रोज़ा लक्‍जमबर्ग: दुनिया के मजदूर आंदोलन में ऐतिहासिक शहादत के 100 साल

रोजा लक्जमबर्ग की आज से कोई 100 साल पहले 15 जनवरी 1919 को हत्या कर दी गई थी

विद्यार्थी चटर्जी

20वीं सदी में समाजवादी विचार और आंदोलन का सबसे अहम चेहरा रही रोजा लक्जमबर्ग की आज से कोई 100 साल पहले 15 जनवरी 1919 को हत्या कर दी गई थी। आज यूरोपीय सर्वहारा वर्ग की महानतम नेता के बारे में नए सिरे से हर दिन संधान किया जा रहा है। उनके लिखे को गंभीरता से लिया जा रहा है और दुनिया भर में विद्वान और शोधार्थी उनके काम पर अब चर्चा कर रहे हैं। समाजवादी संघर्षों में उनके द्वारा किए गए सैद्धांतिक योगदान और व्यावहारिक कदमों का नए सिरे से आकलन किया जा रहा है। प्रकाशन प्रतिष्ठानों की ओर से रोजा लक्जमबर्ग के राजनीतिक लेखन पर नई किताबें और संस्करण निकालने में काफी दिलचस्पी दिखाई जा रही है।

रोजा लक्जमबर्ग, जिन्हें अपने जीवन काल में या तो बहुत प्‍यार किया गया या जिन से नफरत की गई, उनके बारे में नए सिरे से पैदा हुई दिलचस्पी की एक वजह जर्मन फिल्म निर्देशक मार्गरेट वान ट्रोटा की बनाई एक फिल्म है जिसमें रोजा को ‘’त्रासद आंदोलनकारी, भीषण वक्ता और शांति की योद्धा’’ के विशेषणों से नवाजा गया है। आज से कोई 30 साल पहले यह फिल्म कान फिल्म समारोह में दिखाई गई थी। तब से लेकर अब तक कई लोगों ने इस समाजवादी शहीद की जिंदगी और दौर के बारे में अपनी दिलचस्पी को ताजा करने के लिए इस फिल्म का सहारा लिया है, जिन्होंने अपने जीते जी एक प्रसिद्ध वाक्य कहा था, “लोकतंत्र के बिना समाजवाद बर्बरता की ओर ले जा सकता है”। तीस और चालीस के दशक में स्‍तालिनवादी सत्‍ता द्वारा जो अतियां की गईं, उस संदर्भ में यह उद्धरण एक चमत्‍कारिक पूर्वानुमान की तरह हमारे सामने उपस्थित होता है।

यह फिल्म 1898 से 1919 के बीच जर्मनी की पृष्ठभूमि पर आधारित है जिसमें एक राजनीतिक पत्रकार और बुद्धिजीवी, लेखक और शिक्षक, सिद्धांतकार और वक्ता के रूप में रोजा के उभार को दर्शाया गया है। इस फिल्म में पोलैंड और जर्मनी में रोजा को कई बार हुई कैद की सजा काबिल जिक्र है। यह वह दौर था जब यूरोप का ज्यादातर हिस्सा राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर हिंसा की चपेट में आ चुका था जबकि रोजा इन सबके बीच शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते दंडित की जा रही थी। फिल्म का अंत 15 जनवरी 1919 को होता है जब कम्युनिस्ट नेता और अपने आंदोलनकारी साथी कार्ल ल लिबनिखत के साथ रोजा की गिरफ्तारी होती है और उन्हें एक होटल में ले जाया जाता है जहां उनकी काफी पिटाई होती है। इसके बाद उन्हें 10 सीट से हुए एक कार में ले जाया जाता है। कार चल पड़ती है तो उनके सिर में गोली मार दी जाती है। गोली लगते वक्त रोजा के आखिरी शब्द थे- गोली मत चलाना! जाहिर है यह शब्द वर्दी धारी सनकी लोगों से कहे जा रहे थे जिनका मानना था की गोलियां ही इतिहास बनाते हैं। बाद में उनकी लाश एक महल से बरामद की गई जहां उसे फेंक दिया गया था।

मार्गरेट का मानना है कि रोजा ने कभी भी एक स्त्री के बताओ और अपनी भूमिका को नहीं त्यागा और यही तत्व फिल्म की कुंजी है। रेड रोजा यानी लाल रोजा को एक ऐसे उदार व्यक्तित्व के तौर पर पेश किया गया है जिसे फूलों से, पौधों से और जानवरों से खासकर अपनी बिल्ली मिमि से बहुत प्यार था।

उसके दोस्तों और आंदोलनकारी साथियों की माने तो यही शख्स अपनी मान्यताओं और मांगों के मामले में बहुत ठोस और निर्दय था। एक और रोजा की सार्वजनिक छवि है जो काफी मुखर है तो दूसरी ओर उसके निजी जीवन के शांत क्षण हैं जहां उसे कभी अपने अध्ययन कक्ष में अकेले बैठा, कभी जेल की कोठरी में तो कभी यातना गृह में अपने किसी साथी से मिलते हुए दिखाया गया है। फिल्म में मुहावरों के साथ मौन का ऐसा सम्मिश्रण है जो मिल कर भावनाओं का एक जाल रचता है। यह अति मानवीय है और इसीलिए बेहद विश्वसनीय भी है।

जागीर है रोजा की इस किस्म की छवि के प्रदर्शन से कुछ आलोचकों को दिक्कत हुई होगी। यह मानते हुए की रोजा पर कोई फिल्म बहुप्रतीक्षित थी और यह भी स्वीकार करते हुए कि मार्गरेट की फिल्म में कुछ महीने विवरण छूट गए होंगे, एक आलोचक की शिकायत थी- एक राजनीतिक ऐतिहासिक पोट्रेट के बतौर यह फिल्म अपर्याप्त है, इसलिए नहीं की इसमें पृष्ठभूमि काफी विस्तारित है बल्कि इसलिए कि इसमें रोजा की छवि को अतिरिक्त मानवीय और हिंसा रहित दिखाया गया है। यह दरअसल एक सेमी पोट्रेट है यानी एक बेहद अंधेरे पृष्ठभूमि के आलोक में महज एक धुंधली छवि। मार्गरेट ने फिल्म में जिस तरह भावनाओं को तरजीह दी है वह दिखाता है कि वह एक राजनेता की छवि को दर्शाने में असमर्थ हैं।

यह लेखक हालांकि इस बात को मानने को तैयार नहीं किस फिल्म में रोजा की जिंदगी को कम करके या ज्यादा भावनात्मक रूप से दिखाया गया है। दरअसल इस फिल्म के बहाने इतिहास को खुद अपनी कहानी कहने देने का मौका दिया गया है, वह इतिहास जो अपने विरोधाभासी रंगों और दिशाओं को साथ लेकर चलता है। एक और उपलब्धि वाली बात यह है कि निर्देशक ने सचेतन रूप से यह फैसला लिया किस फिल्म में निरंतर नायिका की सार्वजनिक छवि और निजी जीवन एक दूसरे के साथ अतिक्रमण करते हुए चलें, खासकर जब नायक जीवन से भी वृहत्तर हो और समय बुरी तरह विकृत।

इस संदर्भ में एक और बिंदु पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। एक माध्यम के तौर पर फिल्म की प्रकृति चाहे जैसी भी हो, यह बात बहसतलब है कि क्या किसी निर्देशक के लिए ज़रूरी है कि वह अपने विवादास्‍पद विषय के साथ समग्र बरताव करे या फिर ऐसी इच्‍छा करना भी क्‍या उसके लिए ठीक होगा। एक निर्देशक अपनी कलात्‍मक, बौद्धिक और राजनीतिक प्राथमिकताओं के आधार पर ही फिल्‍म का सूत्रीकरण करता है। इसके चलते फिल्‍म को वह एक खास कोण देता है, उसमें एक पूर्वग्रह होता है, एक पक्षपात भी होता है और चीजों की निजी व्‍याख्‍या समाहित होती है। इसका उसे पूरी तरह अधिकार है। इस अधिकार से उसे वंंचित नहीं किया जा सकता।  वॉन ट्रोटा ने इतिहास या रोजा की जिंदगी के अहम आयामों को विकृत नहीं किया। उन्‍होंने बस एक विनम्र शैली में प्रतिवाद किया है कि रोजा के भीतर के शांतिप्रिय या आंदोलनकारी नेता को बेहतर तब समझा जा सकता है यदि उसके महिला पक्ष के संदर्भ में हम उसे देखने की कोशिश करें, खासकर तब जब वह पक्ष सार्वजनिक निगाह से दूर होता है।

रोज़ा के लिखे कोई 2500 पत्र पढ़ने के बाद मार्गरेट ने तय किया कि जिस महिला को दुनिया भीषण आंदोलनकारी के रूप में जानती है, उसके कोमल स्‍त्रीपक्ष को उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए। इन पत्रों में अकसर एक काव्‍यात्‍मकता होती थी जिसके अक्‍स में निर्देशक ने अपने विषय को मानवीय छवि प्रदान की। वह मानवीय छवि, जिसने अमन चैन से लेकर मजदूरों के सरेाकारों पर खुद को न्‍योछावर कर डाला। जो समग्र पोर्ट्रेट सामने आया, वह मर्मस्‍पर्शी था। वह चेतना को जगाता है और दिमाग को झकझोर देता है। वह आश्‍वस्‍त करता है। दर्शक को ध्‍यान के एक ऐसे सफर पर ले जाता है जहां उहापोह और संदेहों का सम्मिश्रण निश्‍चयवाद और निष्‍कर्षों पर भारी पड़ता है।

रोज़ा के समर्थक उन्‍हें रेड रोज़ा कहते थे। लाल रंग में वे बेहतर दिनों का सपना देखते थे। जो उन्‍हें पसंद नहीं करते, वे उन्‍हें ब्‍लडी रोज़ा कहते थे। इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता था क्‍योंकि रोज़ा तो युद्ध की भयंकर विरोधी थीं। फिल्‍म में उन्‍हें सार्वजनिक स्‍थलों और निजी बैठकों में शांति की बात करते हुए कई बार दिखाया गया है। वे शिद्दत से इस बात को मानती थीं कि मजदूर वर्ग के अधिकार बिना गमन-चैन के हासिल नहीं किए जा सकते।

रोज़ा लक्‍जमबर्ग एक ऐसे जंगजू की काव्‍यात्‍मक कृति हैं जिन्‍होंने अपनी आस्‍थाओं के लिए अपनी जान दे दी। इतना ही अहम यह है कि वे एक ऐसी स्‍त्री का पोर्ट्रेट हैं जो अपनी समूची वयस्‍क जिंदगी में जितना ज्‍यादा प्रेम को तलाशती रही उतना ही सामाजिक न्‍याय को भी। एक अदद घर, एक पति, एक बच्‍चे की तो उन्‍हें चाहत हमेशा से रही लेकिन वे साथ ही एक ऐसी बेहतर दुनिया चाहती थीं जहां उनका बच्‍चा उन्‍हीं की तरह एक प्‍यारे और जिम्‍मेदार वयस्‍क के रूप में बड़ा हो सके।  

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