भयाक्रांत समाज में मूर्तियों के शिल्प से शक्ति पाता अंधविश्वास !

समय और चित्रकला ‘ शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह  आठवीं कड़ी पहली बार 7 जून 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी।  कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की  यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार यह शृंखला लगातार दस दिन तक प्रकाशित होगी- संपादक।

चित्रकला और मूर्तिकला के जन्म से लेकर उसके समकालीन स्वरूप तक पहुँचने की कहानी कई मायनों में धर्मसत्ता द्वारा मनुष्य की अभिनव कल्पनाशीलता का अपने स्वार्थ में ‘इस्तेमाल’ करने की कहानी है। पाश्चात्य देशों में धर्म और चित्रकला का बहुत पुराना रिश्ता रहा है, वहीं भारत में यह रिश्ता मूर्तिकला के साथ ज्यादा विकसित होते देखा गया। भारत में रोगों के निदान के लिए महाविष्णु के अवतार धन्वन्तरि की पूजा की जाती रही है। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन से धन्वन्तरि पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। कमलासीन देवता धन्वन्तरि ने अपने चार हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, अमृत कलश और औषधि धारण किया है ( चित्र 1)। कई चित्रों में धन्वन्तरि को ‘आयुर्वेद’ हाथ में लिए देखा जाता है। धन्वन्तरि के ज़्यादातर मंदिर दक्षिण भारत में मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय घरों में दीपावली के पहले ‘धनतेरस’ के दिन इनकी विशेष पूजा होती है। आधुनिक काल में हालाँकि धनतेरस को रोग मुक्ति की जगह ‘धन’ प्राप्ति के उद्देश्य से मनाया जाता है और आँकड़ों के अनुसार पिछले कई वर्षों से धनतेरस में औसतन लगभग 40 टन सोना खरीदा जाता है। भारत सरकार के आयुष ( आयुर्वेद ,योग , प्राकृतिक चिकित्सा , यूनानी , सिद्ध और  होमियोपैथी ) मंत्रालय ने धनतेरस को ‘धन्वन्तरि जयंती’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

(चित्र-1)

भारत में सैकड़ों वर्षों से उपयुक्त चिकित्सकों के अभाव के साथ ही लगभग एक वार्षिक चक्र के रूप में बड़े पैमाने पर मौसमी रोगों का आना जाना लगा रहा है। समय समय पर इन मौसमी रोगों ने छोटी बड़ी महामारियों का रूप भी धारण किया। ऐसे में देवताओं की पूजा आराधना के साथ साथ झाड़-फूँक और नीम-हक़ीमी आदि का भी खूब बोलबाला रहा। इस प्रकार धर्म का हाथ थामे अवैज्ञानिकता और नियतिवाद ने समाज में अपने प्रभाव का विस्तार किया। यहाँ पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों की प्रमाणिकता और उपयोगिता पर हम बात नहीं कर रहे हैं। निरक्षर और असहाय जनता की बड़ी बिरादरी के लिए पुरोहितों द्वारा देव-देवियों की मूर्तियों और देवालयों का निर्माण करवाया गया। पिछली शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक बीमारियों के उपचार के लिए पूजा-उपवास-कुर्बानी आदि का कोई विकल्प नहीं था। भारत के विभिन्न प्रांतों में चेचक और हैजा से रक्षा करने के लिए ‘माता शीतला’ ( देखें मुख्य चित्र, लेख के प्रारंभ में) की पूजा  की जाती रही।  शीतला की कल्पना दुर्गा के अवतार के रूप में की गयी है जिन्होंने ‘ज्वारासुर’ नामक असुर का वध किया था। माता शीतला की प्रतिमा में देवी का वाहन गधा है और उन्हें साधारण वस्त्रों और सीमित अलंकारों में ही दिखाया जाता है। चेचक, हैजा आदि रोगों से बचने के लिए उत्तर और पूर्वी भारत में शीतला माता की पूजा होती है। ‘शीतला माता की  आरती’ , ‘शीतला महिमा’ और ‘शीतला चालीसा’ जैसे प्रकाशनों के माध्यम से जहाँ आम जनता में शीतला माता की क्षमताओं का व्यापक प्रचार हुआ वहीं सत्रहवीं शताब्दी में मानिकराम गंगोपाध्याय द्वारा रचित ‘शीतला मंगल काव्य ‘ ने इस देवी की महिमा को व्यापक जन समाज तक पहुँचाया। ‘शीतला मंगल काव्य’ धर्म द्वारा अपने स्वार्थ हेतु चित्रकला और मूर्ति कला के साथ साथ साहित्य के इस्तेमाल का एक  महत्वपूर्ण उदाहरण है। निरक्षर जनता के बीच प्रचार के लिए विशेष रूप से साहित्य के काव्य रूप को ही चुना गया ताकि अधिक से अधिक जन इसे सहज कण्ठस्थ कर सकें और वाचिक परंपरा के माध्यम से इसका व्यापक विस्तार संभव हो सके।

दक्षिण भारत में शीतला माता की ही तरह ‘मरियम्मन ‘ देवी की पूजा होती है।  ‘मरियम्मन’ चटख रंग के वस्त्रों में अनेक आभूषणों से सुसज्जित देवी हैं, जिनके हाथों में त्रिशूल आदि अस्त्र भी हैं। त्रिशूल और देवी मरियम्मन को एक साथ पहली शताब्दी के दौरान चोल साम्राज्य में बनी एक बेहद कल्पनाशील मूर्ति (देखें चित्र 3) में देखा जा सकता है। आज भी मरियम्मन की दस दिनों तक चलने वाली पूजा के समय तमिलनाडु के कई स्थानों पर शोभायात्रा निकाली जाती है।

(चित्र-3)

लम्बे समय से भारत के वैश्विक वाणिज्य में सिल्क रुट या रेशम मार्ग की बड़ी भूमिका रही है।  इसी मार्ग के जरिये चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम के बीच व्यापार और सभ्यताओं का विनिमय सम्भव हो सका। यही रेशम मार्ग कई महामरियों के फैलने के कारण के रूप में भी इतिहास में चर्चित रहा है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में उत्तरी-पश्चिमी भारत के बौद्ध मतावलम्बियों के बीच चेचक- प्रकोप के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। गांधार क्षेत्र में  बौद्ध देवी ‘हरीती’ की मूर्ति ( देखें चित्र 4 ) मिली है, जिसकी पूजा महामारियों से बचने के लिए की जाती थी। हरीती के बारे में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार हरीती राजगीर ( बिहार ) में रहने वाली एक राक्षसी थी जिसके पाँच सौ संतानें थीं। हरीती अपने बच्चों को ही खा जाया करती थी। भगवान् बुद्ध के प्रभाव में आने के बाद यही राक्षसी ‘बच्चों को रोगों से बचाने वाली’ और ‘महिलाओं में सहज प्रसव को संभव कराने वाली’ देवी में रूपांतरित हो गयी। आगामी समय में हरीती की पूजा पूरे दक्षिण एशिया में होने लगी थी। उत्तर प्रदेश के मथुरा, ओडिशा के रत्नागिरी, बिहार के सरन बांग्लादेश के राजशाही, महाराष्ट्र के अजंता, औरंगाबाद और एलोरा के साथ साथ आन्ध्र प्रदेश के कई स्थानों में हुए पुरातात्त्विक उत्खनन से हरीती की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। धर्म के साथ साथ मूर्तियों का निर्माण और मूर्तियों के साथ साथ विश्वास और अंध विश्वास आदि के उदाहरण रोगों से रक्षा करने वाले सभी देवी देवताओं के मामले में मिलते हैं। इतिहासकार अल्फ्रेड फूशे ने 1915 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘नोट्स ऑन एन्सिएंट जियोग्राफी ऑफ़ गांधार’ में पेशावर के एक हरीती स्तूप का वर्णन किया है जहाँ की मिट्टी को ताबीज़ बनाकर हिन्दू और मुस्लिम संप्रदाय की महिलायें अपने बच्चों को पहनाती हैं ताकि चेचक आदि रोगों से उनकी रक्षा हो सके।

(चित्र-4)

इस उदाहरण को किसी धार्मिक उदारता के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि यह शुद्ध रूप से एक भयाक्रांत समाज के बीच धर्म की आड़ में फैलाया गया अंधविश्वास है.

बौद्ध देवियों में हरीती के अलावा ‘पर्णशबरी’ (या पार्णशबरी) की पूजा विशेष रूप से संक्रामक रोगों से बचने के लिए भारत, तिब्बत और चीन आदि देशों में होती रही है। बांग्लादेश से प्राप्त, पर्णशबरी की पाल कालीन (दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी) पत्थर की मूर्ति ( देखें चित्र 5 ) चूँकि कहीं से भी खंडित नहीं है इसलिए इससे हमें पर्णशबरी की मूर्ति के लक्षणों के बारे में स्पष्ट जानकारी मिलती है। इस मूर्ति में पर्णशबरी के तीन सिर और छह हाथों के साथ साथ उनका वाहन ‘विघ्न’ भी मूर्ति के आधार पर उपस्थित है। पुराण में कई स्थानों पर ‘विघ्न’ का उल्लेख गणेश के रूप में भी  मिलता है।

(चित्र-5)

पर्णशबरी की एक और मूर्ति कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में प्रदर्शित है ( देखें चित्र 6 )। इस खंडित मूर्ति में देवी के तीन सिर और छः हाथ हैं। इनके हाथों में तीर-धनुष और अन्य अस्त्रों के अलावा एक हाथ में पत्तों का एक गुच्छा और दूसरे हाथ में रस्सी से बना एक ‘फंदा’ (पाश) दिखाई देता है।


(चित्र-6)

महामारियों और संक्रामक रोगों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी अनिश्चतता और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव ने मनुष्य को बार बार नियतिवादी और अंधविश्वासी बनाया है। कई बार असहाय जन अपनी धार्मिक सीमाओं को तोड़कर दूसरे धर्म के देवी देवताओं को पूजते भी रहे हैं। सतही तौर पर यह भले ही ‘उदारता’ लगे, किन्तु वास्तव में हम ये देखते हैं कि ‘विश्वास’ जहाँ धर्मों की सीमाओं में आबद्ध रहता है वहीं महामारी और अन्य आपदाओं के दौर में मनुष्य के अंदर वह ‘अंधविश्वास’ के रूप में बाहर आता है। आधुनिक होना वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न और प्रगतिशील होना है। अतीत के अँधेरों में लौटते हुए हमें किसी ‘दृष्टि’ की आवश्यकता नहीं पड़ती है और इसीलिये प्रायः हम अंधविश्वास और विश्वास में फर्क करना भूल जाते हैं। हज़ारों वर्षों से धर्म के जरिये स्वार्थ सिद्ध करने वाले शासकों का काल्पनिक मिथकों को विश्वसनीय इतिहास में बदलने का प्रयास रहा है। इस प्रयास में अनेकानेक धार्मिक कथाओं को रचा गया और फिर उन कथाओं से जुड़ी मूर्तियों का निर्माण किया गया। देवालयों में उसकी पूजा की निरंतरता को बनाये रखने के लिए असंख्य विधि-विधान-स्तोत्र-मन्त्र बने और किसी एक धर्म के मतावलंबियों ने दूसरे धर्म के लोगों से घृणा करना सीखा। इसलिए हमें ये देखकर आश्चर्य नहीं होता कि विश्व में प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों में जितनी संख्या में लोग मरते रहे हैं उससे कहीं ज्यादा बड़ी तादाद में मनुष्य के हाथों मनुष्य का संहार हुआ है।



अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।

जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह आठवीं कड़ी है। पिछली कड़ियाँ आप नीचे के लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

 

पहली कड़ी  धर्म, महामारी और चित्रकला !

दूसरी कड़ी- महामारियाँ और धार्मिक चित्रों में मौत का ख़ौफ़ !

तीसरी कड़ी- महामारी के दौर मे धर्मों और शासकों का हथियार बनी चित्रकला !

चौथी कड़ी- धर्म, मृत्युभय और चित्रकला : पीटर ब्रॉयगल का एक कालजयी चित्र

पाँचवीं कड़ी- महामारी में यहूदियों के दाह का दस्तावेज़ बनी चित्रकला !

छठवीं कड़ी – अपोलो का ‘प्लेग-कोप’, पंखों वाला मृत्युदूत और चोंच वाला डॉक्टर !

सातवीं कड़ी-  मध्ययुगीन चित्रों में दर्ज महामारी और वैज्ञानिक अनुसंधान



 

 

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