दलित-आदिवासियों की मूल समस्याओं की चिंता न चर्च को है, न मंदिर को!

डॉ.आंबेडकर ने भारत के स्वतंत्र होने के भी 9 साल के बाद 1956 में हिन्दू धर्म छोड़ा था. और उन्होंने उस बौद्धधर्म का पुनरुद्धार किया, जिसे शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र तीनों ने भारत से खदेड़ दिया था, और जो आरएसएस के मार्ग का भी सबसे बड़ा रोड़ा है. उन्होंने बौद्धधर्म का पुनरुद्धार करके हिन्दू राष्ट्र को जो चुनौती दी है, आरएसएस असल में उसी से तिलमिलाया हुआ है.

प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी  चौदहवीं कड़ी जो 1 सितंबर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 


आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–14

 

दलित समाज और ईसाई मिशनरी-

 

 

5.

डा. विवेक आर्य आगे लिखते हैं—

         ‘इस चरण में ईसाई मिशनरियों द्वारा श्रीराम चन्द्र के स्थान पर सम्राट अशोक को बढ़ावा दिया गया. राजा अशोक को मौर्य वंश का सिद्ध कर दलितों का राजा प्रदर्शित किया गया और राजा राम को आर्यों का राजा प्रदर्शित किया गया. इस प्रयास का उद्देश्य श्रीराम आर्यों के विदेशी राजा थे और अशोक मूलनिवासियों का राजा था, ऐसा भ्रामक प्रचार किया गया.’ (द.आ.प., पृष्ठ 29)

यहाँ आरएसएस का यह लेखक कितना बड़ा झूठ खड़ा कर रहा है. खुद भ्रामक प्रचार कर रहा है, और दोष ईसाई मिशनरियों को दे रहा है.  अक्ल के दुश्मन को मिथक और इतिहास में अंतर दिखाई नहीं दे रहा है. श्रीराम एक मिथक है, जो एक महाकाव्य रामायण के पात्र हैं. श्रीराम नाम का राजा भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ. मिथकों में भी श्रीराम दलितों के राजा नहीं हैं, और दलित भी उन्हें अपना राजा नहीं मानते हैं. हिन्दू मिथक के अनुसार श्रीराम विष्णु के अवतार थे, जो रामायण और रामचरितमानस के अनुसार गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिए पृथ्वी पर आए थे. इसलिए मिथकों में भी वह ब्राह्मणों के राजा थे. वह समस्त आर्यों के भी राजा नहीं थे. किन्तु सम्राट अशोक मिथक नहीं है, वह इतिहास की वास्तविक घटना है. निस्संदेह, अशोक दलितों के राजा नहीं हैं, और दलितों ने उन्हें अपना राजा माना भी नहीं है. फिर भी अशोक का साम्राज्य समतावादी था. किन्तु हाँ, वह अन्य हिन्दू राजाओं की तरह ब्राह्मणों का भक्त और पिछलग्गू नहीं था. उसने संस्कृत की जगह प्राकृत भाषा को अपनी राजभाषा बनाया था. उसने यज्ञ और पशुबलि को बंद कर दिया था. और ब्राह्मण धर्म की जगह बौद्धधर्म को राजधर्म बनाया था. क्या यही वजह नहीं है कि आरएसएस अशोक को अपना दुश्मन मानता है? फिर वह ईसाईयों को नाहक बदनाम क्यों कर रहा है?

 

डा. विवेक आर्य ने आरएसएस के एक और झूठ को इन शब्दों में व्यक्त किया है—

भारतीय इतिहास में बुद्ध मत के अस्त काल में तीन व्यक्तियों का नाम बेहद प्रसिद्ध रहा है. आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र शुंग. इन तीनों का कार्य उस काल में देश, धर्म  और जाति की परिस्थिति के अनुसार महान तप वाला था.’ (द.आ.प., पृष्ठ 30)

सवाल यह है कि इन तीनों महान तप वाले व्यक्तियों के बारे में दलितों को क्यों बताया जा रहा है? इनका दलितों से क्या सम्बन्ध बनता है, जो सफाई दी जा रही है? शंकराचार्य ब्राह्मण था, कुमारिल भट्ट ब्राह्मण था और पुष्यमित्र भी ब्राह्मण था. इनका अगर कोई महत्व है, तो ब्राह्मणों के लिए होना चाहिए. इनमें से कोई भी दलित वर्ग से नहीं था. इनमें से किसी का भी दलित जातियों के विकास में कभी कोई योगदान नहीं रहा. वे तीनों महातपी उस बौद्धधर्म के विनाशक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं, जिसने एक बड़े स्तर पर दलित जातियों को दीक्षित किया था.

 

  डा. आर्य आगे लिखते हैं—

‘ईसाई मिशनरी ने हिन्दू समाज से सम्बन्धित त्योहारों  को भी नकारात्मक प्रचार से प्रचारित करने का एक नया प्रपंच किया. उनको (दलितों को) कट्टर बनाने के लिए उनको भड़काना आवश्यक था. इसलिए ईसाई मिशनरियों ने विश्वविद्यालयों में हिन्दू त्योहारों और उनसे सम्बन्धित देवी-देवताओं के विषय में अनर्गल प्रलाप आरम्भ किया. इस षड्यंत्र का एक उदाहरण लीजिए. महिषासुर दिवस का आयोजन दलितों के माध्यम से कुछ विश्वविद्यालयों में ईसाईयों ने आरम्भ करवाया. इसमें शोध के नाम पर यह प्रसिद्ध किया गया कि काली देवी द्वारा अपने से अधिक शक्तिशाली मूलनिवासी राजा के साथ नौ दिन तक पहले शयन किया किया. अंतिम दिन मदिरा के नशे में देवी ने शूद्र राजा महिषासुर का सर काट दिया.’ (वही, पृष्ठ 31)

कितना आश्चर्यजनक है कि जिस ब्राह्मण सत्ता ने सारी क्रांतियों को ठिकाने लगा दिया हो, वह ईसाई मिशनरियों से हार जाएगी. क्या यह विश्वास करने योग्य है कि जिस ब्राह्मण सत्ता ने बौद्धधर्म जैसे विशाल पहाड़ को अपने रास्ते से हटा दिया हो, वह ईसाईयों के आगे बेबश हो जाएगी? क्या हिन्दू इस बात से इनकार कर सकते हैं कि होली, दीवाली, दशहरा और नवरात्र आदि कोई भी त्योहार नरसंहारों का जश्न नहीं है? क्या वे बतायेंगे कि जिन व्यक्तियों के संहार की कहानियाँ इन त्योहारों की पृष्ठभूमि में सुनाई जाती हैं, वे कौन लोग थे? और उन्हें क्यों मारा गया था? अवश्य ही वे मनुष्य उनके धर्म और विचारों के शत्रु थे, जो उन्हें मारा गया?  अगर वे उनके समर्थक होते, तो देवी-देवता उनकी हत्याएं क्यों करते? आखिर, हिंदुत्व को महिषासुर शहादत दिवस से आपत्ति क्यों है? अगर इससे उनकी भावनाएं आहत होती हैं, तो क्यों होती हैं? आरएसएस को इसका सच बताना चाहिए. क्या भावनाएं सिर्फ हिन्दुओं की ही होती हैं? दलितों की भी भावनाएं आहत होती हैं. वे क्यों नहीं बताते कि महिषासुर कौन था? और क्यों दुर्गा ने उसकी हत्या की थी? उसने क्या बिगाड़ा था हिन्दुओं का? आज अगर दलित वर्ग के शोधकर्ता इस सच को सामने ला रहे हैं, और महिषासुर से अपनी जातीय भावनाएं जोड़ रहे हैं, तो यह ईसाई मिशनरियों का कृत्य कैसे हो गया? क्या महिषासुर ईसाई था, जो ईसाई मिशनरी दलितों को भड़काने का कृत्य कर रहे हैं? क्या आरएसएस ईसाई मिशनरी की आड़ लेकर सच पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं कर रहा है? अगर दलितों की शोध गलत है, तो सच क्या है? इसे आरएसएस के लोग क्यों नहीं बताते? कभी सोचा आरएसएस ने कि दुर्गा पूजा, होली, दिवाली से दूसरे वर्गों की भावनाएं भी आहत हो सकती हैं? क्या सच का सारा ठेका आरएसएस के पास ही है?

यह गौरतलब है कि अगर हिन्दू त्योहारों के बारे में ईसाई मिशनरी नकारात्मक प्रचार कर रहे हैं, तो कायदे से उस ईसाई मिशनरी का नाम भी स्पष्ट कीजिए, उसकी किताब का नाम बताइए, जिसमें उसने यह नकरात्मक प्रचार किया है. भारत में हिन्दू देवी-देवताओं का पहला तार्किक अध्ययन महात्मा जोतिबा फुले ने किया था, और वह ईसाई नहीं थे. अवतारों और देवताओं पर उनकी ‘गुलामगिरी’ किताब 1873 में लिखी गई थी. इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण अध्ययन डा. आंबेडकर ने ‘रिडिल्स ऑफ हिन्दूइज्म’ में हिन्दू देवताओं और मानव-रक्त की प्यासी देवियों के बारे में किया था. वे भी ईसाई नहीं थे. इस किताब में सारे उद्धरण वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों और पुराणों से दिए गए हैं. आंबेडकर की जयजयकार करने से पहले, उनकी किताबें भी पढ़नी चाहिए, और उन सवालों के जवाब भी देने चाहिए, जो उन्होंने हिन्दुओं की आँखों में आँखें डालकर पूछे हैं? डा. विवेक आर्य जी आरएसएस के रट्टू तोता मत बनिए, कुछ अपनी अक्ल भी लगाइए.

पर वह रट्टू तोता ही हैं. वह वही राग अलापते हैं, जो आरएसएस अलापता आ रहा है. इसलिए वह आगे कहते हैं–

‘भारत जैसे देश में दलितों के साथ हुई कोई साधारण घटना को भी इतना विस्तृत रूप दे दिया जायेगा, मानो सारा हिन्दू समाज दलितों का सबसे बड़ा शत्रु है. हम दो उदाहरणों के माध्यम से इस खेल को समझेंगे. पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई चर्च का बोलबाला है. रियांग आदिवासी त्रिपुरा राज्य में पीढ़ियों से रहते आये हैं. वे हिन्दू वैष्णव मान्यता को मानने वाले हैं. ईसाईयों ने भरपूर जोर लगाया, परन्तु उन्होंने ईसाई बनने से इनकार कर दिया. चर्च ने अपना असली चेहरा दिखाते हुए रियांग आदिवासियों की बस्तियों पर अपने ईसाई गुंडों से हमला करना आरम्भ कर दिया. वे उनके घर जला देते, उनकी लड़कियों से बलात्कार करते, उनकी फसल बर्बाद कर देते. अंत में कई रियांग ईसाई बन गए. कई त्रिपुरा छोड़कर असम में निर्वासित जीवन जीने लग गए. पाठकों ने कभी चर्च के इस अत्याचार के विषय में नहीं सुना होगा. क्योंकि सभी मानवाधिकार संगठन, एनजीओ, प्रिंट मीडिया, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं ईसाईयों के द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संचालित हैं.’ (वही, पृष्ठ 32-33)

अगर ईसाई गुंडे रियांग आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए उन पर अत्याचार कर रहे थे, और इस कारण से कुछ रियांग आदिवासी ईसाई बन भी गए, तो क्या यह समझा जाय कि आरएसएस के गुंडे भी इसलिए दलित जातियों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनकी फसलें जला रहे हैं, उनके घरों में आग लगा रहे हैं, और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं कि वे हिन्दू फोल्ड में आ जाएँ और उसमें से निकलने की जुर्रत न करें? अब रहा यह सवाल कि सारे ‘मानवाधिकार संगठन, एनजीओ, प्रिंट मीडिया, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं ईसाईयों के द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संचालित हैं’, तो यह तो सीधे-सीधे भारत सरकार पर आरोप है. आज भारत सरकार पूरी तरह आरएसएस के नियन्त्रण और संचालन में है. वह इस पर कार्यवाही कर सकता है. वह इन सब संस्थाओं को आरएसएस के नियन्त्रण और संचालन में काम करने के लिए क़ानून बनाने का दबाव सरकार पर बना सकता है. अब समझ में आया कि आरएसएस धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का विरोधी क्यों है? क्योंकि वह सम्पूर्ण देश में अपना एकछत्र राज चाहता है.

 

  डा. विवेक आर्य दूसरा उदाहरण यह देते हैं–

‘इसके ठीक उलट गुजरात के ऊना में कुछ दलितों को गोहत्या के आरोप में हुई पिटाई को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे उठाया गया, जैसे इससे बड़ा अत्याचार तो दलितों के साथ कभी हुआ ही नहीं है. रियांग आदिवासी भी दलित हैं. उनके ऊपर जो अत्याचार हुआ, उसका शब्दों में बखान करना असंभव है. मगर गुजरात की घटना का राजनीतीकरण कर उसे उछाला गया. इस प्रकार से चर्च अपने सभी काले कारनामों पर सदा पर्दा डालता है और अन्यों की छोटी-छोटी घटनाओं को सुनियोजित तरीके से मीडिया के द्वारा प्रयोग कर अपने  ईसाईकरण का कार्यक्रम चलाता है. इसके लिए विदेशों से चर्च को अरबों रुपया हर वर्ष मिलता है.’ (वही, पृष्ठ 33)

देश-विदेश से अरबों रुपया तो आरएसएस को भी हर वर्ष मिलता है. और उसी धन से वह अपनी सारी गतिविधियों का संचालन करता है. उसकी गतिविधियाँ भी चर्च की तरह ही चल रही हैं. सिर्फ नाम का फर्क है. उधर चर्च है, तो इधर मन्दिर है. उधर सफ़ेद है, तो इधर भगवा है. बाकी सारी गतिविधियाँ समान हैं. अगर चर्च का काम ईसाईकरण करना है, तो मन्दिर का काम हिन्दूकरण करना  है. और दोनों ही दलित-आदिवासियों का आसान शिकार कर रहे हैं. वर्चस्व की इस लड़ाई में दलित-आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं पर न चर्च चिंता करता है, और न मन्दिर.

डा. विवेक आर्य ने एक जगह लिखा है कि डा. आंबेडकर पर ईसाई धर्म अपनाने के लिए अंग्रेजों का भारी दबाव था. किन्तु वह इस दबाव में नहीं आए. अगर वह दबाव में आकर ईसाई बन जाते, तो हर भारतीय भारतीय नहीं रहता. वह विदेशियों का आर्थिक, मानसिक और धार्मिक रूप से गुलाम बन जाता. (द.आ.प., पृष्ठ 33)

डा. आर्य यहाँ भी झूठ गढ़ रहे हैं. अगर उन पर ईसाई धर्म अपनाने के लिए अंग्रेजों का दबाव होता, तो वह 1935 में ही ईसाई बन गए होते, जब उन्होंने कवीठा गाँव में दलितों को स्कूल जाने से रोकने के लिए उन पर ढाए गए हिन्दुओं के जुल्मों के विरोध में हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा की थी. वह 21 साल तक इंतज़ार नहीं करते. उन्होंने भारत के स्वतंत्र होने के भी 9 साल के बाद 1956 में हिन्दू धर्म छोड़ा था. और उन्होंने उस बौद्धधर्म का पुनरुद्धार किया, जिसे शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र तीनों ने भारत से खदेड़ दिया था, और जो आरएसएस के मार्ग का भी सबसे बड़ा रोड़ा है. उन्होंने बौद्धधर्म का पुनरुद्धार करके हिन्दू राष्ट्र को जो चुनौती दी है, आरएसएस असल में उसी से तिलमिलाया हुआ है.

(आगे जारी ‘राष्ट्रीय आन्दोलन और संघ’ पर चर्चा करेंगे)

 


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