अख़बार प्रतिभा के वधस्थल होते जा रहे थे….!

भाऊ कहिन-15

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

 

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ? 

 

ये कड़ी जारी रखते हुए सोचता हूं , यह बहस भी चल ही जानी चाहिये कि आखिर मीडिया को किस तंत्र में काम करना पड़ रहा है । किस इशारे पर उसे किस वर्ग के हितों को प्राथमिकता देनी पड़ रही है ।
हालांकि सब – कुछ बहुत साफ भी हो रहा है ।
इन कड़ियों के जरिये , सिलसिला जो शुरू है
वह अपने ‘ समय ‘ को देख पाने की कोशिश ही है । और इसकी जरूरी शर्त है समय में होना ।

रामेश्वर पाण्डेय ‘ काका ‘ का फोन प्रायः नहीं ही आता है । आज देर रात फोन पर बातचीत में मैंने उन्हें बताया कि यह कड़ी अचानक शुरू हो गयी । नेशनल प्रेस क्लब ( दिल्ली ) में संपादकों – पत्रकारों की जुटान पर 10 जून की उन्हीं की एक टिप्पणी के बाद ।
स्मृतियां , कैसी भी हों , अच्छी – बुरी , बचपन से लेकर अब तक की , कहीं की , मुझपर बहुत मेहरबान रहीं । साथ रहीं । उनकी खोदाई नहीं करनी पड़ी । मुझे बीते किसी काल खंड में सप्रयास या सप्रयत्न नहीं दाखिल होना या झांकना पड़ता है । समय मुझसे बतियाता रहता है और बेचैन भी करता है ।

‘ सोने की रेखा ‘ । आप चाहें तो स्वर्ण रेखा भी कह सकते हैं यदि तत्सम का बहुत आग्रह हो ।
सोना हमारी आदिम कामना भी है । गजब की मादकता भी है उसमें ।
किसी अखबार के प्रबंधन में शीर्ष के एक शख्स ने इसी इलाके में सोने की संम्भावना तलाशने का लाइसेंस , अपने ऊंचे रसूख से हासिल किया ।
यह लाइसेंस एक तय अवधि का होता है । अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते यह शख्स उस लाइसेंस का इस्तेमाल सालों करता रहा ।
सोना होने की प्राबिबिलिटी की खोज किनारे हो गई और दूसरे खनिजों की बेखटक खोदाई जारी हो गयी । खूब कमाई हुई ।
यह काम संस्थान से अलग अपनी एक कम्पनी के जरिये कराया जा रहा था ।
एक उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी के साझे में 250 एकड़ जमीन भी हासिल की गयी ।
इस शख्स के तपते और उत्सर्जित से चिराग़ जलने वाले दिनों में भी इस अखबार में कई भर्तियां हुईं ।
उनकी जो इस प्रभावशाली हस्ती के लॉयल हो सकते थे ।
सर्वाधिक मलाई काटी उन पत्रकारों / ब्यूरो चीफ / विशेष संवाददाताओं ने जो खुद को समाजवादी या कम्युनिस्ट कहते थे ।
तब इस अखबार में एक कहावत चल निकली थी –
तनख्वाह मालिक की और दलाली इस शख्स के लिये ।
मालिक तो दूर , संपादक लोग इसे ही अपना आका समझने लगे थे ।
एक दूसरे अखबार के प्रबंधन का सपना उसी सा बनना है , जिसका जिक्र ऊपर आया है ।
उनका भी क्या दिमाग ?
विभिन्न शहरों की विभिन्न यूनिटें , जो पहले किराये के भवन में थीं , उनके लिए जमीन हासिल करने या खरीदने में बड़े खेल हुये । किराये की बिल्डिंग खाली करने / छोड़ने के लिये भारी रकम ली गयी । शहर में कहीं संस्थान के लिये उस रकम के आधे से जमीन खरीद ली गयी । बचे पैसे में कुछ ‘ चखने ‘ भर का संपादक को भी दे दिया ।
कभी संपादक आहत हुआ तो उसने यह बात मालिक तक भी पहुंचाई ।
संपादक ने लूट के दूसरे रास्ते निकाले , लेकिन उसकी सीमा थी । अखबार अब पूरी तरह प्रबंधन चला रहा था ।
संपादक , प्रबन्धन और मालिक , दो पाट के बीच पिसते रहने को अभिशप्त था । अपने हीनता बोध को जीतने की कोशिश वह सहकर्मियों को त्रस्त करके , करता था । अखबार प्रतिभा का वधस्थल होते जा रहे थे । जो हलाल होने से बचे हैं तय है दलाल हैं ।

*********

टीवी पर आँख गड़ाए संपादकों को छपे शब्दों पर भरोसा नहीं रहा

 

राज्य संपादक के कमरे में भी टीवी थी और वह कोई रीजनल न्यूज चैनेल आंख गड़ाये देखते रहते थे ।
कभी – कभी केबिन के बाहर चिंतातुर आते –
अरे …. फलां खबर चला रहे हैं , अपने पास आयी है ?
फिर न्यूज रूम में हड़बड़ी मच जाती थी ।
बाकी समय या तो मोबाइल पर बात या कम्प्यूटर पर ताश ..।
हिन्दी अखबारों की टीवी पर निर्भरता या उससे स्पर्धा , कब से शुरू हुई , यह ठीक – ठीक नहीं बता सकता ।
लेकिन उनका छपे शब्दों या कंटेट पर से भरोसा उठता गया और वे भी सारी उत्तेजनाओं का द्वार पाठक की आंख को बनाने लग गये ।
अनावश्यक शोख रंगों का चपर – चपर हद तक और अतार्किक ढंग से कई -कई फोटूओं का इस्तेमाल होने लगा । संपादक को लगता था कि यही बिकेगा । अखबारों के लुक पर इतनी अधिक मेहनत होने लगी कि संवेदनात्मक , विश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक पहलू किनारे पड़ते गये । जो मुद्रण की पत्रकारिता की ताकत थी ।
इन हिंदी अखबारों को इससे कम मतलब था कि पढ़ा क्या जायेगा , वे रंग और लुक का विलास जी रहे थे ।
अखबार तो पिटने लगा लेकिन उनका वर्ग चरित्र बदल गया ।
दूसरे कई संपादकों की आज की शानदार जिंदगी और वैभव के पीछे खनन और खान , उड़ाई गयी कहानी नही है । खांटी दस्तावेजी तो नहीं लेकिन , इसके दूसरे सुसंगत साक्ष्य तो मेरे पास अभी भी हैं ।
किसी के खनन माफियाओं से रिश्ते हैं और कोई खानों के ही पैसे से किसी विशाल साम्राज्य में पार्टनर है ।
जिसे शादी के तुरन्त बाद एक रमणीक पर्वतीय स्थल पर जाने के लिये स्टेट प्लेन उपलब्ध कराया गया ।
मजीठिया की संस्तुतियों का लाभ तमाम बदहाल पत्रकारों को मिल सकेगा या नहीं , इससे इनका क्या लेना -देना?

*********

पैसे की हाय-हाय ने लंपटों को संपादक बनाया !

 

प्रधान संपादक के साथ बहुत फैसलाकुन , बहुत स्पंदित बैठकों में बीते 4 – 5 सालों के दरम्यान , केवल एक जुबान खुलती थी । बाकी , स्टेट हेड हों या सीनियर समाचार संपादक , उनकी आत्मा पर पत्थर और जुबान पर ताला लगा होता था ।

वो जुबान जो कैद , इनकार करती थी , काटी तो नहीं जा सकती थी । इस शख्स की नकल उतारी जाने लगी । मजाक बनाया जाने लगा ।

नहीं कुछ तो , इतनी सजा , जो शीर्ष प्रबंधन दे सकता था , उन्हें मिली ।
कुछ को बहुत सुकून मिला जब उन्हें सेवा विस्तार नहीं मिला ।
लेकिन वे खुश थे क्योंकि कुचक्रों , साजिशों की अलकापुरी अब उन्हें रास भी नहीं आ रही थी । वे तरुणाई से चरचराती जवानी के दिनों और उसके बाद तक पॉलिटिकल एक्टिविस्ट थे । राजनीति सजग , हमेशा कुछ हिन्दी अखबारों की बड़ी दिक्कत रहे ।

80 के दशक के बाद तो किसी संस्थान में ऐसे लोगों के प्रवेश तक पर अघोषित प्रतिबंध लग गया ।
वह लखनऊ में मेरी पहली रिपोर्ट थी ।
उस समय जयप्रकाश शाही या नवीन जोशी का लिखा आकर्षित करता था । नवीन जोशी जी के लिखे ‘ पीस ‘ की हर दूसरी पंक्ति अपनी गहन कलात्मक अभिव्यक्ति का वहन करती , कविता हो जाती थी । हालांकि वह जय प्रकाश शाही की तरह के पॉलिटिकल एक्टिविस्ट ( गोरखपुर के उनके दिनों की तरह ) थे या नहीं , कह पाना मुश्किल है । वह पहाड़ से हैं और शाही जी मैदान से थे ।
मेरी रिपोर्ट पर पत्रकारों के एक नेता और एक सीनियर आइएएस का फोन आया । संपादक से कहा गया — … दो बातें हैं । पता करिये .. । पहली यह कि रिपोर्टर पूर्वी उत्तर प्रदेश का लगता है , दूसरा यह कि किस आंदोलन से उसका जुड़ाव रहा है ?
संपादक ने मुझसे पूछा था — …. तुम कम्युनिस्ट हो क्या ?
— मैंने कहा , समाजवादी युवजन सभा का कार्यकता रहा … ( यह नहीं बताया कि बांयी ओर ज्यादा ही झुका हुआ )

दरअसल आजादी के बाद जिसने होश संम्भाला , वह कुछ मायनों में विखंडित और विरूपित पीढ़ी या लोग थे । यह अपनी स्थापना और प्रतिस्थापना के रोड डिवाइडर पर खड़ी पीढ़ी थी । उसने युगसंधि देखी । यह संक्रमण का काल था ।
फिर 70 के दशक में नियति के शिनाख्त की छटपटाहट तेज हुई । साहित्य और राजनीति में भी ।
अधकचरी समझ का मीडिया यह न दर्ज कर सकता था , न उसने किया । तीसरा बड़ा संक्रमण काल था 1990 से अबतक ।

1990 – 92 , राजनीति की दिशा , देश की पूंजीगत संरचना और इसीलिये हिन्दी अखबारों के कंटेट के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण काल है । इस संक्रमण में हिन्दी अखबार अपनी दशा – दिशा तय ही नहीं कर सके लिहाजा लंपटई का प्रभुत्व बढ़ता गया । संपादक संस्था का पतन हो गया और प्रबंधन की पैसे के लिये हाय -हाय ने लंपट सम्पादक चुनने शुरू किये । हम यह भी कह सकते हैं कि हिन्दी अख़बारों ने अपनी भूमिका और दायित्व का निर्वाह ही नहीं किया ।

अगर कुछ लोग खनन माफियाओं के जरिये और कुछ पट्टे पर मिली खान के जरिये अकूत कमा रहे हैं , या कमा चुके हैं तो इससे किसी को आघात नहीं लगना चाहिये । एक दो पत्रकारों को जानता हूं जिनके मॉल बन रहे हैं । पत्रकारिता ने अपनी दिशा तय कर ली है ।
जारी…

भाऊ कहिन-14कभी हिंदी के पास राजेंद्र माथुर थे, अब मछली खिलाकर संपादक हो जाते हैं !

First Published on:
Exit mobile version