महान उपन्यासकार प्रेमचंद ने स्त्री शिक्षा और विवाह पर ये विचार 1933 में व्यक्त किये थे। यानी लगभग 80 साल पहले। तब भारत न आज़ाद हुआ था,न संविधान लागू हुआ था और न समाज स्त्रियों को फ़ैसला लेने की आज़ादी देता था (अब भी कहाँ देता है!) प्रेमचंद की यह आधुनिक न्यायदृष्टि उन्हें समकालीनों से तो अलग करती ही है, इसकी वजह से आज भी वे लेखन की एक कसौटी और चुनौती बने हुए हैं।
दरअसल,किन्ही सज्जन ने जो अपनी बेटी की शादी को लेकर मुसीबत झेल रहे थे , प्रेमचंद को अपनी समस्या बताई और उनसे सलाह मांगी. प्रेमचंद ने उन सज्जन को जो सलाह दी वह निम्नवत है जो ‘विविध प्रसंग’ में एक दुखी बाप शीर्षक से छपा है:
“हमें तो इसका एक ही इलाज नजर आता है और वह यह है कि लड़कियों को अच्छी शिक्षा दी जाय और उन्हें संसार में अपना रास्ता आप बनाने के लिए छोड़ दिया जाय, उसी तरह जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं . उनको विवाहित देखने का मोह हमें छोड़ देना चाहिए और जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं. और जैसे युवकों के विषय में हम उनके पथ भ्रष्ट हो जाने की परवाह नहीं करते, उसी प्रकार हमें लड़कियों पर भी विश्वास करना चाहिए. तब यदि वह गृहिणी जीवन बसर करना चाहेगी, तो अपनी इच्छानुसार अपना विवाह कर लेंगी, अन्यथा अविवाहित रहेंगी. और सच पूछो तो यही मुनासिब भी है. हमें कोई अधिकार नहीं है कि लड़कियों की इच्छा के विरुद्ध केवल रूढ़ियों के गुलाम बनकर, केवल इस भय से कि खानदान की नाक न कट जावे, लड़कियों को किसी न किसी के गले मढ दे. हमें विश्वास रखना चाहिए, कि लड़के अपनी रक्षा कर सकते हैं, तो लड़कियां भी अपनी रक्षा कर लेंगी.”
(अप्रैल 1933, विविध प्रसंग, खंड तीन, पृष्ठ 260)
पुनश्च: हिंदी के प्रख्यात आलोचक Virendra Yadav जी का आभार कि यह पत्र खोजकर उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया, जिस पर यह टिप्पणी आधारित है। इसे अधिकाधिक प्रसारित करने की ज़रूरत है क्योंकि दुखी बापों को आज तक उपाय समझ नहीं आया है। प्रेमचंद इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि वे ठोस सवालों से ठोस तरीक़े से टकराते हैं और ठोस उपाय सुझाते हैं।उनके बेटे अमृत राय द्वारा संपादित ‘विविध प्रसंग’ में दर्ज उनकी टिप्पणियाँ, पत्र और संपादकीय बेहद मूल्यवान हैं।प्रेमचंद अपने ज़माने के बेहद महत्वपूर्ण पत्रकार भी थे। अंग्रेज़ी राज में ‘जागरण’ में छपने वाले उनके संपादकीय साहस और दृष्टि की मिसाल हैं।