प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। एक बार फिर हम ये शृंखला छाप रहे हैं ताकि आरएसएस के बारे में किसी को कोई भ्रम न रहे। पेश है इसकी दूसरी कड़ी जो 30 जून 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म-2
आरएसएस का यह कहना एकदम सही है कि जब अपना देश सभी गुणों से युक्त है, तो विदेशियों के सम्मुख हिन्दू बार-बार अपमानित क्यों हुए? इस सवाल का जवाब उसने दिया भी है. पर जवाब ठीक नहीं है. अगर हमारा देश सभी गुणों से युक्त होता, तो उसे बार-बार अपमानित होना ही नहीं पड़ता और वह मुसलमानों तथा अंग्रेजों का गुलाम भी नहीं बनता. लेकिन अगर, बकौल आरएसएस, भारतवासी विदेशियों से बार-बार अपमानित हुए, और गुलाम बने, तो स्पष्ट है कि अपना देश उन गुणों से युक्त नहीं था, जो देशवासियों को सम्मान की ओर ले जाता, और मुसलमानों तथा अंग्रेजों का गुलाम बनाने से रोकता. तब यह क्यों न माना जाए कि हमारे देश में कमजोरियां थीं? अब सवाल यह है कि वे कमजोरियां क्या थीं ? आरएसएस उन कमजोरियों को बताना नहीं चाहता और उन पर जानबूझकर पर्दा डालता है. इसका कारण यह है कि वे कमजोरियाँ उस हिन्दूधर्म की हैं, जिसे वह हिन्दुत्व का नाम देकर राष्ट्रवाद की राजनीति कर रहा है. अब जिस हिन्दूधर्म को आधार बनाकर वह राजनीति कर रहा है, उसमें वह खोट कैसे देख सकता है? इसलिए, वह यह स्वीकार करना नहीं चाहता कि वर्णव्यवस्था और जातिभेद के कारण ही देश को अपमानित और गुलाम होना पड़ा.
लेकिन यह बहुत हैरतअंगेज और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि आरएसएस ऊँच-नीच का विरोधी होने के बावजूद वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन करता है. प्रमाण के लिए यहाँ गुरूजी नाम से विख्यात आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर के विचारों को देखना जरूरी है. वह ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का समर्थन करते हुए कहते हैं—
‘ब्राह्मण उसका सिर है, राजा हाथ है, वैश्य जांघ है और शूद्र पैर हैं. इसका अर्थ है कि जिनके यहाँ ये चार वर्णों की व्यवस्था है, वही हिन्दू हमारे भगवान हैं. ईश्वर के बारे में ऐसी सर्वोच्च धारणा ही राष्ट्र की हमारी अवधारणा की अंतर्वस्तु है.’ (वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, 1939, पृष्ठ 36)
यह कितना दिलचस्प है कि आरएसएस के दर्शन में वर्णव्यवस्था ईश्वर की सर्वोच्च धारणा है, और यही वर्णव्यवस्था उसके हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा है. गोलवलकर के ये शब्द देखिए–
‘जातिव्यवस्था की सभी बुराइयां आज की तुलना में (उस काल) में कम नहीं थीं, और इसके बावजूद हम एक विजयी वैभवशाली राष्ट्र थे. क्या जातिप्रथा के बंधन, अशिक्षा की समस्या आदि आज की तरह ही सख्त नहीं थी, जब शिवाजी महाराज की अगुआई में हिन्दू राष्ट्र के महान उभार का यह देश साक्षी था.’ (वही, पृष्ठ 62)
लेकिन आरएसएस के लिए अगर वह आज भी गौरवशाली हिन्दू राष्ट्र है, तो उसका पतन क्यों हुआ? उसके पतन पर लोगों को खुशी क्यों हुई ? ऐसा नहीं है कि लोगों को शोक नहीं हुआ हो, जरूर शोक हुआ होगा. पर वे शोकाकुल लोग ब्राह्मण ही रहे होंगे, जिनका प्रभुत्व खत्म हो गया था. लेकिन, आरएसएस के नेता यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वर्णव्यवस्था के तहत निम्न वर्गों और स्त्रियों को अधिकार-विहीन रखने के कारण ही हिन्दू अपमानित और गुलाम हुए. वे बराबर यही राग अलाप रहे हैं कि हिन्दू सामाजिक संवेदना, राष्ट्रीय भावना और कर्तव्यबोध से अनुप्राणित नहीं थे, इसलिए अपमानित हुए. क्या वर्णव्यवस्था हिन्दुओं में ये तीनों चीजें पैदा करती है? क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-अतिशूद्र की सामाजिक संवेदना एक जैसी हो सकती है? क्या उनके सुख एक जैसे हो सकते हैं? क्या शूद्र-अतिशूद्र के दुःख ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के दुःख हो सकते हैं? और क्या इनमें से कोई भी सब में पराधीन स्त्री की वेदना को अनुभव करता है? क्या वर्णव्यवस्था में कोई भी वर्ण संवेदना के स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ा है? क्या उसमें हिन्दुत्व या राष्ट्रत्व को पैदा करने का कोई तत्व है? क्या आरएसएस के नेता बताएंगे कि वर्णव्यवस्था में लोगों को बंधुता की भावना से जोड़ने वाला कौन सा गुण सूत्र है?
आरएसएस का कोई भी नेता इन सवालों का जवाब हाँ में नहीं दे सकता. जिस अंतिम पेशवा शासक बाजीराव के काल में सूखा और अकाल में भी लगान न देने वाले किसानों के बच्चों पर खौलता हुआ तेल डाल दिया जाता था, उन किसानों और उनके जले हुए बच्चों में कौन सी सामाजिक संवेदना और राष्ट्रीय भावना पैदा हो सकती थी? जिस हिन्दू राज में अकाल के दौरान ब्राह्मणों की मदद करने के सिवा सारी आम आबादी को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया हो, उस आबादी में जो लोग जिंदा बच गए होंगे, उनकी सामाजिक संवेदना और राष्ट्रीय भावना क्या हो सकती थी? वे किस कर्तव्यबोध से हिन्दुत्व के प्रति अनुप्राणित हो सकते थे? इसे आज के हवाले से भी समझा जा सकता है कि गाय और गोमांस के नाम पर आरएसएस का फैलाया हुआ जो जूनून दलितों और मुसलमानों की बर्बरतापूर्वक हत्याएं कर रहा है, क्या वे समुदाय हिन्दुत्व से जुडेंगे ? क्या उनमें कोई राष्ट्रीय भावना पैदा होगी? और क्या हिंसा फ़ैलाने वाले हिन्दू उनकी सामाजिक संवेदना में हो सकते हैं?
शिवाजी ने जिस हिन्दू राष्ट्र की बुनियाद डाली थी, उसमें निम्नवर्गों और स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था. यह अधिकार अंग्रेजों ने ही पहली बार जनता को दिया था. वह मराठा साम्राज्य अंग्रेजों के अधीन आते ही मजबूत होना शुरू हुआ था. 1813 के चार्टर के अंतर्गत पहली बार शिक्षा को राज्य का विषय बनाया गया था, उससे पहले शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी नहीं थी. केवल ब्राह्मण और राजकुमार ही पढ़ा करते थे. अत: कहना न होगा कि आरएसएस जिस हिन्दू राष्ट्र की परिक्ल्पना पर काम कर रहा है, उसमें यह स्पष्ट नहीं है कि वह राष्ट्र दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? इसीलिए डा. आंबेडकर ने कहा था कि हिन्दू राज को रोकना होगा, क्योंकि वह वर्णधर्म वाला ब्राह्मण-राज ही हो सकता है, जो लोकतंत्र विरोधी होगा.
लेकिन आरएसएस की दृष्टि में जातिवाद अवगुण नहीं है, बल्कि गुण है, जो हिन्दुत्व को मजबूत बनाता है. उसके अनुसार जाति के कमजोर होने से ही राष्ट्र कमजोर होता है. राष्ट्र से मतलब यहाँ देश से नहीं समझ लेना चाहिए, जिसका आरएसएस भ्रम फैलता है, वरन राष्ट्र का मतलब हिन्दू कौम से है, जो जातिव्यवस्था के मजबूत होने से मजबूत और कमजोर होने से कमजोर होती है. देखिये, गोलवलकर क्या कहते हैं—
‘हम इतिहास के तौर पर जानते हैं कि हमारे उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्व के इलाके, जहां बौद्ध धर्म के प्रभाव ने जातिव्यवस्था को कमजोर किया था, आसानी से मुस्लिम आक्रमण का शिकार हुए. लेकिन दिल्ली के वे इलाके जो जाति बन्धनों के मामले में बेहद रूढ़िवादी और सख्त माने जाते थे, कई सदियों तक मुस्लिम सत्ता और कट्टरतावाद का किला बने रहने के बावजूद, मुख्यत: हिन्दू बने रहे.’ (एन. एल. गुप्ता, आरएसएस एंड डेमोक्रेसी, पृष्ठ 17)
इससे साफ़ समझा जा सकता है कि जातिव्यवस्था का खंडन करने वाला बौद्ध धर्म आरएसएस के लिए राष्ट्र को कमजोर करने वाला धर्म है. निश्चित रूप से यह एक बेहूदा तर्क है, जिसका इतिहास से भी कुछ लेनादेना नहीं है. आरएसएस का दिमाग सिर्फ इस बात में चलता है कि इलाके और लोग हिन्दू बने रहें, चाहे किसी रूप में बने रहें– वे अपनी स्त्रियों को जलाते रहें, दलितों के साथ अमानुषिक अत्याचार करते रहें, हिन्दू परम्पराओं का पालन करते रहें, मतलब यह कि ब्राह्मणवादी बने रहें. दरअसल ऐसे पिछड़े हुए हिन्दू ही आरएसएस के मतलब के हैं, जो उसके शिकंजे में आसानी से आ जाते हैं. आरएसएस ऐसे हिन्दुओं को जातिव्यवस्था से जोड़े रखने के लिए पिछड़ा ही बनाकर रखना चाहता है. इसलिए ऐसे पिछड़े हिन्दुओं को राष्ट्र के नाम पर गीता, रामायण और वेदों के प्रचार में गर्व की अनुभूति होती है, और वे मुस्लिम धर्म और संस्कृति के खिलाफ आसानी से आक्रामक होकर खड़े हो जाते हैं. जिन दिल्ली के इलाकों के हिन्दू बने रहने पर गोलवरकर गदगद थे, वे इलाके अब हरियाणा तक आते हैं, जहां हम देख सकते हैं कि वे सामाजिक संवेदना के स्तर पर कितने पिछड़े हुए हैं. लेकिन आरएसएस के लिए यह ही कच्चा माल है.
यही कारण है कि आरएसएस के इन मनपसंद इलाकों में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ ज्यादा होती हैं. आरएसएस इन घटनाओं को नकारता है, इसलिए उनकी निंदा नहीं करता है, बल्कि समय-समय पर आरक्षण के खिलाफ बयान देकर हिन्दुओं को दलितों के खिलाफ और भी उत्तेजित करता है. बीती सदी में नवें दशक में और उसके बाद जो देशभर में दलित-विरोधी हिंसा हुई, उसमें आरएसएस के इसी जातिवाद का हाथ था.
( जारी……)
पिछली कड़ी-