को किसी अन्य स्रोत से जोड़ा गया है।

तारानाथ का बौद्ध धर्म का इतिहास 1608 में रचित एक तिब्बती कृति है जो भारत में बौद्ध परम्परा की महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्ज करती है। इसमें बौद्ध परम्परा के प्रति शत्रुता के तीन प्रकरणों का उल्लेख है। पहला एक हिंदू राजा द्वारा, दूसरा एक तुरुष्क राजा द्वारा और तीसरा दो हिंदू तपस्वियों द्वारा। ऐसा लगता है कि पुस्तकालय में आग लगने की घटना के स्रोत के रूप में पेश करने के लिए दूसरे और तीसरे वृतांत को एक साथ बुन दिया गया है।

तारानाथ के वृत्तांत में वर्णित इन तीन प्रकरणों में से शत्रुता का ‘दूसरा’ प्रकरण एक तुरुष्क राजा द्वारा किए गए कार्यों का संक्षिप्त विवरण है:

“धर्मचंद्र के शासनकाल के दौरान, मुल्तान और लाहौर के राजा बान-दे-रो, उर्फ़ ​​खुनी-मा-म्पता, फारसी राजा। काले जादू के उपयोग के प्रति आश्वस्त थे। (दो अवसरों पर गलतफहमी के कारण जो अन्यथा धर्मचंद्र, फारसी राजा के साथ शांतिपूर्ण आदान-प्रदान थे) तुरुष्क सेना द्वारा मगध को नष्ट कर दिया, कई मंदिरों को बर्बाद कर दिया और श्री नालेंद्र को भारी क्षति पहुंचाई। यहां तक कि अभिषिक्त भिक्षु भी भाग गए।”

अगले खण्ड में वाराणसी के राजा बुद्धपक्ष द्वारा श्री नालेंद्र (नालंदा मठ) को पुनर्स्थापित करने का ज़िक्र है और उस फारसी राजा को मार गिराए जाने का भी। शत्रुता का ‘तीसरा’ और अंतिम प्रकरण कुछ ही सालों के अंतराल में उल्लेखित है। तारानाथ के अनुसार, इसका नेतृत्व दो हिंदू तपस्वियों ने किया था:

“राजा के एक मंत्री काकुत्सिद्ध ने श्री नालेंद्र में एक मंदिर बनवाया। इसके अभिषेक के दौरान उन्होंने लोगों के लिए एक महाभोज का आयोजन किया। उसी समय दो तीर्थिक भिक्षा मांगने वहां पहुंचे तो कुछ नटखट युवा श्रमणों ने उन पर गन्दा पानी फेंका, और कपाटों के बीच दबाया और उन पर खूंखार कुत्ते छोड़ दिए। ऐसे बर्ताव से वे दोनों बहुत अपमानित महसूस करते हैं। उनमें से एक अपनी आजीविका की व्यवस्था करते चलता बना जबकि दूसरा बदले की भावना से सूर्य-साधना में लीन हो जाता है।

इस प्रकार, उसने बारह वर्षों के इस प्रयास से मंत्र-सिद्धि प्राप्त की। (फिर,) उसने एक यज्ञ किया और अभिमंत्रित राख को चारों ओर बिखेर दिया। इसके परिणामस्वरूप वहां तुरंत चमत्कारिक रूप से आग लग गई। इसने बुद्ध के सिद्धांत के केंद्रों, सभी चौरासी मंदिरों को खा लिया। आग ने उन ग्रंथों को जलाना शुरू कर दिया जो श्री नालेंद्र के धर्मकोषों में रखे गए थे, विशेष रूप से रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नामक बड़े किताब-मंदिरों में। अन्य स्थानों के कई मंदिरों को भी जला दिया गया था और वे दो तीर्थिक, राजा से दंड की आशंका के कारण, उत्तर में हा-सा-मा (असम) भाग गए।”

तीर्थिक शब्द का प्रयोग तिब्बती बौद्ध ग्रंथों में सामान्य रूप से गैर-बौद्ध धर्म के तपस्वी-अनुयायियों और विशेष रूप से सूर्य पूजा में लगे तपस्वियों के लिए किया जाता है जिन्हें सरलता के लिए हिन्दू तपस्वी समझा जाता है। कालक्रम के अनुसार तारानाथ द्वारा वर्णित ये दोनों बातें छठी शताब्दी के लगभग की घटनाएं रही होंगी। जहां राजा बुद्धपक्ष को राजा विक्रमादित्य या नरसिंहगुप्त बालादित्य के संदर्भ में सुझाया गया है, तुरुष्क राजा खुनी-म-म्पता की पहचान मिहिरकुल के पिता हूण राजा तोरमान से की गई है। यहां तुरुष्क शब्द का प्रयोग एक तुर्की मुसलमान के लिए नहीं बल्कि तोखरी-जन (टोकैरियन) के लिए किया गया है।

तोखरी-जन मध्य एशिया के तरीम बेसिन से सम्बन्ध रखते हैं और समय-समय पर भारत की सीमाओं में इनकी मौजूदगी रही है। अचरज न हो कि कुषाण राजाओं को संस्कृत ग्रंथों में तुरुष्क शब्द से ही संबोधित किया गया है। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि बारहवीं शताब्दी के तुर्की-अफ़गानी खिलजी द्वारा किया गया हमला और उससे कई सदियों पहले का हिंदू सन्यासियों द्वारा पुस्तकालय को जलाया जाना एवं एक तुरुष्क हूण राजा द्वारा किए आक्रमण को एक साथ मिलाकर प्रस्तुत किए जाने का ही नतीजा है कि नालंदा की तथाकथित विध्वंस कथा का सरलीकरण आज एक ऐतिहासिक सत्य मान लिया गया है।

नालंदा के विध्वंस की कथा राजनीतिक और सार्वजनिक स्मृति में

इस्लामी ताकतों द्वारा विध्वंस की कहानी हमेशा भारतीय संदर्भ में दो पक्षों में ली जाती है-पहला, जिसे लोकप्रिय मीडिया में अक्सर दक्षिणपंथी राजनेताओं द्वारा इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच संघर्ष के रूप में पेश किया जाता है; और दूसरा, समकालीन इतिहासकारों द्वारा जिन्हें इन मुठभेड़ों के प्रभाव को कम करने के लिए दोषी ठहराया जाता है। एक इसे दो धार्मिक परंपराओं के बीच शत्रुतापूर्ण मुठभेड़ों के रूप में चित्रित करना पसंद करता है तो दूसरा इसे राजनीतिक कृत्यों के नतीजे बताकर तर्कसंगत बनाने का प्रयास करता है। सोमनाथ मंदिर और बाबरी मस्जिद के आख्यानों के साथ-साथ नालंदा महाविहार की यह विशेष कथा इन दोनो पक्षों के बीच की खाई को और चौड़ा करती नज़र आती है।

एमिनेंट हिस्टोरिअन्स नामक पुस्तक के 2014 के संस्करण में एक जानेमाने दक्षिणपंथी राजनेता अरुण शौरी भारत के इतिहासकारों पर आरोप लगाते हैं और उनके मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों पर प्रहार करते हुए खुद ही इतिहास को विकृत करते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विख्यात इतिहासकार प्रो. डी. एन. झा पर आरोप लगाया कि उन्होंने नालंदा महाविहार में विनाश की कथा को मुसलमानों-बनाम-भारतीय-धर्मों से ब्राह्मणवाद-बनाम-बौद्ध-धर्म में शिफ़्ट कर दिया। झा ने अपने 2006 के भारतीय इतिहास परिषद को दिए गए संबोधन के दौरान ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के बीच धार्मिक संघर्षों के संदर्भ में तारानाथ के तीर्थिकों के उल्लेख का जिक्र किया था।

हाल के दशकों में शिक्षाविदों ने भारत से बौद्ध परम्परा के पतन की व्याख्या करने के लिए प्रमुख तर्क के रूप में ब्राह्मणवाद बनाम बौद्ध संघर्ष पर ज़ोर दिया है। तब निस्संदेह नालंदा महाविहार जैसे उच्चकोटि के मठ के विनाश की कथा इस संदर्भ में फिर सामने आती है। बौद्ध-धर्म के पतन की घटनाओं की बेहतर व्याख्या एक लम्बे शोध का विषय है (इस लेखिका की पीएचडी का लक्ष्य यही है) और परिणाम तब भी असंदिग्ध नही रहेंगे। हालांकि लोकप्रिय इतिहास में प्रसारित होने वाले दो आख्यानों–खिलजी का आक्रमण एवं नालंदा का जलाया जाना–को एक साथ मिलाकर फैलाए जाने में साइट-गाइड्स की भूमिका शायद सबसे महत्वपूर्ण है।

इस लेख के पहले संस्करण (2018) के लिए मैंने आठ ऐसे लोगों से बात की जो नालंदा के स्थल पर पर्यटकों के साथ दैनिक रूप से जुड़ते हैं। उनमें से पांच साइट-गाइड हैं, दो अन्य क्रमशः एक होटल और एक ट्रैवल एजेंसी के मालिक, और एक स्थानीय मंदिर प्रबंधन समिति के प्रमुख थे। जबकि उनमें से पांच जनों को लामा तारानाथ के बखान में तीर्थिकों द्वारा नालंदा के ग्रंथागारों में आगजनी की घटना का बोध था, और साथ ही उन्होंने माना कि बख्तियार खिलजी के बिहार पर आक्रमण के वृतांत में नालंदा का जिक्र नहीं है, केवल तीन ने वास्तव में अपने आगंतुकों को इसके बारे में सूचित करने की परवाह की। बाकियों के लिए यह इस पर निर्भर करता था कि सुनने वाले ‘अतिरिक्त विवरण’ में रुचि रखते हैं या नहीं। उनके शब्दों में, “हर कोई जो कह रहा है उसके साथ जाना आसान है” या “यह आगंतुकों के लिए जटिल हो जाता है… वे सरल आख्यान चाहते हैं।”

हाल ही में जून 2023 में दुबारा साइट-गाइड्स से वार्तालाप करने में मैंने जिनका साक्षात्कार लिया उन्होंने अपने तथ्यों पर कोई संदेह नहीं जताया। दोनों ही बार स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर मुझे साइट पर एएसआइ द्वारा लगाई गई पट्टिका और नालंदा पर व्यापक रूप से मौजूद दो कार्यों की ओर निर्देशित किया गया।

नालंदा पर लिखे गए अन्य कार्यों में ए. घोष और डी. आर. पाटिल के कामों का सबसे व्यापक रूप से वर्णन आता है। घोष ने 1939 और 1965 के बीच ASI के लिए नालंदा पर साइट गाइड के पांच संस्करण तैयार किए। नालंदा के पतन पर उन्होंने खिलजी के अभियान के साथ-साथ तीर्थिक (पग-सैम जॉन-जैंग के लेख से जो तारानाथ के लेख से मेल खाता है) द्वारा आग लगाने की घटना का उल्लेख किया। 1965 के संस्करण में तिब्बती भिक्षु धर्मस्वामी की जीवनी के 1959 के अनुवाद का ज़िक्र करते हुए एक नया भाग जोड़ा गया। यहां धर्मस्वामी के विवरण से लिए गए नालंदा में लूट के असफल प्रयास के साथ-साथ 1235 ईस्वीं में उदन्तपुरी पर तुरुष्क सैनिकों के कब्ज़े का विवरण है। घोष अपने द्वारा उपयोग किए गए स्रोतों के आधार पर कोई निष्कर्ष देने से बचते हैं, हालांकि, एक कथन उनके झुकाव की ओर इशारा करता है- “अंतिम आघात मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा दिया गया, जिन्होंने अपने स्वयं के विवरणों के अनुसार, भिक्षुओं को खदेड़ दिया और उनके मठों को नष्ट कर दिया।”

एएसआइ द्वारा नालंदा पुरातात्विक स्थल पर स्थापित पट्टिका में इसी कथन की व्याख्या की गई है जिसमें लिखा है, “इस महान संस्था का पतन उत्तरी पाल युग में शुरू हुआ था, लेकिन अंतिम आघात लगभग 1200 ईस्वी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण से लगा।” इसके विपरीत, जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया है, पाटिल ने एंटीक्वेरियन रिमेंस ऑफ़ बिहार (1963) में मिन्हाज द्वारा वर्णित स्थल के आधार पर इसे उदन्तपुरी से जोड़ा (वर्तमान बिहारशरीफ़) न कि नालंदा से। इसके साथ ही उन्होंने दोनों स्थलों की वर्तमान जनसांख्यिकी का भी ज़िक्र किया। बिहारशरीफ़ शहर में बड़ी मुस्लिम आबादी है और कई मध्यकालीन/उत्तर-मध्यकालीन संरचनात्मक अवशेष भी हैं। बिहारशरीफ़ तेरहवी शताब्दी से दिल्ली सल्तनत और अन्य मुस्लिम राजवंशों के अधीन भी रहा है जबकि नालंदा के संदर्भ में यह दोनों ही साक्ष्य लागू नहीं होते।

मुख्यतः चार ऐतिहासिक वृत्तांत (तालिका ‘क’) नालंदा के पतन का उल्लेख करते हैं। मिन्हाज और धर्मस्वामी के तेरहवीं शताब्दी के वृत्तांतों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि नालंदा के बजाय उदन्तपुरी के कब्जे का उल्लेख है। सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी के तिब्बती स्त्रोतों में बख्तियार खिलजी के बारहवीं शताब्दी के आक्रमण का कोई उल्लेख ही नहीं हैं। इसके बावजूद हम हर जगह एक ही दावा सुनते हैं–खिलजी ने नालंदा को जलाया और किताबें जलती रहीं। एक सरसरी मूल्यांकन के माध्यम से यह स्पष्ट है कि मिन्हाज का लेख नालंदा के पतन से जुड़े के आख्यानों में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला स्रोत है (तालिका ‘ख’)।

ऐसा इसलिए नहीं है कि तबक़ात-ए-नासिरी का अनुवाद तिब्बती विवरणों से पहले उपलब्ध था। तारानाथ के वृत्तांत का अनुवाद 1868-69 की शुरुआत में किया गया था; उसी वर्ष मिन्हाज के लेख के शुरुआती अनुवाद भी सामने आए। स्पष्ट है कि एक तो तिथिबद्ध कर लिखे गए मिन्हाज के लेख को ऐतिहासिक रूप से बेहतर स्रोत माना गया, दूसरे, इस्लाम से टकराव के चलते बौद्ध धर्म के विनाश की कहानी को सरलता से परोसने का अवसर मिला। जैसा कि मेरे साक्षात्कारों में भी सामने आया है और ऑड्रे ट्रस्के ने भी अपने एक लेख में ज़ोर दिया, बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा की लूट और इसके साथ ही हुआ भारतीय बौद्ध धर्म का पतन एक वह गाथा है जो “कहीं अधिक रोमांचक है और एक बुनियादी मानवीय इच्छा को भी पूर्ण करती है।”

 

 

वेदना और आक्रोश उत्पन्न करने वाली इस प्रभावशाली कथा का विस्तार नालंदा तक ही सीमित नहीं है। यह बिहार-बंगाल में खोजे गए हर दूसरे बौद्ध स्थल की बर्बादी की ‘व्याख्या’ करने वाला एक बहुत ही सुविधाजनक आख्यान बन गया है। चाहे वो तेल्हारा हो, विक्रमशिला हो या सोमपुरा महाविहार। लिखित सुबूत नालंदा से भी कहीं फीके ही क्यों न हों। खिलजी है, हर कोने में गया होगा, सब जला कर खाक करने।

तेल्हारा में शुरुआती खुदाई के विषय में राज्य पुरातत्व के निदेशक को यह दावा करते सुना गया कि वह स्थल “खिलजी द्वारा पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया था… हमें एक फीट गहरी राख की परत मिली, जो इस बात का प्रमाण है कि विश्वविद्यालय बुरी तरह जल गया था।” जलने के निशानों को अक्सर खिलजी की सेना द्वारा लगाई गई आग का सबूत माना लिया जाता है जबकि वे पुरातात्विक श्रृंखला में सदियों पहले के मालूम पड़ते हैं।

सोमपुर के संदर्भ में तो एक ताम्रपत्र से प्राप्त जानकारी में बंगा सेना (वर्मन राजा) द्वारा आग लगाए जाने का जिक्र है। बावजूद इसके ज़ोर केवल खिलजी पर रहता है। बात खिलजी तक भी तो सीमित नहीं रहती। आज के जागते हिंदुओं के गुट नालंदा के जलाए जाने का बदला लेने की बातें करते हैं। इनके निशाने पर न कोई खिलजी है, न कोई तीर्थिक या वर्मन वंश का ही कोई पूत। है तो पूरी एक क़ौम। विस्मय की बात ये है कि तिब्बती लेखों में बाद के तुरुष्कों को मुसलमान कहकर कभी सम्बोधित नहीं किया गया। तत्कालीन भिक्षुओं ने उन्हें एक उद्दंड सेना के रूप में वर्णित किया, वैसे ही जैसे सोमपुर में आग लगाने वाली बंगा सेना को। फिर ऐसा क्यों है कि इन सेनाओं से जुड़ी एक क़ौम बर्बर घोषित हो जाती है पर दूसरी नहीं।

उपरोक्त तथ्यों को सामने लाने में यही कोशिश रही है कि समझा जा सके कि इतिहास को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कैसे मरोड़ा जा रहा है। उस वक़्त आग किसने लगाई थी इसमें उलझाए रखा जा रहा ताकि भीड़ सवाल न करे कि अब अपनी आंखों के सामने आग कौन और किस तर्क से लगा रहा है। नालंदा हो या बिहारशरीफ का उदन्तपुरी, बारहवीं शताब्दी की आगजनी के सबूत अभी तक तो कहीं नहीं मिले पर दूसरी तरफ 2023 में बिहारशरीफ के एक मदरसे में संयोजित ढंग से लगाई गई आग के सबूतों को मिटाने की पूरी प्रक्रिया ज़ोरों से जारी है।

(शाशि अहलवात का यह लेख समयांतर के अगस्त 2023 अंक में छपा है। समयांतर से साभार।)

 

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