उमा भारती के घर में रखा बम फटा तो ‘हमराज़’ रिपोर्टर ने दबाव के बावजूद नहीं लिखा आतंकी हमला !

(पिछले दिनों दिल्ली दहलाने आये आतंकी शीर्षक से अख़बारों में तमाम सुर्खियाँ छपीं। न्यूज़ चैनलों का तो पूछना क्या ! न कहीं ‘कथित ‘या ‘पुलिस का दावा ‘  जैसी बात,  ख़बरों का अंदाज़ ऐसा मानों समाचार देने वाले ही जज हैं और उन्होंने फैसला कर दिया। बाद में इस मामले में पकड़े गये 10 मुस्लिम लड़कों को छोड़ दिया गया, लेकिन कोई माफ़ी माँगने को तैयार नहीं है। क्राइम रिपोर्टिंग पुलिस की ‘पुड़िया ‘को अंतिम सत्य बताकर पेश करता है बिना इस बात की परवाह किये कि समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा। बहरहाल, पत्रकारिता हमेशा ऐसी नहीं थी। मशहूर पत्रकार और स्तंभकार पंकज चतुर्वेदी ने अपनी फ़ेसबुक दीवार पर लिखा है कि कैसे छतरपुर में रिपोर्टिंग के दौरान उन्होंने उमा भारती के घर रखे बम के गरमी से फटने की ख़बर लिखी थी। भारती से उनके अच्छे रहे रिश्ते ख़राब हो गये लेकिन अगर वे आतंकी हमला लिख देते तो समाज में तनाव फैल जाता। पढ़िये पंकज जी का यह संस्मरण और मौजूदा क्राइम रिपोर्टिंग की हालत पर माथा पीटिये ! )

“आज शाम ”राज्‍य सभा” टीवी चैनल पर उर्मिलेश जी Urmilesh Urmil का कार्यक्रम मीडिया मंथन  देख रहा था, आतंकवादियों की गिरफ्तारी के बारे में रिपोर्टिंग पर. सच लगता है कि अधिकांश्‍श मीडिया संस्‍थान महज पुलिस या खुफिया एजेंसियों के अॉन या ऑफ द रिकार्ड ब्रीफिंग का मोहरा बन गए हैं, अन्‍वेषण या सवाल उठाने से या तो परहेज है या डर या निजी हिंत या फिर और कुछ. मामला मालेगांव धमाकों का है ना तो जब मुस्लिम युवक पकडे गए तब और ना ही जब प्रज्ञा व पुरोहित गिरफ्तार हुए और ना ही अब एनआईए के यू-टर्न पर, किसी ने कोई सवाल ही नहीं पूछा, कोई अपनी खोज या साक्षात्‍कार किए नहीं, अभी पंद्रह दिन पहले जिन लेागों को आईएस, सिमी, हिजबुल और दिल्‍ली को दहलाने वाले कह कर खूब खबरें छापीं, उनमें से 10 को पुलिस ने ही छोड दिया. लेकिन ऐसी खबरें छापने वालेां को कोई शर्म नहीं आई कि उन्‍होंने कुछ गलती की थी.

यहां 90 के दशक की एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा, उन दिनों मैं दैनिक जागरण झांसी का छतरपुर रिपोर्टर था लेकिन अखबार का पसंदीदा रिपोर्टर होने के कारण ”बुंदेलखंड की डायरी नामक साप्‍ताहिक कालम भी करता था.यही मई की गरमी के दिन थे, 45 तापमान वाले, अचानक खबर आई कि टीकमगढ में उमा भारती के घर बम फट गया. उन दिनों मेरे उमा भारत से बेहद करीबी संबंध थे, वे अपने दिल की भी कोई बात करना चाहती थीं तो मुझे बुला कर कर लेती थी. हमारे पास तो स्‍कूटर भी नहीं होता था, दोस्‍तों से निवेदन किया हम कुछ पत्रकार छतरपुर से 100 किलोमीटर दूर टीकमगढ के लिए एक जीप से गए. उन दिनेां सचार के साधन या टीवी चैनल के जमाने थे नहीं, टीकमगढ में एंटिना नहीं केबल के जरिये दूरदर्शन आता था. वरिष्‍ठ अफसरान से भी पहले हम वहां पहुंचे. घर खुला हुआ था, तसल्‍ली से ढेर सरे फोटो बनाए.जो देखा, जो बातचीत की, कुछ फारेंसिक एक्‍सपर्ट से बात की , हालात बताए और पूरे एक पेज की रपट बनाई कि विस्‍फोटक घर के भीतर ही रखा था जो 47 तापमान में फट गया, उसके वैज्ञानिक कारण भी लिखे.

उमाजी व उनके करीबी नाराज हो गए कि मैंने ऐसा क्‍यों लखिा, मेरी रपट को जागरण के सभी संस्‍करणों ने उठाया. मुझसे पूछा कि तुमने तो उमाजी को नाराज कर दिया. मेरा जवाब था कि यदि मैेने मर्जी के मुतााबिक यह लिखा होता कि यह संभावित आतंकवादी हमला है या ऐसा ही कुछ है, उप्र के किसी कस्‍बे, शहर में इसे पढ कर यदि तनाव या दंगा हो जाता तो उसका दोषी मैं ही होता. छह मीहने बाद उसकी सीआईडी जांच रिपोर्ट आई व लगभग उसमें वही वैज्ञानिक तथ्‍य थे जो मैंने लिखे थे, हालांकि उसके बाद उमाजी से मेरे संबंध वैसे नहीं रहे.

उन दिनों गूगल बाबा नहीं था संदर्भ सामग्री के लिए ईमेल तो था ही नहीं, हाथ से लिखकर बस से लिफाफा भेजा जाता था, लेकिन हमारे सभी साथी दिनेश निगम त्‍यागी, रवीन्‍द्र व्‍यास, राकेश शुक्‍ला, श्‍याम अग्रवाल आदि एक छोटी सी खबर के लिए खुद मौके तक जाते, उस पर काम करते.  दुखद है कि आज पूरी अखबारनवीसी प्रेसनोट या पीआर पर चल रही है, काश किसी ने पहले की व आज की चार्जशीट पर सवाल किए होते, काश यह पता किया होता कि यदि पहले हेमंत करकरे ने पुरोहित के घर आरडीएक्‍स रखवाया था तो वह आया कहां से था और आरडीएक्‍स अवैध रूप से अपने पास रखना आतंकवादी गतिविधि माना जाता है तो क्‍या करकरे आतंकवादी कानून के तहत मुजरिम हो सकते हैं. यह जान लें कि पुलिस या जांच एजेंसी की खबरों को कई बार शब्‍दश: छापने की प्रवृति समाज में तनाव, अविश्‍वास और टकराव पैदा करती है।

बहस में पत्रकार विनोद शर्मा ने अपने अनुभव साझा किए तो अमोद कंठ ने बताया कि उनकी सीबीआई में उपनियुक्ति के दौरान राजीव गांधी हत्‍याकांड की गुत्‍थी सुलझाने में किस तरह अखबारों से मदद मिल थी, वकील श्री खान ने भी पुलिसिया ब्रीफ को खबर के तौर पर छापने के खतरों पर प्रकाश डाला. कम से कम नए पत्रकारों, मीडिया संस्‍थानों को वह बहस जरूर देखना चाहिए.”

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